Tuesday, December 28, 2010

Pranayam( प्राणायाम)

प्राणों के संग्रह का विज्ञान
अष्टांग योग के पहले तीन चरणों यम, नियम, आसन के बाद चौथा चरण है प्राणायाम। प्राणायाम के माध्यम से चित्त की शुद्धि की जाती है। चित्त की शुद्धि का अर्थ है हमारे मन-मस्तिष्क में कोई बुरे विचार नहीं हों। आइए जानें प्राणायाम की क्रिया क्या है-अष्टांग योग में प्राणायाम चौथा चरण है। प्राण मतलब श्वास और आयाम का मतलब है उसका नियंत्रण। अर्थात जिस क्रिया से हम श्वास लेने की प्रक्रिया को नियंत्रित करते हैं उसे प्राणायाम कहते हैं। प्राणायाम से मन-मस्तिष्क की सफाई की जाती है। हमारी इंद्रियों द्वारा उत्पन्न दोष प्राणायाम से दूर हो जाते हैं। कहने का मतलब यह है कि प्राणायाम करने से हमारे मन और मस्तिष्क में आने वाले बुरे विचार समाप्त हो जाते हैं और मन में शांति का अनुभव होता है। प्राणायाम से जब चित्त शुद्ध होता है तो योग की क्रियाएं आसान हो जाती हैं।

प्राणायाम की विधितस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेद: प्राणायाम:। योगदर्शन 2/४९अर्थात् आसन के सिद्ध हो जाने पर श्वास और प्रश्वास की गति के नियंत्रित और संतुलित हो जाने का नाम प्राणायाम है। बाहरी वायु का भीतर प्रवेश करना श्वास कहलाता है और भीतर की वायु का बाहर निकालना प्रश्वास कहलाता है। इन दोनों के नियंत्रण का नाम प्राणायाम है।प्राणायाम में हम पहले श्वास को अंदर खींचते हैं, जिसे पूरक कहते हैं। पूरक मतलब फेफड़ों में श्वास की पूर्ति करना। श्वास लेने के बाद कुछ देर के लिए श्वास को फेफड़ों में ही रोका जाता है, जिसे कुंभक कहते हैं। इसके बाद जब श्वास को बाहर छोड़ा जाता है तो उसे रेचक कहते हैं। इस तरह प्राणायाम की सामान्य विधि पूर्ण होती है।

प्राणायाम के अंगयोगदर्शन में प्राणायाम के तीन अंग बताए गए हैं- १. भीतर की श्वास को बाहर निकालकर बाहर ही रोके रखना बाह्यकुंभक कहलाता है। २. श्वास को भीतर खींचकर भीतर रोकने रखने को आभ्यंतरकुंभक कहते हैं। ३. बाहर या भीतर कहीं भी सुखपूर्वक श्वासों को रोकने का नाम स्तंभवृत्ति प्राणायाम कहलाता है। प्राणायाम को किसी जानकार योगी की देखरेख में ही सीखना चाहिए। प्राणायाम का एक और प्रकार केवल कुंभक है। बाहरी और भीतर के विषयों के त्याग से केवल कुंभक होता है। शब्द, स्पर्श आदि इंद्रियों के बाहरी विषय हैं तथा संकल्प, विकल्प आदि आंतरिक विषय हैं। उनका त्याग करना चतुर्थ प्राणायाम कहलाता है।

प्राणायाम के लाभ-योग में प्राणायाम क्रिया सिद्ध होने पर पाप और अज्ञानता का नाश होता है। -प्राणायाम की सिद्धि से मन स्थिर होकर योग के लिए समर्थ और सुपात्र हो जाता है। -प्राणायाम के माध्यम से ही हम अष्टांग योग की प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और अंत में समाधि की अवस्था तक पहुंचते हैं।-प्राणायाम से हमारे शरीर का संपूर्ण विकास होता है। फेफड़ों में अधिक मात्रा में शुद्ध हवा जाने से शरीर स्वस्थ रहता है। -प्राणायाम से हमारा मानसिक विकास भी होता है। प्राणायाम करते हुए हम मन को एकाग्र करते हैं। इससे मन हमारे नियंत्रण में आ जाता है। -प्राणायाम से श्वास संबंधी रोग तथा अन्य बीमारियां दूर हो जाती हैं।

प्राणों के संचार की विधि प्राणायाम
अष्टांग योग के पहले तीन चरणों यम, नियम, आसन के बाद चौथा चरण है प्राणायाम। प्राणायाम के माध्यम से चित्त की शुद्धि की जाती है। चित्त की शुद्धि का अर्थ है हमारे मन-मस्तिष्क में कोई बुरे विचार नहीं हों। आइए जानें प्राणायाम की क्रिया क्या है-
अष्टांग योग में प्राणायाम चौथा चरण है। प्राण मतलब श्वास और आयाम का मतलब है उसका नियंत्रण। अर्थात जिस क्रिया से हम श्वास लेने की प्रक्रिया को नियंत्रित करते हैं उसे प्राणायाम कहते हैं। प्राणायाम से मन-मस्तिष्क की सफाई की जाती है। हमारी इंद्रियों द्वारा उत्पन्न दोष प्राणायाम से दूर हो जाते हैं। कहने का मतलब यह है कि प्राणायाम करने से हमारे मन और मस्तिष्क में आने वाले बुरे विचार समाप्त हो जाते हैं और मन में शांति का अनुभव होता है। प्राणायाम से जब चित्त शुद्ध होता है तो योग की क्रियाएं आसान हो जाती हैं।

इस तरह करें प्राणायाम
तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेद: प्राणायाम:। योगदर्शन 2/४९
अर्थात् आसन के सिद्ध हो जाने पर श्वास और प्रश्वास की गति के नियंत्रित और संतुलित हो जाने का नाम प्राणायाम है। बाहरी वायु का भीतर प्रवेश करना श्वास कहलाता है और भीतर की वायु का बाहर निकालना प्रश्वास कहलाता है। इन दोनों के नियंत्रण का नाम प्राणायाम है।प्राणायाम में हम पहले श्वास को अंदर खींचते हैं, जिसे पूरक कहते हैं। पूरक मतलब फेफड़ों में श्वास की पूर्ति करना। श्वास लेने के बाद कुछ देर के लिए श्वास को फेफड़ों में ही रोका जाता है, जिसे कुंभक कहते हैं। इसके बाद जब श्वास को बाहर छोड़ा जाता है तो उसे रेचक कहते हैं। इस तरह प्राणायाम की सामान्य विधि पूर्ण होती है।

ये हैं प्राणायाम के अंग
योगदर्शन में प्राणायाम के तीन अंग बताए गए हैं-
१. भीतर की श्वास को बाहर निकालकर बाहर ही रोके रखना बाह्यकुंभक कहलाता है।
२. श्वास को भीतर खींचकर भीतर रोकने रखने को आभ्यंतरकुंभक कहते हैं।
३. बाहर या भीतर कहीं भी सुखपूर्वक श्वासों को रोकने का नाम स्तंभवृत्ति प्राणायाम कहलाता है।

प्राणायाम को किसी जानकार योगी की देखरेख में ही सीखना चाहिए।
प्राणायाम का एक और प्रकार केवल कुंभक है। बाहरी और भीतर के विषयों के त्याग से केवल कुंभक होता है। शब्द, स्पर्श आदि इंद्रियों के बाहरी विषय हैं तथा संकल्प, विकल्प आदि आंतरिक विषय हैं। उनका त्याग करना चतुर्थ प्राणायाम कहलाता है।
कई तरह से होते हैं प्राणायाम के लाभ
-योग में प्राणायाम क्रिया सिद्ध होने पर पाप और अज्ञानता का नाश होता है।
-प्राणायाम की सिद्धि से मन स्थिर होकर योग के लिए समर्थ और सुपात्र हो जाता है।
-प्राणायाम के माध्यम से ही हम अष्टांग योग की प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और अंत में समाधि की अवस्था तक पहुंचते हैं।
-प्राणायाम से हमारे शरीर का संपूर्ण विकास होता है। फेफड़ों में अधिक मात्रा में शुद्ध हवा जाने से शरीर स्वस्थ रहता है।
-प्राणायाम से हमारा मानसिक विकास भी होता है। प्राणायाम करते हुए हम मन को एकाग्र करते हैं। इससे मन हमारे नियंत्रण में आ जाता है।
-प्राणायाम से श्वास संबंधी रोग तथा अन्य बीमारियां दूर हो जाती हैं।

मोटापा कम होता है कपाल भाति से
अव्यवस्थित दिनचर्या और असंतुलित खाने की वजह से अधिकांश लोगों को मोटापे की समस्या से जूझना पड़ रहा है। मोटापे की वजह से हमारे स्वास्थ्य को कई खतरनाक बीमारियों का खतरा सदैव बना रहता है। मोटापे को जल्द से जल्द कम करने के लिए योग क्रिया की मदद ली जा सकती है। ऐसी ही एक क्रिया है कपाल भाति, जिससे निश्चित ही मोटापे पर नियंत्रण किया जा सकता है।

कपाल भाति क्रिया करने की विधि:
समतल स्थान पर साफ टॉवेल या अन्य कपड़ा बिछाकर अपनी सुविधानुसार आसन में बैठ जाएं। बैठने के बाद पेट को ढीला छोड़ दें। अब तेजी से सांस बाहर निकालें और पेट को भीतर की ओर खींचें। सांस को बाहर निकालने और पेट को पिचकाने के बीच सामंजस्य रखें। प्रारंभ में दस बार यह क्रिया करें, धीरे-धीरे 60 तक बढ़ा दें। बीच-बीच में विश्राम ले सकते हैं। इस क्रिया से फेफड़े के निचले हिस्से की प्रयुक्त हवा एवं कार्बन डाइ ऑक्साइड बाहर निकल जाती है और सायनस साफ हो जाती है साथ ही पेट पर जमी फालतू चर्बी खत्म हो जाती है।
सावधानियां:
- श्वास संबंधी बीमारियों से ग्रसित व्यक्ति इस क्रिया को ना करें।
- कपाल भाति क्रिया प्रात: काल खाली पेट ही करें।
- किसी योग विशेषज्ञ की सलाह लेकर ही करें।

शरीर स्वस्थ, दिमाग तेज और शक्तिशाली मन
मुद्राओं में अश्विनी मुद्रा और योग में प्राणायाम लम्बी उम्र के लिये १०० प्रतिशत कारगर विद्याएं हैं। प्राणायाम को सर्व उपलब्ध अमृत की संज्ञा दी जा सकती है। इस ब्रह्मांड में सहज-सुलभ होकर सिर्फ लाभकारी होने की कोई क्रिया योग में है तो वह है प्राणायाम।इसके नित उपयोग से शारीरिक ऊर्जा की वृद्धि, रोग प्रतिरोध क्षमता की बढ़ोतरी, आध्यात्मिक अनुभूति, मानसिक विकारों का समापन आदि अनेक लाभ प्रकृति के इस वरदान से मिल सकते हैं। इस यौगिक क्रिया में आवश्यकता सिर्फ समय व लगन की रहती है, जिसकी जरूरत भी सामान्यत: प्रारंभ में ही अधिक होती है। कुछ समय उपरांत इसके लाभ का ज्ञान व अनुभव, इसे करने वाले पर इतना प्रभाव छोड़ते हैं कि फिर उसे नहीं करने का मन बनना ईश्वरीय प्रकोप अथवा दुर्भाग्य के सूचक के अतिरिक्त संभव नहीं है।अन्यथा बिना कीमत चुकाए मिलने वाले इस सर्व सुलभ अमृत को पाने के लिये कोई प्रयास न करना इंसान का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है ?

