Thursday, December 2, 2010

Jigyasa(जिज्ञासा) Part 4

सिर्फ शिक्षा ही सबकुछ नहीं होती, ये गुण भी जरूरी हैं
शिक्षा का महत्व हर युग में रहा है। और इस समय तो विद्या का कोई विकल्प ही नहीं है। निरक्षरता बोझ और अपराध है लेकिन इस बात के लिए सावधान रहा जाए कि विद्या का दुरुपयोग न हो। शिक्षा के साथ सद्गुण होना बड़ा जरूरी है। आज के दौर में विद्या और चरित्र पीठ करके बैठ गए हैं। परीक्षाओं में अच्छे-अच्छे नंबर लाने वाले भी सद्गुण क्या होते हैं यह नहीं जान पा रहे हैं। पढ़ा-लिखा आदमी जब दुर्गुण पाल लेता है तो बहुत खतरनाक हो जाता है।
हम रावण का उदाहरण देख चुके हैं। रावण विद्वान था लेकिन उसने दुर्गुण पाल लिए थे तो समाज आज तक उसकी कीमत चुका रहा है। इस मामले में हनुमानजी अपने चरित्र से एक सुंदर संदेश दे रहे हैं। हनुमानचालीसा की सातवीं चौपाई में उनके लिए लिखा गया है। बिद्यावान गुनी अति चातुर। रामकाज करिबे को आतुर।।
आप विद्वान, गुणी और बहुत चतुर हैं। राम कार्य के लिए आप सदैव उत्सुक और उत्साहित रहते हैं। एक तो हनुमानजी विद्वान हैं, उस पर चतुर भी हैं। कुछ लोग सिर्फ विद्वान होते हैं या फिर सिर्फ गुणी होते हैं, लेकिन हनुमानजी विद्वान, गुणी और चतुर भी हैं।इसी के साथ चतुर भी कैसे हैं, अतिचतुर। आज के जीवन में मनुष्य की सफलता के जो प्रमुख सूत्र हो सकते हैं इन पंक्तियों में तुसलसीदासजी ने उसकी बहुत अच्छी व्याख्या की है।
अनेक उच्चकोटि की विद्वता वालों को हम जुआ, मदिरापान, परस्त्रीसंग, हिंसा या अहंकार जैसे दुर्गुणों में लिप्त देखते हैं। श्रीहनुमत चरित्र से घोषणा है कि पहला गुण है विद्वान होना, दूसरा गुण है व्यक्ति को सद्गुणी भी होना चहिए। तीसरा गुण गोस्वामीजी बताते हैं कि वह चतुर भी हो। केवल विद्वता, गुण इससे संसार में काम नहीं चलता, इन दोनों के साथ अतिचतुरता बहुत आवश्यक है। जिसे कहा जाएगा एक्स्ट्रा क्लेवरनेस।

हर रिश्ते में ये दो बातें जरूरी हैं...
रिश्तों में जितना महत्व संवेदनाओं का है उतना ही श्रद्धा का भी है। भारतीय संस्कृति में हिन्दुओं ने श्राद्ध के रूप में अपनी गुजरी पीढ़ी से गुजरने का अद्भुत प्रयोग किया है। ऋषियों ने इसे केवल कर्मकाण्ड नहीं माना है। यह पुनीत स्मृतियों का क्रिया रूप है। अपने मूल के प्रति आभार व्यक्त करने का विनम्र तरीका है।
श्रद्धा सिर्फ इस बात पर आधारित होगी कि माता-पिता एक उद्गम हैं, एक स्त्रोत हैं, एक आरम्भ हैं, हम जहां से आए हैं वह केन्द्र हमारे माता-पिता हैं। हम कितने ही बड़े हो जाएं, हमारा अहंकार कितना ही प्रतिष्ठित हो जाए, हम संसार को कितना ही जान लें परन्तु हमारे मूल, उद्गम, माता-पिता के सामने हमें झुकना ही है। क्योंकि कोई भी, कभी भी अपने उद्गम से परे नहीं जा सकता। बीज कभी भी वृक्ष से बड़ा नहीं होता। ऐसा दिखाई पड़ता है यह अलग बात है। यह भाव मनुष्य को माता-पिता के प्रति आदर कराएगा। इसलिए सदैव बेटा-बेटी, श्रद्धा होने का भाव बनाए रखें और जिस समाज में माता-पिता के प्रति श्रद्धा कम हो जाएगी उस समाज में ईश्वर का भाव ही खो जाता है।
बाबाजी ने एक जगह कहा है ईश्वर एक मूल है, एक आदि, उद्गम है, वह प्रेम स्त्रोत है और जब हम पिता को स्त्रोत नहीं मानेंगे तो परमपिता को, उद्गम स्त्रोत को कैसे मानेंगे? तो पीछे की ओर, मूल की ओर उद्गम की ओर सम्मान का बोध अत्यंत विचार और विवेक की निष्पत्ति है, वह प्रकृति से नहीं मिलती, विमर्श, चिन्तन और ध्यान से मिलती है। इसलिए श्राद्ध का अर्थ है श्रद्धा का अपने जीवन में उदय होना। श्रद्धा जब रिश्तों में उतरती है तो रिश्ते बहुत प्यारा रूप ले लेते हैं। आज दौड़भाग के युग में जिन्होंने रिश्ते बचा लिए समझ लीजिए उन्होंने जीवन बचा लिया।


अगर आप चाहते हैं कि हर इच्छा पूरी हो तो...
यदि हम यह चाहते हैं कि हमारे मनोवांछित की पूर्ति हो तो सबसे पहले दूसरों की मनोकामनाओं का ध्यान रखना होगा। सच तो यह है कि खुद अमीर बनना हो तो दूसरों को भी धनवान बनने का मौका देना होगा। सफल होने का एक तरीका यह भी है कि दूसरों को आप यह आभास करा दें कि आपकी मदद करना उनके भी हित में है।
सीधी सी बात, दूसरों को मनचाहा दिलाएंगे तो आपको अपनी मनचाही सफलता आवश्य मिलेगी। भारतीय संस्कृति में जितने भी धर्म हैं सभी के महापुरुषों ने चाहे अवतार के रूप में, चाहे गुरु के रूप में जब भी अपने भक्तों और शिष्यों से बात की है ध्यान से देखें तो इनके बीच एक अद्भुत शान्त वार्तालाप हुआ था। सामान्य रूप से ऐसी कथाओं को समाज ने अधिकांशत: अशान्ति से सुना है। जबकि जीवन के सत्य को यदि पकडऩा हो तो शब्दों का भी शून्य बनाना पड़ेगा। जब मन पूरी तरह शान्त होगा तो सत्य आसानी से घटेगा।
मन जितना बाहर होगा उतना ही असत्य देखेगा और जितना भीतर होगा उतना ही सत्य दर्शन अधिक होगा। सभी धर्मों के अवतारों और शीर्ष पुरुषों ने सेवा पर बहुत जोर दिया है। सफलता अर्जित करने की आकांक्षा वाले इस युग में पूर्ण समर्पण, परोपकार और परिश्रम, ये सेवा के ही अंग हैं। इन्हें जब प्रेम का आधार मिल जाए तब सच्ची सेवा का जन्म होता है।
कहा जाता है जो भक्त होगा उसका हर कार्य स्वत: ही सेवा हो जाएगा। इसीलिए हमारे भौतिक जीवन में हम जो भी कार्य करें उसमें भीतर जीवन का भक्तिभाव अपना प्रभाव रखना चाहिए।

जीने का अंदाज....एक बार ऐसा भी करके देखिए...
जीवन को यदि गरिमा से जीना है तो मृत्यु से परिचय होना आवश्यक है। मौत के नाम पर भय न खाएं बल्कि उसके बोध को पकड़ें। एक प्रयोग करें। बात थोड़ी अजीब लगेगी लेकिन किसी दिन सुबह से तय कर लीजिए कि आज का दिन जीवन का अंतिम दिन है, ऐसा सोचनाभर है।
अपने मन में इस भाव को दृढ़ कर लें कि यदि आज आपका अंतिम दिन हो तो आप क्या करेंगे। बस, मन में यह विचार करिए कि कल का सवेरा नहीं देख सकेंगे, तब क्या करना...? इसलिए आज सबके प्रति अतिरिक्त विनम्र हो जाएं। आज लुट जाएं सबके लिए। प्रेम की बारिश कर दें दूसरों पर। विचार करते रहें यह जीवन हमने अचानक पाया था। परमात्मा ने पैदा कर दिया, हम हो गए, इसमें हमारा कुछ भी नहीं था।
जैसे जन्म घटा है उसकी मर्जी से, वैसे ही मृत्यु भी घटेगी उसकी मर्जी से। अचानक एक दिन वह उठाकर ले जाएगा, हम कुछ भी नहीं कर पाएंगे। हमारा सारा खेल इन दोनों के बीच है। सच तो यह है कि हम ही मान रहे हैं कि इस बीच की अवस्था में हम बहुत कुछ कर लेंगे। ध्यान दीजिए जन्म और मृत्यु के बीच जो घट रहा है वह सब भी अचानक उतना ही तय और उतना ही उस परमात्मा के हाथ में है जैसे हमारा पैदा होना और हमारा मर जाना। इसलिए आज ऐसा महसूस करें आज आखिरी दिन है। कल रहें न रहें तो क्यों न आज जिएं। प्रेम से जिएं उस परमात्मा की मर्जी से जिएं।
हमारे कई संत-महात्मा अपने जीवन के हर दिन को मौत की मस्ती के साथ जीते थे। क्योंकि इन लोगों का मानना था कि जन्म परमपिता परमेश्वर ने दिया है तो समापन भी वे ही करेंगे और उनका यही बोध कि आज का दिन अंतिम हो सकता है, उनको अमर बना गया।

वासना नहीं, सुंदरता को मन से महसूस करें...
सौंदर्य बोध परमात्मा तक पहुंचने में साधक होता है। खूबसूरती महसूस ही तब होती है जब उसे सही ढंग से देखना आ जाए। सौंदर्य के दो खतरे हैं वासना और विज्ञान। वासना कहती है सौंदर्य भोगो, अनुभूत मत करो।
विज्ञान कहता है नापो, तौलो, विश्लेषण करो महसूस न करो। हमारे जीवन में सौंदर्य से पहला परिचय तीन लोग कराते हैं। इनमें से एक अनजान होते हैं, दूसरे जाने-पहचाने और तीसरे मिलीजुली श्रेणी के होते हैं। पहले हैं, फूल। सौंदर्य की पहली झलक हमे फूलों से मिली है। लेकिन गुलाब यदि विज्ञान के हाथ में देदो तो वह इसकी बॉटनी, केमेस्ट्री बता देगा, जो गलत नहीं होगी, परन्तु खूबसूरती पर उसकी पकड़ नहीं होगी वह खो चुकी होगी। पुष्प सौंदर्य, देखा और महसूस किया वाला मामला है। दूसरा जाना पहचाना परिचय हमारी संतान होती है।
संतान कैसी भी हो हमें सुंदर ही लगेगी। विज्ञान के मापदण्ड भले ही गोरापन, नैन नक्श हों परन्तु संवेदना हमेशा सौंदर्य बोध ही कराएगी। तीसरा परिचय सौंदर्य का कराता है शरीर। फिर चाहे यह शरीर जाने हुए व्यक्ति का हो या अनजाने का। इसमें विज्ञान और वासना दोनों काम कर जाते हैं। आजकल शारीरिक निकटता में भोग रह गया है, प्रेम जाता रहा। सौंदर्य को अनुभव करने में परमात्मा की संभावना बढ़ जाती है।
सौंदर्य बोध को साधन बनाकर उस परम सुंदर को प्राप्त किया जाए। शास्त्रों ने इसे ही सत्यं शिवम् सुंदरम् कहा है। सौंदर्य को उसके सत्य के साथ जाना जाए, केवल विज्ञान के साथ और वासना के साथ न समझा जाए। इसलिए परमात्मा से मिलने में हमें देर हो जाती है।

प्रार्थना निखार देती है हमारा रूप...
प्रार्थना परत उतारने की प्रक्रिया है। हमने संसार में रहते हुए अपने चेहरे पर, अपने व्यक्तित्व पर कई परतें जमा कर ली हैं। प्रार्थना द्वार जैसी है परमात्मा तक जाने के लिए। उस दिव्य शक्ति के सामने छिपा हुआ चेहरा लेकर नहीं जा सकते। वहां तो जैसे हैं वैसा ही रहना होगा। हम क्या हैं यह बताने की क्रिया जगत में अलग होती है और जगदीश के सामने अलग होती है। दुनिया में कई लोगों के सामने हम चिल्लाते हैं जानते नहीं मैं कौन हूं?
हमारा मनपसंद काम नहीं हुआ, अपमान हुआ, तो हम एक दम ब्लास्ट हो जाते हैं। अभी बताता हूं मैं क्या हूं। यह अकड़ का प्रदर्शन है, परिचय का नहीं, शब्दों की हिंसा है। अध्यात्म जगत थोड़ा उल्टा चलता है। यहां जब यह कहा जाए कि जानते नहीं मैं कौन हूं तो सबसे पहले मैं गिर जाएगा। क्योंकि जो जानता है उसका मैं गल ही जाएगा। जानने में ही मैं का विसर्जन है। हमारा मैं दुनिया में तीन रूप में एपियर होता है। अकड़, हिंसा और अहंकार। जबकि ये तीनों पानी के बुलबुले जैसे, ताश के पत्तों के महल समान और कागज की नाव की औकात के होते हैं।
ढह जाएंगे एक दिन ये तीनों, पर नुकसान पहुंचा कर। प्रार्थना यदि सच्ची रहे तो परमात्मा के सामने हमारा वो चेहरा प्रकट होगा जो हमारे जन्म से पहले था और मृत्यु के बाद रहेगा। बीच में जीते जी जो भी दुर्गुणों से लिपापुता हमने अपना चेहरा बनाया वह असत्य लेपन था। प्रार्थना इसी की धुलाई है। प्रार्थना में जब हम अपने व्यक्तित्व को धोते हैं तब हम पवित्र होने लगते हैं और पवित्रता परमात्मा की पहली पसंद है। तीन चरण बना लें प्रार्थना के, पहला आरम्भ में भीतर से विचार शून्य हों, दूसरा मध्य मे बाहर से समर्पण रखें और तीसरा समापन पर जरा मुस्कुराइए...।

अगर अपने फैसलों को पूरा करना हो
अपने निर्णयों को पूर्ण करना और दिए गए वायदों को निभाना भी सफलता की शर्त है लेकिन हम वर्तमान की वचनबद्धता को भविष्य में भूल ही जाते हैं। इसका सीधा असर हमारी सफलता पर पड़ता है। चलिए एक उदाहरण से समझते हैं। सुग्रीव ने श्रीराम से वादा किया था
बाली के वध के बाद मैं सीताजी की खोज के बाद वानर भेजूंगा। यानी राजकाज मिलने के बाद रामकाज करूंगा। लेकिन वह भूल गया। हम भी यही करते हैं। राजकाज करने के बाद रामकाज भूल जाते हैं। तब हनुमानजी ने सुग्रीव को समझाया था-
निकट जाइ चरनन्हि सिरु नावा। चारिहु बिधि तेहि कहि समुझावा।।
सुग्रीव के पास जाकर चरणों में सिर नवाया और सभी प्रकार की नीति से समझाया। कितने जागरूक हैं वे। व्यक्ति आता है, चरण स्पर्श करता है और अगली पंक्ति में समझाया है। क्या कभी हमने ऐसा देखा है कि पैर पकड़कर किसी को समझाया गया हो। लेकिन हनुमानजी अपनी मर्यादा का पालन करते हैं। वे जानते हैं कि वे सुग्रीव के सचिव हैं। राजा के रूप में सुग्रीव की मर्यादा रखी। निकट गए और पहले प्रणाम किया ताकि राजा का जो अहंकार होता है उसे संतुष्टि मिल जाए। फिर चार प्रकार की विधि से समझाया।
ये चार विधिया हैं- साम, दाम, दण्ड और भेद। जिस तरह से हनुमानजी ने सुग्रीव को राम कार्य स्मरण कराया प्रबंधन की भाषा में इसे फॉलोअप कहते हैं। अच्छे-अच्छे समर्पित, परिश्रमी और चतुर लोग भी फॉलोअप न करने की कमजोरी के कारण काम को पूरा अंजाम नहीं दे पाते। फॉलोअप की कला के दो आधार हैं- स्मरण शक्ति और व्यवस्थित रहना। हमारे साथ हनुमान होने का अर्थ है हम भविष्य में होने वाली गलतियों के प्रति पहले से ही सावधान रहेंगे।

भगवान को देखना है तो आंखों में नमी हो...
इस धरती से हम जितना ले सकते हैं, वह उससे भी ज्यादा देने को तैयार है। हमारी हैसियत और उसकी क्षमता में नीयत का बड़ा महत्त्व है। धरती माता के देने की नीयत बड़ी साफ है और हमने लेने की मंशा में जगह-जगह खोट के खूँटे गाड़ दिए हैं।हर खूँटे ने इस माँ के हृदय को छलनी ही किया है। लेन-देन के व्यवहार में हमने जो अति की है जलसंकट उसी का परिणाम है।
पानी को इतना नोचा तो हम बाहर और भीतर दोनों से सूख जाएँगे। हमने धरती क्या सुखाई हमारी आँख के आँसू भी सूख गए। परमात्मा को आँखे नहीं आँख के पीछे के आँसू देखते हैं। जिनकी आँखों की नमी सूख गई वे भगवान् को कभी नहीं देख पाएँगे। इसलिए धार्मिक और आध्यात्मिक लोगों की जिम्मेदारी है कि वो दृष्टि और धरती दोनों में नमी बनाए रखें, बचाए रखें। ये पूरी दुनिया उस ऊपर वाले का सुंदर बगीचा है, ये बगीचा केवल जीवन-निर्वाह के साधन ही नहीं देता, बल्कि मस्त, खुश और हर्षोल्लास के मौके भी देता है।
इस खूबसूरत बगीचे में चहलकदमी करने की जगह हम भौतिक विकास के बुल्डोजर पर बैठकर घूमने निकल जाते हैं। बागवानी की कैंची, पानी देने वाले पाईप और जेसीबी मशीन सबका अपना-अपना महत्त्व है। साधनों के उपयोग की गलत अदला-बदली सारे जीवन के गणित को भी बिगाड़ देती है। शायद इसीलिए पहले के वक्त में जब साधन कम थे तब हम ज्यादा सुखी थे और अब भरमार है तो भीतर से खोखले हो गए हम और धरती को भी ऐसा ही खाली किए जा रहे हैं। क्या कोई संतान माँ के साथ ऐसा व्यवहार करते अच्छी लगती है?

ध्यान रहे...इस रिश्ते में गांठ न लगे
धागे का उपयोग इसी बात में है कि वह सही सूई में पिरोया जाए और उसमें गलत वक्त में गाँठ न लग जाए। सिलते वक्त बिना धागे की सूई चुभने के अलावा कुछ नहीं करेगी और बिना सूई का धागा गठाने में उलझने के सिवाय और क्या कर सकेगा। इसका सीधा संबंध मनुष्य और परमात्मा के रिश्ते से है।
जिन्दगी के धागे में लगी इस गठान को ही ऋषियों ने ग्रंथी कहा है। मनोग्रंथी खुली और उस परमशक्ति से साक्षात्कार हुआ। वो अंशी है और हम उसका अंश हैं। इसीलिए उस ईश्वर की सारी खूबियाँ हमारे भीतर भी हैं। पर इस ग्रंथी के कारण जिसे माया भी कहा गया है, हम उस भगवान् से दूर रह जाते हैं। हम सब एक ऐसा अंगारा बन जाते हैं जो अपने ही ऊपर राख जमाए बैठे हैं। इस कालिख के नीचे हमारा ओज-तेज, प्रकाश, ऊष्मा सब अकारण दबा है। अंगारा पूरी तरह राख में बदल जाए इसके पहले उसमें हलचल कर दें, ध्यान की फूँक से उसे प्रज्वलित कर दिया जाए। कभी-कभी हम व्यावहारिक जीवन में कहते भी हैं-
इसने पूर्वाग्रह की गाँठ बाँध ली है...
ऐसा हमने भी भगवान् के मामले में कर लिया है। धागे में गठान लगा दी। बारीकी से सोचें, गाँठ और धागा एक हैं फिर भी अलग हैं। यदि खोल दें तो गाँठ गायब सिर्फ धागा रह जाएगा। गाँठ यानी जीवन का उलझाव। जीवन के धागे को गठान से मुक्त करते ही परमात्मा मिल जाएगा। हमारी वह यात्रा शुरू हो जाएगी जिसमें हम जीवात्मा से महात्मा, महात्मा से देवात्मा और अन्त में परमात्मा तक पहुँच जाएंगे।

इन दो बातों में छिपा है जीवन का मजा...
भोजन का आनंद दो बातों में है स्वाद और परोसगारी में। स्वाद का संबंध निर्माण से है और परोसगारी का आग्रह से। वही बात हमारे व्यक्तित्व निर्माण से जुड़ी है। बाहरी जगत् के व्यक्तित्व निर्माण के अपने तरीके हैं इनसे सुख, सफलता मिलती भी है, लेकिन शांति के मामले में ये बाहरी साधन मौन है। व्यक्तित्व निर्माण की एक भीतरी प्रक्रिया भी है जिसे आध्यात्मिक कहते हैं।
यहाँ आदमी केवल विचारों, सिद्धान्तों से तैयार नहीं होता, यहाँ वह ध्यान से गुजरता है। ध्यान के अनुभव को जीने वाले लोग अपने व्यक्तित्व को किसी पर थोपते नहीं हैं, वे स्वयं को परोसते हैं। जैसे भोजन में परोसगारी का अपना महत्त्व है। इसमें आग्रह अपने आपमें एक स्वाद बन जाता है। कभी-कभी तो अच्छा खासा लजीज खाना ठीक से परोसा न गया तो स्वाद नहीं देता और बेस्वाद भोजन भी अपनी बेहतर परोसगारी से पसंद कर लिया जाता है। ऐसे अनेक साधु-संत हुए जो अपने व्यक्तित्व की बेहतर परोसगारी के कारण स्वादु भी बन गए और तृप्ति भी दे गए।
जब मनुष्य केवल अध्ययन, मनन, सिद्धान्त विचारों से चलता है तो उसके हाथ लगी जानकारी उसे थोपा हुआ व्यक्तित्व बना देती है लेकिन ध्यान जिस अनुभूति और बोध को स्वयं के भीतर जगाता है उससे एक प्यारा-सा लोच पैदा होता है व्यक्तित्व में जिसे सहजता, सरलता और सर्वस्वीकार्य कहा गया है। इसलिए जिन्दगी में अध्यात्म का स्पर्श आते ही आप भौतिकता के सफर के हर रिश्ते में चाहे वह परिवार का हो, सामाजिक हो या राष्ट्रीय, स्वयं की परोसगारी करने की कला जान जाते हैं और भक्ति की यात्रा में इसे ही शरणागति कहा गया है।

फिर भगवान आपको पुकारता है..
भक्त भगवान की प्रार्थना करता है यह एक सामान्य घटना है, लेकिन भगवान भी भक्त को आमन्त्रित करते हैं कि आओ मेरे पास आओ। इस निमन्त्रण को बहुत बारीकी से सुनना पड़ता है।
बाइबिल में एक जगह जीसस ने कहा है-
बहुत परिश्रम करने के कारण तुम लोग बोझ से लदे हो, तुम सभी लोग मेरे पास आओ मैं तुम्हे आराम दूँगा।
ये जो आराम का आश्वासन, विश्राम देने का विचार ईश्वर की ओर से हमें आया है इसे ठीक से समझ लें तो जीवन में शान्ति आने में आसानी हो जाएगी। इस आमन्त्रण को अध्यात्म ने एक सुंदर शब्द दिया है शरणागति। संसार में काम करते हुए परिणाम लेने की हमारी एक सीमा होती है। कभी-कभी आदमी अपने ही पुरुषार्थ के बोझ से दब जाता है। इससे आई हुई थकान कब निराशा में बदल जाती है पता ही नहीं चलता। इसका प्यारा-सा समाधान है शरणागति। इस शरण में जाने को आलस्य न समझ लिया जाए। शरणागति में भरोसे का भाव होता है और भरोसा अपने आपमें एक हिम्मत है। करना सबकुछ हमको ही है लेकिन शरणागति हमारे कर्म में सहयोगी, ताकत, स्पष्टता, स्फूर्ति, उत्साह और परिणाम के प्रति अनासक्त बना देती है।
धर्म कोई-सा भी हो इस आध्यात्मिक आह्वान को लेकर सभी का स्वर एक जैसा है। बुद्ध ने जिसे शरण कहा है उसे ही महावीर ने अपनी दया घोषित किया, कृष्ण ने गीता में इसे ही च्च्मेरे भरोसेज्ज् का नाम दिया तो नानक कह गए च्च्चिंता छोड़ोज्ज् और मोहम्मद ने इसे च्च्तेरी रहमतज्ज् कहकर हमें बेफिक्र रहने का मंत्र दे दिया। आज के प्रबंधन के युग में इस शरणागति को बोनस समझ लें। लेन-देन के दौर में सैलेरी, मूल भुगतान से बोनस ज्यादा प्यारा और उपयोगी लगता है।

