Friday, January 14, 2011

Naada Bharama((शब्द-ब्रह्म))

नाद-ब्रह्म (शब्द-ब्रह्म)
ब्रह्माण्डीय चेतना एवं सशक्तता का उद्गम स्त्रोत कहाँ है? इसकी तलाश करते हुए तत्त्वदर्शी-ॠषि अपने गहन अनुसंधानों के सहारे इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं, कि यह समस्त हलचलें जिस आधार पर चलती हैं, वह शक्ति स्रोत ‘शब्द’ है। अचिन्त्य, अगम्य, अगोचर, परब्रह्म को जगत चेतना के साथ अपना स्वरूप निर्धारित करते हुए ‘शब्द-ब्रह्म’ के रूप में प्रकट होना पड़ा। सृष्टि से पूर्व यहाँ कुछ नहीं था। कुछ से सब कुछ को उत्पन्न होने का प्रथम चरण ‘शब्द-ब्रह्म’ था, उसी को ‘नाद-ब्रह्म’ कहते हैं। उसकी परमसत्ता का आरम्भ-अवतरण इसी प्रकार होता है, उसके अस्तित्व एवं प्रभाव का परिचय प्राप्त करना सर्वप्रथम शब्द के रूप में ही सम्भव हो सका।
यह विश्व अनन्त प्रकाश के गर्भ में पलने वाला और उसी की गोदी में खेलने वाला बालक है। ग्रह-नक्षत्रों का, निहारिकाओं का, प्राणी और पदार्थो का निर्वाह इस आकाश की छत्र-छाया में ही हो रहा है। सृष्टि से पूर्व आकाश ही था, आकाश में ऊर्जा में हलचलें उत्पन्न हुई। हलचलें सघन होकर पदार्थ बन गयी। पदार्थ से पंचतत्व और पंचप्राण बने। इन्हीं के सम्मिश्रण से विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ बनी और प्राण बने। सृष्टि के इस आरम्भ क्रम से आत्मविज्ञानी और भौतिक विज्ञानी प्रायः सभी समान रूप से सहमत हो चले।

शब्द का आरम्भ जिस रूप में हुआ उसी स्थिति में वह अनंतकाल तक बना रहेगा। आरम्भ शब्द ‘ओउम्’ माना गया है। यह कांस्य पात्र पर हथौड़ा पड़ने से उत्पन्न झन्झनाहट या थरथराहट की तरह का प्रवाह है।

घड़ियाल पर लकड़ी की हथौड़ी मारकर आरती के समय जो ध्वनि उत्पन्न की जाती है, उसे ‘ओंकार’ के समतुल्य माना जा सकता है। ‘ओ’ शब्द का आरम्भ और उसके प्रवाह में अर्थ अनुस्वरों की श्रृंखला जोड़ दी जा सकती है। ‘ओ’ शब्द का आरम्भ और उसके प्रवाह में अर्थ अनुस्वरों की श्रृंखला जोड़ दी जाये तो यही ‘ओउम्’ बन जायेगा। उसके उच्चारण का स्वरूप समझाते हुए ‘ओ’ शब्द के आगे ३ का अंक लिखा जाता है। तदुपरान्त आधा ‘म्’ लिखते हैं। ३ का अंक लिखने का अर्थ है उसे अपेक्षाकृत अधिक जोर से बोला जाये हृस्व, दीर्घ, प्लुत के संकेतों से ३ गुनी शक्ति से बोले जाने वाले अक्षर को प्लुत कहते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि ‘ओ’ शब्द को सामान्य की अपेक्षा तीन गुनी क्षमता से बोला जाये, तदुपरान्त उसके साथ अर्ध ‘म्’ की अर्धबिन्दु अर्ध अनुस्वरों की एक कड़ी जोड़ दी जाये, यही ‘ओउम्’ का उच्चारण है। ‘ओ,३,म्’ इन तीनों का संक्षिप्त प्रतीक स्वरूप ‘ॐ’ के रूप में लिखा जाता है। यही वह स्वरूप है जिसका सृष्टि आरम्भ के लिए उद्भव हुआ और उसी की पुनरावृत्ति परा प्रकृति के अन्तराल में यथावत् होती आ रही है।