तीन बंध जिनसे जागती है कुंडलिनी
मुद्राओं के अभ्यास के बिना योग में सिद्धि प्राप्त नहीं होती और मुद्राओं की सिद्धि के बिना कुण्डलिनी जागृत नहीं होती। मुद्राएं नाडिय़ों की बीमारियां दूर करने में काफी फायदेमंद होती हैं।
असंतुलित खान-पान और अव्यवस्थित दिनचर्या के चलते हमारे शरीर का सिस्टम बिगड़ जाता है। जिससे कई बीमारियां होने की संभावना बन जाती है। हमारे शरीर की कार्यप्रणाली सुधारने के लिए योगिक मुद्राओं का सहारा लिया जा सकता है। इन्हीं मुद्राओं में तीन प्रकार के बंध होते हैं। ये मल-विसर्जन की क्रिया को नियमित तो करते ही हैं साथ ही कुछ चक्रों पर भी उनका अद्भुत प्रभाव पड़ता है। यह तीन बंध इस प्रकार हैं-
- उड्डीयान बंध
- जालंधर बंध
- मूल बंध

यह तीनों बंध हठयोग से संबंधित हैं। यह काफी सरल होने के साथ-साथ बहुत लाभदायक भी है। इनके नियमित अभ्यास से हमारा स्वास्थ्य हमेशा ठीक रहता है। मानसिक शक्ति बढ़ती है। पाचन तंत्र सही रहता है। यह तीनों कुण्डलिनी जागरण में सहायक होते हैं।
पेट साफ रहता है और भूख बढ़ती है इस क्रिया से

किसी भी व्यायाम में ऐसी व्यवस्था नहीं है कि पेट के सभी तंत्रों को कुछ क्षण के लिए आराम दिया जा सके। पेट की संपूर्ण पेशियों की मालिश भी प्राकृत रूप से हो जाती है। जिनका कब्ज रहता हो, उनके लिए यह उड्डीयन बन्ध सबसे अधिक फायदेमंद है।

उड्डीयन बंध की विधि
सबसे पहले कंबल या दरी बिछाकर पद्मासन में बैठ जाएं। पेट के अंदर की सारी वायु निकाल दें और पेट को अंदर की ओर खलाएं। जब पेट अंदर चला जाए, तो नाभि के नीचे के के भाग को सिकोड़ें। इसप्रकार महाप्राचीरा ऊपर को उठेगी और नाभि के अंग पेडू और गुप्तांग के आसपास की पेशियों का शिथलीकरण हो जाए। घुटनों को थोड़ा मोड़ें और दोनों घुटनों पर रखें। सांस बाहर निकाल दें।अब घुटनों पर जोर देते हुए पेट को अंदर खलाएं जिससे पेट में गड्ढा सा बन जाए। इस स्थिति के बाद नाभि के नीचे के भाग पेडू और गुप्तांग के चारों ओर की पेशियों को ऊपर की ओर तानें। इस प्रकार उदर, पेडू और नीचे की पेशियों का शिथलिकरण हो जाएगा। इसी स्थिति में रहकर पेट का तनाव कम कर दें और धीरे-धीरे सांस अंदर जाने दें। यह पूर्ण उड्डीयन की स्थिति होगी। जबतक सांस सरलता से रोक सके, उतनी ही देर खलाने की क्रिया जारी रखें। जब यह महसूस होने लगे की अब सांस नहीं रुकेगी तो धीरे-धीरे अंदर की ओर सांस भरना शुरू करें।
सावधानी: हाई ब्लड प्रेशर के रोगी इस बंध को ना करें।

उड्डीयन बंध के फायदे
इस बंध से पेट के सभी तंत्रों की मालिश हो जाती है। पाचन शक्ति बढ़ती है। कुण्डलिनी जागरण में यह बंध महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यदि किसी व्यक्ति को कब्ज की समस्या है तो उसे यह बंध नियमित करना चाहिए। साथ ही इस बंध से भूख बढ़ती है एवं पेट संबंधी कई रोग दूर होते हैं।

पूरे सिर का व्यायाम होता है जालंधर बंध से
हमारे सिर में कई वात-नाडिय़ों का एक जाल सा फैला हुआ है। इन्हीं से हमारे पूरे शरीर का संचालन होता है। इसी वजह से इस हिस्से का पूर्ण स्वस्थ रहना बहुत जरूरी है। इसके लिए जालंधर बंध सबसे अच्छा उपाय है जिससे सिर का अच्छे से व्यायाम होता है और हम स्वस्थ रहते हैं।

जालंधर बंध की विधि
कंबल या दरी बिछाकर पद्मासन में बैठ जाएं। शरीर को एकदम सीधा रखें। गर्दन में स्थित मेरुदंड का भाग झुकेगा। गला और ठोड़ी स्पर्श करेगी। कुछ योगियों के अनुसार सिर और गर्दन को इतना झुकाना चाहिए कि ठोड़ी की हड्डी के नीचे छाती के भाग को स्पर्श करे और ठोड़ी में चार-पांच अंगुल का अंतर रह जाए।

जालंधर बंध के लाभ
इस क्रिया से हमारे सिर, मस्तिष्क, आंख, नाक, कान, गले की नाड़ी का संचालन नियंत्रित रहता है। जालंधर बंध इन सभी अंगों के नाड़ी जाल और धमनियों आदि को स्वस्थ रखता है।
मानसिक शांति मिलती है सूर्य भेदन कुंभक प्राणायम से
दिनभर की दौड़-धूप के बाद सभी को मानसिक अशांति महसूस होने लगती है। मन को शांत करने के लिए प्राणायाम सबसे सरल और सहज उपाय है। सूर्य भेदन कुंभक प्राणायाम के कुछ ही समय अभ्यास करने से लाभ प्राप्त होने लगता है।

प्राणायाम की विधि
किसी भी सुविधाजनक आसन में बैठ जाएं। जिस पर बैठने में किसी कष्ट का आभास तक ना हो। वैसे इसके लिए पद्मासन, सुखासन या सिद्धासन लगाकर बैठना अधिक उपयुक्त रहता है और उनमें बैठकर प्राणायाम करना अधिक सुविधाजनक भी रहता है। कोई भी आसन लगाकर बायां नासारंध्र दबाकर बंद कर लें और दक्षिण नासारंध्र से या सूर्य नाड़ी से पूरक करें।
जब सांस पूरी भर जाए, तब जालंधर बंध लगाकर कुंभक करें। इस कुंभक की पूर्ण अवस्था को कुंभक थोड़ा ही करना चाहिए। जिससे किसी भी अंग पर दबाव न पड़े। अब धीरे-धीरे अभ्यास बढ़ाते जाएं और उस अवस्था तक कुंभक को पहुंचाएं, जब तक कि शरीर पसीना न बहने लगे।फिर जालंधर बंध खोलकर बाएं नासारंध्र से रेचक करें और रेचक करते समय उड्डीयन बंध लगा लें। उड्डीयन बंध लगाने की विधि यह है कि नाभि को अंदर इतना खींचे कि रीढ़ की अस्थि तक नाभि पहुंच जाए और पेट में गड्ढा सा पड़ जाए। सभी योग ग्रंथों से यह बताया गया है कि यह प्राणायाम में बाएं नासारंध्र से रेचक किया जाए।

सूर्य भेदन कुंभक प्राणायम के लाभ
इस प्राणायाम से मस्तिष्क शुद्ध होता है। वातदोष का नाश होता है। साथ ही कृमि दोष नष्ट होते हैं। यह सूर्य भेदन कुंभक बार-बार करना चाहिए। इससे सभी उदर-विकार दूर होते हैं और जठराग्नि बढ़ती है। कुंडलिनी जागरण में यह सहायक होता है। यह एक श्रेष्ठ व्यायाम है।

10 प्रकार की वायु देती हैं स्वस्थ जीवन
जब से हम जन्म लेते हैं तभी से हम सांस लेना शुरू कर देते हैं और अंत समय तक सांस लेते रहते हैं। इस बात से यह स्पष्ट होता है कि सांस का हमारा जीवन से कितना गहरा संबंध है। सांस लेने की क्रिया पर ही हमारा अच्छा स्वास्थ्य निर्भर करता है।
सांस लेने की क्रिया के संबंध में योगशास्त्र के अनुसार 10 प्रकार की वायु बताई गई है। यह 10 प्रकार की वायु इस प्रकार है- प्राण, अपान, समान, उदान, ज्ञान, नाग, कूर्म, क्रीकल, देवदत्त और धनन्जय। अच्छे स्वास्थ्य में इन सभी प्रकार की वायु पर नियंत्रण करना अति आवश्यक है।
प्राणायाम से ही इन दसों वायु पर नियंत्रण होता है। प्राणायाम मन को एकाग्र करने में सर्वश्रेष्ठ उपाय है। साथ ही इससे चित्त की शुद्धि होती है।

हम हर पल करते हैं पूरक और रेचक क्रिया
योग शास्त्र में प्राणायाम की क्रियाएं अच्छे स्वास्थ्य के लिए काफी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। प्राणायाम में दो क्रियाएं सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है, पहली क्रिया है प्राण वायु को अंदर खींचते हैं या भरते हैं, दूसरी क्रिया है सांस द्वारा अंदर की वायु को बाहर की ओर निकालना।

योग भी भाषा में सांस लेने की क्रिया को पूरक और श्वास छोडऩे की क्रिया को रेचक कहा जाता है। इसका यही मतलब है कि हम जन्म के समय लेकर मृत्यु के समय तक पूरक और रेचक क्रिया करते हैं।
प्राणायाम में सांस रोकने की क्रिया पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाता है। सांस रोकने की इस क्रिया को कुंभक कहा जाता है। कुंभक दो प्रकार के होते हैं-
पहला है आभ्यांतर कुंभक, दूसरा है बाह्य कुंभक।

उज्जायी प्राणायाम: सर्दी रहेगी दूर...
ठंड का मौसम शुरू हो गया है, सभी के गर्म कपड़े बाहर निकल आए हैं, फिर भी कई बार ठंड इतनी अधिक रहती है कि उससे बच पाना मुश्किल हो जाता है। ठंड का प्रभाव कम करने के लिए प्रतिदिन उज्जायी प्राणायाम करें तो कुछ ही दिनों में कड़ाके ठंड भी आपको पर ज्यादा प्रभावित नहीं कर पाएगी।

उज्जायी प्राणायाम के विधि
सुविधाजनक स्थान पर कंबल या दरी बिछाकर बैठ जाएं। अब गहरी सांस लें। कोशिश करें कि पेट की मांसपेशियां प्रभावित न हो। गला, छाती, हृदय से सांस अंदर खींचे। जब सांस पूरी भर जाएं तो जालंधर बंध लगाकर कुंभक करें। (जालंधर बंध और कुंभक के संबंध में लेख पूर्व में प्रकाशित किया जा चुका है।) अब बाएं नासिका के छिद्र को खोलकर सांस धीरे-धीरे बाहर निकालें। सांस भरते समय श्वांस नली का मार्ग हाथ से दबाकर रखें। जिससे सांस अंदर लेते समय सिसकने का स्वर सुनाई दे। उसी प्रकार सांस छोड़ते समय भी करें।

उज्जायी प्राणायाम को बैठकर या खड़े होकर भी किया जा सकता है। कुंभक के बाद नासिका के दोनों छिद्रों से सांस छोड़ी जाती है। प्रारंभ में इस प्राणायाम को एक मिनिटि में चार बार करें। अभ्यास के साथ ही इस प्राणायाम की संख्या बढ़ाई जाना चाहिए।

प्राणायाम के लाभ
यह प्राणायाम सर्दी में काफी लाभदायक सिद्ध होता है। इस प्राणायाम के अभ्यास कफ रोग, अजीर्ण, गैस की समस्या दूर होती है। साथ ही हृदय संबंधी बीमारियों में यह आसन बेहद फायदेमंद है। इस प्राणायम को नियमित करने से ठंड के मौसम का भी ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ता है।

चेहरे की झुर्रियां खत्म होती है सीत्कारी प्राणायम से...
आकर्षक व्यक्तित्व में चेहरे पर चमक का सबसे अहम भूमिका निभाता है। ऐसे में चेहरे का ठीक से ध्यान रखने के लिए अच्छे खाने के साथ-साथ प्राणायाम फायदेमंद रहता है। सीत्कारी प्राणायाम के नियमित अभ्यास से कुछ ही दिन में आपका चेहरा चमक उठेगा।

सीत्कारी प्राणायाम की विधि
सीत्कारी प्राणायाम में सीत्कार का शब्द करते हुए सांस लेने की क्रिया होती है। इस प्राणायम में नासिका से सांस नहीं ली जाती है बल्कि मुंह के होठों को गोलाकार बना लेते हैं और जीभ के दाएं और बाएं के दोनों किनारों को इस प्रकार मोड़ते हैं कि जीभ का का आकार गोलाकार हो जाए। इस गोलाकार जीभ को गोल किए गए होठों से मिलाकर इसके छोर को तालू से लगा लिया जाता है। अब सीत्कार के समान आवाज करते हुए मुख से सांस लें। फिर कुंभक करके नासिका के दोनों छिद्रों से सांस छोड़ी जाती है। पुन: इस क्रिया को दोहराएं। इसे बैठकर या खड़े होकर भी किया जा सकता है।