वो सुनेगा, पहले कहने का तरीका सीखें
दुनिया में हर चीज का एक तौर-तरीका होता है, रहने से कहने तक के तरीके इजाद हैं। हर फरियाद या प्रार्थना की सफलता उसके कहने के अंदाज पर टिकी है। हम उस परमशक्ति से किस तरह अपनी बात कह रहे हैं, यह बात बहुत मायने रखती है। अगर आपको अपनी बात भगवान तक पहुंचानी है तो इसका तरीका समझें।
दुनियाभर से बात करने वाले हम लोग यह भूल ही जाते हैं कि जिसने दुनिया बनाई है उससे बात करने का भी एक तरीका होता है। ऊपर वाले से संवाद करिए, जिन्दगी के कई सवालों का जवाब खुद-ब-खुद मिल जाएगा। राबिआ नामक महिला फकीर का खुदा से बात करने का अंदाज ही निराला था। वे एक हजार नमाज रोज पढ़ती थीं। उनके लिए इबादत परवरदिगार से सीधी बातचीत थी। राबिआ के मां-बाप का इन्तकाल होने के कारण उन्हें किसी ने गुलाम बना लिया था। गुलामी के दिनों में वे रात को सिज्दे में खुदा से आंसू भरी निगाहों के साथ बोलीं- ऐ मालिक आपने मुझे दूसरे की मिल्कियत बना दिया। सख्त खिदमत अपने मालिक की करना पड़ती है, उससे एतराज नहीं है लेकिन इसी कारण तेरे दरबार में आने का वक्त नहीं मिलता। काश मैं आजाद होती तो लम्हा-लम्हा आपकी ही इबादत में बिताती, जैसी आपकी मर्जी। राबिआ की यह बातचीत एक दिन इत्तेफाक से उस शख्स ने सुन ली जिसकी राबिआ गुलाम थी।उसने देखा-सुना कि लड़की सिज्दे में है और खुदा से बड़े सलीके से बात कर रही है। उसे एहसास हुआ कि किसी पाक शख्सीयत को मैंने गुलाम बना डाला है, अगली सुबह उसने माफी भी मांगी और राबिआ को आजाद भी कर दिया। यह किस्सा इस बात का भरोसा दिलाता है कि ऊपर वाला सुनता है और अपने तरीके से उस सुनी हुई मांग, पुकार को पूरा भी करता है। बस, उससे बात करना आना चाहिए, उससे कह दो अपनी परेशानी, फिर सब्र करो उसकी मदद के अंदाज पर।

लड़कियां पायल क्यों पहनती हैं?
छम... छम... छम... पायल की ऐसी आवाज किसी के भी मन बरबस ही लुभा लेती है। जब कोई लड़की पायल पहनकर चलती है तो उससे निकलने वाला मधुर स्वर किसी संगीत से कम प्रतीत नहीं होता। सामान्यत: सभी लड़कियां पायल पहनती हैं। विवाहित महिलाओं के लिए तो यह आवश्यक होता है कि वे पायल पहनें।
महिलाओं के लिए पायल पहनना काफी महत्वपूर्ण माना गया है। इसके पीछे कई कारण मौजूद हैं।
पायल महिलाओं के सोलह श्रंगार में अहम भूमिका निभाती है। पायल पहनने के पीछे यह वजह है कि प्राचीन काल में महिलाओं को पायल एक संकेत मात्र के लिए पहनाई जाती थी। जब घर के सभी सदस्य एक साथ बैठे होते थे तब यदि कोई पायल पहनी स्त्री वहां आती थी तो उसकी छम-छम आवाज से सभी को अंदाजा हो जाता कि कोई महिला उनकी ओर आ रही है। जिससे वे सभी व्यवस्थित रूप से आने वाली महिला का स्वागत कर सके, उसे सम्मान दे सके।
पायल की छम-छम अन्य लोगों के लिए एक इशारा ही है, इसकी आवाज से सभी को यह एहसास हो जाता है कि कोई महिला उनके आसपास है अत: वे शालीन और सभ्य व्यवहार करें। स्त्री के सामने किसी तरह की कोई अभद्रता ना हो जाए। ऐसी सारी बातों को ध्यान में रखते हुए लड़कियों के पायल पहनने की परंपरा लागू की गई। साथ ही पायल की आवाज से घर में नकारात्मक शक्तियों का प्रभाव कम हो जाता है और दैवीय शक्तियों सक्रीय रहती है।
पुराने समय में विवाह के बाद पति के घर में बहु के आने के लिए पूरी स्वतंत्रता नहीं रहती थी। साथ ही वह किसी से खुलकर बात नहीं कर पाती थी। ऐसे में जब वह घर में कही आती-जाती तो बिना उसके बताए भी पायल की छम-छम से सभी सदस्य समझ जाते थे कि उनकी बहु वहां आ रही है।
पायल की धातु हमेश पैरों से रगड़ाती रहती है जो स्त्रियों की हड्डियों के लिए काफी फायदेमंद है। इससे उनके पैरों की हड्डी को मजबूती मिलती है। साथ ही पायल पहनने से स्त्रियों का आकर्षण कहीं अधिक बढ़ जाता है।

फिर सफलता मिलेगी भी, टिकेगी भी
आज कल मानसिक रोगों की खूब चर्चा होती है। थोड़ा गहरे में जाएं तो पता चलेगा मन के रोग नहीं रहते, मन खुद ही एक रोग होता है। मन जब हावी होता है तो मनुष्य का किसी एक काम में रूचि नहीं होती। संशय, निराशा और अकारण थकान से मन अपना प्रभाव जमाता है। ऐसे लोग जब कोई काम करते हैं तो आधे मन से करते हैं और तब आधा मन दूसरे काम की खोज में लग जाता है। इसे कहते हैं डावांडोली।

यह हड़बड़ाहट मनुष्य को अकेलेपन का एहसास कराने लगती है। यह असंतुलन किसी को भी न तो भौतिक प्रगति करने देता है और न ही आध्यात्मिक उन्नति। ऐसे लोग कभी अधिक उत्तेजना में होंगे तो कभी घोर निराशा में। हमारे पास दुनिया में अलग-अलग दायित्व होते हैं। एक ही समय में कई काम हाथ में लेना पड़ते हैं। पहले का परिणाम आने को रहता है लेकिन तब तक दूसरा शुरू करना पड़ता है। इस चक्कर में कभी-कभी उत्साह और उतावलेपन का फर्क खत्म होने लगता है। परिणाम का विलंब बेचैन और अधीर बना देता है। इसलिए जब भी कोई काम करें सर्वप्रथम अपने मन पर नियंत्रण कर लें। कर्म को पकने में समय लगता ही है। इस दौर में मन काम दिखा देगा, इतनी उठापटक कर देगा कि हमें कर्म से ही भय और उचाट हो जाती है। फिर वर्तमान में तो सारा लालन-पालन, शिक्षा-दीक्षा, नौकरी-धंधा सबकुछ तेजी से सिखाए जाने पर जोर देता है। फटाफट और संक्षेप जैसे गुण भी कब अधीरता जैसे दुर्गुण का रूप ले लेंगे पता नहीं चलता।

इसलिए मलूकदास नामक फकीर की बात याद रखें कोई भी काम शुरू करने के पहले मन में भाव लाएं-कह मलूक हम जबहिं ते लीन्ही हरि की ओट जब से परमात्मा की ओट, आड़, सुरक्षा लेने का निर्णय लिया है, बिना बेचैनी के सफलता मिलेगी और टिकेगी भी।

इस बात से तो लक्ष्मी भी हैरान है...
हमारा देश साधना प्रधान देश है। हम सर्वधर्म में जीते हैं। धर्म में सत्संग का बड़ा महत्व है इस कारण हमारे साधनारत लोग ज्यादातर मौकों पर साधना और सत्संग पर ही टिके रहे। वे भूल ही गए कि इसकी श्रेष्ठतम परिणति सेवा होना चाहिए।
धार्मिक व्यक्ति की विशेषता होना चाहिए कि वह दूसरों की पीड़ा को समझे। परपीड़ा न समझना एक तरह से अधर्म ही है। असल में हमने दूसरे की पीड़ा, दु:ख मिटाने के लिए जो सेवा हाथ में ली थी वह कर्मकाण्ड जैसी ही रही। लोगों ने सेवा को समय बिताने का साधन और अपने अहंकार के पोषण का माध्यम बना लिया। हम तो अन्दर से अस्वस्थ हैं और दूसरों की बीमारी मिटाने में लग जाएं तो सेवा भी ढोंग, बोझ होगी। लेकिन जो सेवा, साधना और सत्संग से होकर गुजरेगी वह पहले हमें भीतर से स्वस्थ करेगी तब बाहर सचमुच सेवा घटेगी। सेवा का संबंध धन से भी जुड़ता है। सच्चे सत्संगी धन को अलग दृष्टि से देखेंगे।
अध्यात्म ने धन से परहेज नहीं बताया। उसका जोर है धन कमाया जाए लेकिन सही समय पर, जरूरत के साथ खर्च की समझ जरूर हो। कमाएं विवेक पूर्वक और खर्च करें विचार पूर्वक। धन तो अब इतना महत्वपूर्ण हो गया है कि केवल सुख सामग्रियों के काम ही नहीं आता बल्कि अब तो लोग शक्ति और योग्यता भी इसी से खरीद रहे हैं यही खतरनाक है। इसी बात ने शार्टकट से धन कमाने की वृत्ति बढ़ा दी।
लक्ष्मी ने कभी सोचा भी नहीं था कि इतने जामे लोग उन्हें पहना देंगे। भृष्टाचार, अपहरण, हिंसा, लूट, चोरी, बेईमानी, चोरी, डकैती, जुआ, सट्टा और शोषण की भी पगडंडिया, सुरंग, राजपथ बना डाले लोगों ने धन आने-जाने के। इसलिए पहले सेवा को अध्यात्म से जोड़ें, फिर धन से जोड़ें तब पवित्र सेवाभाव कई गलत बातों को जीवन में रोक देगा।

परेशानियों से होती है धैर्य की परीक्षा
हम जितने अधीर होंगे उतने ही दीन होते जाएंगे। धैर्य की परीक्षा विपरीत समय पर होती है। अधीरता हमारी शक्ति को खा जाती है। यही शक्ति बल्कि इससे आधी ताकत भी हम समस्या को निपटाने में लगा दें तो परिणाम ज्यादा अच्छे मिल जाएंगे। आदमी सर्वाधिक परेशान तीन तरह की स्थितियों से होता है। मृत्यु, वृद्धावस्था और विपत्ति।
फकीरों ने कहा है इन सबको आना ही है, कोई नहीं बचेगा, लेकिन जो ज्ञानी होगा वो इन्हें ज्ञान के सहारे काट देगा और अज्ञानी ऐसे हालात में रोएगा, परेशान रहेगा। यहां ज्ञान का मतलब है कि हमें यह समझ होना चाहिए कि पूर्वजन्म के भोग तो भोगना ही पड़ते हैं। यह शरीर जाति, आयु और भोग के परिणाम पाता ही है। जिन्हें जीवन में धैर्य उतारना हो वे सबसे पहले समय के प्रति जागरुक हो जाएं। जब भी बुरा समय आए महसूस करें कि सुख में समय छोटा और दु:ख में बड़ा लगता है, जबकि समय होता उतना ही है। अध्यात्म ने एक नई स्थिति दी है। न दु:ख, न सुख इन दोनों से पार जाने की कोशिश करें। इसे महासुख कहा गया है। इस स्थिति में समय विलीन ही हो जाता है। यानी थोड़ा ध्यान में उतर जाएं। जितना ध्यान में उतरेंगे उतना ही धैर्य के निकट जाएंगे। धैर्य यानी थोड़ा रूक जाना। हालात हिला रहे होंगे और धैर्य आपको थोड़ा स्थिर करेगा। फिर स्थितियों में समस्या स्पष्ट दिखने लगती है। उसके समाधान के उत्तर स्वयं से ही प्राप्त होने लगेंगे। जिनका अहंकार प्रबल है उन्हें धैर्य रखने में दिक्कत भी आएगी। ध्यान, अहंकार को गलाता है।
अहंकार का एक स्वभाव यह भी होता है कि वह अपने ही सवाल उछालता रहता है। इस कारण सही उत्तर सामने होते हुए भी हम उन्हें पा नहीं पाते। इसलिए जब भी हालात विपरीत हो जीवन में धैर्य साधें और धैर्य पाने के लिए उस समय ध्यान में उतरने का अभ्यास बनाए रखें।

बस यही बात हमें कमजोर बनाती है...
हम जितने अधीर होंगे उतने ही दीन होते जाएंगे। धैर्य की परीक्षा विपरीत समय पर होती है। अधीरता हमारी शक्ति को खा जाती है। यही शक्ति बल्कि इससे आधी ताकत भी हम समस्या को निपटाने में लगा दें तो परिणाम ज्यादा अच्छे मिल जाएंगे।
आदमी सर्वाधिक परेशान तीन तरह की स्थितियों से होता है। मृत्यु, वृद्धावस्था और विपत्ति। फकीरों ने कहा है इन सबको आना ही है, कोई नहीं बचेगा, लेकिन जो ज्ञानी होगा वो इन्हें ज्ञान के सहारे काट देगा और अज्ञानी ऐसे हालात में रोएगा, परेशान रहेगा। यहां ज्ञान का मतलब है कि हमें यह समझ होना चाहिए कि पूर्वजन्म के भोग तो भोगना ही पड़ते हैं। यह शरीर जाति, आयु और भोग के परिणाम पाता ही है। जिन्हें जीवन में धैर्य उतारना हो वे सबसे पहले समय के प्रति जागरुक हो जाएं। जब भी बुरा समय आए महसूस करें कि सुख में समय छोटा और दु:ख में बड़ा लगता है, जबकि समय होता उतना ही है। अध्यात्म ने एक नई स्थिति दी है। न दु:ख, न सुख इन दोनों से पार जाने की कोशिश करें। इसे महासुख कहा गया है। इस स्थिति में समय विलीन ही हो जाता है। यानी थोड़ा ध्यान में उतर जाएं।
जितना ध्यान में उतरेंगे उतना ही धैर्य के निकट जाएंगे। धैर्य यानी थोड़ा रूक जाना। हालात हिला रहे होंगे और धैर्य आपको थोड़ा स्थिर करेगा। फिर स्थितियों में समस्या स्पष्ट दिखने लगती है। उसके समाधान के उत्तर स्वयं से ही प्राप्त होने लगेंगे। जिनका अहंकार प्रबल है उन्हें धैर्य रखने में दिक्कत भी आएगी। ध्यान, अहंकार को गलाता है। अहंकार का एक स्वभाव यह भी होता है कि वह अपने ही सवाल उछालता रहता है। इस कारण सही उत्तर सामने होते हुए भी हम उन्हें पा नहीं पाते। इसलिए जब भी हालात विपरीत हो जीवन में धैर्य साधें और धैर्य पाने के लिए उस समय ध्यान में उतरने का अभ्यास बनाए रखें।

जीवन में हर समय हो रस की अनुभूति
जीवन नीरस नहीं होना चाहिए। रसाभोर रहने का अर्थ हम हनुमानजी से सीख सकते हैं। श्रीराम की कथा सुनने में इन्हें विशेष रस आता है। आप श्रीराम, लखनजी और सीताजी के मन में बसे हुए हैं। हनुमानचालीसा की आठवीं चौपाई में उनके लिए लिखा है
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया। राम लखन सीता मन बसिया।।
रामकथा को हनुमानजी केवल सुनते ही नहीं हैं, रसिया रसिक भी हैं। कथा तीन तरीके से सुनी जाती है। श्रोता समझदार हो, हरि का दास हो और रसिक हो। वे श्रोता तो बहुत अच्छे हैं ही, उतने ही अच्छे वक्ता भी हैं। सामान्यत: ऐसा होता है कि जो बहुत अच्छे वक्ता होते हैं वे फिर अच्छे श्रोता नहीं बन पाते। अगली पंक्ति है -
राम लखन सीता मन बसिया
हनुमानजी श्रीराम, सीताजी और लखनजी के मन में बसते हैं। इसका एक अर्थ यह भी होता है कि श्रीराम, लखनजी और सीताजी आपके मन में बसते हैं। दोनों अर्थ एक समान हैं। श्रीराम ज्ञान, सीताजी भक्ति और लक्ष्मणजी कर्म का प्रतीक हैं। इस चौपाई की समाधि भाषा यह है कि ज्ञान, भक्ति और कर्म तीनों आपके हृदय में बसते हैं। हनुमानजी सेवा धर्म के प्रतीक हैं। इन पंक्तियों से यह संकेत मिलता है कि एक सेवक में ज्ञान, कर्म और भक्ति का कैसा संतुलन होना चाहिए।
इससे उसका व्यवहार सदैव संयत और मीठा होता है। यह सेवा-युग है। कई व्यवसायिक संस्थानों का तो प्रोडक्ट सेवा ही है, चाहे वो ग्राहक सेवा हो या समाज सेवा। सेवा के अन्तर्गत व्यावसायिक व्यवहार में तीन क्रियाएं महत्वपूर्ण मानी जाती है दृष्टि (विजन), वाणी और शारीरिक मुद्रा (बॉडी लेंग्वेज)। यदि आंजनेय की तरह हृदय में, ज्ञान-कर्म-भक्ति है तो फिर सार्वजनिक जीवन में जो भी होंगे, जब भी होंगे वे पॉजीटिव-स्ट्रोक्स ही होंगे।

नहीं तो रिश्ते बोझ बन जाते हैं
रिश्तों की जान संवेदना में होती है लेकिन आज रिश्ते भी बोझ बन गए हैं। दुनियाभर का वजन लादे हम लोग रिश्तों का बोझ उठाने में थके-थके से हो जाते हैं और जीवन बोझिल हो जाता है। मुस्लिम फकीर अबुल हसन खिरकानी जिन्दगी में छोटी-छोटी चीजों को अलग ही नजरिए से देखते थे। उनकी बात ठीक से समझ लें तो जिन्दगी के लिए बहुत बड़ा संदेश बन जाएगी। उनकी बीवी बड़ी तुनक मिजाज थीं।
एक दफा एक शख्स अबुल हसन के घर उनसे मिलने गए। उनकी बीवी से पूछा शेख कहा हैं। मोहतरमा पलट कर बोलीं - तू ऐसे नाकाबिल और बुरे आदमी को शेख कहता है, हाँ, मेरा शौहर जरूर जंगल में लकड़ी लेने गया है। वो जनाब पति-पत्नी के रिश्ते की गरमाहट और बोझ को समझ गए और जंगल पहुँचे। देखा तो ताज्जुब में आ गए। अबुल हसन चले आ रहे हैं उनके साथ एक शेर है और उस पर लकडिय़ों का बोझ रखा है। उन शख्स ने फरमाया आपकी बीवी आपके बारे में कुछ और ही अल्फाज कह रही है और आप ये करिश्मा किए जा रहे हैं। इसके जवाब में हसन ने मुस्कुराकर बड़ी गहरी बात कह दी- सुनो मेरे भाई यदि मैं अपनी बीवी की तुनक मिजाजी का बोझ न उठाऊँ तो ये शेर मेरा बोझ क्यों उठाएगा?
बोझ ही बन जाएँ, जो बन ही जाते हैं तो फिर उन्हें ऐसे उठाएँ कि कम से कम जिन्दगी थोड़ी हल्की हो जाए। हमारा जीवन भी इन बातों की सच्चाई से जुड़ा है। अगर हम रिश्तों के वजन को संवेदनशीलता से लें तो आसानी से जिया जा सकता है। अबुल हसन का जीवन ऐसे ही संदेश देता है, बस हमें इसे समझना है।

सच बोलने का पहला फल होता है धन
आज के बच्चे पूछते हैं आखिर सत्य क्या देता है? सत्य का पहला फल है, धन की प्राप्ति। धन की कामना सभी को है। अधिकांशत: धन के मूल में लोभ रहता है। अति महत्वाकांक्षा, वासनाएं ये सब लोभ के बायप्रॉडक्ट हैं। लोभ भविष्य पर निशाना रखता है।
कल जो आने वाला है उसके लिए लोभ मनुष्य को लगभग बीमार जैसा कर देता है लेकिन जीवन में जिसने सत्य जान लिया उसका भविष्य, आने वाला कल, संवर जाता है। दूसरा फल है, बंधन मुक्ति। सम्पत्ति और परिवार छोडऩे से बंधन मुक्ति नहीं आएगी। असल में एक सम्पत्ति हमारे भीतर है जो हमें जन्म से परमात्मा ने दी है। हम उसे भूल गए हैं। यह वह दौलत है जो जन्म से पहले हमारे साथ भी और मृत्यु के बाद भी हमारे साथ रहेगी। यह हमारी निजी धरोहर है, रत्तीभर भी उधार नहीं। इसको कहते हैं जो हमारा अपना होना है हमारी आत्मा। तीसरा फल है भय मुक्त होना। बड़े-बड़े साधन होने के बाद भी आदमी भयभीत है। बड़ी सुरक्षा व्यवस्था है, बहुत धन है, बहुत बाहुबल है, बहुत लोग हैं साथ में उनके, इसके बाद भी आदमी भयभीत है।
हमें निर्भय कोई नहीं कर सकता दुनिया में। धन के साथ यदि सत्य है तो ही हम निर्भय हो सकेंगे। चौथा फल है वैकुण्ठ की प्राप्ति होना। वैकुण्ठ का अर्थ है जहाँ हम पूरी तरह परमात्मा को समर्पित हो गए। जिस क्षण स्वयं को उसे दे दिया बस वहीं वैकुण्ठ घट गया। उसकी परम निकटता का नाम वैकुण्ठ है। संसार में अर्थहीन अस्तित्व रहता है परन्तु भगवान के आते ही इसमें अर्थ आ जाता है और संसार यहीं अभी का अभी वैकुण्ठ में बदल जाता है। इसलिए जीवन के हर आचरण में सत्य बना रहना चाहिए।


तरक्की के ये दो रास्ते हैं....
संसार में उन्नति करने के लिए जिन बातों की जरूरत होती है उनमें से एक है आत्मबल। यदि मानसिक अस्थिरता है तो यह बल बिखर जाता है। इस कारण भीतरी व्यक्तित्व में एक कंपन सा आ जाता है। भीतर से कांपता हुआ मनुष्य बाहरी सफलता को फिर पचा नहीं पाता, या तो वह अहंकार में डूब जाता है या अवसाद में, दोनों ही स्थितियों में हाथ में अशांति ही लगती है।
यह आत्मबल जिस ऊर्जा से बनता है वह ऊर्जा हमारे भीतर सही दिशा में बहना चाहिए। हमारे भीतर यह ऊर्जा या कहें शक्ति दो तरीके से बहती है। पहला विचारों के माध्यम से, दूसरा ध्यान यानी अटेंशन के जरिए। हम भीतर जिस दिशा में या विषय पर सोचेंगे यह ऊर्जा उधर बहने लगेगी और उसको बलशाली बना देगी। इसीलिए ध्यान रखें जब क्रोध आए तो सबसे पहला काम करें उस पर सोचना छोड़ दें। क्योंकि जैसे ही हम क्रोध पर सोचते हैं ऊर्जा उस ओर बहकर उसे और बलशाली बना देती है। गलत दिशा में ध्यान देने से ऊर्जा वहीं चली जाएगी। इसे सही दिशा में करना हो तो प्रेम जाग्रत करें। इस ऊर्जा को जितना भीतरी प्रेमपूर्ण स्थितियों पर बहाएंगे वही उसकी सही दिशा होगी। फिर यह ऊर्जा सृजन करेगी, विध्वंस नहीं।
माता-पिता जब बच्चे को मारते हैं तब यहां क्रोध और हिंसा दोनों काम कर रहे हैं। बाहरी क्रिया में क्रोध-हिंसा है, परन्तु भीतर की ऊर्जा प्रेम की दिशा में बह रही होती है। माता-पिता यह क्रोध अपनी संतान के सृजन, उसे अच्छा बनाने के लिए कर रहे होते हैं। किसी दूसरे बच्चे को गलत करता देख वैसा क्रोध नहीं आता, क्योंकि भीतर जुड़ाव प्रेम का नहीं होता है। इसलिए ऊर्जा के बहाव को भीतर से चैक करते रहें उसकी दिशा सदैव सही रखें, तो बाहरी क्रिया जो भी हो भीतर की शांति भंग नहीं होगी।