शब्द ब्रह्म प्रकृति और पुरूष का मध्यवर्ती सम्बन्ध सूत्र है। इस पर अधिकार होने से दोनों ही क्षेत्रों में घनिष्ठता सध जाती है। प्रकृति क्षेत्र की शक्तियाँ और ब्रह्म क्षेत्र की चेतानाएँ करतलगत हो सकें तो ॠद्धियों और सिद्धियों का, सम्पदाओं और विभूतियों का उभयपक्षीय वैभव उपलब्ध हो सकता है।

अग्निपुराण के अनुसार- एक ‘शब्दब्रह्म’ है, दूसरा ‘परब्रह्म’। शास्त्र और प्रवचन से ‘शब्द ब्रह्म’ तथा विवेक, मनन, चिन्तन से ‘परब्रह्म’ की प्राप्ति होती है। इस ‘परब्रह्म’ को ‘बिन्दु’ भी कहते हैं।

शतपथ के अनुसार- ‘शब्दब्रह्म’ को ठीक तरह जानने वाला ‘ब्रह्म-तत्त्व’ को प्राप्त करता है।

श्रुति के अनुसार- ‘शब्दब्रह्म’ की तात्त्विक अनुभूति हो जाने से समस्त मनोरथों की पूर्ति हो जाती है।

भारतीय मनीषियों ने ‘शब्द’ को ‘नाद-ब्रह्म’ कहा है। ब्रह्म या परमात्मा एक विराट् तथा सर्वव्यापी तेजस सत्ता का नाम है। जिसकी शक्ति का कोई पारावार नहीं। इस तरह से तत्त्वदर्शी भारतीयों ने ‘शब्दब्रह्म’ की सामर्थ्य को बहुत पहले ही जान लिया था। यही नहीं उस पर गम्भीर खोजें हुई थी और ‘मन्त्र-विज्ञान’ नाम की एक स्वतन्त्र शाखा की स्थापना हुई थी।

नाद-ब्रह्म के दो भेद हैं- आहात और अनाहत। ‘आहत’ नाद वे होते हैं, जो किसी प्रेरणा या आघात से उत्पन्न होते हैं। वाणी के आकाश तत्त्व से टकराने अथवा किन्हीं दो वस्तुओं के टकराने वाले शब्द ‘आहत’ कहे जाते हैं। बिना किसी आघात के दिव्य प्रकृति के अन्तराल से जो ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं, उन्हें ‘अनाहत’ या ‘अनहद’ कहते हैं। अनहद नाद का शुद्ध रूप है –‘प्रताहत नाद’। स्वच्छन्द-तन्त्र ग्रन्थ- में इन दोनों के अनेकों भेद-उपभेद बताये हैं। आहात और अनाहत नाद को आठ भागों में विभक्त किया है। घोष, राव, स्वन, शब्द, स्फुट, ध्वनि, झंकार, ध्वंकृति। अनाहत की चर्चा महाशब्द के नाम से की गई है। इस शब्द को सुननें की साधना को ‘सुख’ कहते है। अनहद नाद एक बिना नाद की दैवी सन्देश-प्रणाली है। साधक इसे जान कर सब कुछ जान सकता है। इन शब्दों में ‘ॐ’ ध्वनि आत्म-कल्याण कारक और विभिन्न प्रकार की सिद्धियों की जननी है। इन्हें स्थूल-कर्णेन्द्रियाँ नहीं सुन पाती, वरन् ध्यान-धारणा द्वारा अन्तः चेतना में ही इनकी अनुभूति होती है।

जाबाल दर्शनोपनिषद्- ब्रह्मरन्ध्र में प्राण का प्रवेश होने पर शंख ध्वनि एंव मेघ गर्जन के समान नाद होता है। वायु के मस्तक में प्रवेश करने से झरने जैसी ध्वनि सुनाई पड़ती है। इससे प्रसन्नता होती है और अन्तःर्मुखी प्रवृत्ति बढ़ती है।