सीत्कारी प्राणायाम के लाभ
इस प्राणायाम से आपके चेहरे पर चमक उत्पन्न हो जाती है। दिनभर स्फूर्ति और उत्साह बना रहता है। इसके नियमित अभ्यास से अनेक प्रकार की सिद्धियां प्राप्त होती है। असंयमित नींद, आलस्य और भूख-प्यास की समस्या खत्म हो जाती है। चेहरे की झुर्रियां समाप्त होकर त्वचा सुंदर बन जाती है।

जहर से बचाता है शीतली प्राणायाम
प्राणायाम ऐसी क्रिया है जिसके नियमित अभ्यास से बड़ी-बड़ी बीमारियां साधक से दूर रहती है। साथ ही व्यक्ति का रंग-रूप भी निखर जाता है। शीतली प्राणायाम के संबंध में ऐसा माना जाता है कि इसका नियमित अभ्यास करने वाले व्यक्ति को कभी जहर भी नहीं चढ़ता।

शीतली प्राणायाम की विधि
शीतली प्राणायाम और सीत्कारी प्राणायाम लगभग एक जैसे ही हैं। अंतर केवल इतना है कि सीत्कारी प्राणायाम में जीभ गोलकर तालु से लगा ली जाती है और शीतली में जीभ को गोलाकार बना लेते हैं और सीत्कार करते हुए मुंह द्वारा वायु को पेट में भर लेते हैं। इस प्राणायाम को खड़े होकर, चलते हुए अथवा बैठकर भी कर सकते हैं। इसमें मुंह को गोल करके जीभ को भी गोल कर लिया जाता है और होंठ को बाहर निकालकर सांस लेते हैं। जितना संभव हो उतना समय सांस रोककर फिर सांस को बाहर निकाल दिया जाता है।

शीतली प्राणायाम के लाभ
इस प्राणायाम से पित्त, कफ, अपच जैसी बीमारियां बहुत जल्द समाप्त हो जाती है। योग शास्त्र के अनुसार लंबे समय तक इस प्राणायाम के नियमित अभ्यास से व्यक्ति पर जहर का भी असर नहीं होता।

सांस की बीमारियों का श्रेष्ठ निदान
सुबह-सुबह थोड़ा सा व्यायाम या योगासन करने से हमारा पूरा दिन स्फूर्ति और ताजगीभरा बना रहता है। यदि आपको दिनभर अत्यधिक मानसिक तनाव झेलना पड़ता है तो यह क्रिया करें, दिनभर चुस्त रहेंगे। इस क्रिया को करने वाले व्यक्ति से फेफड़े और सांस से संबंधित बीमारियां सदैव दूर रहेंगी।

क्रिया की विधि:
समतल और हवादार स्थान पर किसी भी आसन जैसे पदमासन या सुखापन में बैठकर इस क्रिया को किया जाता है। दोनों हाथ को दोनों घुटनों पर रखें। अब नाक के दोनों छिद्र से तेजी से गहरी सांस लें। फिर सांस को बिना रोकें, बाहर छोड़ दें।
इस तरह कई बार तेज गति से सांस लें और फिर उसी तेज गति से सांस छोड़ते हुए इस क्रिया को करें। इस क्रिया में पहले कम और बाद में धीरे-धीरे इसकी संख्या को बढ़ाएं।

इस क्रिया से लाभ
इस क्रिया के अभ्यास से फेफड़े में स्वच्छ वायु भरने से फेफड़े स्वस्थ्य और रोग दूर होते हैं। यह आमाशय तथा पाचक अंग को स्वस्थ्य रखता है। इससे पाचन शक्ति और वायु में वृद्धि होती है तथा शरीर में शक्ति और स्फूर्ति आती है। इस क्रिया से सांस संबंधी कई बीमारियां दूर ही रहती हैं।

सावधानी
यदि किसी व्यक्ति को दमा या सांस संबंधी कोई बीमारी हो तो वह अपने डॉक्टर से परामर्श कर ही इस क्रिया को करें।
ब्रह्म, विष्णु और रुद्र ग्रंथि ठीक रहती है प्राणायाम से...
कुण्डलिनी जागरण में तीन ग्रंथियों का भेदन होना अत्यंत आवश्यक है। यह तीन ग्रंथियां है ब्रह्म ग्रंथि, विष्णु ग्रंथि और रुद्र ग्रंथि। इनके बिना कुण्डलिनी जागृत नहीं हो सकती। इन्हें जागृत करने के लिए भस्त्रिका प्राणायाम का अभ्यास नियमित रूप से करना होता है।

भस्त्रिका प्राणायाम की विधि
किसी सुविधाजनक स्थान पर पद्मासन में बैठ जाएं। रीढ़, गर्दन और सिर को स्थिर रखें। मुंह को अच्छे से बंद कर लें। नाक के किसी एक छिद्र से प्रयत्न पूर्वक सांस बाहर निकाल दें। सांस निकालने की क्रिया को रेचक कहते हैं और सांस लेने की क्रिया को पूरक कहते हैं। रेचक करने में इस बात का ध्यान रखें कि शब्द करती हुई प्राण-वायु कपाल, कंठ और हृदय पर्यंत भर लें। इस प्रकार बार-बार पूरक और रेचक करें। जिसमें ऐसा लगे, जैसे लुहार की धौकनी चल रही हो। लुहार क धौकनी को ही भस्त्रिका कहते हैं। बार-बार तेजी से पूरक और रेचक क्रिया करें। यही भस्त्रिका प्राणायाम की विधि है।
कई बार रेचक और पूरक के करके नाक के दाएं छिद्र से कुंभक करें। कुंभक में जालंधर बंध और मूल बंध करना आवश्यक होता है। कुंभक करते समय नासिका के दोनों छिद्रों को उंगलियों से दबा कर बंद कर देना चाहिए। दाहिने हाथ में अंगूठे से दाहिने छिद्र और उसी की कनिष्ठा और अनामिका अंगुली से नाक का बायां छिद्र और उसी की कनिष्ठा और अनामिका से नाक के बाएं छिद्र को बंद करके कुंभक करें। जब ऐसा लगे की सांस अब ना रुकेगी तो नासिका के बाएं छिद्र से सांस छोड़ दें।
इस प्राणायाम के दिनों में साधक को घी-दूध का सेवन भी खूब करना चाहिए। इससे शरीर को बल मिलता है और अच्छा स्वास्थ्य बना रहता है।

प्राणायाम के लाभ:
इससे पित्त-कफ की बीमारियों में लाभ होता है। साथ कुण्डलिनी जागरण में अहम भूमिका निभाने वाली ब्रह्म, विष्णु और रुद्र गंथि का भेदन होता है। इस प्राणायाम मदद से ही कुण्डलिनी जागृत होती है।

आधी रात के बाद करें यह प्राणायाम
प्राणायाम मन को शांत रखने का सर्वश्रेष्ठ उपाय है। साथ ही इससे किसी भी कार्य को करने की एकाग्रता बढ़ती है। भ्रामरी प्राणायाम के नियमित अभ्यास से यह लाभ सहज ही प्राप्त हो जाते हैं।

भ्रामरी प्राणायाम की विधि
योगियों के अनुसार यह प्राणायाम रात्रि के समय किया जाना चाहिए। जब आधी रात व्यतीत हो जाए और किसी भी जीव-जंतु का कोई स्वर सुनाई ना दे। उस समय किसी भी सुविधाजनक आसन में बैठकर दोनों हाथों की उंगलियों को दोनों कानों में लगाकर सांस अंदर खींचे और कुंभक द्वारा सांस को रोकें। इसमें कान बंद होने पर भौरों के समान शब्द सुनाई देने लगता है। यह शब्द दाएं कान में अनुभव होता है।

भ्रामरी प्राणायाम के लाभ
योगियों के अनुसार इस आसन से मन की चंचलता दूर होती है। मन एकाग्र होता है। जो व्यक्ति अत्यधिक तनाव महसूस करते हैं उन्हें यह प्राणायाम अवश्य करना चाहिए।

प्राणायाम: छोटी सी विधि, बड़े लाभ
प्रतिस्पर्धा के युग में सभी के पास इतना समय नहीं होता कि वे प्रतिदिन योगा कर सके। अच्छे स्वास्थ्य के लिए जरूरी है कि प्रतिदिन कुछ समय योग अवश्य करें। एक प्राणायाम ऐसा है जिसमें न तो समय का बंधन है और ना ही इसकी विधि लंबी है। यह प्राणायाम है लघुश्वासी प्राणायाम।
प्राणायाम की विधि- किसी भी सुविधाजनक स्थान पर बैठ जाएं। अब मन शांत करके धीरे-धीरे सांस लें और तुरंत ही छोड़ दें। बस यही विधि है लघुश्वासी प्राणायाम की।
प्राणायाम के लाभ- इस प्राणायाम से खून शुद्ध होता है। फेफड़ों को बल मिलता है और शरीर हष्ट-पुष्ट होता है। साथ ही इससे कई श्वांस संबंधी रोगों में लाभ प्राप्त होता है।

बुरे सपने नहीं आएंगे...
आजकल अधिकांश लोगों का मन स्थिर नहीं रहता साथ ही कई बुरे विचार हमेशा दिमाग में चलते रहते हैं। इसी वजह से इन्हें सपने भी वैसे ही आते हैं। जो कि हमारे स्वास्थ्य के लिए भी खतरनाक है। अच्छे स्वास्थ्य के लिए जरूरी है कि आपका मन भी शुद्ध रहे। मन का शुद्ध रखने के लिए ओंकार जप प्राणायाम सबसे अच्छा उपाय है।

प्राणायाम की विधि
शांत एवं शुद्ध वातावरण वाले स्थान पर कंबल या दरी बिछाकर किसी भी आसन में बैठ जाएं। अब अपनी आंखों को बंद करें। गहरी सांस भरकर ओम शब्द का आवाज के साथ उच्चारण करें। इस क्रिया को कम से कम 11 बार करें।

प्राणायाम के लाभ
ओम शब्द की पवित्रता और महत्व से सभी भलीभांति परिचित हैं। यह शिवजी का प्रतीक है। इसके निरंतर जप से मन शांत और शुद्ध होता है। मानसिक विकार यानि बुरे विचार दूर होते हैं। मन स्थिर रहता है। पूरे दिन कार्य में मन लगता है। आवाज का आकर्षण बढ़ता है और आनंद की अनुभूति होती है। अनिद्रा की बीमारी दूर होती और नींद अच्छे से आती है। साथ ही जिन लोगों को बुरे सपने परेशान करते हैं उन्हें भी प्राणायाम से लाभ प्राप्त होता है।

कैसे कंट्रोल करें बढ़ता वजन?
असंयमित दिनचर्या और असमय खान-पान के चलते बहुत अधिक संख्या में ऐसे लोग देखे जा सकते हैं जो मोटापे से त्रस्त हैं। मोटापा एक ऐसी समस्या है जिस पर लगाम लगाना काफी मुश्किल होता है। सही समय पर इसे कंट्रोल न किया जाए तो कई घातक परिणाम भोगने पड़ सकते हैं।
इसे कंट्रोल करने के लिए सर्वश्रेष्ठ उपाय है प्राणायाम। प्रतिदिन कपाल भाति प्राणायाम इस बीमारी से आपको निजात अवश्य दिला देगा।

कपाल भाति प्राणायाम की विधि
कपाल भाति प्राणायाम के लिए किसी शांत एवं शुद्ध वातावरण वाले स्थान का चयन करें। किसी भी सुविधाजनक आसन में बैठ जाएं। इस प्राणायाम में पूरक अर्थात सांस लेने की गति धीमी और रेचक यानि सांस छोडऩे की गति तेज होती है। सामान्य गति से सांस लें और शक्तिपूर्वक सांस बाहर निकालें। प्रतिदिन इस क्रिया को कम से कम पांच बार अवश्य करें।

कपाल भाति के लाभ
इस प्राणायाम से चेहरे पर हमेशा ताजगी, प्रसन्नता और शांति दिखाई देगी। कब्ज और डाइबिटिज की बीमारी से परेशान लोगों के लिए यह काफी फायदेमंद है। दिमाग से संबंधित रोगों में लाभदायक है। वजन को कंट्रोल करता है, जो लोग ज्यादा वजन से परेशान है वे इस प्राणायाम से बहुत कम समय में ही फायदा प्राप्त कर सकते हैं। इससे हमारा वजन संतुलित रहता है। कैंसर में भी इससे लाभ प्राप्त होता है।

सावधानी
जो लोग नेत्र रोग से पीडि़त हैं, कान से पीप आता हो, तो वे इस प्राणायाम को किसी योग प्रशिक्षण से सलाह लेकर ही करें।
ब्लड प्रेशर की समस्या हो तो भी इस प्राणायाम को न करें।