इस तरह पूरे होते हैं दुर्लभ काम भी...
यह अथक परिश्रम और दुर्लभ कार्य करने का समय है। हनुमान भक्तों के लिए श्री हनुमानचालीसा की बीसवीं चौपाई बड़ी उपयोगी है।
दुर्गम काज जगत के जेते। सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते।।
हे हनुमानजी! संसार में जितने कठिन कार्य हैं वे सब आपकी कृपा मात्र से सरल हो जाते हैं। इस चौपाई में यह अनुग्रह शब्द बड़ा अनूठा लिखा है। यह भारतीय संस्कृति का एक बड़ा प्यारा शब्द है। ग्रह का मतलब है पकडऩा, अनु का मतलब बाद में। संसार के जितने भी दुर्गम काज हैं वे सारे आपके अनुग्रह से पूरे हो जाते हैं। अनुग्रह में भक्त और भगवान के बीच की वार्ता छुपी हुई है। भक्त कहते हैं भगवान, पहले हम आपके चरण पकड़ें और बाद में आप हमें पकड़ें, तब भक्ति पूरी होती है। श्रीराम से अपनी पहली भेंट में हनुमानजी ने कहा था कि आप दोनों भाई मेरे कंधे पर बैठ जाइए। दोनों भाई बैठ गए थे।
जैस ही हनुमानजी खड़े हुए तो श्रीराम और लक्ष्मणजी गिरने लगे, तत्काल उन्होंने हनुमानजी का मस्तक पकड़ लिया। हनुमानजी ने श्रीराम से कहा- दुनिया आपको पकडऩे के लिए दौड़ती है, आज आपने मुझे पकड़ कर रखा है। जिसको आप पकड़ते हैं, फिर उसको छोड़ते नहीं हैं। तुलसीदासजी ने हनुमानजी से दुर्गमकाज को सुगम बनाने के लिए जिस अनुग्रह की मांग की है उस अनुग्रह का आज के समय में नाम है इच्छा-शक्ति।
हनुमानजी अपने भक्तों को दृढ़ इच्छा शक्ति का प्रसाद देते हैं। सदैव सभी परिस्थितियों को अपने पक्ष में मानकर चलना भी एक तरह का आत्मविश्वास है, दृढ़ इच्छा शक्ति है। अच्छे प्रबंधकों की यह मान्यता रहती है कि जिन्दगी हालात से नहीं फैसलों से बदली जाती है। सफलता का कोई शॉर्टकट नहीं होता।

जीवन सफर है, इसकी गति सधी हुई रखें
सामान्य सी कहावत है कि जीवन एक सफर है। इस सफर में चढ़ाई भी है और ढलान भी। हम किसी भी रास्ते पर हो, सफर में गति सधी हुई हो तो ज्यादा आसानी होती है। हम जब ऊपर चढ़ रहे हों तो सारी ताकत मंजिल की ओर लगाने में खर्च होती है लेकिन ध्यान यह भी रखना पड़ता है कि कोई ताकत उतनी ही तेजी से हमें नीचे भी खींच रही है, लेकिन जब हम नीचे की ओर जा रहे होते हैं तब ऐसी कोई शक्ति नहीं होती जो हमें ऊपर की ओर उठाए। बस यहीं हमारी गति सबसे ज्यादा सधी हुई होनी चाहिए।
विज्ञान का कायदा है कि ऊपर चढ़ने में अलग ताकत लगती है और नीचे उतरने में अलग। लेकिन फोर्स दोनों ही स्थिति में होता है। जब हम ऊपर चढ़ रहे होते हैं तो ताकत इस बात के लिए लगाना पड़ती है कि हर हालत में लक्ष्य पर पहुंच जाएं, थक न जाएं। जब नीचे उतर रहे होते हैं तो ताकत तब भी लगाना पड़ती है लेकिन उस समय मामला होता है लड़खड़ा न जाएं, जल्दबाजी न हो जाए, गिर जाने के मौके उतरते समय ज्यादा रहते हैं। ऊपर जाने में थकने का और नीचे आने में गिरने का खतरा बना रहता है। इसे जीवन की यात्रा से जोड़कर देखा जाए। ऊपर चढ़ना ऐसा है जैसे संसार में ही जीना। भौतिकता की यात्रा में ऊपर जाने को ही महत्व माना जाता है। यहां जो जितना ऊपर है उसे उतना ही सफल घोषित किया जाता है। इस शीर्ष पर अपनी अलग थकान होती है।
ऊपर चढ़े हुए लोगों की थकान का दूसरा नाम अशांति भी है। इसी तरह ढलान की यात्रा अपने भीतर उतरने की आध्यात्मिक यात्रा जैसा है। इसमें जो ताकत लगती है वह साधना है। इस दौरान जब लड़खड़ाएं तो भक्ति मार्ग में पतन समझ लें। उतरते समय फिर भी एक अजीब सी सुविधा लगती है यही आनंद है। संत-फकीरों को ढलान पर संभलकर उतरने की कला आती है। उतार पर उनकी तैयारी और अधिक गहरे जाने की रहती है। ताकत दोनों में लगेगी लेकिन यह ताकत ऊपर और नीचे की यात्रा के संतुलन के लिए लगाई जाए। यात्रा दोनों प्रकार की करना है। बस विवेक रूपी ताकत से तय करते रहना है, कब कौन सी, कितनी यात्रा की जाए।

प्रेम तो शक्ति है, उसे अपनी कमजोरी न बनने दें ...
हमारी कमजोरियां हमें न सिर्फ नुकसान पहुंचाती हैं बल्कि पतन भी करा देती हैं। श्रीराम के पिता राजा दशरथ की कमजोरी रानी कैकेयी थीं। राजा दशरथ ने कोप भवन में बैठी रानी को मनाने के लिए ऐसे वचन कहे थे- प्रिया प्रान सुत सरबसु मोरें। परिजन प्रजा सकल बस तोरें॥ यानि कि हे प्रिये, मेरी प्रजा, कुटुम्बी, सारी सम्पत्ति, पुत्र और यहां तक कि मेरे प्राण ये सब तेरे अधीन हैं। तू जो चाहे मांग ले पर अब कोप त्याग, प्रसन्न होजा। यह राजा की कमजोरी थी। कैकेयी की कमजोरी उनकी दासी मंथरा थी जो कि स्वभाव से ही लालची थी। करइ बिचारू कुबुद्धि कुजाती। होइ अकाजु कवनि बिधि राती॥ वह दुर्बुद्धि, नीच जाति वाली दासी विचार करने लगी कि किस प्रकार से यह काम रातोंरात बिगड़ जाए। श्रीराम के राजतिलक के पूर्व कैकेयी ने मंथरा की बात सुनी, उसके बहकावे में आ गईं और दशरथ से भरत के लिए राजतिलक तथा श्रीराम के लिए वनवास मांग लिया। अपनी कमजोरी के वश में आकर कैकेयी ने रामराज्य का निर्णय उलट दिया और तो और, दासी का सम्मान करते हुए कहा - करौ तोहि चख पूतरि आली। यदि मेरा यह काम होता है, मैं तुझे अपनी आंखों की पुतली बना लूंगी। मनुष्य अपनी ही कमजोरी के वश में होकर गलत निर्णय लेता है और इसी कमजोरी को पूजने लगता है।
श्रीरामचरितमानस में एक प्रसंग आता है कि जब श्रीराम वनवास चले गए, दशरथ का निधन हो गया और भरत तथा शत्रुघ्न अपने ननिहाल से लौटे तब मंथरा पर शत्रुघ्न ने प्रहार किया था। हुमगि लात तकि कू बर मारा। परि मुह भर महि करत पुकारा ''उन्होंने जोर से कुबड़ पर एक लात जमा दी और वह मुंह के बल जमीन पर गिर पड़ी।'' इसमें प्रतीक की बात यह छिपी है कि जो कमजोरी पर प्रहार करता है वह शत्रुघ्न कहलाता है और हमें अपने शत्रु का नाश ऐसे ही करना चाहिए। लोभ हमारा सबसे बड़ा शत्रु है, कमजोरी है इसे बक्शना नहीं चाहिए। वरना जो लोग कमजोरियों को ढोते हैं एक दिन वह कमजोरी उनको पटकनी दे देती है।

काम कितना भी कठिन क्यों न हों, अगर.....
सबसे अच्छी जीवनशैली कौनसी? दुनिया में रहते हुए कभी हम जीने के एक ढंग से ऊब जाते हैं तो दूसरी जीवनचर्या में प्रवेश कर जाते हैं। चेंज के चक्कर में मनुष्य चकरघिन्नी हो जाता है बस। आइए जीने का एक तरीका यह भी अपनाया जा सकता है। उसे देखकर जीएं जो सबको देख रहा है। इसे सीधी भाषा में कह सकते हैं भक्त बन जाएं और अपने पुरुषार्थ, आत्म विश्वास को भगवान के भरोसे छोड़ दें। परिश्रम अपना हो परिणाम उसका रहे। इसका सीधा सा अर्थ है श्रम हम करें और फल परमात्मा पर छोड़ दें। अध्यात्म में इसे ही निष्कामता कहा गया है। ऐसा सुनकर लोगों को लगता है कि यह तो बड़ी अकर्मण्यता हो जाएगी।
भारतीय संस्कृति और हिंदू धर्म को लेकर वैसे भी लोग कहते हैं कि सब भगवान भरोसे, भाग्य भरोसे चलता है। कुछ लोग करते-धरते नहीं, परंतु धर्म ने ऐसा कभी नहीं कहा, अध्यात्म यह नहीं कहता, भगवान् ने भी यह नहीं कहा कि मेरा पूजन करने वाला अकर्मण्य बैठ जाए। भक्त का अपना कर्मयोग होता है। भक्ति जीवन में उतरते ही प्रत्येक कृत्य, हर बात के अर्थ ही बदल जाते हैं।
जैन साहित्य में महावीर स्वामी के दो वाक्य बहुत ही अद्भुत व्यक्त हुए हैं। एक बार उन्होंने कहा कि यदि आपने बिछाने के लिए दरी खोली, खोलना शुरू ही की तो समझ लो दरी खुल गई। यदि शुरु ही किया तो समझें काम पूरा हो गया। दूसरी बात कही थी यदि चल दिए तो समझ लो पहुंच गए। भगवान की यात्रा में कदम उठाना ही काफी है। उसकी ओर चरण चले कि मार्ग और मंजिल का फर्क खत्म हो जाएगा। यह है भक्त का भरोसा, इस जीवनशैली को भी अपना कर देखें और इसकी शुरूआत में जरा मुस्कुराएं...।

अध्यात्म में महिलाएं श्रेष्ठ हैं पुरुषों से
पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं को दोयम दर्जे का स्थान दिया जाता है। जबकि कोई धर्म नारी शक्ति को कमतर नहीं मानता। हर धर्म ने स्त्रियों को बराबरी का दर्जा दिया है और हिंदू धर्म तो नारियों को ही सबसे बड़ा दर्जा देता है। अध्यात्म में महिलाओं को मिली सफलता पुरुषों से कहीं अधिक है।
धर्म, शास्त्रों में व्यक्त अनेक प्रसंगों और परिभाषाओं में स्त्री-पुरुष का भेद बताया गया है लेकिन अध्यात्म तक आते-आते यह भेद समाप्त हो जाता है। बल्कि अध्यात्म में तो भक्ति के लिए स्त्रैण चित्त को श्रेष्ठ बताया है। परमात्मा को पाने के मामले में नारियां पुरुषों से आगे हैं। अध्यात्म की घोषणा है पुरुष के जीवन में भक्ति तभी उतरेगी जब उसका चित्त स्त्रैण चित्त जागेगा। संसार भर में भक्ति, साहित्य, धर्म की व्याख्या भले ही पुरुषों द्वारा लिखा गया है लेकिन जीया स्त्रीयों ने ही है।
भागवत में प्रसंग आया है कि जब मनु और शतरूपा को परमात्मा ने आशीर्वाद दिया कि वे मैथुनी सृष्टि से संतान पैदा करें तो उन्हें जो पहली जो पांच संतानें पैदा हुई उसमें से तीन कन्याएं थीं आकूती, देवहूती और प्रसूति। संतों का मत है कि संसार की तीन पहली संतानें कन्याएं हुईं, इसलिए स्त्रियों को दोयम दर्जा मानना किसी भी धर्म की दृष्टि से बुद्धिमानी नहीं है। ये लोक परंपराएं, जनसुविधाएं और अहंकार के परिणाम हैं। हिन्दुओं में दो प्रमुख अवतार हुए हैं और दोनों ने ही नारियों को मान्यताएं दी हैं। दूसरे धर्मो में भी जो देवपुरुष हुए उन्होंने स्त्रियों की प्रतिष्ठा को प्रथम ही रखा है। श्रीराम ने अपने अवतार काल में गिने-चुने अवसरों पर दार्शनिक व्याख्यान दिए हैं। राम मौन का जादू जानते थे इसलिए कम ही बोले लेकिन नौ प्रकार की भक्ति पर उन्होंने जो अपना दार्शनिक व्याख्यान दिया है उसके लिए एक नारी पात्र को चुना और वह थीं शबरी।
इसी तरह वृंदावन में श्रीकृष्ण ने स्त्रियों को अत्यधिक मान दिया है। डॉ. लोहिया ने एक जगह लिखा है नारी यदि नर के समकक्ष हुई है तो व्रज में हुई है। जब-जब हमारे जीवन में प्रेम है, तब तक अहंकार और वासनाओं से हम मुक्त हैं। हर धर्म यही कहता है और प्रेम के रहते हुए कोई दोयम कैसे हो सकता है फिर मातृशक्ति के लिए तो दोयम दर्जे का प्रश्न ही पैदा नहीं होना चाहिए।

तन तक नहीं, उनके मन तक पहुंचें
किसी के प्रति अपना प्रेम या श्रद्धा जताने के लिए जरूरी नहीं कि हम उसके पास दैहिक रूप में ही पहुंचे, मन से उस तक पहुंचकर भी आसानी से उसे पाया जा सकता है। और अगर बात गुरु की हो तो यह मामला ज्यादा गंभीर हो जाता है। जीवन में गुरु की अहमीयत उतनी ही है जितनी अन्य रिश्तों की। कई लोग गुरु के दर्शन के लिए भारी परिश्रम करते हैं, कुछ उनकी तस्वीरें, वीडियो देखकर ही खुश हो जाते हैं।
इन दिनों संत-महात्माओं तक पहुंचना आसान और कठिन दोनों हो गया है। पहले आसानी की बात करें। इलेक्ट्रॉनिक युग में टीवी, सीडी, कैसेट ने इन महात्माओं को एक पैकेज बनाकर छोड़ा है जिसमें उनका भी योगदान है। सुबह उठकर मुंह धोते हुए, ब्रश करते हुए और भी दैनंदिनी के कार्य निपटाते हुए जितने चाहें उतने बाबाओं से टीवी पर भेंट की जा सकती है। जिनकी बात समझ में न आए उनका मुंह बंद करके रिमोट का एक बटन दूसरे संत के दर्शन करा देगा। यहीं से लोग अपने गुरु का भी सिलेक्शन कर लेते हैं, फिर इन धार्मिक सेलिब्रिटिज को घेरने का काम शुरू होता है। लोग धार्मिक उपलब्धि की जगह निजी निकटता पर अधिक ध्यान देने लगते हैं। ज्यादातर संत ख्यात हो चुके हैं, भीड़ से घिरे रहना उनकी मजबूरी हो गया। हर आदमी उनसे व्यक्तिगत वार्तालाप चाहता है।संत चाहते हैं जिससे बात करें उसी के होकर चर्चा की जाए पर ऐसा हो नहीं पाता। हर भगत अपने तरीके से गुरुजी, महाराजजी की सेवा करना चाहता है जिसे वह प्रेम का नाम भी देता है। संत लोग अपने निकट के भक्तों को समझाते हैं यदि मुझे सबसे जोड़ना चाहते हो तो कुछ लोगों को अपने दावे छोड़ना पड़ेंगे क्योंकि जो गुरु से सच्च प्रेम करते हैं वे गुरु तक शरीर की जगह मंत्र, जप, चिंतन से पहुंचने की कला जानते हैं और सही तरीका भी यही है। इसी भीड़भाड़ में गुरु तक पहुंचने के लिए सबका अहंकार टकराने लगता है। अहंकार को अड़चन बिल्कुल पसंद नहीं और महाराजजी घिरे रहते हैं प्रोटोकाल में। इस आपाधापी में सर्वाधिक नुकसान उस अध्यात्म का होता है जिसे वह संत स्थापित करना चाहते हैं। इसलिए गुरु भले ही आसानी से चुन लें लेकिन संबंध बनाने में जो कठिनाइयां हैं उसे प्रेम से जीतें, अहंकार से तोड़ने का प्रयास न करें।

वासना है गृहस्थी में अशांति का मूल
परिवारों का टूटना, पति-पत्नी में कलह या तलाक के बढ़ते मामले, समाज और परिवारों में फैली इस अशांति के कारण तलाशना जरूरी है। परिवार बिखर रहे हैं और पति-पत्नी के संबंध भी औपचारिक होते जा रहे हैं। गृहस्थ जीवन का दृश्य अब सुखद नहीं रह गया है। आखिर क्या कारण है कि गृहस्थी प्रेम और शांति के स्थान की बजाय अशांति का मार्ग और जंजाल बनती जा रही हैं।गृहस्थी बसाना सभी को पसंद है भले ही मजबूरी हो या मौज। अधिकांश लोग इससे गुजरते जरूर हैं। जब-जब गृहस्थी में अशांति आती है तब आदमी इस बात को लेकर परेशान रहता है कि क्या किसी के दाम्पत्य में शांति भी होती है। समझदार लोग गृहस्थ जीवन में शांति तलाश लेते हैं। आचार्य श्रीराम शर्मा ने अपने एक वक्तव्य में गृहस्थी में अशांति के कारण को वासना भी बताया है। उन्होंने कहा है वासना के कारण पुरुष स्त्री के प्रति और कभी-कभी स्त्री पुरुष के प्रति जैसा द्वेष भाव रख लेते हैं उससे परिवारों में उपद्रव होता है। एंजिलर मछली का उदाहरण उन्होंने दिया है। यह मछली जब पकड़ी गई इसका आकार था ४क् इंच। मामला बड़ा रोचक है लेकिन नर एंजिलर पकड़में नहींआ रहा था क्योंकि वह उपलब्ध नहीं था। एक बार तो यह मान लिया गया कि इसकी नर जाति होती ही नहीं होगी। लेकिन एक दिन एक वैज्ञानिक को मादा मछली की आंख के ऊपर एक बहुत ही छोटा मछली जैसा जीव नजर आया जो मादा मछली का रक्त चूस रहा था। यह नर मछली था। मादा का आकार ४क् इंच था और नर का ४ इंच।
पं. शर्मा ने इसकी सुंदर व्याख्या करते हुए कहा था कि नारी को भोग और शोषण की सामग्री मानने वाला पुरुष ऐसा ही बोना होता है। जो मातृशक्ति को रमणीय मानकर भोगने का ही उद्देश्य रखेंगे वे जीवन में एंजिलर नर मछली की तरह बोने रह जाएंगे।हम इस में यह समझ लें कि जानवरों में उनकी अशांति का कारण वासनाएं होती हैं। केवल बिल्ली की बात करें बिल्ली का रुदन उसकी देह की पीड़ा नहीं उसकी उत्तेजित कामवासना का परिणाम है। ठीक इसी तरह मनुष्य भी इनके परिणाम भोगता है और उसका रुदन ही परिवार में अशांति का प्रतीक है।

आतंक केवल शांति नहीं, आर्थिक स्थिति भी बिगाड़ता है
जब हिंसा फैलती है तो वह केवल शांति को खत्म नहीं करती, बल्कि कहीं न कहीं देश की अर्थ व्यवस्था को भी प्रभावित करती है। इस्लाम में अमन के लिए मोहम्मद सा. ने कई उपदेश दिए हैं लेकिन कालांतर में इसमें हिंसा का प्रवेश भी हो गया। इस्लाम जहां से जन्मा है वहां व्यापार और हिंसा समानांतर दिखते हैं। लेकिन यह एक साथ नहीं हो सकते, यह विरोधाभास भी इस्लाम में दिखता है।आतंक, अत्याचार और हिंसा अमन को ही खत्म नहीं करते बल्कि तिजारत (व्यापार) को भी बर्बाद करते हैं। आज के दौर में जब जीवनशैली जरूरत से ज्यादा व्यवसायिक हो गई है तब धर्म को भी नई दृष्टि से देखा जाना चाहिए। इस्लाम अरब की जमीन से उपजा था, जहां के बाशिंदों का पेशा या तो लूटमार था या व्यापार। अरब वालों ने जब इस्लाम को कबूल किया तो शुरुआत में उन लोगों ने इस्लाम में ऐसी ही जीवनशैली प्रवेश करा दी जबकि कायदा यह है कि बिना युद्ध के लूटमार नहीं हो सकती और बिना शांति के व्यवसाय नहीं हो सकता। इसलिए इस्लाम में युद्ध और शांति दोनों पक्ष एकसाथ चलने लगे। जब युद्ध प्रेमियों का मौका आया तो जंग ने इस्लाम को घेर लिया और अमन परस्त लोगों का प्रभाव बढ़ा तो इस्लाम के आसपास प्रेम ही प्रेम नजर आया।
एक वक्त ऐसा आया था ८वीं से ११वीं सदी के बीच की दुनिया का ज्यादातर व्यापार अरब लोगों के हाथ में पहुंच गया था। सौदागरों के बिस्तर हीरे, जवाहरात से बनने लगे थे। यहीं से ताकतवर लोगों को यह बात समझ में आ गई कि तिजारत यानी व्यापार करने के लिए खून-खराबा छोड़ना पड़ेगा। इल्म को हमेशा से अमन का इंतजार रहता है। बस यहीं से इस्लाम में अमन की बात जो इधर-उधर हो रही थी स्थापित होने लगी जो आज तक वैसी की वैसी ही है। इस्लाम जिन गलियों से गुजरा वहां कितना ही विपरित दौर रहा हो लेकिन शांति और प्रेम की बातें मोहम्मद से लेकर आज तक वैसी की वैसी हैं। जो बात हजारों साल पहले लागू हो रही थी कि अमन के रहने से विकास होता है वह आज भी जरूरी है। देशों के बीच धार्मिक मदभेद खत्म हों और तिजारती ताल्लुकात बढ़ें इसके नतीजे हर लिहाज से फायदे मंद होंगे।

प्रकृति की गोद में मिलेगा परमात्मा
हम किसी धार्मिक स्थान में प्रवेश करते ही अपनेआप को थोड़ा हल्का महसूस करते हैं। भगवान के दर्शन हो जाएं तो थोड़ी देर के लिए ही सही लेकिन हम अपनी सारी परेशानी, चिंता और थकान भूल जाते हैं। ऐसा ही तब भी होता है जब हम किसी प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण स्थान की यात्रा करते हैं। दरअसल इस समय हमारे भीतर जो परिवर्तन आता है वह दो कारणों से होता है, पहला उस स्थान पर होने वाली परमशक्ति और दूसरा हमारे भीतर की ऊर्जा। अगर भगवान के दर्शन का आनंद लेना हो तो पहले अपने भीतर की भक्ति को जगाइए। इससे आपकी आधी परेशानी खत्म हो जाएगी। आपको प्रकृति की गोद में ही परमात्मा की प्राप्ति हो जाएगी।एक सामान्य सी बात है जो हमेशा से कही जा रही है कि भक्ति के संसार में देव दर्शन का बड़ा महत्व है। धार्मिक स्थलों में जाकर जो राहत मिलती है वह एक तरफा नहीं होती। मंदिर हो या मस्जिद, गुरुद्वारा हो या गिरजा घर। यहां प्रवेश से पहले और बाद में अनुभूति में जो परिवर्तन होता है वह उन स्थानों में मौजूद परम शक्ति की तरफ से ही हो ऐसा नहीं है। आधा प्रयास प्रवेश करने वाले को भी करना पड़ेगा। यदि आप भीतर से प्रसन्न हैं तो किसी भी धार्मिक स्थल या प्रतिमा को देखकर प्रसन्नता बढ़ सकतीहै। यदि आप दुखी हैं तो हो सकता है वह स्थान आपको बहुत राहत न पहुंचाए। आपका अपना कॉन्ट्रिब्यूशन बड़ा महत्वपूर्ण है।
रामचरितमानस में तुलसीदासजी ने चार स्थानों पर प्रकृति का बड़ा अद्भुत वर्णन किया है। इसके पीछे उनका कवि होना नहीं था, वे भक्त के रूप में प्रकृति का वर्णन कर रहे थे क्योंकि उनकी दृष्टि में प्रकृति और परमात्मा भिन्न नहीं हैं। दार्शनिक लोग कहते हैं प्रकृति परमात्मा का नृत्य करता हुआ स्वरूप है। नृत्य शब्द इसलिए कहा गया है कि इसमें कलाकार और कला के एक होने की संभावना सबसे अधिक होती है। अन्य कलाओं में दोनों में भेद बना रहता है। गायन हो या वादन कलाकार कितना ही अच्छा प्रदर्शन करे लेकिन कला और उसमें दूरी बनी हुई है परंतु जब तक नृत्य और नाचने वाला एक न हो जाएं कला पूर्ण नहीं होती। प्रकृति, परमात्मा, नृत्य और नर्तक की तरह हैं। हम परमात्मा से मिलना चाहें तो ऐसे मिलें जैसे प्रकृति और परमात्मा एक-दूसरे से मिले हुए हैं। यह भाव आते ही हमारे भीतर प्रसन्नता जागेगी, यहां से उदासी मिटेगी। इसलिए जिन्हें अपने भीतर भक्ति जगाना हो, वे प्रकृति से अत्यधिक प्रेम करें।