महायोग विज्ञान- जब अन्तर में ज्योति स्वरूप आत्मा का प्रकाश जागता है, तब साधक को कई प्रकार के नाद सुनाई पड़ते हैं। इसमें से एक व्यक्त होते हैं, दूसरे अव्यक्त। जिन्हें किसी बाहर के शब्द से उपमा न दी जा सके, उन्हें अव्यक्त कहते हैं, यह अन्तर में सुनाई पड़ते हैं और उनकी अनुभूति मात्र होती है। जो घण्टा आदि की तरह कर्णेन्द्रियों द्वारा अनुभव में आवें उन्हें व्यक्त कहते हैं। अव्यक्त ध्वनियों को ‘अनाहत’ अथवा ‘शब्द-ब्रह्म’ भी कहा जाता है।

महायोग विज्ञान- जब प्राणायाम द्वारा प्राण वायु स्थिर हो जाता है, तो नाना प्रकार के नाद सुनाई पड़ते हैं और चन्द्रमण्डल से अमृत टपकता है। जिह्वा को यह दिव्य रसास्वादन होने लगता है। यह शीतल अमृत जैसा रस साधक को अमर बना देता है।

हठयोग प्रदीपिका- जिस प्रकार पुष्पों का मकरन्द पीने वाला भ्रमर अन्य गन्धों को नहीं चाहता, उसी प्रकार नाद में रस लेने वाला चित्त, विषय-सुखों की आकाँक्षा नहीं करता। विषय रूपी बगीचे में मदोमत्त हाथी की तरह विचरण करने वाले मन को नाद रूपी अंकुश से नियन्त्रण में लाया जाता हैं।

अनाहत नाद की उपासना विश्वव्यापी है। पाश्चात्य विद्वानों तथा साधकों ने उसके वर्णन के लिए इन शब्दों का प्रयोग किया है –‘वर्ड लोगोस’, ‘हिवस्पर्स’, ‘फ्राम द अननोन’, ‘इनर हवसाय’, ‘द लेंग्वेज ऑफ सोल’, ‘प्रिमार्डियल साउण्ड’, ‘द ह्वायस फ्राम हैवन’, ‘द ह्वायस ऑफ सोल’ आदि।

बाइबिल में कहा गया है- ‘आरम्भ में शब्द था। शब्द ईश्वर के साथ था और शब्द ईश्वर था’। इन दि बिगिनिंग वाज दि वर्ड, दि वर्ड वॉज विद गॉड, दि वर्ड वॉज गॉड।

नाद-मण्डल यमलोक से बहुत ऊपर हैं। इसलिए नाद साधक को यमदूत पकड़ने की सामर्थ्य नहीं रखते।

नाद-साधक का इतना आत्मिक उत्थान हो जाता है कि काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि उस पर कोई प्रभाव नहीं दिखा सकते। आक्रमण करना तो इनका स्वभाव ही है, परन्तु नाद-साधक पर यह विजय प्राप्त नहीं कर सकते। वह सदा इनसे अप्रभावित ही रहता है, इसलिए दिनों-दिन उसकी शक्तियों का विकास होता है। नाद-साधना से अन्तिम सीढ़ी तक पहुँचना सम्भव है।

मन ही इन्द्रियों का स्वामी है, क्योंकि मन का संयोग न होने से कोई भी इन्द्रिय काम करने में समर्थ नहीं रहती। फिर मन, प्राण और वायु के आधीन है, अतः वायु वशीभूत होते ही मन का ‘लय’ हो जाता है। मन लय होकर नाद में अवस्थान करता है।

सदा नाद के अनुसन्धान करने से संचित पापों के समूह भी नष्ट हो जाते हैं और उसके अनन्तर निर्गुण एवं चैतन्य ब्रह्म मे मन व प्राण दोनो निश्चय ही विलीन हो जाते है।

तब नाद के विषयीभूत अन्तःकरण की वृत्ति से प्राप्त सुख को जीतकर स्वाभाविक आत्मा के सुख का आविर्भाव होता है। वात, पित्त, कफ, रूप दोष, दुःख, वृद्धावस्था, ज्वरादिक व्याधि, भूख, प्यास, निद्रा इन सबसे रहित वह आत्म-सुखी हो जाता है।

हृदयाकाश में नाद के आरम्भ होने पर प्राण वायु से पूर्ण हृदय वाला योगी रूप, लावण्य आदिकों से युक्त दिव्य देह वाला हो जाता है। वह प्रतापी हो जाता है और उसके शरीर से दिव्य गन्ध प्रकट हुआ करती है तथा वह योगी रोगों से भी रहित हो जाता है।