पांच प्रकार के होते हैं प्राण
अष्टांग योग में प्राणायाम का विशेष स्थान है। प्राणायाम शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है प्राण और आयाम। प्राण का अर्थ है जीवन शक्ति। चरक संहिता के अनुसार यह प्राण पांच प्रकार के बताए गए हैं।
1. प्राण
2. अपान
3. समान
4. उदान
5. व्यान

श्वास पर नियंत्रण रखता है प्राण
प्रथम प्राण हमारी सांस की क्रिया पर नियंत्रण रखता है। यह वह शक्ति से जिससे हम सांस अंदर की ओर खींचते हैं और वक्षीय क्षेत्रों में गतिशीलता प्रदान करती है।

नाभि स्थान के नीचे क्रियाशील रहता है अपान
अपान उदर क्षेत्र के नीचे अर्थात् नाभि क्षेत्र के नीचे सक्रीय रहता है। मूत्र, वीर्य और मल निष्कासन को नियंत्रित करता है।

पाचन क्रिया में मदद करता है समान
उदर अथवा पेट स्थान को गतिशील करता है समान। यह पाचन क्रिया में मदद करता है। पेट के अवयवों को ठीक ढंग से काम करने के लिए सुरक्षा प्रदान करता है।
उदान वाणी और भोजन को व्यवस्थित करता है
उदान जीह्वा द्वारा कार्य करता है। यह वाणी और भोजन को व्यवस्थित करता है। उदान रीढ़ की हड्डी के नीचले हिस्से से ऊर्जा को मस्तिष्क तक पहुंचाता है।
नस-नस तक ऊर्जा पहुंचाता है व्यान
हमारे पूरे शरीर की गतिविधियों को व्यान नियंत्रित करता है। यह भोजन और सांस से मिलने वाली ऊर्जा को धमनियों, शिराओं और नाडिय़ों द्वारा पूरे शरीर में पहुंचाता है।

शरीर में गर्मी बढ़ेगी...
ठंड के मौसम में सर्दी-जुकाम की बीमारी बहुत ही सामान्य बात है। कई बार यह समस्या ज्यादा बढ़ जाती है जिससे बहुत से लोग बीमार हो जाते हैं। इस मौसम में ठंड से निपटने के लिए सूर्य-भेदन प्राणायाम श्रेष्ठ है। इसके नियमित अभ्यास से साधक के शरीर में हमेशा गर्मी बनी रहती है और उस पर ठंड का कोई प्रभाव नहीं होता।

सूर्य भेदन प्राणायाम की विधि
किसी साफ एवं स्वच्छ वातावरण वाले सुविधाजनक स्थान पर सुखासन में बैठ जाएं। नाक के बाएं छिद्र को दाएं हाथ से बंद कर दाहिने नासिका द्वार से गहन (दीर्घ) सांस लीजिए। नाक बंद करें। कुछ देर सांस अंदर ही रोकें। जालंधर और मूलबंध लगाइए। बंध शिथिल करते हुए बाएं द्वार से धीरे-धीरे रेचक क्रिया करें (सांस छोड़ें)। यह एक चक्र हुआ। इस प्रकार क्रमश: 10 चक्र तक बढ़ाइएं।

सूर्य भेदन प्राणायाम के लाभ
पाचन तंत्र मजबूत करता है क्योंकि दाहिना स्वर इस कार्य में सहायक होता है। शरीर में गर्मी बढ़ती है। इसका लाभ ठंड दिनों में मिलता है। सर्दी-जुकाम में लाभ होता है। त्वचा विकार ठीक होते हैं। कम ब्लड प्रेशर के रोगियों को फायदा होता है।
दिमाग दौडऩे लगेगा...

अच्छे स्वास्थ्य की प्राप्ति के लिए प्राणायाम सबसे अच्छा उपाय है। अष्टांग योग में प्राणायाम का महत्वपूर्ण स्थान है। मात्र सांस लेने की क्रिया से ही हमारे स्वास्थ्य को बहुत लाभ प्राप्त होता है। प्राणायाम से मन को शांति मिलती है और साथ ही दिमाग तेजी से कार्य करने लगता है। चंद्र भेदन प्राणायाम से हमारे तर्क शक्ति बढ़ती है और दिमाग दौडऩे लगता है।

चंद्र भेदन प्राणायाम की विधि
किसी भी शांत एवं स्वच्छ वातावरण वाले स्थान पर सुखासन में बैठ जाएं। अब नाक के बाएं छिद्र से सांस अंदर खींचें। पूरक अथवा सांस धीरे-धीरे गहराई से लें। अब नाक के दोनों छिद्रों को बंद करें। अब सांस को रोक कर लें (कुंभक करें), जालंधर बंध और मूलबंध लगाएं। बंध शिथिल करें और नाक के दाएं छिद्र से सांस छोड़ दें। यही क्रिया कम से कम 10 बार करें।

सावधानी
एक ही दिन में सूर्य भेदन प्राणायाम और चंद्र भेदन प्राणायाम न करें।

प्राणायाम के लाभ
शरीर में शीतलता आती है और मन प्रसन्न रहता है। पित्त रोग में फायदा होता है। यह प्राणायाम मन को शांत करता है और क्रोध पर नियंत्रण लगाता है। अत्यधिक कार्य होने पर भी मानसिक तनाव महसूस नहीं होता। दिमाग तेजी से कार्य करने लगता है। हाई ब्लड प्रेशर वालों को इस प्राणायाम से विशेष लाभ प्राप्त होता है।

तीन प्रकार के होते हैं हमारे शरीर
योग शास्त्र और वेदों के अनुसार जिस प्रकार हमारे प्राण 5 प्रकार के होते हैं उसी प्रकार हमारे शरीर 3 प्रकार के बताए गए हैं।
वेदों के अनुसार हमारे शरीर तीन प्रकार के होते हैं। जो कि हमारी आत्मा को घेरे रहते हैं। इन तीनों शरीरों का निर्माण 5 कोषों से होता हैं।
यह तीन प्रकार के शरीर इस प्रकार है-
1. स्थूल शरीर
यह हमारा शारीरिक अन्नमय कोष कहलाता है। इसका आकार मोटा होता है।
2. सूक्ष्म शरीर
सूक्ष्म शरीर का निर्माण मनोमय, प्राणमय और विज्ञानमय कोष करते हैं।
3. कारण शरीर
यह हमारे शरीर का आनंदमय कोष है। इसके कारण हमें चेतना का अनुभव होता है।

आंखों की बढ़ेगी चमक...
आंखों की चमक में आत्मविश्वास की झलक होती है। जिस व्यक्ति में आत्म विश्वास होता है वह समाज में एक अलग मुकाम बना लेता है। लोगों को आकर्षित करने के लिए आंखों में आत्मविश्वास दिखाई दे यह बहुत जरूरी है। आंखों की चमक बढ़ाने के लिए यह शांभवी मुद्रा करें-

शांभवी मुद्रा की विधि
शांत एवं शुद्ध हवा वाले स्थान पर सुखासन में बैठ जाएं। मेरुदण्ड (रीढ़ की हड्डी), गर्दन एवं सिर एक सीध में रखें। हाथों को एक दूसरे के ऊपर रख लें या घुटनों पर रखकर ज्ञान मुद्रा बना लें। अब पूर्ण एकाग्रचित होकर दृष्टि दोनों भौंहों के बीच करें और ध्यान लगाएं।

शांभवी मुद्रा के लाभ
इस मुद्रा से आज्ञा चक्र जो कि दोनों भौंहों के मध्य स्थित है, विकसित हो जाता है। दिमाग तेजी से कार्य करना शुरू कर देता है। आंखों की चमक बढ़ती है, आत्मविश्वास की झलक दिखाई देती है। इस मुद्रा के नियमित अभ्यास से मन शांत होता है और एकाग्रता बढ़ती है। याददाश्त में गजब की बढ़ोतरी होती है।

जाने-अनजाने सभी करते हैं प्राणायाम
अष्टांग योग में प्राणायाम विशेष स्थान है। सांस लेने और छोडऩे की क्रिया ही प्राणायाम कहलाती है। योग शास्त्र में प्राणायाम के तीन प्रकार बताए गए हैं-
1. भीतर की श्वास को बाहर निकालकर बाहर ही रोके रखना बाह्यïकुंभक कहलाता है।
2. श्वास को भीतर खींचकर भीतर रोकने रखने को आभ्यंतरकुंभक कहते हैं।
3. बाहर या भीतर कहीं भी सुखपूर्वक श्वासों को रोकने का नाम स्तंभवृत्ति प्राणायाम कहलाता है।
उक्त तीनों प्रकार के प्राणायाम की पृथक-पृथक विधियां हैं। प्राणायाम को किसी जानकार योगी की देखरेख में ही सीखना चाहिए।
प्राणायाम का एक और प्रकार केवल कुंभक है। बाहरी और भीतर के विषयों के त्याग से केवल कुंभक होता है। शब्द, स्पर्श आदि इंद्रियों के बाहरी विषय है तथा संकल्प, विकल्प आदि आंतरिक विषय है। उनका त्याग करना चतुर्थ प्राणायाम कहलाता है।

सांस की बीमारियां दूर होती है...
अष्टाग योग में प्राणायाम का विशेष महत्व है। प्राणायाम का कई बीमारियों में सीधा फायदा मिलता है। प्राणायाम से सांस से संबंधित सभी बीमारियां दूर हो जाती है।
-योग में प्राणायाम क्रिया सिद्ध होने पर पाप और अज्ञान का नाश होता है।
-प्राणायाम की सिद्धि से मन स्थिर होकर योग के लिए समर्थ और पात्र हो जाता है।
-प्राणायाम के माध्यम से ही हम अष्टांग योग की प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और अंत में समाधि की अवस्था तक पहुंचते हैं।
-प्राणायाम से हमारे शरीर का संपूर्ण विकास होता है। फेफड़ों में अधिक मात्रा में शुद्ध हवा जाने से शरीर स्वस्थ रहता है।
-प्राणायाम से हमारा मानसिक विकास भी होता है। प्राणायाम करते हुए हम मन को एकाग्र करते हैं। इससे मन हमारे नियंत्रण में आ जाता है।
-प्राणायाम से श्वास संबंधी रोग तथा अन्य बीमारियां दूर हो जाती हैं।

पॉजीटिव एनर्जी मिलने लगेगी...
एनर्जी दो प्रकार की होती है, एक पॉजीटिव और दूसरी नेगेटिव एनर्जी। सकारात्मक ऊर्जा हमारे विचारों को भी ऐसा बना देती है जिससे कि हम कई मुश्किल कार्य भी आसानी से कर लेते हैं। जबकि नेगेटिव एनर्जी हमें तनाव और अशांति देती है जिससे कई बार हम सही कार्य भी गलत ढंग से कर बैठते हैं। हमेशा हमारी सोच पॉजीटिव रहे इसके लिए जरूरी है कि हम वातावरण से हमेशा सकारात्मक ऊर्जा ग्रहण करते रहे। पॉजीटिव एजर्नी ग्रहण करने के लिए प्रणव प्राणायाम सर्वश्रेष्ठ उपाय है।
प्रणव प्राणायाम की विधि
किसी शांत एवं शुद्ध वातावरण वाले स्थान पर कंबल या अन्य कोई आसन बिछाकर सुखासन में बैठ जाएं। अब आंखें बंद कर लें। ध्यान लगाएं। ध्यान के साथ ही ऊँ का जप करें।
प्रणव प्राणायाम के लाभ
वातावरण में पॉजीटिव और नेगेटिव एनर्जी दोनों सक्रिय रहती हैं। इस प्राणायाम से हमारा शरीर सकारात्मक ऊर्जा ग्रहण कर लेता है। जिससे हमारा मन शांत और विचार शुद्ध होते हैं। सिर दर्द, माइग्रेन, डीप्रेशन और मस्तिष्क के संबंधित सभी रोगों में लाभ प्राप्त होता है। मन और मस्तिष्क की शांति मिलती है। एकाग्रता बढ़ती है।