गृहस्थी में जरूरी है मन की शांति और शालीनता
गृहस्थी चलना किसी दुनिया को चलाने से कम नहीं है। रोजमर्रा की समस्याओं से जूझते हुए निर्णय लेना, परिवार को एक सूत्र में बांधकर रखना और इससे भी महत्वपूर्ण है दाम्पत्य को सुखपूर्वक चलाना। गृहस्थी का सफल संचालन कोई छोटी बात नहीं है इसके लिए दो सूत्र अपनाना आवश्यक है पहला मन में शांति रखें, दूसरा व्यवहार में शालीनता रहे।
यह एक सामान्य सिद्धान्त है कि भले लोग गृहस्थी बसाते हैं और सज्जनता से उसे चलाते हैं। सज्जनता और शालीनता में बारीक फर्क है। गृहस्थी चलाते हुए कई सज्जन लोग शालीन नहीं रह पाते। शालीनता एक आत्मिक अनुशासन है। घर-परिवार के जीवन में विलास और अहंकार जिस तेजी से प्रवेश करते हैं उसके लिए शालीनता स्पीडब्रेकर का काम करती है। घर के सदस्य एक दूसरे के प्रति और खास तौर पर पति-पत्नी जब शालीनता का व्यवहार करेंगे तो अपनेपन के भाव में वृद्धि होगी। व्यवहार में शालीनता लाने के कुछ
आध्यात्मिक प्रयोग किए जा सकते हैं।शान्त मन शालीनता को स्वत: ही बाहर फैंकता है। पहले तो यह समझें कि गृहस्थी में मनुष्य का मन एक मदमस्त हाथी की तरह व्यवहार करता है, परिणाम देता है, बगिया उजाड़ता है और झोपड़ी, टापरी तोड़ता है। इसे कहते हैं अशांत मन। आप पाएंगे कि जब जब आपका मन अशांत है तब आप अपनी गृहस्थी में स्वयं ही कई नुकसान करेंगे। यहां समझ लें कि अशांत मन कुछ नहीं होता, दरअसल अशांति का नाम ही मन है। मन शांत करने के जितने प्रयास करेंगे हाथ में असफलता ही लगेगी। इसके लिए तीन तरीके अपनाना पड़ेंगे-मन से बाहर हो जाएं, दूर हो जाएं और पार चले जाएं। मन को शांत नहीं किया जा सकता, वह जैसा है वैसा ही रहेगा, हां हम उससे बाहर, दूर, पार जाकर शांति को उपलब्ध हो पाएंगे। इसके लिए कोशिश यह की जाए कि परिवारों में सामूहिक ध्यान के निजी शिविर जैसे लगाए जाएं। पति-पत्नी या अन्य सदस्य जब भी बैठें, साथ में ध्यान का अभ्यास करें।सावधान रहें इस समय मौन घटाना है चुप्पी नहीं। एक साथ किया जा रहा मेडिटेशन आपस में प्रेम भरेगा और साथ-साथ में उतरी चुप्पी वातावरण को बोझिल कर देगी।

धन कमाएं लेकिन उसका उपयोग करना भी सीखें
धन आज के युग की अनिवार्यता है। लोग धन की होड़ में अंधी दौड़ में शामिल हो गए है। जिस गति से धन दौलत कमाई जा रही है वैसे ही खर्च भी की जा रही है। अधिकांश हिस्सा विलासिता और अनावश्यक चीजों पर खर्च किया जा रहा है। आज की पीढ़ी को धन को निवेश करने के तरीके और उपयोग का सलीका भी आना चाहिए।
यह दौर है धन कमाने की होड़ और दौड़ का। किसी भी धर्म शास्त्र या गुरु ने इसके लिए मना नहीं किया है। हिन्दुओं के अवतारों ने तो सम्पत्ति के सद्पयोग को अपने आचरण से बखूबी बताया है। बुद्ध और महावीर तो बहुत धन देखकर फकीरी में उतरे थे। जीसस ने हमेशा हर तरह की दरिद्रता का विरोध किया था। मोहम्मद ने भी तिजारत के सारे कायदों पर साफ-साफ ख्याल दिए हैं। कुल मिलाकर दौलत को लेकर सबने एक बात तय की है कि इसकी तीन ही गति है-दान, भोग और नाश। धन को लेकर तीनों के अपने अलग-अलग परिणाम हैं। पहले भोग को समझें। हम सामान्यत: समझते हैं कि जिसे अधिक श्रम करना पड़ता है वह या तो मजदूर, कमजोर वर्ग में है या दुर्भाग्यशाली। इसीलिए कई लोग धन का उपयोग कम शारीरिक श्रम करना पड़े इस हेतु भी करते हैं। यहीं से आलस्य और धन का अपव्यय आरंभ होता है।यहीं से धन और स्वास्थ्य दोनों का नाश होता है। भोग शुरुआत है धन के नाश की। बीमारी में खर्च, चोरी, नुकसान में गया धन उपरी तौर पर नाश की श्रेणी में आता है। अध्यात्म कहता है कि धन आपको बाहर टिकने के लिए लालच देता है और बिना अपने भीतर उतरे हम पूरे जीवन का ही नाश करते हैं। उम्र के किसी पड़ाव में जब जिनके पास पर्याप्त धन हो जाता है वे अपने समय के उपयोग को लेकर भी भटक जाते हैं। ठीक ठाक धन आ जाए और समय का सद्पयोग न किया जाए तो या तो बीमार होंगे या अवसाद में डूब जाएंगे। इसलिए धन को एक ऐसे श्रम और इतने समय से जोड़े रखें जो बाहरी जीवन में समाज, राष्ट्र के लिए हो जाए तथा भीतरी जीवन में स्वाध्याय घटा दे।

सुखी दाम्पत्य की नींव हैं आदर, विश्वास और प्रेम
आज पहले तो विवाह न होना बड़ी परेशानी है और फिर विवाह के बाद निबाह होना उससे बड़ी परेशानी। अधिकांश लोगों की शिकायत है कि उनका दाम्पत्य जीवन असहज है। पति-पत्नी में तकरार और अविश्वास लगभग हर गृहस्थी में प्रवेश करता जा रहा है। वास्तव में हम सुखी दाम्पत्य के तीन प्रमुख सूत्रों को भूलते जा रहे हैं ये सूत्र हैं आदर, विश्वास और प्रेम।
सभी चाहते हैं कि दाम्पत्य सुखी रहे। इसके लिए खूब कोशिश भी की जाती है। सुख दाम्पत्य का मूल स्वभाव है। चूंकि गृहस्थी में हम मूल छोड़ आवरण पर टिक जाते हैं इस कारण सुख जो है ही उसे बाहर से लाने के लिए प्रयास करते हैं। दाम्पत्य में सुख बिल्कुल ऐसा है जैसे कोई चीज रखकर भूल जाएं। यदि ठीक से ढूंढ लें तो वस्तु मिल जाती है उसे बाहर कहीं से लाना नहीं पड़ेगा या पैदा नहीं करना पड़ेगा। वह पूर्व से हमारे पास था, बस हम विस्मृत कर गए, बिल्कुल ऐसा ही है परिवार में सुख। इस सुख को ढूंढना है तो शुरुआत अपने भीतर के प्रेम से की जाए। हम जितने प्रेम से भरे होंगे, परिवार में सुख की संभावना उतनी ही बढ़ा देंगे। जीवन में प्रेम उतरने के बाद क्रियाएं करना नहीं पड़ती, होने लगती हैं।चलिए आज शिव-पार्वती के दाम्पत्य के एक प्रसंग के दर्शन कर लें।विवाह के बाद शिव कैलाश पर बैठे थे और पार्वतीजी का प्रवेश हुआ। इस घटनाक्रम के लिए तुलसीदासजी ने लिखा है
जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा, बाम भाग आसन हर दीन्हा
अपनी प्रिया पत्नी को जानकर बैठने के लिए आदर से बाएं भाग में स्थान दिया। शिव का अर्थ है कल्याण, जो प्रेम का ही प्रतिबिंब है। यहां पार्वतीजी के आने पर शिव तीन काम करते दिखते हैं। इस पंक्ति में तीन शब्द आए हैं-प्रिया, आदर और आसन। पत्नी को प्रिया माना। पति-पत्नी दोनों के बीच जुड़ाव प्रेम होना चाहिए, मजबूरी नहीं। फिर आदर दिया। प्रेम का दावा करें और एक दूसरे के प्रति आदर का भाव न हो, गड़बड़ यहां से शुरु हो जाती है। और फिर बाएं भाग में बराबर का आसन दिया। पति-पत्नी के बीच समानता का भाव हो, बड़े-छोटे होने के इरादे, एक ऐसी प्रतिस्पर्धा को जन्म देते हैं जिससे वह अशांति का केन्द्र बन जाती है। शास्त्रों ने शिव को विश्वास और पार्वती को श्रद्धा माना है।

औरतों के बारे में सोच बदलने का समय है
समाज भले ही आधुनिकता का दावा भरते हों लेकिन महिलाओं के लिए सोच अभी भी दोयम ही है। महिलाओं की क्षमता और चरित्र को लेकर हमेशा संशय के भाव से ही देखा जाता रहा है। आज की नारी भले ही आधुनिका है लेकिन उसके पीछे पुरुष वर्ग की हीन सोच आज भी वैसी ही है।सचमुच औरत के लिए जमाना कभी नहीं बदला। सत्यनारायण व्रत कथा में साधु नामक वैश्य अपने दामाद के साथ जब व्यापार करने जाता है तो वहां उसे जेल हो जाती है। इस प्रसंग में गांव में रह गई उन दोनों की पत्नियों ने जो गतिविधि की थी उसमें जीवन के संघर्ष का एक नया रूप सामने आता है। एक तो दोनों स्त्रियां गांव में अकेली थीं। उधर उनके पति जेल में थे। अत: समाज ने भी इनकी ओर से मुंह मोड़ लिया। स्त्रियां यदि अकेली हों तो समाज में उनका संघर्ष और बढ़ जाता है। मां-बेटी बहुत परेशान थीं किंतु बेटी के मन में समस्या के समाधान की ललक बनी हुई थी। जिंदगी का कायदा है कि हमें ऐसे सत्य और शक्ति की तलाश करते रहना चाहिए जिन्हें दूसरे नजरअंदाज कर रहे हैं।दूसरों के द्वारा छोड़े गए अवसरों को तुरंत लपक लें।बेटी कलावती एक दिन एक कथा में पहुंच गई। वह लगातार प्रयासरत थी। जिन व्यक्तियों में चरित्र होता है, दृढ़ता होती है उनका व्यक्तित्व कठिनाई में विशेष आकर्षक रूप ले लेता है। बेटी के मुंह से कथा वाला प्रसंग सुनकर मां के मन में आया और दोनों ने स्वयं व्रत तथा पूजन किया।यहां एक बड़े सूत्र की बात सामने आई है। वैश्य और उसका दामाद कारागृह से इसलिए मुक्त हुए थे कि उन दोनों की पत्नियों ने पूजन और व्रत के माध्यम से उनकी मुक्ति का प्रयास किया था। भारत में नारियां तब भी और अब भी देहरी भीतर और देहरी बाहर दोहरा दायित्व निर्वाह कर रही हैं। इसलिए मातृ शक्ति के संघर्ष को पूरा सम्मान दिया जाए। अपना सबकुछ न्यौछावर करने के बाद माताओं और बहनों की एक ही मांग रहती है कि कुछ पल का सम्मान, कुछ क्षण का स्नेह और समाज का पुरुष वर्ग इन्हें देने में चूक ही जाता है।

कभी खुद के लिए भी निकालें समय
हम भागदौड़ में इतने रम गए हैं कि दुनिया तो ठीक सबसे ज्यादा खुद को ही भूला बैठे हैं। आज हमारे पास खुद के लिए ही समय नहीं है। इससे सबसे बड़ी समस्या यह खड़ी हो गई है कि हमारा खान-पान भी बिगड़ गया है, जो सीधे हमारी प्राणशक्ति को प्रभावित करता है। हम कब, कहां, क्या और कैसे खा रहे हैं इसका ध्यान नहीं रहता है।
आज आदमी इतना अधिक बाहर टिक गया है कि मनुष्यता की भीतर भी एक यात्रा हो सकती है वह भूल ही गया है। आप कितने ही सक्रिय, व्यस्त और परिश्रमी हों अपने भीतर मुड़ना न भूलें। चौबीस घण्टे में कुछ समय खुद के साथ जरूर रहें। दिनभर, रातभर हम सबके साथ रह लेते हैं। अपना काम, उपयोग की सामग्रियां, रिश्ते, घटनाएं इन सबके साथ हमारा वक्त गुजरता है पर खुद के साथ होने में चूक जाते हैं। भीतर उतरने में जितनी बांधाएं हैं उनमें से एक बाधा है हमारा भोजन। हमारे व्यक्तित्व की पहली परत है देह और इसका निर्माण भोजन से होता है। आइए हनुमानजी महाराज से सीखें भोजन का महत्व और सही उपयोग। लंका जलाने जैसा विशाल कार्य करने के पूर्व वे सीताजी के सामने एक निवेदन रखते हैं।
सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा। लागि देखि सुंदर फल रूखा।।
सुंदर फल वाले वृक्षों को देखकर मुझे बहुत भूख लगी है। यहां हनुमानजी इशारा कर रहे हैं कितने ही व्यस्त रहें समय पर संतुलित और शुद्ध (शाकाहारी) भोजन अवश्य कर लें। भोजन को काम चलाऊ गतिविधि मानना अपने ही शरीर पर खुद के ही द्वारा एक खतरनाक आक्रमण है। एक ऐसा युद्ध जिसमें आप स्वयं ही शस्त्र हैं और स्वयं ही आहत हैं। आप जितना शुद्ध भोजन ले रहे होंगे उतनी ही आपकी अंतरयात्रा सरल हो रही होगी। इस अल्पाहार के ठीक बाद हनुमानजी को रावण से मिलना था। रावण यानी दुगरुणों का गुच्छा। यदि आप भरे पेट हैं तो दुगरुण खाने की अरूचि की संभावना बनी रहेगी। शुद्ध भोजन भीतर की पारदर्शिता और बाहर की सक्रियता को बढ़ाता है और इसी कारण हनुमानजी लंका जलाने यानी दुगरुण को नष्ट करने जैसा कार्य कर सके। इसलिए आहार बाहरी शरीर को सुंदर और भीतरी शरीर को शांत बनाएगा।

सचमुच, इबादत और जादू का कोई मेल नहीं
इबादत (भक्ति) और तिलिस्म (जादू) दोनों अलग-अलग हैं। ये दोनों एक साथ नहीं हो सकते हैं। इबादत आत्मा से होती है और जादू जिस्मानी। जादू पर टिकने वाले जिस्म तक ही रह जाते हैं और इबादत करने वाले भीतर उतरते हैं। भक्ति हमें सीधे परमात्मा से जोड़ती है।
इन्सान जब ऊंचाइयों को छूता है तो इसमें कोई शक नहीं कि उसकी अपनी मेहनत, काबिलियत इसके पीछे रहती है, लेकिन केवल ये दो बातें ही हैं ऐसा खयाल आदमी को जिस्मानी ही बना देगा। जिन्हें थोड़ा रूहानी होना हो उन्हें मुकद्दर और एक परमसत्ता को भी मान देना होगा। अपनी हद के बाद च्च्उसकीज्‍ज हद शुरु हो जाती है। मुस्लिम फकीर कहा करते हैं इबादत और जादू का मेल नहीं है। एक फकीर हुए हैं अबु हफस हदाद। ये एक दासी से मोहब्बत करते थे और उसे पाना चाहते थे। एक बार एक जादूगर के पास गए और मदद मांगी करिश्मे की। जादूगर ने भी बड़ी अजीब शर्त रख दी।जादूगर ने कहा-अबु हदाद जो भी इबादत आप इन दिनों कर रहे हो उसे चालीस दिनों के लिए छोड़ दो और फिर मेरे पास आना।
चालीस दिन उन्होंने ऐसा किया भी। पर जब जादूगर ने जादू किया तो कोई असर नहीं हुआ। जादूगर ने फरमाया-जरूर तुमने इन चालीस दिनों में कोई नेक काम कर लिया होगा, तभी जादू काम नहीं कर रहा। अबु बोले मैंने इबादत तो नहीं की, लेकिन आते-जाते लोगों के रास्ते के कंकर, पत्थर जरूर हटाता रहा। सुनकर जादूगर ने सुन्दर जवाब दिया-सोचो, तुमने जिस खुदा की इबादत को छोड़ा और जरा सा नेक काम किया तो भी उस खुदा ने तुम्हे ऐसा काबिल कर दिया कि मेरा जादू बेअसर हो गया। इसलिए टिकना है तो उस परमशक्ति पर टिको, दुनिया के एक जिस्म के लिए इतनी बेताबी क्यों? पाना है तो दिलोजान से उस परवरदिगार को हांसिल करने में लगो। यहां यह भी समझ लें कि ऊपर वाला लेन-देन में बड़ा नेक है, हम भी अपने हिसाब किताब में गड़बड़ी बंद कर दें।

कभी अपनी चाहतों का बहीखाता भी बनाइए
आज का दौर केलक्युलेशन का दौर है। हर चीज को नापतौल कर किया जाता है। हमारी दिनचर्या भी हिसाब-किताब से बंटी है। पैसे को तो हम एक-एक पाई हिसाब में रखते हैं। अगर खुद को समझना हो तो उसका भी एक रास्ता हिसाब-किताब की गली से होकर गुजरता है। अपनी इच्छाओं, महत्वाकांक्षाओं और चाहतों का हिसाब कीजिए, कभी अकेले में उनका बेलैंस टटोलिए, आपकी खुद से मुलाकात हो जाएगी।हम दुनिया भर का हिसाब-किताब रखने में माहिर होते हैं। कभी अपनी चाहतों का बहीखाता रखा है? कभी कभी इसकी एकाउन्टिंग करना चाहिए। जब भी आप अपनी चाहत की छानबीन करेंगे आपकी मुलाकात आपके मन से हो जाएगी। हमारे मन को पसंद नहीं आता कि कोई इस तरह चाहत पर निगरानी जैसे भले काम करे। मन च्च्टच मी नॉटज्‍ज होता है। मेरी मर्जी मैं जो करूं यह मन का निरन्तर-नारा होता है। मन अपनी इस गूंज को कई लोगों के शरीर के प्रत्येक अंग में भर देता है। इसी कारण शरीर से फिर ऐसे लोग, अनियंत्रित, अव्यवस्थित और अशांत पाए जाते हैं।मन लगातार मनुष्य से कहता है जैसा मैं चाहता हूं वैसा तू बन जा। बहुत कम लोग मन से मुकाबला करने की तैयारी करते हैं। जीसस के लिए एक रूपक याद किया जाता है। उनकी मुठभेड़ एक बार उनके मन से हो गई। ईसा मसीह ने इसी मन को शैतान का नाम दिया। शैतान इन्सान को पहला लालच यह देता है कि आ तुझे मैं अपने जैसा बना दूं। क्या नहीं है मेरे पास, बादशाहों की तरह हो जाएगा। ईसा मसीह ने शैतान को जो जवाब दिया वह हमारे काम का है। वे बोले अब तू क्या मुझे बनाएगा, जिस सफर पर मैं चला हूं मेहरबानी करके मेरा रास्ता छोड़ दे। मैं जो हूं, मैं जान गया हूं, तू क्या मुझे बनाएगा।मेरा अपना होना क्या है, जो यह जान जाता है, उसका मन भी समझ जाता है कि अब इस पर मेरी हुकुमत नहीं चलेगी। मन की दौड़ में हमें अपनी भागमभाग को शामिल नहीं करना है। जीसस सभी से यह कह रहे हैं कि कह दो अपने मन से तू दौड़ तो अकेला दौड़ हम तो अपने साथ, खामोश, ध्यान में, ईश्वर के पास रुके हैं। अपनी चाहतों के हिसाब किताब का यह सबसे अच्छा चैक है।

ब्रह्मचर्य तो जवानी में ही काम का है
ब्रह्मचर्य को लेकर कई तरह की भ्रांतियां हैं। क्या यह अनिवार्य है या ऐच्छिक यह बहस का विषय भी रहा है। अगर समझा जाए तो ब्रह्मचर्य शक्ति के संग्रह की ही एक प्रक्रिया है। हर आदमी के जीवन में कुछ समय तो ब्रह्मचर्य घटना ही चाहिए। युवावस्था में इसके लिए सबसे ज्यादा प्रयास होने चाहिए। यह हमारे भौतिक और आध्यात्मिक दोनों विकास के लिए जरूरी है।
यह सवाल अक्सर पूछा जाता है और जवानी में तो खासतौर पर कि ब्रह्मचर्य आखिर होता क्या है। शाब्दिक अर्थ तो यह है कि जिसकी चर्या ब्रह्म में स्थित हो वह ब्रम्हचारी है। बहुत गहराई में जाएं तो इसका विवाहित या अवाहित होने से उतना संबंध नहीं है जितना जुड़ाव कामशक्ति के उपयोग से है। हरेक के भीतर यह शक्ति जीवन ऊर्जा के रूप में स्थित है। जब कोई परमात्मा, आत्मा, परलोक, पुनर्जन्म, सत्य, अहिंसा जैसे आध्यात्मिक तत्वों की शोध में निकलेगा तब उसे इस शक्ति की बहुत जरूरत पड़ेगी और इसे ही ब्रह्मचर्य माना गया है। जिन्हें प्रसन्नता प्राप्त करना हो उन्हें अपने भीतर के ब्रह्मचर्य को समझना और पकड़ना होगा।जानवर और इन्सान में यही फर्क है। ऐसा शरीर तो दोनों के पास रहता है जो पंच तत्वों से बना है। इसी कारण शरीर को जड़ कहा है, लेकिन आत्मा चेतन है। वह विचार और भाव सम्पन्न है।जानवरों में आत्मा भी है। फर्क यह है कि मनुष्य के भीतर जड़ और चेतन के इस संयोग का उपयोग करने की संभावना अधिक है और यही उसकी विशिष्टता, योग्यता का कारण बनती है। यदि इसका दुरुपयोग हो तो मनुष्य भी जानवर से गया बीता होगा और सद्उपयोग हो तो जानवर भी इन्सान से बेहतर हो जाता है। हम ब्रह्मचर्य के प्रति जागरुक रहें इसके लिए नियमित प्राणायाम और ध्यान का अभ्यास सहायक होगा। जड़ शरीर को साज-संभाल करने में जितना समय हम खर्च करते हैं उससे आधा भी यदि चेतन, जीवन ऊर्जा के लिए निकालें, थोड़ा अपने ही भीतर जाएं।

अध्यात्म गृहस्थी में रुकावट नहीं, रास्ता है
गृहस्थ के लिए सबसे बड़ी समस्या होती है परमात्मा का ध्यान लगाना। जब कोई गृहस्थ परमात्मा की अध्यात्म की राह पर चल पड़े तो उसे समाज को डर लगने लगता है कि वह सन्यासी न हो जाए। और पूरी तरह गृहस्थी में डूबकर भी परमात्मा का ध्यान नहीं लगा सकते हैं।अभी भी कई लोग मानते हैं कि अध्यात्म साधना में दाम्पत्य संकट है, गृहस्थी रुकावट है, परिवार बाधा है और नारी तो नर्क का द्वार है। जो लोग भगवान तक पहुंचना चाहें या भगवान को अपने तक लाना चाहें वे ये समझ लें कि एकाकी जीवन से तो भगवान ने स्वयं को भी मुक्त रखा है। ईश्वर के सभी रूप लगभग सपत्नीक हैं। फिर परिवार तथा पत्नी बाधा और व्यवधान कैसे हो सकते हैं। समझने वाली बात यह है कि अध्यात्म ने काम का विरोध किया है स्त्री का नहीं। अनियमित काम भावना स्त्री का पुरुष के प्रति और पुरुष का स्त्री के प्रति घातक है। भारतीय संस्कृति में तो ऋषिमुनियों के अनेक उदाहरण हैं जिन्होंने अपनी धर्मपत्नी के साथ ही तपस्या की थी। बाधा तो दूर वे तो सहायक बन गई थीं।बीते दौर में अध्यात्म साधकों ने विवेकशील चिन्तन को बहुत महत्व दिया था। विवेक के कारण स्त्री-पुरुष का भेद अध्यात्म में मान्य नहीं किया है। जब भेद ही नहीं है तो स्त्री बाधा कैसे होगी। नारी संग और काम भावना बिल्कुल अलग-अलग है। ब्रम्हचर्य को साधने के लिए नारी को नरक की खान बताना दरअसल ब्रम्हचर्य का ही अपमान है। वासना का जन्म, संग से नहीं कुविचार और दुबरुद्धि से होता है। स्त्री-पुरुष के सहचर्य अध्यात्म में पवित्रता से देखा गया है। इसीलिए विवाह के पूर्व स्त्री-पुरुष को आध्यात्मिक अनुभूतियों से जरूर गुजरना चाहिए। पति-पत्नी के सम्बन्धों में पवित्रता और परिपक्वता के लिए आध्यात्मिक अनुभव आवश्यक हैं। इस रिश्ते में जिस तरह से आज अशांति देखी जा रही है इसका निदान केवल भौतिक संसाधनों और तरीकों से नहीं होगा इसमें आध्यात्मिक मार्गदर्शन उपयोगी रहेगा।