इन्द्रियों का स्वामी मन। मन का स्वामी प्राण। प्राण का स्वामी लय और यह लय, नाद के आश्रित है। सिद्धासन के समान कोई आसन नहीं, कुम्भक के समान कोई बल नहीं, खेचरी के समान मुद्रा नहीं और नाद के समान लय नहीं।

शिव और शक्ति का संयोग और पारस्परिक सम्बन्ध ही ‘नाद’ कहलाता है इसे अव्यक्त ध्वनि और अचल अक्षर मात्र भी कहा जाता है।

तांत्रिकाचार्यों का कथन है कि- यह नाद प्रवाह ऊपर से भ्रूमध्य में गिरता है। इसी से सारे विश्व की उत्पत्ति होती है और उत्पन्न होकर सारे जगत् में यही प्राण और जीवनी शक्ति के रूप में विद्यमान रहती है। मानव-शरीर में श्वास-प्रश्वास का खेल प्राण करता है। तांत्रिक भाषा में इसे ‘हंस’ कहते हैं। ‘हं’ हकार शिव या पुरूष-तत्त्व का और ‘स’ सकार शक्ति या प्रकृति-तत्त्व का पर्याय है। जहाँ इन दोनों का मिलन होता है, वहीं नाद की अनुभूति होती है।

शिव-संहिता में कहा गया है- ‘मन को लय करने वाले साधनों में, नाद की तुलना करने वाला और कोई साधन नहीं है’।

‘शब्द’ को ‘ब्रह्म’ कहा है क्योंकि ईश्वर और जीव को एक श्रृंखला में बाँधने का काम शब्द द्वारा ही होता है। सृष्टि की उत्पत्ति का प्रारम्भ भी शब्द से हुआ है। पंच तत्त्वों में सबसे पहले आकाश बना, आकाश की तन्मात्रा शब्द हैं। अन्य समस्त पदार्थों की भाँति शब्द भी दो प्रकार का है- ‘सूक्ष्म’ और ‘स्थूल’। ‘सूक्ष्म-शब्द’ को ‘विचार’ कहते हैं और ‘स्थूल-शब्द’ को ‘नाद’।

शब्द ब्रह्म का दूसरा रूप जो विचार- सन्देश की अपेक्षा कुछ सूक्ष्म है, वह नाद है। प्रकृति के अन्तराल में एक ध्वनि प्रतिक्षण उठती रहती है, जिसकी प्रेरणा से आघातों के द्वारा परमाणुओं में गति उत्पन्न होती है और सृष्टि का समस्त क्रिया-कलाप चलता है। यह प्रारम्भिक शब्द ‘ॐ’ है। यह ‘ॐ’ ध्वनि जैसे-जैसे अन्य तत्त्वों के क्षेत्र में होकर गुजरती है, वैसे ही उसकी ध्वनि में अन्तर आता है। वंशी के छिद्रों में हवा फूँकते हैं, तो उसमें एक ध्वनि उत्पन्न होती है। पर आगे छिद्रों में से जिस छिद्र में जितनी हवा निकाली जाती है, उसी के अनुसार भिन्न-भिन्न स्वरों की ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं, इसी प्रकार ॐ ध्वनि भी विभिन्न तत्त्वों के सम्पर्क में आकर विविध प्रकार की स्वर-लहरियों में परिणित हो जाती है। इन स्वर लहरियों को सुनना ही नादयोग है।

तंत्रशास्त्र के अनुसार- ‘यह शिव बिन्दु है, सम्पूर्ण प्राणियों में नादात्मक शब्द के रूप में विद्यमान रहता है। अपने से अभिन्न विश्व का परामृष्ट करने वाला परावग्रुप विमर्श ही शब्द है। सब भूतों में ‘जीवकर्ता’ के रूप में स्फुरित होने के कारण उसे नाद कहते है’।

तंत्र का मत है कि- प्राणात्मक उच्चार से जो एक अव्यक्त ध्वनि निकलती है, उसी को ‘अनाहत नाद’ कहा जाता है। इस का कर्ता और बाधक कोई नहीं है। यह नाद हर प्राणी के हृदय में अपने आप ध्वनित होता रहता है अर्थात् ‘एक ही नाद के स्वरूप वाला वर्ण है, जो सब वर्णों के अभिभाग वाला है। वह अन्स्तमित रूप वाला होने से अनाहत की भाँति उदित होता है’।