मुद्रा से तनाव होता है दूर
आज की भागमभाग वाली जिंदगी में हम अपने शरीर के लिए समय नहीं निकाल पा रहे है। इस व्यस्तता भरी दिनचर्या से शरीर के साथ ही साथ दिमाग पर भी असर पड़ रहा जिससे कई प्रकार की बीमारियां उत्पन्न हो रही है। जैसे अनिद्रा, सिरदर्द, अनावश्यक क्रोध, विद्यार्थी भी प्रतियोगिता के युग में तनाव झेल रहें है।
मानसिक तनाव को कम करने के लिए योग से अच्छा अन्य कोई उपाय नहीं है। योग में ज्ञान मुद्रा बताई गई है। इस मुद्रा से मन को शांति मिलती है और मानसिक तनाव कम होता है।
मुद्रा की विधि- किसी भी सुविधाजनक स्थान पर शांति से सुखासन में बैठ जाएं। अब दोनों हाथों को लंबाकर दोनों घुटनों पर रखकर अंगुठे को तर्जनी अंगुली के सिरे पर लगा दें। शेष तीनों उंगली सीधी रखें इसको ज्ञान मुद्रा कहते है। योग का यह एक आसान उपाय है। प्रतिदिन पन्द्रह मिनट ऐसा करने से आप सात दिनों में लाभ महसूस करेगें।

मन-मस्तिष्क को नियंत्रित करता है...
अष्टांग योग में प्राणायाम चौथा चरण है। प्राण मतलब श्वास और आयाम का मतलब है उसका नियंत्रण। अर्थात जिस क्रिया से हम श्वास लेने की प्रक्रिया को नियंत्रित करते हैं उसे प्राणायाम कहते हैं। प्राणायाम से मन-मस्तिष्क की सफाई की जाती है। हमारी इंद्रियों द्वारा उत्पन्न दोष प्राणायाम से दूर हो जाते हैं। कहने का मतलब यह है कि प्राणायाम करने से हमारे मन और मस्तिष्क में आने वाले बुरे विचार समाप्त हो जाते हैं और मन में शांति का अनुभव होता है। प्राणायाम से जब चित्त शुद्ध होता है तो योग की क्रियाएं आसान हो जाती हैं।
आसन के सिद्ध हो जाने पर श्वास और प्रश्वास की गति के अवरोध हो जाने का नाम प्राणायाम है। बाहरी वायु का भीतर प्रवेश करना श्वास कहलाता है और भीतर की वायु का बाहर निकालना प्रश्वास कहलाता है। इन दोनों के रुकने का नाम प्राणायाम है।
प्राणायाम में हम पहले श्वास को अंदर खींचते हैं, जिसे पूरक कहते हैं। पूरक मतलब फेफड़ों में श्वास की पूर्ति करना। श्वास लेने के बाद कुछ देर के लिए श्वास को फेफड़ों में ही रोका जाता है, जिसे कुंभक कहते हैं। इसके बाद जब श्वास को बाहर छोड़ा जाता है तो उसे रेचक कहते हैं। इस तरह प्राणायाम की सामान्य विधि पूर्ण होती है।

कैसे करें प्राणायाम?

प्राणायाम का नियमित अभ्यास हमें सभी बीमारियों से हमेशा दूर रखता है। जो भी व्यक्ति प्रतिदिन कुछ समय प्राणायाम करता है वह हमेशा स्वस्थ रहता है, उसका मन शांत रहता है, हर कार्य अच्छे से करता है। प्राणायाम मन को नियंत्रित करने के लिए सबसे अच्छा उपाय है।

प्राणायाम के लिए किसी शांत और अच्छे वातावरण वाले स्थान का चयन करना चाहिए। सांस लेने और छोडऩे की क्रिया को प्राणायाम कहा जाता है। सांस लेने की क्रिया को पूरक कहते हैं और छोडऩे की क्रिया को रेचक कहा जाता है। इन दोनों का सही नियंत्रण ही प्राणायाम है।

प्राणायाम में हम सांस लेते हैं जिसे पूरक कहते हैं। पूरक मतलब फेफड़ों में सांस की पूर्ति करना। सांस लेने के बाद कुछ देर के लिए सांस को अंदर ही रोका जाता है, जिसे कुंभक कहते हैं। इसके बाद जब सांस को बाहर छोड़ा जाता है तो उसे रेचक कहते हैं। इस तरह प्राणायाम की सामान्य विधि पूर्ण होती है।

हर बीमारी दूर रहती प्राणायाम से
खान-पान में थोड़ी सी लापरवाही होने पर हमारा शरीर कई छोटी-बड़ी बीमारियों का शिकार हो जाता है। इसलिए खान के संबंध में हमें पूरी सावधानी रखने की आवश्कयता है। इस सावधानी के साथ-साथ हमें नियमित रूप से प्राणायाम का अभ्यास भी करना चाहिए।
- प्राणायाम से हमारे शरीर को कई स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होते हैं।
- प्राणायाम के नियमित अभ्यास के कई धार्मिक लाभ बताए गए हैं।
- प्राणायाम से मन स्थिर होता है जिससे भगवान की भक्ति अच्छे हो पाती हैं।
-प्राणायाम के माध्यम से ही हम अष्टांग योग की प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और अंत में समाधि की अवस्था तक पहुंचते हैं।
- प्राणायाम से हमारे शरीर का संपूर्ण विकास होता है। फेफड़ों में अधिक मात्रा में शुद्ध हवा जाने से शरीर स्वस्थ रहता है।
- प्राणायाम से हमारा मानसिक विकास भी होता है। प्राणायाम करते हुए हम मन को एकाग्र करते हैं। इससे हमारा मन नियंत्रित होता है।
- प्राणायाम से श्वास संबंधी रोग तथा अन्य बीमारियां दूर हो जाती हैं।

प्रार्थना भी है एक योग
योग शास्त्र द्वारा हमारे अच्छे स्वास्थ्य के लिए व्यायाम बताए गए हैं। इनमें कई ऐसी क्रियाएं शामिल हैं जो हम प्रतिदिन कई बार करते हैं। ऐसी ही एक क्रिया है प्रार्थना। मंदिर में या घर में या कहीं भगवान का ध्यान करते समय हम प्रार्थना करते हैं। इस प्रार्थना को विधिवत रूप से किया जाए तो इसका लाभ हमारे स्वास्थ्य को मिलता है।
प्रार्थना की विधि
सामान्य स्थिति में खड़े हो जाए। अब दोनों हाथों को नमस्कार की स्थिति में ले आए जैसे में भगवान के सामने प्रार्थना करते हैं। अब मन को एकदम शांत कर लें और अपना ध्यान अपने इष्ट भगवान में लगाएं। आंखे बंद रखें। कुछ देर एकदम शांत इसी तरह खड़े रहें। सांस की क्रिया सामान्य रखें।
प्रार्थना के लाभ
इस क्रिया से मन को स्थिरता मिलती है, मन शांत रहता है। क्रोध पर नियंत्रण होता है। स्मरण शक्ति बढ़ती हैं और चेहरे की चमक बढ़ जाती है। साथ ही इस तरह प्रार्थना करने पर जल्दी ही भगवान की कृपा भी प्राप्त होती है।

ठंड से परेशान हैं?
लगातार गिरते तापमान ने सभी को बुरी तरह प्रभावित कर रखा है। इसके प्रभाव से बड़ी संख्या में लोग बीमार भी हो रहे हैं। इस ठंड का प्रभाव कम करने के लिए प्रतिदिन उज्जायी प्राणायाम करें तो कुछ ही दिनों में कड़ाके ठंड भी आपको पर ज्यादा प्रभावित नहीं कर पाएगी।

उज्जायी प्राणायाम के विधि
सुविधाजनक स्थान पर कंबल या दरी बिछाकर बैठ जाएं। अब गहरी सांस लें। कोशिश करें कि पेट की मांसपेशियां प्रभावित न हो। गला, छाती, हृदय से सांस अंदर खींचे। जब सांस पूरी भर जाएं तो जालंधर बंध लगाकर कुंभक करें। (जालंधर बंध और कुंभक के संबंध में लेख पूर्व में प्रकाशित किया जा चुका है।) अब बाएं नासिका के छिद्र को खोलकर सांस धीरे-धीरे बाहर निकालें। सांस भरते समय श्वांस नली का मार्ग हाथ से दबाकर रखें। जिससे सांस अंदर लेते समय सिसकने का स्वर सुनाई दे। उसी प्रकार सांस छोड़ते समय भी करें।
उज्जायी प्राणायाम को बैठकर या खड़े होकर भी किया जा सकता है। कुंभक के बाद नासिका के दोनों छिद्रों से सांस छोड़ी जाती है। प्रारंभ में इस प्राणायाम को एक मिनिटि में चार बार करें। अभ्यास के साथ ही इस प्राणायाम की संख्या बढ़ाई जाना चाहिए।

प्राणायाम के लाभ
यह प्राणायाम सर्दी में काफी लाभदायक सिद्ध होता है। इस प्राणायाम के अभ्यास कफ रोग, अजीर्ण, गैस की समस्या दूर होती है। साथ ही हृदय संबंधी बीमारियों में यह आसन बेहद फायदेमंद है। इस प्राणायम को नियमित करने से ठंड के मौसम का भी ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ता है।

रंग-रूप भी निखरता है प्राणायाम से
प्राणायाम ऐसी क्रिया है जिसके नियमित अभ्यास से बड़ी-बड़ी बीमारियां साधक से दूर रहती है। साथ ही व्यक्ति का रंग-रूप भी निखर जाता है। शीतली प्राणायाम के संबंध में ऐसा माना जाता है कि इसका नियमित अभ्यास करने वाले व्यक्ति को कभी जहर भी नहीं चढ़ता।
शीतली प्राणायाम की विधि
शीतली प्राणायाम और सीत्कारी प्राणायाम लगभग एक जैसे ही हैं। अंतर केवल इतना है कि सीत्कारी प्राणायाम में जीभ गोलकर तालु से लगा ली जाती है और शीतली में जीभ को गोलाकार बना लेते हैं और सीत्कार करते हुए मुंह द्वारा वायु को पेट में भर लेते हैं। इस प्राणायाम को खड़े होकर, चलते हुए अथवा बैठकर भी कर सकते हैं। इसमें मुंह को गोल करके जीभ को भी गोल कर लिया जाता है और होंठ को बाहर निकालकर सांस लेते हैं। जितना संभव हो उतना समय सांस रोककर फिर सांस को बाहर निकाल दिया जाता है।
शीतली प्राणायाम के लाभ
इस प्राणायाम से पित्त, कफ, अपच जैसी बीमारियां बहुत जल्द समाप्त हो जाती है। योग शास्त्र के अनुसार लंबे समय तक इस प्राणायाम के नियमित अभ्यास से व्यक्ति पर जहर का भी असर नहीं होता।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

Sunday, December 19, 2010

Gyan (ज्ञान) Part (2)

ताकि आप का नाम हो रोशन
आजकल माता पिता की एक मूल समस्या है कि उनके बच्चे का जीवन बेहतर कैसे बनाया जाए वे चाहते है कि उनके बच्चों को जीवन में कोई कमी न रहे इसलिए वे हमेशा उनके लिए सुख सुविधाऐं जुटाते रहते हैं लेकिन फिर भी इन्ही सुविधाओं के चलते वे उन्हें वे संस्कार देना भूल जाते है जो उनके बच्चों के जीवन के लिए सबसे ज्यादा जरूरी होते है। इसलिए देख जाता है कि ऐसे बच्चे अपने पतन का कारण खुद बनते हैं
महाभारत में 100 कौरवों का जन्म और पालन राजमहल में सुख सुविधाओं के बीच हुआ लेकिन दुर्योधन हो या उसके बाकी 99 भाई उनमें से कोई भी संस्कारवान नहीं था। सभी अय्याश और लालची थे वे इतने बुरे थे कि अपने ही भाई पाण्डवों के खिलाफ उन्होंने ने कई षडय़ंत्र रचे इसके विपरीत पाड़वों जन्म जंगल में हुआ उनके बचपन का एक बड़ा समय उन्होंने जंगल में काटा उन्हैं कोई सुख सुविधाऐं नहीं मिली लेकिन फिर भी पांचों भाई ज्ञानी धर्म का पालन करने वाले विनम्र स्वभाव एवं नीतियों को मानने वाले थे इसके पीछे कारण बस इतना था कि उनकी माता कुन्ती ने सुविधाओं की जगह उनके संस्कारों पर अधिक ध्यान दिया।