गलत समझौते न करें, ये भविष्य की मुसीबत हैं
कई बार हम प्रेम, मोह या भयवश गलत समझौते कर लेते हैं, ये समझौते या वादे भविष्य में हमारे लिए परेशानी बन जाते हैं। कई बार तो ऐसे समझौते प्राणघातक भी हो सकते हैं। जब भी किसी से कोई वादा करें तो सोच-विचार कर करें। वरना जिंदगीभर आपको उस पर पछताना भी पड़ सकता है।गलत समझौते कभी-कभी सैद्धांतिक और सही कार्यो में बाधा बन जाते हैं। एक सीमा तक समझौता ठीक है लेकिन उसके बाद उनसे होने वाले नुकसान को भुगतना ही पड़ता है। दशरथ ने कैकयी के साथ अपने दाम्पत्य जीवन में समझौता किया था। जिसकी कीमत उन्हें राम-राज्य के मामले में चुकानी पड़ी। कैकयी दशरथ की प्रिय रानी थी और कैकयी देश के राजा अश्वपति की पुत्री थी। एक बार देव-दानवों के युद्घ में संयोग वश दशरथ के रथ के पहिये की कील टूट गई। कैकयी ने कील के स्थान पर अपनी अंगुली डालकर राजा को बचाया। राजा ने प्रसन्न होकर दो वर मांगने को कहा। कैकयी ने कहा समय आने पर मांग लूंगी। श्रीराम के राज्याभिषेक से पहले कैकयी दशरथ को अपने वरदान की याद दिलाती है -
सुनहु प्रानप्रिय भाबत जी का। देहु एक बर भरतहि टीका।
तापस बेष बिसेष उदासी। चौदह बरिस रामु बनबासी॥
कैकेयी दशरथ से कह रही हैं-आपने दो वरदान देने को कहा था। उनके भी मिलने में संदेह है। एक वर तो यह है कि भरत का राजतिलक हो और दूसरा राम को चौदह वर्ष का वनवास। चूंकि कैकयी अतिसुंदर थी और उनके पिता ने दशरथ से यह वचन लिया था कि कैकयी का पुत्र ही राजा बनेगा तब दशरथ मोहवश यह स्वीकार कर चुके थे। इस तरह समझौते पर टिका हुआ दाम्पत्य दुखद परिणाम दे गया। अपने विवेक द्वारा हमेशा आपसी समझ, सहमति और समझौते के अंतर को जानकर ही निर्णय लिया जाए, वरना रामराज्य (एक श्रेष्ठ व्यवस्था) चौदह वर्ष के लिए आगे खिसक जाती है तथा हाथ में रह जाती है मृत्यु और अपयश, जैसा दशरथ जैसे सक्षम और श्रेष्ठ राजा के जीवन में भी घट गया।

अपनी बात समझाना भी एक कला है
कहते हैं किसी अपनी बात समझाना भी एक कला है। यह हर किसी के बस की बात नहीं होती है। जिसे समझाना हो पहले उसके स्वभाव, उसके भीतर के चिंतन को समझना जरूरी है। अगर हम किसी अधर्मी से धर्म को धर्म की बातों का उदाहरण देकर समझाएंगे तो सफलता नहीं मिलेगी। किसी को समझाया कैसे जाए, इसका तरीका हनुमानजी से सीखा जा सकता है। यदि किसी इन्सान को समझाना हो तो सबसे पहले यह जानने की कोशिश की जाए कि उसके भीतर क्या चिंतन विचार चल रहा है। उसके भीतर के स्तर को पकड़ कर ही उसकी समझ फेरी जा सकती है। इस प्रयोग में हनुमानजी महाराज बड़े माहिर थे।
स्वामी विवेकानंद हनुमान भक्त थे और ऐसा ही प्रयोग उन्होंने विदेश जाकर अपने व्याख्यान में किया। सुन्दरकांड की एक पंक्ति बहुत चर्चित है। हनुमानजी ने भरी सभा में रावण से कहा था-
राम नाम बिनु गिरा न सोहा। देखु बिचारि त्यागि मद मोहा।।
बसन हीन नहिं सोह सुरारी। सब भूषन भूषित बर नारी।।
अर्थात्-रामनाम के बिना वाणी शोभा नहीं पाती, मद-मोह को छोड़, विचार देखो। हे देवताओं के शत्रु! सब गहनों से सजी हुई सुन्दरी स्त्री भी कपड़ों के बिना शोभा नहीं पाती। यहां हनुमानजी जैसे ब्रम्हचारी के मुंह से नारी का ऐसा उदाहरण देना लोगों को भ्रम और चिंता में डाल देता है। इस प्रसंग में बजरंगबली अपने चरित्र से दो बातों की ओर इशारा कर रहे हैं। पहली तो यह कि रावण काम अवसर ग्रस्त व्यक्ति है। उसकी सोच में सदैव नारी बसी है और वह स्त्री को मान की देवी नहीं भोग की वस्तु ही मानता है। इस काम पिपासु को ये शब्द तीर की तरह उतर कर समझ का कारण बनेंगे। दूसरी बात है हनुमानजी का ब्रम्हचर्य और नारी का स्मरण। हनुमानजी के लिए ब्रम्हचर्य का अर्थ है कामशक्ति यानी जीवन ऊर्जा का सद्पयोग न कि बाहरी स्थितियों से जोड़कर उसकी व्याख्या। काम शक्ति उनके लिए घृणा नहीं बल्कि वो जीवन धारा है जो मनुष्य को ऊंचा उठा सकती है। श्रेष्ठ मानवीय चिंतन इसी जीवन धारा से जन्मता है। यह काम शक्ति, कुंडलिनी महाशक्ति के रूप में हमारे शरीर को सबसे नीचे के चक्र मूलाधार पर पड़ी रहती है। सारा व्यक्तित्व इसी से प्रभावित होता है कि आप इसका कैसे सद्पयोग या दुरुपयोग करेंगे।

संयम है तो हावी नहीं होंगे काम, क्रोध और लोभ
आज के दौर में संयम को समझना जरूरी है, हम संसार में रहकर काम, क्रोध और लोभ के अधीन आसानी से हो जाते हैं क्योंकि हमारे भीतर कहीं संयम का भाव नहीं होता है। संयम का मतलब केवल खुद पर नियंत्रण करना नहीं होता, यह चित्त की मौन होने वाली स्थिति है। हमारे भीतर जब मौन घटने लगता है तो संयम भी धीरे-धीरे खुद चला आता है।
जो चित्त संयम से जुड़ा है वो श्रेष्ठ हो जाता है और जीवन में शांति का कारण बन जाता है। यह एक रूहानी ख्याल है। इन्सान के भीतर की उथल पुथल, समस्याएं, सब की एक जैसी होती हैं। चाहे वह किसी भी मजहब का हो। भीतर से सब एक हैं। झंझटें बाहर आने पर शुरु होती हैं। हमारे भीतर एक जीवन ऊर्जा होती है। हम जब काम, क्रोध, लोभ जैसे दुर्गण में होते हैं तब यह बर्बाद होने लगती है और भले काम करते हैं तो उन लम्हों में यह ऊर्जा और बढ़ जाती है। तब हालात कैसे भी हों हम खुश रहना सीख जाते हैं। आईए मुस्लिम फकीर रबिआ को देखें। वे एक बार बहुत बीमार थीं। जाहिर है जब संत महात्मा बीमार होते हैं तो लोग कारण ढूंढने लग जाते हैं। रबिआ से कारण पूछा गया तो वे बोलीं, मेरे दिल में जन्नत पाने की इच्छा हुई वे (खुदा) खफा हो गए होंगे, बस ये हालात (बीमारी) उसी का नतीजा है। इसे कहते हैं- जाही बिधि राखे राम ताहि बिधि रहिए। इसी दौरान सफियान और अब्दुल वहीद आमदी नाम के दो फकीर रबिया की मिजाज पुर्सी के लिए पहुंचे। उन्होंने गुजारिश की कि आप खुदा के नजदीक हैं, उससे कहें, दुआ करं कि वे आपको इस बीमारी से निजात दें। रबिआ ने खुबसूरत जवाब दिया। यह तकलीफ उसी की दी हुई है और खुदा की दी हुई चीज की शिकायत फिर खुदा से क्या करना। उसके बंदे उसकी मर्जी की खिलाफत करें यह ठीक नहीं।
आखिर बुरे हालात में भी फकीरों के मुंह से भले अलफाज क्यों निकल जाते हैं। मामला वही है जिनका चित्त संयमित है वे शांत हो जाते हैं और शांत व्यक्तित्व के शब्द अद्भुत ही होते हैं।

सच है, शांति का सबसे अच्छा मार्ग है क्षमा
हमारे जीवन पर दूसरे इतना हावी हो गए हैं कि हम खुद के हृदय से दूर हो रहे हैं। मन अशांत होते हैं और शांति की तलाश में यहां-वहां भटकते रहते हैं। क्रोध हमारी जीवनशैली का एक हिस्सा बन गया है। हम क्षमा करने से कतराते हैं और बदला लेने को पौरूष समझते हैं। जबकि यह सौ फीसदी सही है कि क्षमा शांति का सबसे अच्छा मार्ग है।
जब कभी हम अशांत होते हैं उस समय तो सूझ ही नहीं पड़ता कि कैसी जीवनशैली अपनाएं। अशांत मन क्रोध को ही सहारा बना लेता है। भ्रम जैसी स्थितियां उसे मददगार लगने लगती हैं। फिर जब यह तूफान गुजर जाता है तब आदमी को लगता है यह ठीक नहीं था और वह शांति के लिए तड़पने लगता है। शांति प्राप्त करने के लिए कुछ प्रयोग किए जा सकते हैं। अपने हृदय के निकट अधिक से अधिक रहना सीखें। हम ज्यादातर बुद्धि के निकट रहते हैं। बुद्धि के अपने तरीके होते हैं।
हृदय के निकट आते ही हम स्थितियों से निपटने के नए दृष्टिकोण पाने लगते हैं। खासतौर पर जब हालात हमारी पसंद के न हों ऐसे समय हम या तो उनमें उलझ जाते हैं या प्रतिक्रिया करके अपनी ऊर्जा नष्ट करते हैं। एक और तरीका है उपेक्षा का भाव। नापसंद चीजों और स्थितियों के प्रति उपेक्षा का भाव हमें शांत रहने में मदद करेगा और यह पैदा होता है क्षमा के स्वभाव से। क्षमा करना सीखिए। अशांत बनाने वाली स्थितियों से निपटने का एक आसान उपाय है क्षमा करना।
क्षमा का भाव मनुष्य को व्यर्थ के गणितों से बचाता है। क्षमा हृदय के निकट ले जाती है और यह निकटता तर्क तथा अहं के भाव को समाप्त करने में मदद करती है। बिना हृदय से जुड़े जो यात्रा केवल दिमाग से की जाएगी प्रतिस्पर्धा के युग में वह बदला लेने की भावना बन जाएगी और इसी में अशांति छिपी है इसलिए क्षमा करना सीखिए और हृदय के निकट जाइये। क्षमा का भाव स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को जन्म देता है। भौतिक युग में सफलता की ललक बनाए रखते हुए क्षमा करने का स्वभाव निश्चित ही शान्ति पहुँचाएगा।

पहचानें आपके भीतर असीम संभावनाएं हैं
लोग पूछते हैं कि हनुमानजी ने वानर का रूप क्यों लिया था? कई लोगों के लिए यह जिज्ञासा का विषय है। कई तरह की पौराणिक कथाएं हैं उनके वानर रूप के लिए। लेकिन इसे दार्शनिक रूप से देखा जाए तो हनुमान के वानर रूप में एक बहुत बड़ा संकेत छुपा है। वह संकेत है अपने भीतर छिपी अनंत संभावनाओं का। उन्होंने वानर रूप धर कर यह सिखाया है कि आप अपने उद्देश्य और अपनी क्षमताओं को पहचान लें तो वानर भी देवता बन सकता है, फिर मनुष्य होकर तो देवत्व आसानी से पाया ही जा सकता है। बस जरूरत है खुद के भीतर छिपी संभावनाओं को पहचानने की।
हमारे जीवन में कई शब्द ऐसे गुजरते हैं जो होते तो सरल हैं लेकिन उनके अर्थ गहरे होते हैं। श्रीहनुमानचालीसा का प्रत्येक शब्द ऐसा ही है। हर शब्द में दर्शक, दिशा और व्यावहारिक जीवनशैली के संकेत हैं। तुलसीदास केवल कवि नहीं थे वे ऋषि होने के भाव को स्पर्श कर गए थे। जीवन जीने और कर्म करने की समझ देने वाले सृजनकर्ता थे। हनुमानजी उनके पथ प्रदर्शक थे और हनुमानचालीसा लिखकर उन्होंने हमारा मार्गदर्शन कर दिया। इसीलिए हनुमानचालीसा जैसा छोटा-सा साहित्य करोड़ों लोगों का गाइड और गॉड फादर दोनों बन गया। समस्याओं और घटनाओं से निपटने की हनुमानजी की अपनी विशिष्ट शैली है। यदि कोई इसे समझकर जीवन में उतारे तो वह अपने यश और शौर्य में वृद्धि कर सकता है। यह सवाल अनेक लोगों के मन में है कि हनुमानजी वानर हैं, मनुष्य हैं या अवतार?वे वन में रहने वाले नर हैं। उनका वानर रूप मनुष्यों का ही रूप था। मानव बनकर ही मानव को लीला का अर्थ सही तरीके से समझाया जा सकता है। दुनियाभर के धर्मो में जब भी कोई परम शक्ति या देवता मनुष्य बनकर आता है तो उसका उद्देश्य यही रहता है कि मनुष्य यह समझ सके परमात्मा के निकट पहुँचने का मानवीय मार्ग क्या है क्योंकि मनुष्य होना जितने गौरव की बात है उतनी ही तकलीफ का भी मामला है। जानवर श्रेष्ठ होगा तो ज्यादा से ज्यादा अच्छा जानवर बन जाएगा पर यदि मनुष्य उत्तम बना तो देवत्व को भी प्राप्त कर सकता है और पतित हुआ तो पशु से भी अधिक गिर सकता है। अपनी ही सीमाओं के पार जाने की असीम संभावनाएं जिस मनुष्य में छिपी हैं उसके लिए हनुमानजी रोल मॉडल हैं।

गृहस्थी क्या है? पहले यह समझ लें..!
कई लोग बस शादी-शुदा जिंदगी को गृहस्थी का नाम देते हैं। शायद वे ये नहीं जानते हैं कि गृहस्थी कोई दृश्य नहीं बल्कि यह एक व्यवस्था है। गृहस्थी आनंद का स्थान है और भावी पीढ़ी के लिए एक नर्सरी भी। हम संस्कारों के बीज इस नर्सरी में बोएंगे तो सुफलदायी संतानें मिलेंगी। इस नर्सरी को ठीक से चलाना बहुत ही चुनौती और जिम्मेदारी का कार्य है।
नर्सरी का कायदा है यहाँ पौधे उगते जरूर हैं परन्तु पनपते और बड़े कहीं और होते हैं। बीज के सदुपयोग का केन्द्र है नर्सरी। गृहस्थी एक नर्सरी की तरह है। यहाँ संतानों को तैयार किया जाता है फिर छोड़ दिया जाता है संसार में पनपने, फलने, फूलने के लिए। भारतीय संस्कृति ने दाम्पत्य को इसीलिए बहुत महत्वपूर्ण मानकर तपस्थली कहा है। भारतीय गृहस्थी केवल स्त्री-पुरुष के मिलन की घटना नहीं है। यहाँ दुनिया की योग्य, सक्षम और श्रेष्ठ संतान तयार करने की जिम्मेदारी भी है। संस्कारित माता-पिता अपने परिवार के दैनिक कार्य व्यवहार में या कहें गृहस्थी की नर्सरी में श्रम, प्रेम, मधुरता, सेवा, ईमानदारी, सद्गुण तथा लक्ष्य जैसे बीज पनपाते हैं।योग्य नर्सरी के पौधे जहाँ भी जाएंगे उस बगीचे को फल-फूल, महक और सौन्दर्य प्रदान करेंगे। हमारी संतानें संसार में ऐसा करें इससे बढ़कर गौरव और क्या होगा। जैसे अच्छी नर्सरी में खाद, हवा, पानी का ख्याल किया जाता है वैसे ही परिवार में विवाह को वासना से मुक्त रखें, संतान से अति मोह न रहे, आय को लोभ से दूर रखें, पारिवारिक अधिकारों को अहंकार में न बदलें, एक-दूसरे के प्रति विश्वास को संवेदनशीलता से जोड़ें तब जाकर नर्सरी के पौधे हर बगिया की शान बनेंगे। आज परिवारों के वातावरण में अधिकांश सदस्यों को घुटन महसूस होती है। या तो जमकर आंसू बहाए जा रहे हैं या पी-पीकर, दम घोटा जा रहा है, जबकि परिवारों में संवेदना बची रहे तो एहसास बना रहे आंसू भी दिल की जुबान बन जाते हैं और गृहस्थी में कहने-सुनने से ज्यादा समझने का महत्व है।

अनुभव और अनुभूति से सिखाते हैं सच्चे गुरु
शिक्षा के व्यवसायीकरण की होड़ में गुरु शब्द विलुप्त सा हो गया है। गुरु भारतीय संस्कृति की जड़ है लेकिन अब न तो ऐसे गुरु हैं और न ही ऐसे शिष्य। रटन विद्या के दौर में अनुभव और अनुभूति दोनों गौण हो गए हैं। सच्च गुरु वह होता है जो अपने शिष को केवल कोरा ज्ञान न दें, उन्हें अनुभव और ज्ञान की अनुभूति भी दे। गुरु अपने शिष्य के रूपांतरण के लिए तत्पर रहते हैं। यह एक ऐसा रूपांतरण होता है जो ज्ञान से अधिक अनुभूति से कराया जाता है।
मनुष्य को ज्ञान और जानकारी शिक्षा और शिक्षक से मिल जाती है लेकिन अनुभूति सद्गुरु ही कराते हैं। गुरु हमेशा अनुभव करने का मौका देते हैं। कई बार तो गुरुओं ने शिष्यों पर ऐसे प्रयोग किए हैं कि उन्हें भरपूर गलती भी करने दी। उसके बाद जब गलती हो गई तब अनुभव कराया कि गलत क्या होता है। इसीलिए कुछ शिष्य बीच मार्ग में सद्गुरुओं के विरोधी हो जाते हैं। उनका मानना रहता है गुरु चाहते तो हमें गलत करने से रोक सकते थे किंतु रोका नहीं। इधर गुरु यह मानकर चलते हैं कि जब तक अनुभव नहीं होगा रूपांतरण पूरा नहीं होगा। इसे अध्यात्म में तप ज्ञान कहा है। हर अच्छी और बुरी बात के मूल को जान लेना तत्व ज्ञान है। केवल सतह और आवरण पर टिककर जानकारी देने में गुरुओं की रुचि नहीं होती। गुरु अंत:करण पर जो वासना चढ़ी होती है उसे हटाकर श्रेष्ठ आस्था को स्थापित करते हैं। यहीं से आत्मा परमात्मा बनने की ओर चल देती है। नर को नारायण बनाने की कला गुरु जानते हैं।मनुष्य की मूल सत्ता को सद्गुरु ने अनुभव किया है और वे इसी को अपने शिष्यों में बाँटते हैं। पूजा, पाठ, जप, तप ये आरंभिक क्रियाएं हैं। एक तरह से पड़ाव ही हैं इसे मंजिल न समझ लिया जाए। फिर भी लोग साधना में कुछ हाथ नहीं लगता इस बात के आरोप लगाते हुए पाए जाते हैं। परमात्मा मनचाहा वरदान नहीं देता यह निराशा भी लोगों को घेर लेती है, जबकि आत्मचिंतन और आत्म निर्माण इन दो क्रियाओं से गुजरे बिना जीवन का सही अर्थ पता नहीं लगता और इसके लिए सद्गुरु द्वारा रूपांतरण आवश्यक है।

उपहार के बहाने करें भावनाओं का आदान-प्रदान
उपहार देने-लेने की परंपरा कोई नई नहीं है, लगभग सभी धर्म, सभी समाजों में एक-दूसरे को उपहार दिया और लिया जाता है। उपहार का सीधा मतलब आप अपनी सद्भावनाएं किसी प्रिय को दे रहे हैं। यह जीवन भी प्रकृति द्वारा दिया गया एक उपहार ही है। सभी धर्मो में उपहार देने की परंपरा है। हिन्दू लोग दीपावली के समय एक-दूसरे को उपहार देते हैं। ईसाइयों के सांताक्लाज तो उपहारपुरुष ही हैं। इसके माध्यम से खासतौर पर बच्चों को सद्भाव का संदेश दिया जाता है।
उपहार सद्भावनाओं का प्रदर्शन और अपनेपन की प्रतिक्रिया है। उपहार देकर यह भी बताया जाता है कि सबसे बड़ा उपहार मानव जीवन है। उपहार को एक सुंदर से आवरण में बाँधा जाता है। पैकेजिंग इसलिए भी की जाती है कि भीतर क्या है इसकी उत्सुकता बनी रहे। जब तक खोला न जाए उपहार की उत्सुकता बनी रहेतीे है। परमात्मा द्वारा दिया गया उपहार है जीवन। इसे खोलना पड़ता है। समय भी एक उपहार है। इसे संभालकर स्वयं उपयोग करें और दूसरों को भी भेंट करें। दिन-रात यदि पशु-पक्षी होते तो हम खूंटे से बाँध लेते, उन्हें पिंजरे में बंद कर रख लेते। बीत जाना समय की नीति है और सदुपयोग कर लेना मनुष्य की योग्यता होगी। हम जितना समय का प्रबंधन साधेंगे, समझ लें स्वयं के लिए और दूसरों के लिए उपहार लेने-देने जैसा ही करेंगे।
उपहार एक और काम करते हैं, उदास मन को प्रसन्न करते हैं। किसी की उदासी मिटा देना उसे दिया गया सर्वश्रेष्ठ उपहार होता है। भला व्यक्ति बनना अपने आपमें एक उपहार है जो हम दूसरों को भेंट करते हैं। आजकल अच्छे लोग कम मिलते हैं। जिनके जीवन में अच्छे लोग आ जाएं वे इसे परमात्मा का उपहार मानते हैं। इसलिए धर्म त्यौहारों के अवसर पर उपहारों की परंपरा लाते हैं ताकि हम अच्छाई को भेंट के रूप में बाँट सकें। हमें जन्म का उपहार मिला और अब हम संसार को जीने का उपहार दें।

दुनिया को इस नजर से भी देखें...
दुनिया को देखने का नजरिया लगभग हर आदमी का एक सा ही है। लोग सिर्फ वही देखते हैं जो वास्तव में वे देखना चाहते हैं लेकिन दुनिया को जिस नजर से देखने की जरूरत है, वैसे तो कोई देख ही नहीं पाता। यह बात थोड़ी अटपटी है लेकिन हमारे संतों, ऋषि-मुनियों ने इसे खूब समझा और समझाया है। एक मुस्लिम फकीर का किस्सा तो खासा प्रसिद्ध है।यह दुनिया एक सराय है। इसलिए फकीरों ने कहा है हम दुनिया में रहें दुनिया हम में न रहे। संसार से जितना लगाव बढ़ता है सांसारिक चीजें बेचैनी के उतने ही सामान हमारे भीतर उतार देती है। बलख के बादशाह इब्राहिम की जिंदगी का एक मशहूर किस्सा है। वे अपने दरबार में बैठे हुए थे। उनका मिजाज फकीरी रहता था। हर बात को गहरे तरीके से सोचते थे। एक बार एक शख्स उनके दरबार में सीधा घुस गया और बादशाह के सिंहासन के पास जाकर इधर-उधर देखने लगा। इब्राहिम ने पूछा क्या देख रहे हैं और क्या चाह रहे हैं। उस शख्स ने फरमाया एक-दो दिन का मुकाम चाहता हूँ। बादशाह बोले शौक से रहिए। उस शख्स ने कहा रह तो जाता लेकिन यह तो सराय है और मुझे सराय में नहीं ठहरना।बादशाह चौंक गए उन्होंने कहा होश में बात करिए यह सराय नहीं बादशाह का महल है। उस शख्स ने फरमाया यह बताओ क्या तुमसे पहले भी इस जगह कोई रहते थे। बादशाह ने कहा- हाँ, मेरे पिता और उसके पहले मेरे दादा। कई पीढ़ियां इससे गुजर गईं। वह शख्स मुस्कुराया और बोला जब इतने लोग यहाँ रहकर चले गए तो फिर यह सराय नहीं हुई तो और क्या हुई। इसी का नाम तो दुनिया है। है सराय की तरह और हम हमेशा का ठिकाना मान लेते हैं। यहाँ कोई किसी का नहीं होता। मजबूर तमन्नाओं के कदम थक जाते हैं पर कोई किसी को सहारा नहीं देता। बादशाह समझ गए बात गहरी की जा रही है और उन्होंने उस शख्स से पूछा- आप कौन हैं तो पता लगा वे हजरत खिज्र थे। दरअसल हम सब मुसाफिर हैं और मुसाफिर का मकसद मंजिल होता है। अपने मुकाम तक पहुंँचने के लिए कुछ हल्के-फुल्के ठिकाने जरूर ले लेता है लेकिन मुसाफिर भूलता नहीं है कि उसकी मंजिल कौन-सी है। हम सबकी मंजिल वह परमशक्ति है, धर्म का मार्ग कोई भी हो।