संगीत रत्नाकर-ग्रन्थ- नाद-ब्रह्म की गरिमा पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि नाद-ब्रह्म समस्त प्राणियों में चैतन्य और आन्नदमय है। उसकी उपासना करने से ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों की सम्मिलित उपासना हो जाती है। वे तीनों नाद-ब्रह्म के साथ बँधे हुए हैं।

प्राण का नाम ‘ना’ है और अग्नि को ‘द’ कहते हैं। अग्नि और प्राण के संयोग से जो ध्वनि उत्पन्न होती है, उसे ‘नाद’ कहते हैं। जब अनाहत नाद सुनाई पड़ने लगता है, तब इसका अर्थ यह है कि योगी का धीरे-धीरे अन्तर्जगत में प्रवेश होने लगा। वह अपने भूले हुए स्वरूप को कुछ-कुछ पहचानने लगता है। शक्ति, वैभव और ज्ञान के भण्डार की झलक पाने लगता है, अर्थात् महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती के दर्शन होने लगते है। जो अभ्यासी वहीं उलझकर रह गया यह दुःख का विषय है, कि सचमुच बहुत से अभ्यासी इसके आगे नहीं बढ़ते हैं। पर जो तल्लीनता के साथ बढ़ता जाता है, वह क्रमशः ऊपर के लोकों में प्रवेश करता है। अन्त में वह अवस्था आती है, जहाँ वह आकाश की सीमा का उल्लंघन करने का अधिकारी हो जाता है ओर वही शब्द का अन्त है।

नाद के प्रकार
नाद-साधना में सहायक ध्वनियाँ अनेक है। शास्त्रों में इनका वर्णन मेघ की गर्जन, समुद्र की तर्जन, विद्युत की कड़क, वायु की सन-सनाहट, निर्जन की साँय-साँय, अग्नि शिखा की धू-धू, निर्झर निनाद, प्रकृति गत ध्वनियाँ हमें समय-समय पर सुनने को मिलती रहती है। साथ ही झींगुर की ध्वनि, घन्टे की ध्वनि, शंख की ध्वनि, डमरू की ध्वनि आदि भी सुनाई पड़ती है। नाद-साधक को इन ध्वनियों का सुनाई पड़ना उसकी उन्नति का संकेत होता है।

ध्वनि ऊर्जा की इन बहुरूपी धाराओं का उद्गम केन्द्र एक की हैं। वह केन्द्र ‘ॐकार’ ध्वनि है और यही मूल ध्वनि है। नाद साधना की सर्वोच्च परिणति इस ‘ॐकार’ ध्वनि से तादात्म्य स्थापित करना है।

वे ध्वनियाँ किस प्रकार की होती हैं। इसका उल्लेख जाबाल- दर्शनोपनिषद् में इस प्रकार है- जब ब्रह्मरन्ध्र में प्राणवायु का प्रवेश हो जाता है, तब प्रथम शंख ध्वनि के समान नाद सुनाई पड़ता है। फिर मेघ ध्वनि की तरह मन्द्र, गम्भीर नाद सुनाई पड़ता है। जब यह प्राण-वायु सिर के मध्य में स्थित होती है, तब ऐसा लगता है, मानो पर्वत से कोई झरना कल-कल नाद करता स्रावित हो रहा है। तदुपरान्त अत्यन्त प्रसन्नता का अनुभव होता है और साधक सूक्ष्म आत्म-तत्त्व की ओर उन्मुख हो जाता है।

शिव पुराण में ‘ॐकार’ के अतिरिक्त नौ ध्वनियाँ इस प्रकार गिनाई गई हैं- 1 समुद्र गर्जन जैसा घोष, 2 काँसे की थाली पर चोट लगाने जैसी झंझनाहट, 3 श्रृंग अर्थात् तुरही बजने जैसी आवाज, 4 घन्टे बजने जैसी, 5 वीणा बजने जैसी, 6 वंशी जैसी, 7 दुन्दुभि नगाड़े बजने के समान, 8 शंख ध्वनि, 9 मेघ गर्जन, नौ ध्वनियाँ नादयोग में सुनाई पड़ती हैं।