बड़ा बनना है तो माफ करना सीखो
दुनिया में सबसे बड़ा दान होता है क्षमादान कहते हैं कि यह एक ऐसा दान है जिसके आगे बड़े से बड़ा आदमी भी झुक जाता है। किसी कि गलती पर उसे माफ कर भूल जाना ही आपके बड़प्पन को बताता है।
महात्मा बुद्ध उपदेश दे रहे थे- क्रोध एक प्रकार की अग्नि है, जिसमें उसे धारण करने वाला स्वयं ही जलता है। उस अग्नि से वह दूसरे को जलाने से पूर्व स्वयं ही बहुत कुछ जल जाता है।बुद्ध का उपदेश एक अत्यंक क्रोधी व्यक्ति भी सुन रहा था। उसे क्रोध के विरुद्ध बुद्ध का यह उपदेश तनिक भी अच्छा नहीं लग रहा था। इसलिए वह खड़ा होकर कहने लगा- अरे पाखंडी। तू बड़ी-बड़ी बातें करता है। इन पर अमल करके भी बता। लोगों के व्यवहार के विरुद्ध बाते बताते शर्म नहीं आती?उसकी बातें सुनकर भी बुद्ध शांत रहे। यह देखकर वह और अधिक गुस्से से भर उठा। उसने उनके पास आकर उनके मुंह पर थूक दिया।बुद्ध ने अपना चेहरा पोंछा और उससे पूछा- तुम्हें और क्या कहना है? वह बोला- मैं कुछ कह रहा हूं। बुद्ध ने कहा- हां, तुम्हारा इस प्रकार का व्यवहार तुम्हारी घृणा को प्रकट कर रहा है। वह व्यक्ति और अपशब्द कहते हुए वहां से चला गया।
अगले दिन बुद्ध दूसरे गांव में चले गए। अब तक उस व्यक्ति का क्रोध शांत हो चुका था और उसे पश्चाताप हो रहा था। वह बुद्ध को खोजते हुए उस गांव में आया और उनके पैरों में गिरते हुए बोला- मुझे मॉफ कीजिए मैंने कल आपके साथ बहुत बुरा व्यवहार किया। बुद्ध ने उससे पूछा- क्या हुआ? कौन हो तुम? क्रोधी चौंककर बोला आप भूल गए? मैं वहीं दुष्ट हूं, जिसने कल आप पर थूका था। बुद्ध ने हंसकर कहा- कल को तो मैं कल ही छोड़ आया हूं। हर बड़ी बात या घटना को याद रखा जाएगा तो जीवन और भविष्य दोनों ही ठहर जाएंगे।यह प्रसंग शिक्षा देता है कि हमें धरती की तरह क्षमाशील होना चाहिए। इससे सारा संसार हमारी महानता को स्वीकार कर खुद-ब-खुद हमारे कदमों में झुक जाएगा।

कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती
जो लोग जीतने की इच्छा को मन में बैठाकर लगातार कोशिश करते हैं उन्हें एक न एक दिन जीत जरूर मिलती है वास्तव में लगातार कोशिश करना ही सफ लता की कुंजी है। और जो असफलता से हार कर निराश हो जाते हैं उनसे सफलता कोसों दूर रहती है।
कर्म पुराण की एक कथा के अनुसार मध्य भारत के किसी प्रांत के एक राजा ने इस बार पूरी तैयारी से शत्रु सेना पर हमला किया। घमासान युद्ध हुआ। राजा और उसके सैनिक बहुत ही वीरता से लड़े, किंतु सातवीं बार भी हार गए। राजा को अपने प्राणों के लाले पड़ गए। वह अपनी जान बचाकर भागा। भागते-भागते घने जंगल में पहुंच गया और एक स्थान पर बैठकर सोचने लगा कि सात बार हार चुकने के बाद अब तो शत्रु से अपना राज्य फिर से प्राप्त करने की कोई आशा ही नहीं रह गई है। अब मैं इसी जंगल में रहकर एकांत जीवन बिताऊंगा। जीवन में अब क्या शेष रह गया है।इन्हीं निराशाजनक विचारों में खोया राजा थकान के मारे सो गया।
जब काफी देर बाद उसकी नींद खुली, तो सामने देखा कि उसकी तलवार पर एक मकड़ी जालाबना रही है। वह ध्यान से यह दृश्य देखने लगा। मकड़ी बार-बार गिरती और फिर से जाला बनाती हुई तलवार पर चढऩे लगती है। इस तरह वह दस बार गिरी और दसों बार पुन: जाल बनाने में जुट गई। तभी वहां एक संत आए और राजा की निराशा जानकर बोले देखों राजन। मकड़ी जैसा छोटा सा जीव भी बार-बार हारकर निराश नहीं होता। युद्ध हारने को हार नहीं कहते बल्कि हिम्मत हारने को हार कहते हैं।तुम फिर से प्रयास करों। अपने सैनिकों को इकठ्ठा कर, उनमें नया जोश भरकर युद्ध करो, देखना, इस बार जीत तुम्हारी होगी। राजा ने वैसा ही किया और इस बार वह जीत गया।
कथा का सार यह है कि असफलता पर निराश होकर बैठ जाने की जगह पर लगातार कोशिश करनी चाहिए। इससे एक दिन अवश्य ही सफ लता मिलती है। इसलिए कहते हैं कि कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

अगर फर्ज को निभाओगे मन से...
आज के समय में यह एक आम समस्या है कि जब भी किसी व्यक्ति को कोई काम या जिम्मेदारी दी जाती है तो वे कुछ न कुछ शिकायत करते ही रहते हैं। जीवन में किसी भी काम को पूरा करने के लिए लगन के साथ साथ समर्पण भाव का होना बड़ा जरूरी है। अगर व्यक्ति बिना शिकायत अपनी जिम्मेदारी को निभाए तो निश्चित ही अच्छे परिणाम सामने होंगे। और ईश्वर भी ऐसे लोगों का साथ जरूर देते हैं।

बहुत पुरानी बात है, एक राज्य में जोरदार बारिश के कारण नदी में बाढ़ आ गई। सारा नगर बाढ़ की चपेट में आ गया। लोग जान बचाकर ऊंचे स्थानों की ओर भागे। बहुत से लोगों की जान गई। राज्य का राजा परेशान हो उठा। एक पहाड़ी से उसने नगर का नजारा देखा। सारा नगर पानी में डूब चुका था। राजा ने अपने मंत्रियों से बचाव कार्य पर चर्चा की। पंडितों को बुलाया गया। किसी भी तरह से बाढ़ का पानी नगर से निकाला जाए, बस सबको यही चिंता थी। राजा ने सिद्ध संतों से पूछा क्या कोई ऐसी विधि है जो नदी को उल्टा बहा सके, जिससे बाढ़ का पानी निकल जाए। पंडितों ने कहा ऐसी कोई विधि नहीं है।

तभी वहां एक वेश्या आई, उसने राजा से कहा वह नदी को उल्टी बहा सकती है। राजा को हंसी आ गई। मंत्रियों और ब्राह्मणों ने उसे दुत्कार दिया, जहां बड़े-बड़े सिद्ध पुरुष हार मान गए, वहां तू क्या है।वेश्या ने राजा से कहा मुझे एक बार अवसर तो दें। राजा ने सोचा जहां इतने लोग कोशिशें कर रहे हैं, यह भी कर तो बुराई ही क्या है। राजा ने उसे आज्ञा दे दी। वेश्या ने आंखें बंद कर थोड़ी देर कुछ बुदबुदाया। वह ध्यान की स्थिति में ही बैठी रही, तभी अचानक चमत्कार हो गया। नदी का बहाव उलटी दिशा में लौटने लगा और देखते ही देखते, सारा पानी बह गया। संकट टल गया। राजा ने उस वेश्या के पैर पकड़ लिए। उससे पूछा ऐसी सिद्धि तुझमें कहां से आई? वेश्या ने कहा यह मेरी गुरु की शिक्षा का असर है। जिस महिला ने मुझे इस निंदित कार्य में धकेला था, उसने मुझे एक शिक्षा दी थी कि शायद भगवान ने तुझे इसी कार्य के लिए बनाया है। तू कभी अपनी किस्मत को मत कोसना। जो भी जिम्मेदारी हो उसे हमेशा पूरे मन से निभाना। और मैंने यही किया। मैंने कभी भगवान से शिकायत नहीं की, न ही किस्मत को कोसा। मेरा कर्तव्य ही मेरी तपस्या बन गया और मैंने आज भगवान से उस तपस्या का फल मांग लिया।

क्यों शिव कहलाते हैं नीलकंठ?
हिन्दू धर्म के पांच प्रमुख देवताओं का प्रधान भगवान शिव को माना जाता है। इसलिए शिव को महादेव भी पुकारा जाता है। ऐसे ही अनेक नाम शिव की महिमा से जुड़े हैं। शिव के इन नामों में से ही एक कल्याणकारी नाम है - नीलकंठ।
इस नाम का न केवल पौराणिक महत्व है, बल्कि यह व्यावहारिक जीवन के लिए भी कुछ संदेश देता है। इस नाम से जुड़ी पौराणिक कथा के मुताबिक देव-दानव द्वारा किए गए समुद्र मंथन से निकले हलाहल यानि जहर का असर देव-दानव सहित पूरा जगत सहन नहीं कर पाया। तब सभी ने भगवान शंकर से प्रार्थना की। भगवान शंकर ने पूरे जगत की रक्षा और कल्याण के लिए उस जहर को पीना स्वीकार किया। विष पीकर शंकर नीलकंठ कहलाए।
धार्मिक मान्यता है कि भगवान शंकर ने समुद्र मंथन से निकले विष का पान हिन्दू पंचांग के सावन माह में ही किया था और विष पीने से हुई दाह की शांति के लिए समुद्र मंथन से ही निकले चंद्रमा को अपने सिर पर धारण किया।
व्यावहारिक रुप से देखें तो भगवान शंकर द्वारा विष पीकर कंठ में रखना और उससे हुई दाह के शमन के लिए गंगा और चंद्रमा को अपनी जटाओं और सिर पर धारण करना इस बात का संदेश है कि मानव को अपनी वाणी और भाषा पर संयम रखना चाहिए। खास तौर पर कटु वचन से बचना चाहिए, जो कंठ से ही बाहर आते हैं। किंतु कटु वचन पर संयम तभी हो सकता है, जब व्यक्ति मन को काबू में रखने के साथ ही बुद्धि और ज्ञान का सही उपयोग करे। शंकर की जटाओं में बैठी गंगा ज्ञान की सूचक है और चंद्रमा मन और विवेक का।
गंगा और चंद्रमा को भगवान शंकर ने उसी जगह पर रखा है, जहां मानव का भी विचार केन्द्र यानि मस्तिष्क होता है।

गायत्री मंत्र से मिलती हैं ये 24 देव शक्तियां
धर्म ग्रंथों में इष्टसिद्धि से शक्ति, कामयाबी और इच्छापूर्ति का महत्व बताया गया है। इष्टसिद्धि को सरल शब्दों में समझना चाहें तो इसका मतलब होता है कि व्यक्ति जिस देव शक्ति के लिए श्रद्धा और आस्था मन में बना लेता है, तब उसी के मुताबिक उस देवता से जुड़ी सभी शक्तियां, प्रभाव और वस्तुएं संबंधित को मिलने लगती है। साथ ही वह देव उपासना का वास्तविक लाभ पाता है।
इष्टसिद्धि की कड़ी में गायत्री का ध्यान भी बहुत अहम माना जाता है। खासतौर पर तंत्र शास्त्रों में गायत्री साधना में गायत्री मंत्र के 24 अक्षरों से 24 देव शक्तियों को पाने का फल बताया गया है।
असल में गायत्री मंत्र के हर अक्षर का एक देवता है यानि हर अक्षर देव शक्ति बीज है। इस तरह गायत्री मंत्र के 24 अक्षरों में 24 देव शक्तियों का आवाहन हो जाता है। इष्टसिद्धि के नजरिए से मात्र एक मंत्र से ही 24 देवताओं का इष्ट और उनसे जुड़ी शक्ति प्राप्त होना बहुत महत्व रखती है। ऐसी इष्टसिद्धि से जिंदगी में किसी भी तरह की भय, परेशानी, बाधा या संकटों का सामना नहीं करना पड़ता।
जानते हैं ऐसे महाशक्तिशाली मंत्र के 24 अक्षरों के 24 देवताओं के नाम -
- श्री गणेश
- नृसिंह
- विष्णु
- शिव
- कृष्ण
- राधा
- लक्ष्मी
- अग्रि
- इन्द्र
- सरस्वती
- दुर्गा
- हनुमान
- पृथ्वी
- सूर्य
- राम
- सीता
- चन्द्रमा
- यम
- ब्रह्मा
- वरुण
- नारायण
- हयग्रीव
- हंस
- तुलसी
धार्मिक दृष्टि से देव शक्तियां जाग्रत होती है। इसलिए इष्ट रूप में गायत्री और गायत्री मंत्र के स्मरण से ही इन 24 देवताओं के अधीन शक्तियां और पदार्थ भी उपासक को प्राप्त होते हैं। जिससे वह सांसारिक और भौतिक शक्तियों से पूर्ण हो जाता है।