जीतना है तो पहले थोड़ा खुद पर भी ध्यान दें
दुनियादारी हमारे व्यवक्तित्व और व्यवहार पर इस कदर हावी हो गई है कि हम अपनेआप से ही थोड़ा दूर हो गए हैं। अपने आप से दूर होने का मतलब है हम खुद के स्वभाविक स्वभाव से अलग हो गए हैं। इसका सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ है कि हम दुनिया के हिसाब से चलने लगे हैं, अपने सिद्धांत, अपने विचार, अपने संस्कार हम पीछे छोड़ आए हैं। अगर दुनिया में अलग पहचान बनानी है तो यह याद रखें पहले खुद पर भी थोड़ा ध्यान जरूर दें, दुनियादारी के चक्कर में कहीं आप खुद से तो दूर नहीं हो गए हैं।
जब कोई सेहत से कमजोर नजर आता था तो बड़े-बूढ़े कहा करते थे थोड़ा अपने पर ध्यान दो। ये बात बड़ी गहरी थी। हम दिनभर जितने काम करते हैं स्वयं पर ध्यान रखे बिना ही कर जाते हैं। अपने भोजन और चलने की क्रिया पर ही सोचें। अधिकांशत: ये दोनों काम करते समय काम तो यह हो रहा होता है लेकिन हम कहीं और होते हैं, बिल्कुल दो अलग व्यक्तित्व की तरह। इसे ही अध्यात्म ने नींद का नशा कहा है। एक नींद वो होती है जो ज्यादातर रात में या कभी कभी दिन में आंख बंद करके ली जाती है, जिसमें देह का भाव जाता रहता है। दूसरी नींद यह है जो जागते हुए ली जा रही है। इसे हम नींद का नशा कह लें और सारे गलत काम इसी नशे में होते हैं। काम, क्रोध, लोभ और अहंकार इसी नींद के नशे का परिणाम हैं। इसका ठीक उल्टा करें। यही बात हनुमानजी ने रावण को सिखाई थी। जो भी काम कर रहे हो उसमें स्वयं को उपस्थित करो यहीं से जीवन में होश आरंभ होगा।
यदि आप होश में हैं तो क्रोध नहीं कर सकेंगे, अहंकार में नहीं डूबेंगे क्योंकि ये सब उसी नींद के नशे के खेल हैं। होश में गलत काम होता ही नहीं है। होश यानी स्वयं से जुड़े रहना। हनुमानजी ने रावण से भरे दरबार में समझाते हुए कहा था
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं। बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाही
जिन नदियों के मूल में जलस्त्रोत नहीं है यानी जिन्हें केवल बरसात का ही सहारा है वे वर्षा बीत जाने पर तुरंत सूख जाती हैं। स्वयं से कट जाने का अर्थ है अपने मूल जलस्त्रोत से कट जाना। बरसाती नदी की तरह सूख जाना और सूखा व्यक्तित्व ही काम, क्रोध, अहंकार जैसे दुगरुणों की क्रिया कर जाता है। ऐसा ही रावण कर रहा था। हनुमानजी ने समझाया था, स्वयं में स्थापित रहो हर काम करते समय, इसे ही होश कहा है।

संयम सीखने के लिए यह भी जरूरी है

संयम का अर्थ अपने आप को किसी खोल में बांध लेना नहीं होता। संयम एक सिद्धि है जो कम ही लोगों को मिलती है। कई बार बड़े-बड़े सिद्ध पुरुष भी संयम साधने में चूक जाते हैं। संयम को केवल काम से न जोड़ा जाए, हर एक कार्य में संयम की आवश्यकता होती है। आदमी जब पैदा होने पर पहली सांस लेता है और मरते समय जब अंतिम सांस छोड़ता है तब दोनों ही स्थिति में कुछ समय एक जैसा होता है।जन्म के समय जीवित हैं पर कुछ लम्हे सांस नहीं ले रहा, बिना सांस के भी जीवन है और मरने के बाद सांस चली गई पर ठीक कुछ घड़ी जीवन फिर भी बचा रहता है। इन्हीं अद्भुत स्थितियों को योग ने पकड़ लिया। प्राणायाम में सांस के माध्यम से समाधि तक पहुंचना ऐसी ही क्रिया है। सीधी सी बात है सांस न हो तो जीवन बचाकर रखा जा सकता है। इसे ही बहुत साधारण भाषा में संयम कहा गया है। जो लोग भक्ति कर रहे होते हैं उन्हें एक समस्या बहुत घेरती है कि संयम नहीं रह पाता। बड़े-बड़े सिद्ध भी कभी-कभी संयम चूक जाते हैं। जैन धर्म में इस मामले में दो सुन्दर चरण बना दिए हैं। जिसे कहेंगे स्टेप वाईज स्टेप। पहला चरण है श्रावक जीवन। यह स्वस्ति और मुक्ति की कामना से आरंभ होता है, लेकिन महावीर स्वामी ने कहा है श्रावक जीवन आरंभ होना चाहिए और श्रमण जीवन अंत होना चाहिए। एक पहला कदम है ओर दूसरा अंतिम पड़ाव। श्रावक से श्रमण तक की यात्रा का अद्भुत जीवन दर्शन जैनियों ने दिया है।संयम का अर्थ ही यह होगा कि जीवन केवल श्रावक अवस्था में न बीत जाए, श्रमणत्व का जागरण हो, उदय हो, परिवर्तन हो। श्रावक रूपी प्रयास श्रमण रूपी लक्ष्य पर पहुंचे ही, इसे संयम कहा गया है। श्रवण जीवन यानी मुनि जीवन, जो संयम का साकार रूप है। यही संयम का भाव सांसारिक जीवन में अनुशासन की शक्ल ले लेता है और जो अनुशासित है स्वयं शासित है वह लक्ष्य को जरूर प्राप्त करेगा, चाहे लक्ष्य भौतिक हो या आध्यात्मिक।

ये अंतर है पूरब और पश्चिम की संस्कृति में

पूरब और पश्चिमी देशों की संस्कृति में बहुत गहरा अंतर है। हम मनुष्य के आंतरिक विकास पर केंद्रित हैं और वे भौतिक विकास पर। पश्चिमी देशों के लोग मूलत: देह पर टिकें हैं और भारतीय संस्कृति मन पर। हम अपने भीतर की संभावनाओं को जगाने पर ज्यादा जोर देते हैं। हमारे ऋषि मुनियों ने माना है कि आदमी और बीज में बड़ी समानता है।बीज की सारी जान उसके अंकुरण में है। यदि बीज स्वयं यह समझ ले कि बस उसका बीज होना ही उसकी पूर्णता है तो उसके भीतर जो भविष्य छुपा है वह समाप्त हो जाएगा। उसके अंकुरित होने में ही उसका सही जीवन है। ठीक, आदमी के साथ भी यही स्थिति है। उसे भी अपने अन्दर अंकुरण की संभावना को बनाए रखना होगा। इसे ही भीतरी बदलाव कहा गया है। पूरब और पश्चिम संस्कृति में जितने फर्क हैं उनमें एक फर्क बाहर के विकास को लेकर है। पश्चिम के विकसित देशों को देखें तो उन्होंने बाहरी स्थितियों पर बीज के अंकुरण जैसा काम किया है। लगातार बदलाव या कहें विकास किया है। पगडंडियों को बड़ी-बड़ी सड़कों में बदला, झोपड़ियां, अट्टालिकाएं बना दी गईं। हर क्षेत्र में हुए आविष्कार बाहरी स्थितियों के बीज का अंकुरण ही हैं। पूरब संस्कृति यहां पश्चिम से भिन्न रही। हमारे ऋषियों ने ऐसा अंकुरण भीतर किया। उन्होंने मनुष्य के बदलाव पर काम किया।उनका मानना रहा कि मनुष्य यदि भीतरी विकास नहीं करता है तो वह बीमार माना जाएगा। स्वस्थ होने का अर्थ है हमारे व्यक्तित्व का बीज भीतर अंकुरण की तैयारी में रहे। जो अपने पेड़ होने की संभावना को रोक देगा, निरस्त करेगा, वो बीज सड़ जाएगा। ठीक यही स्थिति मनुष्य के व्यक्तित्व के साथ हैं। इसलिए कई लोगों का पूरा जीवन बीत जाता है और वे, वो नहीं हो पाते जो उन्हें होना चाहिए। हम अपने बदलाव की योग्यता को यदि रोक दें तो यहीं से हम अस्वस्थ माने जाएंगे। हमारे ऋषियों ने इस भीतरी बदलाव या अंकुरण पर जो काम किया उसे ध्यान कहा गया। पश्चिम ने बाहर बदलाव कर खूब विकास किया तो पूरब ने भी भीतर मनुष्य को खूब ऊंचा उठाया। हम भी इस प्रयोग को करते रहें। अपने अंकुरण को रोकें ना।

सफलता के लिए हमेशा स्मरण पर जोर दें
दुनियादारी के चक्करों में उलझकर अधिकतर लोगों का जीवन साधारण ही रह जाता है। हम भूलते-याद करते जीवन के बरसों बरस यूं ही गुजार देते हैं। अगर असाधारण सफलता चाहिए, जीवन को एक श्रेष्ठ स्थिति में देखना चाहते हैं तो स्मरण रखने की आदत डालें।भौतिकता में चिंतन होता है और भक्ति में स्मरण होता है। आज इसके फर्क को समझें।सभी धर्मो ने स्वीकार किया है कि स्मरण भक्ति के प्राण हैं। इसका सीधा सा अर्थ है भीतर परमात्मा की सतत् प्रतिति बनी रहे। प्रत्येक कार्य करते हुए भी वह याद रहे। स्मरण का मतलब है अलग से कोई चेष्टा न करना, बस वह तो होता है। जो प्रभु स्मरण के साथ जीते हैं वो जीवन में असाधारण बन जाते हैं और जो विस्मरण के साथ जीते हैं, फिर वे साधारण ही रह जाते हैं। उस परमपिता का सतत् स्मरण आपको संसार के सारे काम कराते हुए भी भीतर से स्वयं को जोड़े भी रखेगा। प्रभु के सतत स्मरण से दो लाभ होते हैं। एक तो संसार से जुड़े रहने पर स्वार्थ नहीं आता तथा भौतिकता के क्षेत्र में आपने जो संकल्प लिए होंगे उसे पूरा करने के प्रयासों में सक्रियता आ जाती है। यहीं से आपके द्वारा किया जा रहा हर काम पूजा बन जाता है। सतत स्मरण पूजा में एकांत को साधने में भी मदद करता है।ज्यादातर मौकों पर हम पूजा में एकांत नहीं घटा पाते हैं। जब हम पूजा कर रहे होते हैं तब हमारे भीतर सारी दुनिया चल रही होती है। यदि पूर्व से स्मरण बना हुआ है तो पूजा में उतरते ही हमारे भीतर हम परमात्मा की गूंज सुन सकते हैं। यहां आकर हम अपनी वाणी खो देते हैं और परमात्मा वाणी सुनाई देने लगती है, कई बार तो इसी वाणी में हमें जीवन के अनेक सवालों के उत्तर भी मिल जाते हैं जिनकी खोज हम दुनियाभर में कर रहे होते हैं। इसीलिए ऋषि-मुनियों ने बहुत गहरे में कहा है कि संसार का विस्मरण ही परमात्मा है और परमात्मा का विस्मरण ही संसार है। दोनों को साधने के लिए स्मरण सेतु का काम करता है।

इच्छाएं कब, किसकी पूरी होती हैं
इंसान के दिल की एक फितरत है, इसकी कोई एक हसरत पूरी होती नहीं कि दूसरी जाग जाती है। हमारा सारा जीवन इच्छाओं की पूर्ति में बीत जाता है, फिर भी दुनिया से जाते-जाते कई इच्छाएं मन में ही दबी रह जाती हैं। इच्छाएं कभी पूरी नहीं होतीं, वे रावण के सिरों की तरह होती हैं, एक को काटो तो तत्काल दूसरी उग आती हैं। दो मुस्लिम फकीर सगे भाई थे और उनकी बातचीत का एक महशूर किस्सा है, लेकिन इसके पहले रावण और लक्ष्मण के बीच हुई चर्चा को याद करें।रावण के अंतिम समय में लक्ष्मणजी ने एक प्रश्न यह भी पूछा था-राक्षस राज, क्या आपकी सारी इच्छाएं पूरी हो गईं। रावण ने कहा था इच्छा कब, किसकी पूरी होती है, एक खत्म करो दूसरी पैदा हो जाती है। पहली इच्छा दूसरी के लिए नींव बन जाती है, सही तो यह है कि अपनी इच्छाओं को परमात्मा की ओर मोड़ दो तो इच्छाएं परेशानी का सबब नहीं बनेंगी। कुछ ऐसी ही बात फकीर यहिया-बिनू-मुयाजराली ने एक खत के जवाब में अपने भाई को लिखी थी। उनके भाई भी फकीर तबीयत के थे। वे काबा में दरगाह की सेवा का काम करते थे। भाई ने फकीर यहिया को खत लिखकर अपनी तीन तमन्नाओं का जिक्र किया था जिसमें से दो तो पूरी हो गई थीं बस एक रह गई थी। पहली यह थी कि किसी पवित्र, पाक जगह पर रहे तो काबा निवासी होने पर यह तमन्ना पूरी हो गई, दूसरी इच्छा थी ऊपर वाले की सेवा में कोई बाधा न आए, ऐसा भी हो गया क्योंकि उनकी खिदमत में एक दासी थी। तीसरी थी मौत से पहले आपके (यहिया) के दीदार हो जाएं। आपको देखने की तीसरी तमन्ना अधूरी है।इस खत के जवाब में फकीर यहिया ने जो खयाल लिखे वो हमारे बड़े काम के हैं। यहिया का जवाब था आदमी खुद को पाक रखे तो जहां रहेगा वह जगह ही शुद्ध हो जाएगी। दूसरी बात अन्य लोगों से खिदमत न कराएं स्वयं खादिमर सेवा करने वाला बनें और तीसरा जवाब लाजवाब था, यदि मैं आपको याद आ रहा हूं तो मुझसे मिलने की जरूरत नहीं रहेगी और यदि मुझे मिल भी लें पर उसे नहीं पाया तो सारी मेल मुलाकात बेकार है। अपनी इच्छाओं को उस परमशक्ति की ओर मोड़ रखिए।

बाहर से नहीं, भीतर से हों लबालब
दान देना आज फैशन भी बन गया है और कथित समाजसेवा का हिस्सा भी। लोग प्रसिद्धि पाने के लिए दान दे रहे हैं। दान देते समय बड़े गर्व से भरे रहते हैं। लेकिन बाहरी रूप में भरे हुए ये लोग भीतरी तौर पर खाली ही हैं। दान देते समय हमें भीतर से भरा होना चाहिए, वह भी गर्व या अहंकार से नहीं बल्कि क्षमा और समर्पण से। इन दिनों सारी दुनिया में धार्मिक आयोजनों की बाढ़ सी आ गई है। व्यवस्थाओं के लिए कुछ दान भी मांगा जाता है।कई बार तो साधु संत भी दान-दक्षिणा मांगते हुए देखे जाते हैं। यह देख कर सामान्यजन की यह टिप्पणी होती है कि फिर इनमें और भिखारी में फर्क ही क्या रहा? आज जरा इस बात को गहराई से समझें। हमारे देश ने अध्यात्म जगत में एक मौलिक संबोधन दिया है, भिक्षुक, ऋषि-मुनि, संत महात्माओं ने सरेआम भिक्षा मांगी है। बुद्ध और महावीर का जीवन देखें तो भिक्षा के सही अर्थ समझ में आ जाएंगे। ऊपर से दृश्य देखें तो लगेगा देने वाले को लगता है जिसे दिया जा रहा है वो खाली है और हम जो दे रहे हैं भरे हुए हैं। पर है उल्टा । जिस साधु-संत को हम दान दे रहे होते हैं वह भीतर से लबालब है, बाहर से खाली दिख रहा है और हम बाहर से भरे हुए हैं पर भीतर से रिक्त हैं एकदम रीते।दान देते समय क्रिया ही कुछ ऐसी हो जाती है कि देने वाले का हाथ ऊपर होता है, लेने वाले का नीचे। यहीं से वह गलतफहमी जन्म ले लेती है जिसका नाम अहंकार है। इसीलिए कहा गया है धन देते समय हाथ भले ही ऊपर हो नजर नीचे रखें तो शायद अहंकार नहीं आएगा। सारी संस्कृति ने भिक्षा को भी पूजा कर्म मान कर देने वाले को यह मौका दिया है कि वह गौरव कर सके, खुश हो सके कि मैं कुछ बड़ा हूं, मालिक जैसा ही है कि दे रहा हूं। दरअसल हम दे वही रहे हैं जो हमने भी कहीं से भीख मांगकर, लूटकर, छीन कर ही इकट्ठा किया है भले ही हम इसे अपने परिश्रम से कमाया हुआ कहें। अपने परिश्रम की कमाई में कई लोगों के क्षमा और समर्पण की लूट कब शामिल हो जाती है पता ही नहीं चलता। इसलिए दान देते समय लेने वाले की औकात से ज्यादा अपनी पात्रता पर चिंतन करते रहें।

सही है, सफलता की राह अपने भीतर है
आज सफलता की होड़ में लोग कहां-कहां भाग रहे हैं। जिसे जहां जगह मिल जाए वहीं प्रतिस्पर्धा शुरू हो जाती है। भौतिक सफलता की दौड़ हमें जब मंजिल पर पहुंचाती है तो साथ ही अशांति और कुछ छूट जाने का भाव भी दे जाती है। ये मानवीय कमजोरी है कि हम सफलता के मार्ग हमेशा बाहर की ओर ही खोजते हैं, सफलता के साथ शांति चाहिए तो इसका मार्ग आपके भीतर से होकर गुजरेगा।सीधी सी बात है यदि खड़े रहना चाहते हैं तो धरती पर थोड़ी सी जगह चाहिए और यदि चलना चाहते हैं तो मार्ग। ये दोनों बातें जीवन में होती रहे इसके लिए अध्यात्म ने एक शब्द दिया है श्रद्धा। श्रद्धा जीवन की निरूद्देश्यता पर प्रतिबंध लगाती है। बुद्ध ने एक जगह कहा था हमारी एक ऐसी प्रकृति होती है जो हिरण की कल्पना जैसी रहती है। हिरण को प्यास के दबाव के कारण रेगिस्तान में वहां पानी दिखता है जहां होता नहीं है। इसे मृग-मरीचिका कहा गया है। जो है नहीं उसे मान लेना, देख लेना। हमने परमात्मा के साथ ऐसा ही किया। वह बैठा है भीतर हम ढूंढ रहे हैं बाहर। जहां नहीं है वहां ढूंढने पर एक नुकसान यह होता है कि जहां वह है वहां हम नहीं पहुंच पाते। इस मामले में बुद्ध जैसे संत तो और गहरे निकल गए। वे कहते हैं जिसे तुमने खोया ही नहीं उसे क्या ढूंढना। उसका हमारे भीतर होना ही पर्याप्त है। खोजने की जगह महसूस करना ज्यादा महत्वपूर्ण है। ऊपर वाला जब भी किसी इन्सान को धरती पर भेजता है तो स्वयं को उसमें स्थापित करके ही भेजता है। मैन्यूफेक्चरिंग डिफेक्ट जैसा काम उसके यहां नहीं होता। वह पहली पैदाईश से ही कम्पलीट उतारता है।संसार में आते ही अबोध होते में गड़बड़ हमारे लालन-पालन करने वाले और होश संभालते ही हम स्वयं शुरु करते हैं। अपने भीतर बेहतर जोडऩे से ज्यादा अच्छा घटाने का काम हम ही शुरु कर देते हैं। ऐसे में श्रद्धा वह तत्व है जो मृग मरीचिका की वृत्ति से हमें बचाएगी।सही है, सफलता की राह अपने भीतर हैपं. विजयशंकर मेहता आज सफलता की होड़ में लोग कहां-कहां भाग रहे हैं। जिसे जहां जगह मिल जाए वहीं प्रतिस्पर्धा शुरू हो जाती है। भौतिक सफलता की दौड़ हमें जब मंजिल पर पहुंचाती है तो साथ ही अशांति और कुछ छूट जाने का भाव भी दे जाती है। ये मानवीय कमजोरी है कि हम सफलता के मार्ग हमेशा बाहर की ओर ही खोजते हैं, सफलता के साथ शांति चाहिए तो इसका मार्ग आपके भीतर से होकर गुजरेगा। सीधी सी बात है यदि खड़े रहना चाहते हैं तो धरती पर थोड़ी सी जगह चाहिए और यदि चलना चाहते हैं तो मार्ग। ये दोनों बातें जीवन में होती रहे इसके लिए अध्यात्म ने एक शब्द दिया है श्रद्धा। श्रद्धा जीवन की निरूद्देश्यता पर प्रतिबंध लगाती है। बुद्ध ने एक जगह कहा था हमारी एक ऐसी प्रकृति होती है जो हिरण की कल्पना जैसी रहती है। हिरण को प्यास के दबाव के कारण रेगिस्तान में वहां पानी दिखता है जहां होता नहीं है। इसे मृग-मरीचिका कहा गया है। जो है नहीं उसे मान लेना, देख लेना। हमने परमात्मा के साथ ऐसा ही किया।वह बैठा है भीतर हम ढूंढ रहे हैं बाहर। जहां नहीं है वहां ढूंढने पर एक नुकसान यह होता है कि जहां वह है वहां हम नहीं पहुंच पाते। इस मामले में बुद्ध जैसे संत तो और गहरे निकल गए। वे कहते हैं जिसे तुमने खोया ही नहीं उसे क्या ढूंढना। उसका हमारे भीतर होना ही पर्याप्त है। खोजने की जगह महसूस करना ज्यादा महत्वपूर्ण है। ऊपर वाला जब भी किसी इन्सान को धरती पर भेजता है तो स्वयं को उसमें स्थापित करके ही भेजता है। मैन्यूफेक्चरिंग डिफेक्ट जैसा काम उसके यहां नहीं होता। वह पहली पैदाईश से ही कम्पलीट उतारता है। संसार में आते ही अबोध होते में गड़बड़ हमारे लालन-पालन करने वाले और होश संभालते ही हम स्वयं शुरु करते हैं। अपने भीतर बेहतर जोडऩे से ज्यादा अच्छा घटाने का काम हम ही शुरु कर देते हैं। ऐसे में श्रद्धा वह तत्व है जो मृग मरीचिका की वृत्ति से हमें बचाएगी।

सफलता के लिए इन बातों का ध्यान रखें
कम्प्यूटर के दौर में हर चीज के शार्टकट ने हमारे दिमाग में घर कर लिया है। बिना शार्टकट अब शायद ही कोई काम होता हो। जीवन के प्रति इस रवैए ने हमारे समाज में भ्रष्टाचार के बीज बो दिए हैं। किसी काम में अगर भ्रष्टाचार शामिल हो जाए तो सफलता दूषित हो जाती है। और ऐसी सफलता आनंद नहीं, अशांति ही देती है।यह तत्काल का समय है। सभी को सबकुछ जल्दी चाहिए। इस चक्कर में कुछ लोग शार्टकट अपना लेते हैं। सफलता के मामले में शार्टकट कभी-कभी भ्रष्टाचार और अपराध की सुरंग से भी गुजार देता है। हनुमानजी सफलता का पर्याय हैं। इनके यशगान हनुमानचालीसा में प्रथम पंक्तियों में गुरु की शरण की बात लिखी गई है। इस शरणागति का मतलब है मेरे पूर्ण पुरुषार्थ के बाद भी कोई शक्ति है जो मुझे असफलता से बचाएगी। इस शरणागति को मजबूत बनाने के लिए ही तुलसीदासजी ने हनुमानचालीसा के पहले दोहे में च्च्जो दायकु फलचारिज्ज् लिखा है।
यूं तो किसी भी ग्रंथ की फलश्रुति अंत में बताई जाती है पर यहाँ पहले ही लिख देने का कारण यही है कि सब लोग आज तुरंत फल चाहते हैं। ये चार फल हैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।आज के समय में शीघ्र फल की आकांक्षा हो यह तो ठीक है लेकिन शीघ्र फल दे ऐसा परिश्रम भी किया जाए। यदि हमारे ऊपर कोई दायित्व हो तो शतप्रतिशत परिणाम के लिए प्रयास किए जाएं। यदि विवेक से काम लिया जाए तो शीघ्रता का अर्थ है आलस्य रहित सक्रियता। अकारण विलंब करना हमारी आदत न बन जाए, इसलिए हनुमानजी से हम सीख लें तत्काल का अर्थ है समयबद्ध आचरण। ज्ञान का खतरा अहंकार में है और भक्ति का आलस्य में। इसलिए हनुमानचालीसा की पहली पंक्ति से सीखा जाए फल की आकांक्षा, आसक्ति भले ही न रखी जाए किन्तु परिणाम के प्रति तत्परता, सजगता जरूर रखी जाए। जब हम फल की उपलब्धि को समझ लेंगे तो प्रयासों के महत्त्व को भी जानकर ठीक से कार्य कर सकेंगे।