नाद बिन्दूपनिषद्- आरम्भ में यह नाद कई प्रकार का होता है और जोर से सुनाई पड़ता हैं पीछे धीमा हो जाता है। आरम्भ में यह ध्वनियाँ, नागरी, झरना, भेरी, मेघ जैसी होती हैं, पीछे भ्रमर, वीणा, बंशी, किंकिणी जैसी मधुर प्रतीत होती हैं।

महायोग विज्ञान- आदि में बादल के गरजने-बरसने, झरनों के झरने, भेरी बजने जैसे शब्द होते हैं। मध्म में मर्दल, शंख, घण्टा, मृदंग जैसे अन्त में किंकिणी, बंशी, वीणा, भ्रमर-गुंजन जैसे शब्द सुनाई पड़ते हैं। यह अनेक प्रकार के नाद है, जो समय-समय पर साधक को सुनाई पड़ते रहते हैं।

मेघ नाद में शरीर में झनझनाहट होती है, चिण नाद में शरीर टूटता है, घण्टा नाद से प्रस्वेद होता है, शंखनाद से सिर झन्नाता है, तन्त्री नाद में तालु से रस टपकता हैं, करताल नाद से मधुस्वाद मिलता है, बंशी नाद से गूढ़ विषयों का ज्ञान होता हैं, मृदंग नाद से परावाणी प्रस्फुटित होती है, भेरी नाद से दिव्य नेत्र खुलते हैं तथा आरोग्य बढ़ता है। उपरोक्त 9 नादों के अतिरिक्त दशवें ॐकार नाद में ब्रह्म और जीव का सम्बन्ध जुड़ता है।

जब घण्टा जैसे शब्द सुनाई पड़े तो समझना चाहिए अब योग सिद्धि दूर नहीं हैं।

ॐकार ध्वनि जब सुनाई पड़ने लगती है, तो निन्द्रा, तन्द्रा या बेहोशी जैसी दशा उत्पन्न होने लगती है। उसी स्थिति के ऊपर बढ़ने वाली आत्मा परमात्मा में प्रवेश करती जाती है और पूर्णतयः परमात्म-अवस्था प्राप्त कर लेती है।

कहीं-कहीं पायल बजने, बुलबुल की चह-चहाहट जैसी मधुर ध्वनियों का भी वर्णन है। यह वीणा-नाद से मिलती-जुलती है। सिंह गर्जन का उल्लेख मेघ गर्जन जैसा है।

प्रथमतः अभ्यास के समय ध्वनि-नाद मिश्रित सुनाई पड़ता है। जब अभ्यास दृढ़ हो जाता है, तो पृथक्-पृथक् ध्वनियाँ सुनाई पड़ती है।

नाद श्रवण की पूर्णता
नाद श्रवण की पूर्णता अनाहत ध्वनि (ॐ) की अनुभूति में मानी गई है। साधक अन्य दिव्य ध्वनियों को सुनते-सुनते अन्त में अनाहत लक्ष्य (ॐ) तक जा पहुँचता है।

प्राण के मस्तक में पहुँचने पर योगी को सुन्दर अनाहत नाद (ॐ) की ध्वनि सुनाई पड़ती है।

ध्यान बिन्दुपनिषद् में नादयोग के सम्बन्ध में लिखा है- अनाहत शब्द (ॐ), उससे परे और उससे परे जो (सोऽहं) है। उसे प्राप्त करके योगी समस्त संशयों से मुक्त हो जाता है।

गहराई से ‘ओउम्’ शब्द को परख लीजिए। अ, उ, म् के संयोग से यह शब्द बना हुआ है। ‘ओउम्’ परमात्मा का सर्वोतम नाम है। वेदादि शास्त्रों में परमात्मा का मुख्य नाम ‘ओउम्’ ही बताया गया है।