किस्मत ही तय करती है आपके कर्म
कर्मवादी लोग कहते हैं भाग्य कुछ नहीं होता, भाग्यवादी लोग कहते हैं किस्मत में लिखा ही होता है, कर्म कुछ भी करते रहो। भाग्यवादी और कर्मवादी लोगों की यह बहस कभी खत्म नहीं हो सकती। लेकिन यह भी सत्य है कि भाग्य और कर्म दोनों के बीच एक रिश्ता जरूर है। कर्म से भाग्य बनता है या भाग्य से कर्म करते हैं लेकिन दोनों के बीच कोई खास रिश्ता जरूर होता है।

भाग्य और कर्म के बीच के इस रिश्ते को समझने के लिए यह कथा बहुत ही अच्छा उदाहरण हो सकती है। कहते हैं एक बार ऋषि नारद भगवान विष्णु के पास गए। उन्होंने शिकायती लहजे में भगवान से कहा पृथ्वी पर अब आपका प्रभाव कम हो रहा है। धर्म पर चलने वालों को कोई अच्छा फल नहीं मिल रहा, जो पाप कर रहे हैं उनका भला हो रहा है। भगवान ने कहा नहीं, ऐसा नहीं है, जो भी हो रहा है, सब नियती के मुताबिक ही हो रहा है। नारद नहीं माने। उन्होंने कहा मैं तो देखकर आ रहा हूं, पापियों को अच्छा फल मिल रहा है और भला करने वाले, धर्म के रास्ते पर चलने वाले लोगों को बुरा फल मिल रहा है। भगवान ने कहा कोई ऐसी घटना बताओ। नारद ने कहा अभी मैं एक जंगल से आ रहा हूं, वहां एक गाय दलदल में फंसी हुई थी। कोई उसे बचाने वाला नहीं था।

तभी एक चोर उधर से गुजरा, गाय को फंसा हुआ देखकर भी नहीं रुका, उलटे उस पर पैर रखकर दलदल लांघकर निकल गया। आगे जाकर उसे सोने की मोहरों से भरी एक थैली मिल गई। थोड़ी देर बाद वहां से एक वृद्ध साधु गुजरा। उसने उस गाय को बचाने की पूरी कोशिश की। पूरे शरीर का जोर लगाकर उस गाय को बचा लिया लेकिन मैंने देखा कि गाय को दलदल से निकालने के बाद वह साधु आगे गया तो एक गड्ढे में गिर गया। भगवान बताइए यह कौन सा न्याय है।

भगवान मुस्कुराए, फिर बोले नारद यह सही ही हुआ। जो चोर गाय पर पैर रखकर भाग गया था, उसकी किस्मत में तो एक खजाना था लेकिन उसके इस पाप के कारण उसे केवल कुछ मोहरे ही मिलीं।वहीं उस साधु को गड्ढे में इसलिए गिरना पड़ा क्योंकि उसके भाग्य में मृत्यु लिखी थी लेकिन गाय के बचाने के कारण उसके पुण्य बढ़ गए और उसे मृत्यु एक छोटी सी चोट में बदल गई। इंसान के कर्म से उसका भाग्य तय होता है। अब नारद संतुष्ट थे।

स्वभाव से होता है इंसान बड़ा
इंसान के बडे छोटे होने में उसके स्वभाव का बड़ा हाथ होता है। विनम्रशील व्यक्ति भले ही पद में छोटा या गरीब हो फिर भी वह अपने नम्र स्वभाव से अपने बडप्पन का परिचय दे देता है। एक बार महात्मा एक नगर में पधारे। राजा के मंत्री ने राजा से कहा कि हमारे नगर में परम ज्ञानी संत पधारे है हमें चलकर उनका स्वागत करना चाहिए। लेकिन राजा के मन सत्ता का घंमड था वह मंत्री से बोला कि मैं राजा हूं और सभी मुझसे मिलने आते हैं बुद्ध को अगर मुझसे मिलना है तो वे खुद यहां आएगें मंत्री राजा को समझाते हुए बोला संत पुरुष जनता के लिए श्रद्धा के पात्र होते हैं इसलिए वह राजा से भी ऊपर होते हैं। अत: उनका आदर सम्मान करना हमारा फर्ज है। राजा ने कहा कि मैं जनता का गुलाम नहीं हूं मैं वही करूगा जो मुझे अच्छा लगेगा। तब मंत्री ने राजा को अपना इस्तीफा देते हुए कहा कि आपमें बडप्पन नहीं है मैं आपकी सेवा नहीं कर सकता। राजा ने मंत्री से कहा कि मै राजा हूं और राजा बडा होता हैं अपने बडप्पन के कारण ही मैं बुद्ध से मिलने नहीं जा रहा हूं। मंत्री बोला आप अपने घंमड को अपना बडप्पन मत समझिए महात्मा बुद्ध भी सम्राट शुद्धोधन के बेटे थे लेकिन धर्म की रक्षा के लिए उन्होने राज्य त्याग कर भिक्षु बनना स्वीकार किया। इतना सुनकर राजा को अपनी गलती का एहसास हुआ और वह तुरंत राजगणों के साथ महात्मा बुद्ध का स्वागत करने पहुंचा।कथा का अर्थ है कि विनम्रता ही इंसान को बड़ा और महान बनाती है। जो व्यक्ति पद और माया का घमंड करता है वह कभी सम्मान नहीं पाता।

कामयाबी की कसौटी है संघर्ष
इतिहास बताता है कि सभी सफल लोगों की सफलता के पीछे एक बड़े संघर्ष की कहानी छुपी है लेकिन उन्हें जीत इसीलिए मिली क्योंकि वे कभी हार से निराश नहीं हुए। हमें आजमाने के लिए जिन्दगी में कभी जीत की खुशी आती है, तो कभी हार के गम लेकिन यह हम पर निर्भर करता है कि हम उसका सामना कैसे करें।
जीव विज्ञान के एक टीचर अपने स्टूडेंटस को पढ़ा रहे थे कि सूंडी या मॉथ तितली में कैसे बदल जाती है। उन्होंने स्टूडेंटस को बताया कि तितली आसानी से अपनी खोल से बाहर नहीं आ पाती है। उसे इसके लिए काफी समय स्ट्रगल करना पड़ता है। ये बात वे अपने स्टूडेंटस को सूंडी के खोल को दूर से दिखाकर समझा रहे थे। तभी एक स्टूडेंट ने पूछा क्या हम इनकी मदद नहीं कर सकते तो टीचर ने उसे कहा कि वह भूल कर भी यह गलती ना करे। इतना कह कर टीचर वहां से चले गए। सभी स्टूडेंटस इंतजार कर रहे थे कि तितली वहां से बाहर निकले। तितली बाहर निकलने के लिए मेहनत करने लगी। उस स्टूडेंट से देखा नहीं गया। उसने तितली की मदद करने का फैसला किया। सभी छात्रों के मना करने के बाद भी उसने खोल से तितली को बाहर निकाल दिया। जिससे तितली को मेहनत ना करना पड़े, लेकिन थोड़ी देर में ही वह तितली मर गई।
वापस लौटने पर जब टीचर को इस घटना के बारे में पता चला तो उन्होंने कहा बिना मेहनत के मिली सफलता ऐसी ही होती है। टीचर ने अपने स्टूडेंटस को बताया कि तितली का वह थोड़ी देर का संघर्ष ही उसे असली मजबूती देता है। वह उस संघर्ष के बाद ही बाहर के माहौल के हिसाब सेअपने आपको स्थापित कर पाने और जीवित रह पाने में सफल हो पाती है। शायद तुम उसे संघर्ष करने का मौका देते तो बाहरी माहौल मे संघर्ष कर ज्यादा लंबी जिन्दगी जी पाती।
कथा कहती है कि जिदंगी में कोई भी सफलता आसानी से नहीं मिलती। उसके लिए इंसान को संघर्ष के रास्ते से गुजरना ही होता है तभी उसे सफलता का असली मतलब समझ आता है

क्यों अग्रि को माना जाता है देवता?
हिन्दू धर्म में अग्नि यानि आग को देवता माना जाता है। धार्मिक दृष्टि से अग्रि को भूलोक में सूर्य का रूप माना गया है। जहां ऋग्वेद का पहला शब्द अग्रि बताया गया है। वहीं श्रीमद्भागवत में भी विराट पुरूष के मुंह से अग्रि के जन्म के बारे में लिखा गया है। जिसके मुताबिक मुंह से पैदा होने के कारण वह वाणी का नियंत्रक देवता भी है।
अग्रि को आग्रेय दिशा यानि पूर्व और दक्षिण दिशा का स्वामी भी माना गया है। व्यावहारिक नजरिए से मानव जीवन से जुड़े अनेक कार्य अग्रि की मौजूदगी के बिना शुभ नहीं माने जाते। शास्त्रों में इंसानी जि़दगी में अग्रि की अहमियत को ही बताते हुए अग्रि के अनेक रूप बताए गए हैं। जानते हैं अग्रि के ऐसे ही रूप -
- जठराग्नि - यह प्राणियों के शरीर में मौजूद होती है।
- बडावाग्नि - सागर में लगने वाली आग होती है।
- दावाग्नि - जंगल लगने वाली आग
- विद्युत - मेघ या बादलों के बीच पैदा बिजली भी आग का ही रूप है।
- आहावनीय (ब्राह्म) - यज्ञ के दौरान मंत्र शक्ति से पैदा होती है।
- गार्हस्थ्य (गार्हपत्य)- शादी के बाद कुल में प्रतिष्ठित होती है।
- दक्षिणाग्नि - यह मंडप के दक्षिण भाग में प्रतिष्ठित होती है।
- कृव्यादाग्नि - दाह संस्कार में पैदा होने वाली अग्रि
अग्रि के इन रूपों से अग्रि की उपयोगिता साबित होती है। अग्रि का स्वभाव ऊष्णा यानि गर्म होता है। इसमें दहन शक्ति यानि जलाने की ताकत होती है। शास्त्रों के मुताबिक अग्नि को देवता मानने का कारण यही है कि यह प्रकाशित करती यानि ज्ञान प्रदायिनी है। साथ ही यह पुष्टि, शक्ति, यश व अन्न देने वाली है।
शास्त्रों में अग्रिदेव का स्वरुप बताया गया है। जिसके मुताबिक उनके सात हाथ, चार सींग, सात जीभ, दो सिर और तीन पैर हैं। दाहिनी ओर स्वाहा तथा बाईं ओर स्वधादेवी रहती हैं। इनका वाहन मेष यानि बकरा है।

क्यों शिव कहलाते हैं रुद्र?
भगवान शिव के अनगिनत रूप हैं। क्योंकि सारी प्रकृति को ही शिव स्वरूप माना गया है। इन रूपों में ही एक है रुद्र। रुद्र का शाब्दिक अर्थ होता है - रुत यानि दु:खों को अंत करने वाला। यही कारण है कि शिव को दु:खों को नाश करने वाले देवता के रुप में पूजा जाता है। व्यावहारिक जीवन में कोई दु:खों को तभी भोगता है, जब तन, मन या कर्म किसी न किसी रूप में अपवित्र होते हैं। शिव के रुद्र रूप की आराधना का महत्व यही है कि इससे व्यक्ति का चित्त पवित्र रहता है और वह ऐसे कर्म और विचारों से दूर होता है, जो मन में बुरे भाव पैदा करे। शास्त्रों के मुताबिक शिव ग्यारह अलग-अलग रुद्र रूपों में दु:खों का नाश करते हैं। यह ग्यारह रूप एकादश रुद्र के नाम से जाने जाते हैं। जानते हैं ऐसे ही ग्यारह रूद्र रूपों को - - शम्भू - शास्त्रों के मुताबिक यह रुद्र रूप साक्षात ब्रह्म है। इस रूप में ही वह जगत की रचना, पालन और संहार करते हैं। - पिनाकी - ज्ञान शक्ति रुपी चारों वेदों के के स्वरुप माने जाने वाले पिनाकी रुद्र दु:खों का अंत करते हैं। - गिरीश - कैलाशवासी होने से रुद्र का तीसरा रुप गिरीश कहलाता है। इस रुप में रुद्र सुख और आनंद देने वाले माने गए हैं। - स्थाणु - समाधि, तप और आत्मलीन होने से रुद्र का चौथा अवतार स्थाणु कहलाता है। इस रुप में पार्वती रूप शक्ति बाएं भाग में विराजित होती है। - भर्ग - भगवान रुद्र का यह रुप बहुत तेजोमयी है। इस रुप में रुद्र हर भय और पीड़ा का नाश करने वाले होते हैं। - भव - रुद्र का भव रुप ज्ञान बल, योग बल और भगवत प्रेम के रुप में सुख देने वाला माना जाता है। - सदाशिव - रुद्र का यह स्वरुप निराकार ब्रह्म का साकार रूप माना जाता है। जो सभी वैभव, सुख और आनंद देने वाला माना जाता है। - शिव - यह रुद्र रूप अंतहीन सुख देने वाला यानि कल्याण करने वाला माना जाता है। मोक्ष प्राप्ति के लिए शिव आराधना महत्वपूर्ण मानी जाती है। - हर - इस रुप में नाग धारण करने वाले रुद्र शारीरिक, मानसिक और सांसारिक दु:खों को हर लेते हैं। नाग रूपी काल पर इन का नियंत्रण होता है।- शर्व - काल को भी काबू में रखने वाला यह रुद्र रूप शर्व कहलाता है। - कपाली - कपाल रखने के कारण रुद्र का यह रूप कपाली कहलाता है। इस रुप में ही दक्ष का दंभ नष्ट किया। किंतु प्राणीमात्र के लिए रुद्र का यही रूप समस्त सुख देने वाला माना जाता है।