तन-मन की चंचलता पर नियंत्रण कैसे हो
अधिकतर लोगों की समस्या यह होती है कि उनका तन और मन दोनों पर नियंत्रण नहीं होता। तन को संभालो तो मन बहक जाता है, मन को पकड़ो तो तन साथ नहीं देता। इसी पसोपेश में हमारी आधी जिंदगी गुजर जाती है। कई बार हम तन और मन को नियंत्रित करने के बहाने लगभग निष्क्रिय कर देते हैं। देह की चंचलता और सक्रियता में फर्क है।पहले सक्रियता को समझ लें। शरीर सक्रिय है और मन निष्क्रिय नहीं है तो अशांत हो जाने के खतरे हैं और यदि देह चंचल है तथा मन नियंत्रित नहीं है तो मानसिक विकृति आ जाने का संकट होगा। जीवन में अशांति लगातार बनी रहे तो यह विकृति को आमंत्रण होगा। मन का नियंत्रण उन शक्तियों को सक्रिय होने का मौका देता है जिनसे व्यक्तित्व विकास होता है। दुनिया उसकी मु_ी में है जिसके काबू में उसका अपना मन है। शांत मन स्थितियों का मूल्यांकन तटस्थ और निष्पक्ष भाव से कर पाएगा। अन्यथा हम स्वयं की रुचि की थोपी हुई बातों से परिस्थिति के प्रति अपने विचार बनाएंगे। ऐसे में सत्य लुप्त और भ्रम प्रकट हो जाता है। मन को एक और शौक होता है बीते हुए को पकड़ कर रखना तथा भविष्य में उलझना। वासनाएं और तनाव ऐसे में आसानी से प्रवेश कर जाते हैं। बीते कल और आने वाले समय के प्रति मन की रुचि जीवन की एकाग्रता को भंग करती है।
एकाग्रता को अध्यात्म ने बड़ा प्यारा शब्द दिया है सेल्फ रिस्पांसिबिलिटी। संसारभर के विकास के प्रति जागरूक हम, स्वयं के आध्यात्मिक विकास के प्रति भारी गैर जिम्मेदार साबित हो रहे हैं। हमारी सारी साईकिट एनर्जी को गलत प्रवाह देने में मन बड़ा माहिर होता है। ऐसे में यदि आप किसी परिवार या व्यवस्था के मुखिया हैं तो अनुशासनहीनता, प्रेम का अभाव, अशांति, परिणामों में असफलता जैसे परिणाम देंगे।

मूर्ति पूजा से भी मिल सकती है कामयाबी

अक्सर लोग इस बात की शिकायत करते हैं कि उन्हें बहुत मेहनत के बाद भी सफलता नहीं मिलती। किसी काम को कितना ही मन लगाकर करें, उसमें कोई खामी रह ही जाती है। दरअसल हम कई बार लक्ष्य पर इतनी गहराई से नजर गढ़ा देते हैं कि सफलता के साधन चुनने में गलती हो जाती है। मन में कई तरह के भ्रम और फालतू की बातें घर कर लेती हैं।
मूर्ति पूजा के दौरान अंध विश्वास और विवेक में संतुलन जरूरी है। देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के सामने मत्था टेकने से मनौति पूरी हो जाएगी, यह मान लेना अंधविश्वास है। लेकिन इसमें विवेक जुड़ते ही विश्वास नए रूप में सामने आएगा। महत्वपूर्ण यह कि मूर्ति में हम क्या देख रहे और उससे क्या ले रहे हैं। हिन्दुओं ने मूर्ति में प्राणप्रतिष्ठा इसीलिए करवाई, बुद्ध तथा महावीर की मूर्तियां इसीलिए पूजी गई कि पाषाण में हम वो दर्शन कर लें जो हमारे व्यक्तित्व में अधूरा है। यदि विवेक दृष्टि सही है तो हमें जिस संबल की जरूरत है उसके दर्शन पत्थर की प्रतिमा में हो जाएंगे। जीसस कादस्त की बहुत की सुंदर मूर्ति बनाने वाले से किसी ने पूछा आप इतना सुंदर पत्थर कहां से लाए। उस मूर्तिकार का जवाब था मैंने तो उस पत्थर को चुना जो चर्च बनाते समय रिजेक्ट कर दिया गया था।
जिस पत्थर को फालतू समझकर नकारा गया उस बेकार को मैंने संवारा। क्योंकि जीसस की जो छवि उस मूर्तिकार के मन में थी वही उसने पत्थर में देखी। उसमें से बस आसपास का फालतू पत्थर हटाया तो प्रतिमा बाहर निकल आई। ऐसे ही जीवन में कई फालतू बातों को हम आसपास कर लेते हैं, उन्हें हटाया तो जो सार्थक है वह सामने आएगा। इसी भाव से मूर्ति पूजा की जाए तो प्रतिमाएं दिशा निर्देश, आत्मबल और आनंद का कारण बन जाएगी।

जीवन में क्यों जरूरी है गुरु?
आज भी कई लोगों के लिए यह सवाल कायम है कि कोई किसी संत को गुरु क्यों बनाता है। आज के अध्यात्मिक जीवन में जो कुछ भी हो रहा है, उसे देखकर संतों के प्रति आम आदमी के मन में न केवल श्रद्धा कम हुई है बल्कि संतों के प्रति नजरिया भी बदला है। फिर क्यों गुरु बनाना जरूरी है? दरअसल इसके पीछे हमारी शांति की तलाश होती है। भौतिक जीवन में सफलता तो मिल जाती है लेकिन उसके साथ नहीं मिलती है तो बस शांति।इसी शांति की तलाश को कोई अध्यात्मिक गुरु पूरा कर सकता है। सांसारिक जीवन में सफलता के साथ शांति और आध्यात्मिक जीवन में उपलब्धि की स्पष्टता गुरु के द्वारा आती है। इसी विचार के कारण लोग साधु संतों के पीछे पड़े रहते हैं। लोग समझते हैं जीवन में गुरु आएं, संतों से मिलना हुआ और काम हो गया। यह जल्दबाजी गुरु-शिष्य के संबंधों के लिए नुकसान दायक है। यह रिश्ता बड़ा नाजुक है। परमात्मा को पाने के मार्ग का गुरु एक ट्रेफिक सिग्नल है। लोगों ने यातायात संकेतों को ही राह मान लिया, कई जल्दबाजों ने तो इसे ही मंजिल की घोषणा में बदल दिया। भगवान महावीर स्वामी ने एक जगह सुन्दर बात कही है च्च्मार्ग पर चलो तो मार्ग फल अवश्य मिलेगाज्ज् एक सूत्र के माध्यम से उन्होंने मार्ग को उपाय और मार्गफल को निर्वाण बताया है।
दंसणणाण चरित्राणि, मोक्खमग्गो त्रि सेविदव्वाणि साधुहि इदं भणिदं, तेहिं दु बन्धो व मोक्खो वा|
इसका अर्थ है दर्शन, ज्ञान और चरित्र मोक्ष का मार्ग है। इनका आचरण साधु पुरुषों को करना चाहिए। स्वाश्रित होने पर मोक्ष और पराश्रित होने से बंधन होगा। महावीर का इशारा था कि अपने मूल मार्ग को समझा जाए और उसे पूरी तरह जीया जाए। जैन मुनि चन्द्रप्रथजी ने बहुत खुलकर बताया है जो सभी धर्मों के पथिकों पर लागू होता है कि सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन तथा सम्यक चरित्र जीवन में तब आएगा जब बाहरी कर्मकांड से मुक्त होकर मूल मार्ग को भीतर से समझा जाएगा। वरना सामायिक, प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन जैसी अन्य क्रियाएं जीवनभर करते रहो हाथ कुछ दिव्यानुभूति जैसा नहीं लगेगा।

कैसे जीतें कामवासना को?
काम वासना अध्यात्मिक जीवन में सबसे बड़ी परेशानी है। इसे दबाया नहीं जा कसता या तो इसके आगे हार जाएं या फिर इसे जीत लें। वासना से समझौता कठिन है, इसे थोड़ा भी मौका दिया जाए तो यह हमारे पूरे आध्यात्मिक जीवन पर हावी हो जाती है। इसे जीतने के कई तरीके हैं लेकिन अध्यात्मक और योग ही सबसे अच्छा रास्ता है। काम को जीत लें तो फिर कामनाएं अपनेआप हथियार डाल दंगी। जब तक काम का भाव शरीर में जीवित है कामनाएं भी उठती रहेंगी।आध्यात्मिक जीवन में निष्कामता का बड़ा महत्व है। सभी के मन में यह प्रश्न उठता है आखिर कामनाओं का त्याग कैसे हो। गीता में चार प्रकार बताए हैं कामना त्याग के। एक विस्तारक प्रक्रिया, दो एकाग्र प्रक्रिया, तीन सूक्ष्म प्रक्रिया तथा चौथी है विशुद्ध प्रक्रिया। विस्तारक प्रक्रिया का अर्थ है हमारी जो कामना व्यक्तिगत हो उसे हम सामाजिक रूप दे दें। जैसे हम अपने बच्चे को पढ़ाना चाहें तो पूरे गांव में ही स्कूल खोल लें। इससे हमारी वासना शुद्ध रूप से विस्तृत होकर विलीन हो जाएगी। दूसरी प्रक्रिया है एकाग्र। इसमें जो भी हमारी प्रबल वासना हो केवल उस पर ही अपने चित्त को टिका दें और अन्य वासनाओं को छोड़ दें। यह ध्यान योग जैसा है। जैसे-जैसे एकाग्रता सधेगी, साधक उस एकमात्र वासना से मुक्त होने लगता है। तीसरी विधि है सूक्ष्म प्रक्रिया।इसमें स्थूल वासनाओं को त्यागकर सूक्ष्म वासनाओं पर टिक जाएं। शरीर या बुद्धि को सजाना हो तो उसके स्थान पर मन और हृदय को सजाएं। इससे हम अंतर्मुखी होंगे और बाहरी वासनाएं गिर जाएंगी। इसे संतों ने ज्ञानयोग की युक्ति कहा है। चौथी प्रक्रिया है विशुद्ध। इसमें वासना को न व्यक्तिगत, न सामाजिक, न स्थूल, न सूक्ष्म मानें। दो ही तरह की वासना होगी, शुभ या अशुभ वासना। अच्छी वासना को रखें और बुरी वासना को त्याग दें। विनोबाजी एक उदाहरण देते थे यदि मीठा खाना हो तो मिठाई के स्थान पर आम खा लें। इस तरीके से इस प्रक्रिया में वासना को मारने का दबाव नहीं है बल्कि अशुभ को शुभ में परिवर्तित करने का आग्रह है। अशुभ वासनाओं का त्याग और शुभ वासनाओं की पूर्ति करते-करते मन एक दिन शुद्ध होकर वासनाहीन हो जाता है। इसीलिए यह चौथी पद्धति अधिक मान्य है। अन्य में थोड़े खतरे हैं।

यह है सफलता का पहला सूत्र
आज हर कोई मैनेजमेंट के सूत्र जानने के पीछे भाग रहा है। तरह-तरह की किताबें और एक पूरी साहित्य शृंखला सफलता के सूत्रों पर लिखी जा चुकी है। क्या कारण है कि युवा पीढ़ी फिर भी इतनी अशांत और असफलता के भावों से घिरी है। शायद हमारे सूत्रों में ही कोई कमी रह गई है, ऐसा सोचकर हम फिर नई किताबों की ओर मुड़ जाते हैं। अध्यात्म के भी अपने कुछ सूत्र हैं जो हमें सफलता की ओर ले जाते हैं। इन सूत्रों को अगर अपना लिया जाए तो सफलता तो मिलती है लेकिन साथ में एक चीज और मिल जाती है वह है शांति।प्रतिस्पर्धा के चलते स्वास्थ्य पर ध्यान देना लगभग भूल जाते हैं। अनियमित दिनचर्या और खानपान लगभग हर दूसरे युवा की परेशानी है। हमें सेहतमंद रहने के लिए हनुमानजी से प्रेरणा लेनी चाहिए। उनके जीवन में झांके तो सफलता और सेहत दोनों के महत्वपूर्ण सूत्र मिलते हैं। लगातार सक्रिय रहते, परिश्रम करते हुए अपनी स्वयं की देह का ध्यान रखना भी एक योग है। सधी हुई सेहत सफलता के लिए जरूरी है। श्रीहनुमान सेहत के श्रेष्ठï उदाहरण हैं। हनुमानजी के स्वास्थ्य का राज रामायण के सुंदरकांड में लिखा है। सीताजी से मिलने के बाद जब उन्हें भूख लगी तो माताजी से निवेदन किया और सीताजी ने उनसे कहा
देखी बुद्घि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु। रघुपति चरन हृदयॅं धरि तात मधुर फल खाहु।।
''हनुमानजी को बुद्घि और बल में निपुण देखकर जानकीजी ने कहा जाओ हे तात श्री रघुनाथजी को हृदय में बसाते हुए मीठे फल खाओ और हनुमानजी ने फल खाए। इसमें संदेश यह है कि मनुष्य को फलाहारी या शाकाहारी होना चाहिए। शाकाहार शरीर को स्वस्थ्य रखता है और श्रीराम को हृदय में रखकर फल खाने का अर्थ है शुद्घ स्वच्छता से भोजन करना। शुद्घ भोजन, स्वच्छ वातावरण में अच्छे भाव से यदि किया जाए तो शरीर पर अनुकूल असर करता है और इसका परिणाम है हनुमानजी जैसी सेहत। महाभारत के समय जब पांडव अपना वनवास काट रहे थे उस समय भीम द्रौपदी के लिए फूल लाने के उद्देश्य से वन में प्रवेश कर गए। उन्हें केले का बगीचा दिखा। भीम की गर्जना सुनकर जंगल के जानवर पशु-पक्षी डरकर इधर-उधर भाग गए। इस वन में हनुमानजी भी रहते थे। वे मार्ग में विश्राम कर रहे थे। भीमसेन ने उन्हें पहचाना नहीं और उनसे उलझ गए तथा जाने के लिए मार्ग मांगने लगे। हनुमानजी ने कहा आप चाहें तो मेरी पूंछ हटाकर जा सकते हैं। भीम को अहंकार था, जैसे ही पूंछ हटाने का प्रयास किया। पूंछ टस से मस नहीं हुई। तब भीम ने पूछा आप कौन हैं और हनुमानजी का परिचय हुआ। भीम का अहंकार जाता रहा। एक युग बीत जाने पर भी हनुमानजी उतने ही स्वस्थ्य और ताकतवर थे।

विकास की ये चार सीढिय़ां हैं...
धर्म क्या है इसको लेकर सदैव बहस होती रहती है। कार्ल माक्र्स का यह संवाद बहुत लोकप्रिय है कि धर्म जनता के लिए अफीम है यानी नशा है। माक्र्स ने इस सवाल को बहुत पहले उठाया था कि धर्म से उत्पन्न रिक्तता को कैसे भरा जाए।
मनुष्य धर्म की रचना करता है या धर्म मनुष्य की रचना करता है यह बहस का एक पुराना मुद्दा है। किसी ने धर्म को मनुष्य की स्वचेतना कहा है, स्वप्रतिष्ठा माना है, भटके हुए लोगों के लिए सद्मार्ग माना है। मनुष्य रहता है राज्य और समाज में। जीता है किसी धर्म में और कई बार धर्म और राज्य, समाज एक-दूसरे के लिए उल्टे नजर आते हैं। वे एक-दूसरे को शीर्षासन करते हुए देखते हैं लेकिन तमाम प्रगतियों के बाद अब यह तय हो गया है कि धर्म के विरूद्ध संघर्ष का मतलब है संसार के विरूद्ध संघर्ष। संसार में अध्यात्म की जो सुगंध होती है उस तक पहुंचने के लिए धर्म एक साफ-सुथरी पगडंडी है। धर्म को संसार में उलझाएं तो अनेक विवाद हैं लेकिन अध्यात्म से जोड़ें तो उससे भी अधिक समाधान हैं।जैसे अध्यात्म से जुड़कर धर्म कहता है मनुष्य के विकास की चार सीढिय़ां हैं और धर्म ने इन्हें आश्रम का नाम दिया है- बृह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम।

बृह्मचर्य आश्रम ज्ञान की उपासना को बताता है। गृहस्थाश्रम में प्रेम, सहयोग और त्याग के प्रयोग किए जाते हैं, वानप्रस्थ आश्रम में परिवार की मर्यादित आसक्ति को छोड़कर सेवा की जाए इसका आग्रह होता है। संन्यास आश्रम का अर्थ है निर्माण। एक ऐसा जीवन जो सिर्फ परमात्मा के लिए होगा। सन्यास भारतीय संस्कृति का मौलिक शब्द है। इसलिए धर्म को अध्यात्म से जोड़कर खूब लाभ उठाया जा सकता है और संसार में उलझा कर हानि भी प्राप्त की जा सकती है।

इस सौदे की कीमत बहुत भारी है...
हर उपलब्ध वस्तु का अपना एक मूल्य होता है। जो लोग परमात्मा को पाना चाहते हैं उन्हें अच्छा खासा मोल चुकाने की तैयारी रखना होगी। सच तो यह है कि ईश्वर जैसी महान हस्ती को पाने के लिए एक बड़ा मूल्य चुकाना होगा और वह है खुद ही को खो देना। कोई यह सोचे कि यह सत्ता थोड़े से धन से, सम्पत्ति से या मान देने से मिल जाएगी तो यह भ्रम होगा। खुद ही को खर्च किए बिना परमात्मा नहीं मिलेगा। अपने निज का दांव लगाना पड़ेगा, अपनी ही आहूति देना पड़ेगी।
हनुमानजी का उदाहरण लें। जब तक उनके जीवन में श्रीराम नहीं आए थे वे केसरी के बेटे के रूप में तथा सुग्रीव के सचिव के रूप में जाने जाते थे। जैसे ही श्रीराम उनके जीवन में आए हनुमानजी ने अपनी सारी पहचान समाप्त कर दी और पूरी तरह राममय हो गए। श्रीराम जितने हनुमान को मिले उतने शायद ही किसी को मिले होंगे। कारण वही था हनुमानजी ने स्वयं को पूरा खो दिया था और खुद को खोने के बाद जो मिला वह अनमोल है। हनुमानजी इसीलिए सभी धर्मों में प्रिय हैं। हर संप्रदाय का व्यक्ति वायु का उपयोग करता है और हनुमानजी वायु के देवता हैं। कोई सा भी धर्म हो उस परमसत्ता तक पहुंचने के लिए सिद्धांत सबके एक ही होंगे। समझदार भक्त किसी भी धर्म के हों अपने सम्प्रदाय को मार्ग की तरह उपयोग करते हैं और मंजिल पर पहुंचने पर मार्ग को छोड़ देते हैं। जो नासमझ हैं वह मार्ग पर ही टिक जाते हैं।
संप्रदाय एक मार्ग है। अब मार्ग या संप्रदाय का क्या दोष, वह तो लोग गलत उपयोग करते हैं इसलिए संप्रदाय शब्द बदनाम हो गया। यह तो वाहन की तरह है। हम वाहन का उपयोग करने के बाद उसको छोड़ देते हैं अपने ऊपर ढोते नहीं। यदि कोई वाहन को ढोए तो इसमें वाहन की क्या गलती। संप्रदाय भी इसी तरह है। हनुमानजी अपने चरित्र से यही बताते हैं कि उस परम सत्ता को पाने के लिए विलीन हो जाओ और ऐसी अवस्था में धर्म और संप्रदाय आड़े नहीं आएंगे। आपको वह परम सत्ता उपलब्ध हो जाएगी जिसके लिए आप संसार में आए हैं।

विष्णु को ही क्यों चुनती है लक्ष्मी....
समुद्र मंथन से जो 14 रत्न निकले थे उनमें से एक लक्ष्मीजी भी थीं। इनसे जुड़ी अनेक कथाएं हैं। यदि कथाओं पर अधिक ध्यान न दें और संदेश पर टिकें तो दीप पर्व पर एक सुंदर दार्शनिक विचार हमारे हाथ लगेगा। कहते हैं समुद्र से प्रकट होने के बाद लक्ष्मीजी को यह स्वतंत्रता दी गई थी कि वे जिसे चाहें पति के रूप में उसका वरण कर लें।
लक्ष्मी का मालिक कौन बने इसके लिए ऋषिमुनियों से लेकर देवताओं ने प्रयास किए लेकिन बहुत ही ठोस कारणों को देते हुए लक्ष्मीजी ने सबको नकार दिया। सभी के मन में यह सवाल खड़ा हुआ कि आखिर ये किसको वरेंगी?कथा ऐसी आती है कि जब सब लक्ष्मी को पाने के लिए बेचैन थे उस समय नारायण आराम से पीताम्बर ओढ़कर सो रहे थे। यहीं से लक्ष्मी ने विचार किया कि ये कोई गहरे व्यक्तित्व लिए हैं और लक्ष्मी ने नारायण को वर लिया। लक्ष्मी का तर्क था इनमें पालनहार की वृत्ति है। ये नेतृत्व करना जानते हैं। लक्ष्मी का अर्जन, सृजन, विसर्जन तीनों ही महत्वूपर्ण है। विसर्जन यानि निवेश। लक्ष्मी समझ गई थी मैं इनके हाथों में सर्वाधिक सुरक्षित और सम्मानित रहूंगी।नारायण होना एक वृत्ति है। जिसमें धैर्य, प्रेम, दान, वैराग्य तथा प्रगतिशीलता के लक्षण होते हैं।
यहां एक और बात सामने आती है कि नारायण सो रहे थे। कहते हैं लक्ष्मी न हो तो कमाने के लिए नींद उड़ जाती है और अधिक आ जाए तो संभालने पर नींद नहीं आती। जिन्हें गहरी नींद न आती हो उनकी भक्ति में बाधा निश्चित पड़ेगी। अनिद्रा ऊब को पैदा करती है और ऊब से अशांति का जन्म होता है। इसलिए लक्ष्मी के साथ-साथ गहरी निद्रा का अभ्यास भी किया जाए। ताकि धन से भक्ति का श्रृंगार हो न कि भक्ति खंडित हो।

सबसे अच्छी सुगंध तो यही है....
सुगंध के प्रति सबका आकर्षण होता है फिर मनुष्य जीवन तो अपने आपमें एक महक है। दुर्गंध के झोंके तो बाद में हम प्रवेश कराते हैं। गौतम बुद्ध एक जगह कह गए हैं कि संसार की सारी सुगंधों में श्रेष्ठ सुगंध है शील की सुगंध। यह तब ही होगी जब हम शीलवान होंगे। फर्क है चरित्रवान और शीलवान होने में।

आइए, शंकरजी के जीवन के एक प्रसंग में प्रवेश करते हैं तो बात सरलता से समझ में आएगी। पार्वतीजी से विवाह करने हेतु शंकरजी दूल्हा बने थे और बारात जाने के लिए तैयार थी, दृश्य विचित्र था। भूतप्रेत विचित्र शारीरिक आकृतियों के गण बाराती के रूप में थे। तब देवताओं की पत्नियों ने इस दृश्य को देख शंकरजी पर व्यंग्य कसा था। इस ताने से गुजरने के बाद शिवजी पार्वती के पिता हिमालय के द्वार पर खड़े थे। पार्वतीजी की मां मैना ने दूल्हे को देख दुख और कोप प्रकट कर दूल्हे शिव का घोर अपमान कर डाला था।

जो फलु चहिअ सुरतरूहिं, सो बरबस बबूरहिं लागा

जो फल कल्प वृक्ष में लगना चाहिए, वह जबर्दस्ती बबूल में लग रहा है यानि पार्वतीजी के योग्य शंकरजी नहीं हैं। मैना के इस रोष और उपहास भरी टिप्पणी के बाद में दूल्हा बने शिव आपकी प्रसन्नता और विनम्रता नहीं जोड़ते हैं। यहीं से शिव के शील के दर्शन होते हैं। धैर्य और निरंहकारिता शील के आभूषण हैं। चरित्रवान और शीलवान में यही फर्क है।चरित्र हमारे द्वारा खोदे गए कुए के जल के समान है और शील ईश्वर द्वारा उतारी गई गंगा है। जब कभी आप ध्यान में मेडिटेशन में गहरे उतरे और उसके बाद जो आपकी जीवनशैली होगी वह शील है। शंकरजी ने अपने दाम्पत्य के आरंभ के दृश्य में यह संकेत दे दिया कि बिना शीलवान बने यदि गृहस्थी में प्रवेश करोगे तो अशांति की संभावना बनाओगे।

तब व्यक्ति बनता है योगी
कोई कब योगी बनता है इस द्वन्द में लम्बे समय से दुनिया उलझी है। ऊपर से देखने में भक्त और योगी अलग-अलग नजर आ सकते हैं। जो भक्ति करने में लगे हैं उन्हें योग शुद्ध कर्मकाण्ड लगता है। वे योगियों को अलग श्रेणी में मानते हैं। परन्तु भक्ति-योग एक ही है। इसके श्रेष्ठ उदाहरण हैं हनुमानजी। योग के आठों अंग हनुमानजी महाराज की हर क्रिया, आचरण, व्यवहार, स्वभाव में दिखते हैं।
योगी के भीतर भक्त कैसे बसे आइए इनसे सीखें।सीताजी की खोज में वानर निकल चुके थे। हनुमानजी को चुप बैठा देख जाम्बवन्त ने पूछा था
कहइ रीछपति सुनु हनुमाना, का चुप साध रहा बलवाना
रीछपति जाम्बवन्त ने कहा हे बलवान हनुमान यह क्या चुप्पी साध रखी है। उस समय हनुमान योग की गहरी मुद्रा में थे। जब वे बोले तो उन्होंने समुद्र को लांघने पर टिप्पणी की।
सिंहनाद करि बारहि बारा, लीलहिं नाघउं जलनिधि खारा
उन्होंने सिंहनाद करके कहा इस खारे समुद्र को मैं खेल-खेल में लांघ सकता हूं। ऐसा उन्होंने कर भी दिया था।यह समुद्र ही मन है। मन के सागर को लांघना ही योग है, ध्यान है। सामान्यत: ऐसा माना जाता है योग अभ्यास का विषय है इसीलिए इसे योगाभ्यास कहा गया है। लेकिन कुछ सन्तों का मत है कि बहुत गहराई में जाएं तो योग अभ्यास का नहीं समर्पण का मार्ग है। कई साधनों में से अभ्यास एक साधन हो सकता है लेकिन समर्पण की स्थिति आने पर योग सहज हो जाएगा। इसीलिए योग के आठ अंग में से दूसरे अंग नियम के पांचवे भाग को ईश्वर प्रणिधान कहा गया है।
इसका अर्थ है ईश्वर के प्रति समर्पण। यह महत्वपूर्ण साधन है। हनुमानजी भक्ति में समर्पण का प्रतीक हैं। इसलिए भक्ति के योग को हनुमानजी के माध्यम से समझा जाए और अभ्यास तथा समर्पण के साथ योग किया जाए।