नाद साधना विधान
नादबिन्दुपनिषद् के अनुसार- हे वत्स! आत्मा और ब्रह्म की एकता का जब चिन्तन करते हैं, तब कल्याणकारी ज्योतिस्वरूप परमात्मा का नाद रूप में साक्षात्कार होता है। यह संगीत-ध्वनि बहुत मधुर होती है। योगी को सिद्धासन में बैठकर वैष्णवी मुद्रा धारण कर अनाहत ध्वनि को सुनना चाहिये। इस अभ्यास से बाहरी कोलाहल शून्य होकर अन्तरंग तुर्य पद प्राप्त होता है।

नाद क्रिया के दो भाग हैं- बाह्य और अन्तर। बाह्य नाद में बाहर की दिव्य आवाजें सुनी जाती है और बाह्य जगत की हलचलों की जानकारियाँ प्राप्त की जाती हैं और ब्रह्माण्डीय शक्ति धाराओं को आकर्षित करके अपने में धारण किया जाता है। अतः नाद में भीतर से शब्द उत्पन्न करके भीतर ही भीतर परिपक्व करते और परिपुष्टि होने पर उसे किसी लक्ष्य विशेष पर, किसी व्यक्ति के अथवा क्षेत्र के लिए फेंका जाता है और उससे अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति की जाती है। इसे धनुष बाण चलाने के समतुल्य समझा जा सकता है।

अन्तः नाद के लिए भी बैठना तो ब्रह्मनाद की तरह ही होता है, पर अन्तर ग्रहण एवं प्रेषण का होता है। सुखासन में मेरूदंड को सीधा रखते हुए षड़मुखी मुद्रा में बैठने का विधान है।

षड़मुखी मुद्रा का अर्थ है- दोनों अँगूठों से दोनों कान के छेद बन्द करना। दोनों हाथों की तर्जनी और मध्यमा अंगुलियों से दोनों नथुनों पर दबाव डालना। नथुनों पर इतना दबाव नहीं डाला जाता कि साँस का आवागमन ही रूक जाय। होठ बन्द, जीभ बन्द मात्र भीतर ही परा, पशयन्ती वाणियों से ॐकार के गुंजन का प्रयास करना होता है। अन्तः नाद में कंठ से मन्द ध्वनि होती रहती है।

साधना आरम्भ करने के दिनों में दस-दस सैकिण्ड के तीन गुंजन बीच-बीच में पाँच-पाँच सैकिण्ड रूकते हुए करने चाहिए। इस प्रकार 40 सैकिण्ड का एक शब्द उत्थान हो जायेगा। इतना करके उच्चारण बन्द कर देना चाहिये और उसकी प्रतिध्वनि सुनने का प्रयत्न करना चाहिए। जिस प्रकार गुम्बजों में, पक्के कुओं में, विशाल भवनों में, पहाड़ों की घाटियों में जोर से शब्द करने पर उसकी प्रतिध्वनि उत्पन्न होती है, उसी प्रकार अपने अन्तः करण में ॐकार का गुंजन करके छोड़े हुए शब्द-प्रवाह की प्रतिध्वनि उत्पन्न हुई अनुभव करनी चाहिए और पूरी तरह ध्यान एकाग्र करके इस सुक्ष्म प्रतिध्वनि का आभास करना चाहिये। ॐकार की उठती हुई प्रतिध्वनि अन्तः क्षेत्र के प्रत्येक विभाग को, क्षेत्र को, प्रखर बनाती है और संस्थानों की प्रसुप्त शक्ति जगाती है। उससे आत्मबल बढ़ता है और छिपी हुई दिव्य शक्तियाँ प्रकट एवं परिपुष्ट होती है।

शिव संहिता में कहा गया है कि- दोनों अँगूठो से दोनों कर्ण बन्द करें और दोनों तर्जनी से दोनों नेत्रों को, दोनों मध्यमा अँगुलियों से दोनों नासारन्ध्र को बन्द करें और दोनों अनामिका अँगुली और कनिष्ठा से मुख को बन्द करें। यदि इस प्रकार योगी वायु को निरोध करके इसका बारम्बार अभ्यास करे तो आत्मा ज्योति स्वरूप का हृदयाकाश में भान होता है।

दोनों कान, आँख, नासिका और मुख इन सबका निरोध करना चाहिए, तब शुद्ध सुषुम्ना नाड़ी के मार्ग में शुद्ध-नाद प्रगट रूप से सुनाई पड़ने लगता है।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

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