तो इस कीचङ में भी खिल सकता है कमल
कीचड़ में कमल खिलता है यह एक सामान्य सी कहावत है और प्रकृति का सच्चा अनूठा दृश्य है। कमल तो बेजोड़ और सर्वमान्य है ही, हिन्दू देवताओं का अलंकरण और पूजा की सामग्री है।पर आज बात कीचड़ की कर लें। पहली बात तो यह कि कीचड़ को सिर्फ कीचड़ ही न समझा जाए इसमें कमल होने की संभावना छिपी हुई है।
यदि नजर में परमात्मा है तो कीचड़ के भीतर छिपा कमल हम प्राप्त कर सकेंगे, अन्यथा सतही दृष्टि से तो कमल को भी हम कीचड़ बनाकर छोड़ देंगे। कीचड़ और कमल के परमात्मा के नियम को और थोड़ा खुलकर समझ लें। आप दुनियादारी में जितने गहरे उतरते जाएंगे आपको कीचड़ के मायने समझ में आने लगेंगे। अब यदि बाहर कमल खिल सकता हो तो हमारे भीतर क्यों नहीं। हमारे शरीर के श्रेष्ठतम और सातवें चक्र सहस्त्रार का स्वरूप खिले कमल जैसा है। आपके भीतर कीचड़ में कमल खिलने का अर्थ है अब आप जो भी काम करेंगे पूरी तरह होश में करेंगे। कमल के रूप में आपका जागरण खिला है। होश का अर्थ है आप अपने ही कृत्य के दृष्टा हो गए।
इस कमल खिलाने की क्रिया का नाम है ध्यान। पर ध्यान के लिए समय की झंझट है लोगों के पास।कब करें ध्यान। इस वक्त समय के मामले में दो तरह के लोग हैं। एक वे हैं जिन्हें चौबीस घंटे भी कम पड़ रहे हैं दूसरे वे हैं जिन्हें भारी पड़ रहे हैं कि चौबीस घंटे बिताएं तो कैसे बिताएं। एक मध्य मार्ग निकाला जा सकता है। 24 घंटे होश की चिंता छोड़ें। सिर्फ पांच या दस मिनट, पूरी तरह से ध्यान में बिताएं। थोड़ी देर का मेडिटेशन पूरे चौबीस घंटे पर प्रभाव रखेगा। करके देखिए पता लग जाएगा, कीचड़ में कमल कैसे खिलता है।

सफलता के लिए जरूरी है यह स्वरूप
वर्तमान समय में आदमी यह भूल गया है कि कहां बड़ा होना और कहां छोटा होना है। समाज में कई लोग प्रतिष्ठित, मान्य और ख्यात होते हैं। घर आते हैं तो इसकी अकड़ और ऐंठ लेकर आ जाते हैं। यहीं से घर के सदस्यों से उनका झगड़ा शुरू हो जाता है। घर में आपस में समानता का व्यवहार होना चाहिए। पर आदमी बड़ा का बड़ा ही बना रहता है।
कहां बड़ा होना और कहां छोटा होना यह एक कला है। हमारे हनुमानजी महाराज इसमें बहुत दक्ष हैं। सुंदरकांड के एक प्रसंग से हम सीख सकते हैं। अशोक वाटिका में हनुमानजी और सीताजी की चर्चा चल रही थी। वे सीताजी को धैर्य बंधा रहे थे किंतु सीताजी का आत्मविश्वास लौट नहीं रहा था। हनुमानजी ने कहा मां भरोसा रखें प्रभु श्रीराम आएंगे और आपको ले जाएंगे। वैसे तो मैं आपको यहां से ले जा सकता हूं किंतु श्रीराम की ऐसी आज्ञा नहीं है। वे वानरों के सहित आएंगे और राक्षसों का नाश करके आपको ले जाएंगे। तब सीताजी ने कहा था राक्षस बहुत बलवान हैं और वानर तुम्हारी तरह छोटे-छोटे होंगे, मुझे संदेह है।
इतना सुनते ही हनुमानजी ने अपने शरीर को पर्वत के समान विशाल कर दिया। सीताजी के मन में विश्वास हो गया। हनुमानजी तत्काल छोटे हो गए। उन्हें लगा कहीं सीताजी यह न समझ लें कि मैं अपनी बढ़ाई कर रहा हूं। अगली ही पंक्ति में हनुमानजी ने स्पष्ट किया
सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल,
प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल
यानि हे माता सुनो, वानरों में बहुत बल-बुद्धि नहीं होती। परंतु प्रभु के प्रताप से बहुत छोटा सर्प भी गरुड़ को खा सकता है। इस तरह अपनी बढ़ाई, श्रेष्ठता को जो लोग परमात्मा से जोड़ते हैं उन्हें अहंकार नहीं आता है।

केवल सुख से नहीं मिलता सुकून
दुख कोई नहीं चाहता इसीलिए सुख के पीछे हर कोई भाग रहा है। दुख मिलता है तो पीड़ा होती है लेकिन सुख मिलने पर सुकून मिल जाए यह जरूरी नहीं होता। सुख की भी अपनी पीड़ा होती है और अध्यात्म समझाता है पीड़ा का भी अपना सुख होता है।
आज महाभारत के एक पात्र से मुलाकात की जाए जिनका नाम है भीष्म। इनका सारा जीवन सुख की पीड़ा और पीड़ा के सुख के बीच में बीता। दोनों ही स्थितियों में इस व्यक्तित्व ने भगवान की भक्ति नहीं छोड़ी। ऊपर से भीष्म जितने सांसारिक दिखते थे भीतर से उतने ही आध्यात्मिक थे। वे राजगादी से जुड़े हुए नजर आते थे लेकिन उनकी दृष्टि परम् पद पर टिकी हुई थी। स्वयं राजा थे, कई राजाओं को बनाने और बिगाडऩे वाले थे। वे यह जानते थे कि च्च्वो एक शख्स जो तुझसे पहले तख्त नशीं था उसको भी अपने खुदा होने का उतना ही यकीं थाज्ज् न तख्त रहते हैं न ताज, बड़े-बड़े राजा आम आदमी की तरह दुनिया से चले जाते हैं। भीष्म के पास सारे सुख थे पर उतनी ही पीड़ा भी थी। वे दुर्योधन को नियंत्रण में नहीं रख पाए। कुरुवंश की नई पीढ़ी उन्हीं के सामने अमर्यादित हो गई। यह सुख की पीड़ा है।
इसी में से उन्होंने पीड़ा का सुख भी उठाया। भीष्म ने हमें अपने चरित्र से बताया है कि मनुष्य छिपा हुआ परमात्मा है। एक तरह से परमात्मा का बीज है मनुष्य। परमात्मा खिला हुआ परमात्मा है और मनुष्य अधखिला हुआ परमात्मा है। हर एक के भीतर परमात्मा है बस च्च्मैंज्ज् हटाओ और ईश्वर प्रकट हो जाएगा। सुख की पीड़ा तो उन्होंने बहुत देखी थी। जब अंतिम समय वे शरशैया पर थे तो उनकी मृत्यु की गवाही देने श्रीकृष्ण स्वयं उपस्थित हुए थे। यह पीड़ा का सुख था। चाहें तो हम भी इस सुख को उठा सकते हैं।

अगर महत्वाकांक्षाओं को पूरा करना हो....
अपनी महत्वाकांक्षाओं को हर हालत में पूरा करने का यह दौर है। तुलसीदास जी ने इस महत्वाकांक्षा को ही मनोरथ कहा है।
कीट मनोरथ दारु सरीरा, जेहि न लाग घुन को अस धीरा
मनोरथ कीड़ा है, शरीर लकड़ी है, ऐसा धैर्यवान कौन है जिसके शरीर में यह कीड़ा न लगा हो। आगे उन्होंने इसे और साफ करते हुए कहा है-
सुत बित लोक ईषना तीनी, केहि कै मति इन्ह कृत न मलीनी
पुत्र की, धन की और लोक प्रतिष्ठा की इन तीन प्रबल इच्छाओं ने किसकी बुद्धि को मलीन नहीं कर दिया, यानी बिगाड़ नहीं दिया। अच्छे-अच्छे इस चक्कर में उलझ गए। आज के प्रबंधन की भाषा में इसे ही अति व्यावसायिक दृष्टिकोण कहा गया है।
मान लिया गया है कि अपने लक्ष्य की पूर्ति में संवेदनाएं खतरा हो सकती हैं। अत: सिर्फ प्रोफेशनल एट्यीट्यूड रखो। व्यक्तिगत, संवेदनशील सम्बन्ध कुछ नहीं होते। सम्बन्ध काम के रखे जाएं, दिल के नहीं। अब तो आदमी इतना कामकाजी हो गया है कि दिल के भी सौदे करने लग गया। इस दौर में जो लोग जॉब शिफ्ट या जंप करते हैं ज्यादातर मौकों पर उनके साथ यही होता है कि वे या तो अपने पुराने मैनेजमेंट को भूल ही जाते हैं या उनके पुराने मालिक उनकी सूरत नहीं देखना चाहते।
हनुमानजी से सीखें कि सारे व्यावसायिक दायित्व रखते हुए भी सम्बन्धों में संवेदनाओं की गरिमा कैसे रखी जाए। रावण को मारकर जब राम अयोध्या लौटे तो कुछ समय बाद उन्होंने सभी वानरों को विदा किया। हनुमानजी थे तो राजा सुग्रीव के सचिव पर अब श्रीराम के साथ रहना चाहते थे, बड़ी मर्यादा से उन्होंने सुग्रीव से अनुमति ली थी-
तब सुग्रीव चरन गहि नाना, भाँति बिनय कीन्हे हनुमाना
सुग्रीव के चरण पकड़कर हनुमानजी ने अनेक प्रकार से विनीती की। उनके स्पष्ट और संवेदनशील व्यवहार के कारण ही उनके पुराने बॉस सुग्रीव को कहना पड़ा-
पुन्य पुंज तुम्ह पवनकुमारा, सेवहु जाइ कृपा आगारा
पवनकुमार तुम पुण्य की राशि हो, जाओ कृपाधाम राम की सेवा करो। हनुमानजी से सीखें अपने मनोरथों की पूर्ति में संवेदनाओं की गरिमा को कैसे जीवित रखें।

इसी परंपरा का नाम है परिवार
भारत की भीड़ को लेकर विदेशी लेखकों और चिन्तकों ने बहुत लिखा है। दरअसल भारतीय समूह की वृत्ति में जीते हैं और जल्दी अनुशासन छोड़ देते हैं। इस कारण हमारा समूह भीड़ में बदल जाता है। हमारी इसी भारतीय भीड़ का दुनियाभर में बहुत मजाक उड़ाया जाता है।

अध्यात्म ने अधिक मनुष्यों की एक साथ उपस्थिति को अनुग्रह से जोड़ा है, जो बिल्कुल नई दृष्टि है। भारतीय संस्कृति ने जीवन में जो कुछ भी उपलब्ध हुआ है उसके प्रति आभार से भरे रहने के लिए अत्यधिक आग्रह किया । हमें जहां से जो भी मिला है उसके प्रति आभारी जरूर हों। हमारे यहां प्रत्येक धार्मिक आयोजन में सब एक साथ इकट्ठा होकर भाव से जुड़ें इसका प्रयास किया जाता है। धार्मिक अनुष्ठानों के कर्मकाण्डों से यही सन्देश दिया जाता है कि सब आपस में मिलकर रहें। भारतीय संस्कृति ने छोटे-छोटे पर्वों पर भी ऐसी व्यवस्था दी है कि परिवार के सदस्य एक साथ इकट्ठे हो जाएं। छोटे परिवारों के इस युग में पैदा हो रहे और पल रहे बच्चे जान ही नहीं पाते हैं कि मम्मी-पापा के अलावा भी रिश्तों का ऐसा संसार है जो जीवन को रिलेक्स कर सकता है। कुछ बच्चे तो रिश्तों के संबोधन ही भूल गए। घर की शोभा पूरे परिवार से होती है और पूरे परिवार में केवल तीन-चार सदस्य नहीं होते। परिवार में सब मिलकर रहें या वक्त-वक्त पर मिलते-जुलते रहें तो यहीं धरती पर घर में ही स्वर्ग होगा। मिल-जुलकर करने पर धार्मिक कार्य भी अपने आप में उत्सव हो जाता है।

जो लोग दुनिया में सर्वश्रेष्ठ बने हैं वे इकट्ठे होने का रहस्य जानते हैं। सबके साथ इकट्ठा रहने पर अपने अहंकार को नियन्त्रित करना पड़ता है। इसके लिए सरल तरीका है आभार प्रकट करने की वृत्ति बनाए रखें। हम जितने आभार से भरे हुए होंगे उतना ही अपने भीतर की श्रेष्ठता को उजागर कर पाएंगे, मिल-जुलकर रहने का यह भी एक फायदा है।

सबसे अच्छा लगता है यह एहसास...
सबका अपना अपना महत्व है। हम भी जरूरी हैं दुनिया के लिए यह एहसास सबको अच्छा लगता है। महत्वपूर्ण होना कौन नहीं चाहता। दुनिया में जितनी भौतिक प्रगति हुई है उसके पीछे मनुष्य का यह भाव भी रहा है मुझे महत्वपूर्ण माना और समझा जाए। पर आदमी केवल महत्ता पर टिक गया, वह यह भूलता ही जा रहा है कि उसकी एक सत्ता भी है, भीतरी सत्ता।
असंयम की अति के कारण हमने अपने ही भीतर मुडऩा छोड़ दिया। बाहर हम महत्वपूर्ण माने जाएं इस शैली के कारण हमारी महत्ता तो कायम हो गई पर निर्भयता चली गई। अच्छे-अच्छे महत्वपूर्ण लोग भीतर से भयभीत हैं। विश्वास और विश्वासघात जिन्दगी में एक साथ चलने लगे। महसूस होने लगा कि दुनिया बे-भरोसे की है फिर भी उसे मुठ्ठी में भर लेने की चाहत बढ़ती ही गई। क्या करें कि बाहरी महत्ता और भीतरी सत्ता का तालमेल बैठ जाए। जीसस जिस समाज से जुड़े थे वहां के धर्म ने बाहरी प्रगति पर खूब काम किया। आज दुनिया विज्ञान तकनीक के जिस ऊंचे मुकाम पर है उसमें ईसाइयों ने बड़ा योगदान दिया है। जीसस इस उपलब्धि के खतरों को भी जान चुके थे। इसीलिए उन्होंने चर्च को ऐसा केन्द्र बनाया जहां से परमात्मा और प्रगति का तालमेल बैठाया जाए।
वे जानते थे विज्ञान यथार्थ से परिचय तो करा देगा, फिर भी एक ऐसी सपने की दुनिया में ले जाएगा जहां आदमी नींद में उतार जाएगा। ऐसी नींद जिसमें होश जाता रहेगा। ऐसा बेहोश आदमी फिर विकासशील होकर भी अशांत रहेगा। उसके पास प्रगति होगी, प्रेम चला जाएगा। इसलिए जीसस कहते हैं-जितना दुनिया जाने उससे कम खुद न जानो। जितना ईश्वर से अधिक प्रेम करोगे उतना खुद से परिचित होते जाओगे इसी में शांति है।

अगर आपको है शांति की तलाश
यदि आप शांति की तलाश में हैं तो अपनी दोस्ती मौन से भी कर ली जाए। पुरानी कहावत है मौन के वृक्ष पर शांति के फल लगते हैं। मौन और चुप्पी में फर्क है। चुप्पी बाहर होती है, मौन भीतर घटता है। चुप्पी यानी म्यूटनेस जो एक मजबूरी है। लेकिन मौन यानी साइलेंस जो एक मस्ती है। इन दोनों ही बातों का संबंध शब्दों से है।
दोनों ही स्थितियों में हम अपने शब्द बचाते हैं लेकिन फर्क यह है कि चुप्पी में बचाए हुए शब्द भीतर ही भीतर खर्च कर दिए जाते हैं। चुप्पी को यूं भी समझा जा सकता है कि पति-पत्नी में खटपट हो तो यह तय हो जाता है कि एक-दूसरे से बात नहीं करेंगे, लेकिन दूसरे बहुत से माध्यम से बात की जाती है। भीतर ही भीतर एक-दूसरे से सवाल खड़े किए जाते हैं और उत्तर भी दे दिए जाते हैं। यह चुप्पी है। इसमें इतने शब्द भीतर उछाल दिए गए कि उन शब्दों ने बेचैनी को जन्म दे दिया, अशांति को पैदा कर दिया। दबाए गए ये शब्द बीमारी बनकर उभरते हैं। इससे तो अच्छा है शब्दों को बाहर निकाल ही दिया जाए।
मौन यानी भीतर भी बात नहीं करना, थोड़ी देर खुद से भी खामोश हो जाना। मौन से बचाए हुए शब्द समय आने पर पूरे प्रभाव और आकर्षण के साथ व्यक्त होते हैं। आज के व्यावसायिक युग में शब्दों का बड़ा खेल है। आप अपनी बात दूसरों तक कितनी ताकत से पहुंचाते हैं यह सब शब्दों पर टिका है। कुछ लोग तो सही होते हुए भी शब्दों के अभाव, कमजोरी में गलत साबित हो जाते हैं। कोई आपको क्यों सुनेगा यदि आपके पास सुनाने लायक प्रभावी शब्द नहीं होंगे। इसलिए यदि शब्द प्रभावी बनाना है तो जीवन में मौन घटित करना होगा। समझदारी से चुप्पी से बचते हुए मौन को साधें। चुप्पी चेहरे का रौब है और मौन मन की मुस्कान।

नया कार्य से पहले करें यह चार काम...
जब भी कोई नया काम करने जाएँ तो शुरूआत में चार काम करें। शुभ शब्दों का स्मरण, माता-पिता को प्रणाम, परमात्मा को वंदन और गुरु को नमन। तुलसीदासजी ने श्रीहनुमानचालीसा का आरंभ दो दोहों से किया है- च्च्श्री गुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि। बरनउँ रघुबर बिमल जस, जो दायकु फल चारि।।ज्ज् इसका सीधा-सा अर्थ है गुरु के चरण की रज (धूल) से मन रूपी दर्पण को साफ करता हूँ और भगवान् के विमल यश का गान करता हूँ जो चार फल देने वाला है। यहाँ धूल और दर्पण दो शब्द आए हैं। तुलसीदासजी ने कुछ उल्टी बात लिख दी। धूल को साफ किया जाता है, धूल से साफ नहीं किया जाता, लेकिन वे लिख रहे हैं गुरु के पैर की धूल से मन रूपी दर्पण को साफ करता हूँ। यहाँ गुरु के पैर की धूल का अर्थ है गुरुकृपा और मन एक दर्पण की तरह माना गया है। चित्र और दर्पण में अंतर होता है। चित्र भूतकाल है और आईना वर्तमान काल है। हनुमानचालीसा दर्पण है। इसमें जब भी हम देखेंगे, हमारी ताजी तस्वीर नजर आएगी। दर्पण देख हम स्वयं को ठीक करते हैं, श्रृंगारित करते हैं, इसी तरह हनुमानचालीसा में झाँककर स्वयं के व्यक्तित्व को निखारें, सुसज्जित कर लें। बाहरी दर्पण तो केवल शरीर सजाने के काम आता है लेकिन मन रूपी दर्पण उस सत्य से हमारा परिचय करा देता है जो हम ही जानते हैं हमारे बारे में। और जब इस दर्पण में भ्रम, सन्देह की धुन्ध जम जाए तो वह गुरुकृपा से ही दूर होगी। जब भी हम जीवन में भ्रमरहित, सन्देहमुक्त होकर कोई कार्य आरंभ करेंगे सफलता सुनिश्चित तथा स्थाई होगी।

सबकुछ नहीं है धन परन्तु बहुत कुछ है
युग कोई सा भी रहा हो यह सही है कि धन सबकुछ नहीं होता, परन्तु बहुत कुछ होता है। लक्ष्मी अर्जन करना सबसे बड़ा पुरुषार्थ है। धन कमाने में अनुचित की शुरूआत उसके तरीके में है, उसके अर्जन में नहीं है। दीपावली पर पूजन सही हो जाए तो क्या सचमुच लक्ष्मी मेहरबान हो जाएंगी? यह एक मात्र त्यौहार ऐसा है जिस का उद्देश्य सीधे-सीधे जीवन को प्रभावित करता है। हिन्दुओं ने अपने हर त्यौहार को प्रतीकों से जोड़ दिया है। संसार में शायद ही किसी समुदाय, जाति या मनुष्यता ने ऐसा किया होगा।
इस मामले में ऋषि-मुनि खूब गहरे उतरे हैं। हर कर्मकांड की एक भीतरी क्रिया है और हर बाहरी विचार का एक भीतरी क्रियान्वयन है। इस साईंस ऑफ सेल्फ को जब जब भी भुलाया गया हम त्यौहार के उद्देश्य से भटक गए और सही परिणाम नहीं पा सके। हमारे शरीर में भीतर कुछ चक्र, बिन्दु और स्थान हैं जहां से मनुष्य संचालित होता और बाहरी क्रिया करके परिणाम लेता और देता है। पहली बात यह है कि हमें अपने शरीर के भीतर के इन चक्रों, बिन्दुओं की जानकारी हो और दूसरी महत्वपूर्ण बात है इनका उपयोग करना आना चाहिए। बाहर के सारे प्रतीक ऋषियों ने भीतर की क्रिया से जोड़कर बनाए थे।
अमावस्या में लक्ष्मी पूजन का अर्थ है अंधेरे में समृद्धि के प्रकाश को खोजना। हमारी ऊर्जा नीचे के अंधकार भरे चक्रों से ऊपर के तीन- विशुद्ध, आज्ञा और सहस्त्रार चक्र पर पहुंचना चाहिए। जैसे ही ऐसा होता है प्रकाश भीतर जागता ही है तथा अपने निर्णय, बाहरी कर्म आपको लाभ पहुंचाते हैं और उस लाभ का आप जीवन में सही आनंद उठा सकते हैं। धन के साथ शांति भी जब मिल जाए तो सही दीपावली है। इसलिए पहले भीतर के दीए की लौ की दिशा सही चक्रों पर रखें तो बाहर का लक्ष्मी पूजन सध जाएगा।

जैसे भी तुझे भाता हो हमें रख, तेरी मर्जी
अभाव किसी को भी नहीं भाता। वस्तु पास में न हो, स्थिति अनुकूल न रहे तब जो अभाव होता है वह तो समझ में आता है परन्तु मन चाहा मिल जाए और फिर भी जीवन में अभाव, असंतोष बना रहे, खतरा यहां से शुरू होता है और आज अनेक लोग इसी खतरनाक स्थिति में जी रहे हैं। जो लोग ये मानते हैं कि सम्पन्नता के साधनों से ही प्रसन्नता आएगी और प्रगति होगी वे भूल जाते हैं कि केवल इससे ही कुछ नहीं होगा। इन बाहरी साधनों के साथ भीतर की मनोवृत्ति पर भी काम करते रहना होगा।
हमारी मनोवृत्ति में यदि संतोष, सहानुभूति, संयम और सदाचार नहीं है तो बाहर से सबकुछ मिल जाने पर भी अभाव का भाव बना रहेगा जो अशांति का कारण बनेगा।
इसी कारण जिनके पास सबकुछ है जरूरी नहीं कि उनके पास शांति भी हो। भौतिकता और आध्यात्मिकता का संघर्ष यहीं से शुरू होता है। भौतिकता कहती है पदार्थ ही प्रमाण है, मटैरिएलिस्कि एप्रोच बनाए रखो, भावनाएं भ्रांति हैं। आध्यात्मिकता का आग्रह है पदार्थ गौण हैं, संवेदनाओं को साधो, इसी छीना-झपटी में मनुष्य उलझ जाता है फिर कैसे जीतें इस द्वन्द को? गुरूनानक की बात काम आ सकती है। वे कहते हैं 'जिउ भावै तिउ राखु तूं मै हरि नामु अधारू' हे प्रभु जैसे भी तुझे भाता हो हमें रख, तेरी मर्जी। ये जो दो शब्द हैं तेरी मर्जी ये हमारे सारे पुरूषार्थ को पवित्र और प्रभावशाली बना देंगे। हम कर्म तो पूरा करेंगे पर फल की प्राप्ति या अप्राप्ति हमें अशांत नहीं करेगी। नानक कहते हैं ऐसे रहते हुए शब्द की, नाम की कमाई करो। व्यावसायिक जीवन में जो भी कमाएं परन्तु आध्यात्मिक जीवन की इस आमदानी को न भूलें जिसे नानक ने 'नामु अधारू' कहा। नाम की कमाई सारे अभाव दूर कर देती है।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,

और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....MMK

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