ऐसा होता है रामराज्य
त्रेतायुग में मयार्दापुरुषोत्तम भगवान श्रीराम द्वारा आदर्श शासन स्थापित किया गया। वह आज भी रामराज्य नाम से राम की तरह ही लोकप्रिय है। यह शासन व्यवस्था सुखी जीवन का प्रतीक बन गई। व्यावहारिक जीवन में परिवार, समाज या राज्य में सुख और सुविधाओं से भरी व्यवस्था के लिए आज भी इसी रामराज्य का उदाहरण दिया जाता है।
साधारण रूप से जिस रामराज्य को मात्र सुख-सुविधाओं का पर्याय माना जाता है। असल में वह मात्र सुविधाओं के नजरिए से ही नहीं बल्कि उसमें रहने वाले नागरिकों के पवित्र आचरण, व्यवहार और विचार और मर्यादाओं के पालन के कारण भी श्रेष्ठ शासन व्यवस्था का प्रतीक है।
जानते हैं शास्त्रों में बताए गए रामराज्य से जुड़ी कुछ खास विशेषताओं को-
गोस्वामी तुलसीदास ने स्वयं रामचरित मानस में कहा है -

दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहहिं काहुहि ब्यापा।।

- इस चौपाई के मुताबिक राम राज्य में शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक और सांसारिक तीनों ही दु:ख नहीं थे।
- राम राज्य में रहने वाला हर नागरिक उत्तम चरित्र का था।
- सभी नागरिक आत्म अनुशासित थे, वह शास्त्रो व वेदों के नियमों का पालन करते थे। जिनसे वह निरोग, भय, शोक और रोग से मुक्त होते थे।
- सभी नागरिक दोष और विकारों से मुक्त थे यानि वह काम, क्रोध, मद से दूर थे।
- नागरिकों का एक-दूसरे के प्रति ईष्र्या या शत्रु भाव नहीं था। इसलिए सभी को एक-दूसरे से अपार प्रेम था।
- सभी नागरिक विद्वान, शिक्षित, कार्य कुशल, गुणी और बुद्धिमान थे।
- सभी धर्म और धार्मिक कर्मों में लीन और निस्वार्थ भाव से भरे थे।
- रामराज्य में सभी नागरिकों के परोपकारी होने से सभी मन और आत्मा के स्तर पर शांत ही नहीं बल्कि व्यावहारिक जीवन में भी शांति और सुकून से रहते थे।
- रामराज्य में कोई भी गरीब नहीं था। रामराज्य में कोई मुद्रा भी नहीं थी। माना जाता है कि सभी जरूरत की चीजों का बिना कीमत के लेन-देन होता था। अपनी जरूरत के मुताबिक कोई भी वस्तु ले सकता था। इसलिए बंटोरने की प्रवृत्ति रामराज्य में नहीं थी।
- धार्मिक मान्यता है कि पर्वतों ने अपने सभी मणि आदि और सागर ने रत्न, मोती रामराज्य के लिए दे दिये। इसलिए वहां के नागरिक शौक-मौज के जीवन की लालसा नहीं रखते थे। बल्कि कर्तव्य परायण और संतोषी थे।

क्यों मर्यादापुरुषोत्तम है श्रीराम?
भारतीय संस्कृति में भगवान राम जन-जन के दिलों में बसते हैं। इसके पीछे मात्र धार्मिक कारण ही नहीं है, बल्कि श्रीराम चरित्र से जुड़े वह आदर्श हैं, जो मानव अवतार लेकर स्थापित किए गए। सीधे शब्दों में श्रीराम मर्यादित जीवन और आचरण से ही मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए। लेकिन ऐसे ऊंचे पद तक पहुंचने के लिए श्रीराम ने किस तरह के जीवनमूल्य स्थापित किए? जानते हैं कुछ ऐसी ही बातें -
धार्मिक दृष्टि से श्रीराम भगवान विष्णु का सातवां अवतार हैं। भगवान का इंसान रूप में यह अवतार मानव को समाज में रहने के सूत्र सिखाता है। असल में भगवान श्रीराम ने इंसानी जिंदगी से जुड़ी हर तरह की मर्यादाओं और मूल्यों को स्थापित किया।
श्रीराम ने अयोध्या के राजकुमार से राजा बनने तक अपने व्यवहार और आचरण से स्वयं मर्यादाओं का पालन किया। एक आम इंसान परिवार और समाज के बीच रहकर कैसे बोल, व्यवहार और आचरण को अपनाकर जीवन का सफर पूरा करे, यह सभी सूत्र श्रीराम के बचपन से लेकर सरयू में प्रवेश करने तक के जीवन में छुपे हैं।
धार्मिक और आध्यात्मिक नजरिए से भी श्रीराम के जीवन को देखें तो पाते हैं कि श्रीराम ने त्याग, तप, प्रेम, सत्य, कर्तव्य, समर्पण के गुणों और लीलाओं से ईश्वर तक पहुंचने की राह और मर्यादाओं को भी बताया।
अयोध्या के राजा बनने के बाद मर्यादा, न्याय और धर्म से भरी ऐसी शासन व्यवस्था स्थापित की, जिसकी आर्थिक, सामजिक और राजनीतिक मर्यादाओं ने हर नागरिक को सुखी, आनंद और समृद्ध कर दिया। श्रीराम का मर्यादाओं से भरा ऐसा शासन तंत्र आज भी युगों के बदलाव के बाद भी रामराज्य के रूप में प्रसिद्ध है।
इस तरह मर्यादामूर्ति श्रीराम ने व्यक्तिगत ही नहीं राजा के रूप में भी मर्यादाओं का हर स्थिति में पालन कर इंसान और भगवान दोनों ही रूप में यश, कीर्ति और सम्मान को पाया।
सबको खुश रखना है अगर...
इंसान की सबसे बड़ी उपलब्धि होती है किसी को खुश रखना अगर आप चाहते हैं कि सभी आपको याद रखें तो आप जहां भी जाएं दूसरों को खुश रखने की कोशिश करें लेकिन खुश रहने के लिए सबसे पहले आप जो भी काम कर रहे हैं उसमें आपकी सौ प्रतिशत खुशी जरूरी है, तभी आप दूसरों को खुशी दे पाएंगे।एक महानगर में आंधी आई, उसमें बड़े-बड़े पेड़ धराशायी हो गए। बहुत सारे लोगों की मृत्यु हो गई। आंधी में कई लोग बेघर हो गए, कई बच्चे अनाथ हो गए। कई मांओं की गोद सुनी हो गई। दूसरी जगहों से उस महानगर का संबंध टूट गया। जिससे पूरे शहर में अव्यवस्था फैल गई। यह देखकर आंधी ने अपनी छोटी बहन बसंती बयार से प्रश्र किया क्या तुम मेरे समान शक्ति नहीं चाहती?
जब मैं उठती हूं तो बड़े-बड़े भवनों को भी में खिलौनों की तरह मसल देती हूं। मेरी शक्ति देखकर अच्छे पहलवान भी अपने घरों में दुबक जाते हैं। पशु-पक्षी भी जान बचाकर भागते हैं।यह सुनकर बसंती बयार कुछ नहीं बोली और अपनी यात्रा पर निकल गई। उसे जाते देख आंधी भी उसके पीछे गई। आंधी ने देखा उसके आते देख नदियां, खेत, जंगल सभी मुस्कुराने लगे,बागों में फूल खिल उठे।
आंधी ने जब बसंती बयार के आने पर जो खुशी देखी तो उसे महसूस हुआ कि उसके आने पर लोगों के चेहरे पर जितना गम दिखाई देता है। उससे कई गुना ज्यादा खुशी दिखाई देती है। यह देख कर आंधी बहुत दुखी हो गई। उसे महसूस हुआ कि खुशी देने वाले की ताकत गम देने से कई गुना ज्यादा है क्योंकि खुशी को हर कोई याद रखना चाहता है और गम को हर कोई भुलाना। इसलिए जीवन में कोशिश यही करें कि आप जहां भी जाऐं वहां ऐसा माहौल बनाऐं कि लोग जब भी आपको याद करें तो खुश होकर।

जलन आदमी को अन्धा बना देती है
जलन एक ऐसी चीज है जो अक्सर इंसान को दूसरे इंसान का दुश्मन बना देती है चाहे वह कोई अपना को या पराया। जलन के चलते आज आदमी अपनों को भी नुकसान पहुंचाने में नहीं झिझकता। आज कोई भी किसी को खुद से ज्यादा समर्थ या आगे बढ़ते हुऐ नहीं देख सकता।
भीम शक्तिशाली और पराक्रमी थे वे खेल खेल में धृतराष्ट्र के बेटों को परेशान किया करते थे वे कभी पेड़ पर चढ़े कौरवों को पेड़ से गिरा देते तो कभी एक साथ दस दस लोगों को बाल पकड़कर खींचते। कभी उनको कुश्ती में हरा देते कभी सबको दौड़ में पीछे कर देते।भीमसेन ऐसा खेल खेल में करते थे। लेकिन दुर्योधन को भीम की शक्तियों से बड़ी जलन होती वह किसी भी तरह भीम को मारना चाहता था। एक दिन पांडव और कौरव वन में घूमने गए जब सभी लोग वहां खाना खाने बैठे तभी दुर्योधन ने चोरी भीम के खाने में जहर मिला दिया। भीम उस खाने को खाने के बाद बेहोश हो गए तब दुर्योधन ने अपने साथियों के साथ मिलकर भीम को नदी में फेंक दिया। तब भीम नागलोक पहुंचे चूंकि नागलोक भीम का ननिहाल था इसलिए नागों ने भीम को पहचान लिया और उसे जहर से मुक्त कर वरदान दिया कि वह दस हजार हाथियों जैसा बलशाली होगा और तब भीम ने कौरवों को मारकर महाभारत में नायक की भूमिका निभाई।
कथा बताती है कि कभी कभी आदमी दूसरों की कामयाबी को देखकर इतना परेशान हो जाता है कि जलन के कारण वह सामने वाले को किसी भी हद तक नुकसान पहुंचाने को तैयार हो जाता है।

ऐसे 3 रूप बदलती है वेदमाता गायत्री
मां गायत्री को ज्ञान रूपी वेदों की शक्ति या माता माना जाता है। धार्मिक दृष्टि से गायत्री शक्ति ही आदि शक्ति है। जिससे ही जगत का निर्माण, पालन और विनाश होता है। जिसे ही अन्य अर्थ में ब्रह्मा, विष्णु, महेश के रुप में भी जाना जाता है। असल में ब्रह्मदेव ने ही गायत्री शक्ति से चल-अचल जगत को बनाया।
शक्ति उपासना के भाव से माता गायत्री के तीन रूप बताए गए हैं। इन रूपों की विशेषता यही है कि माता गायत्री एक ही दिन में सुबह, दोपहर और संध्याकाल में अलग-अलग रूपों में दर्शन देती है। माता गायत्री के यह तीन रूप हैं - सुबह के समय कन्या या कुमारी रूप, जो ब्राह्मी कहा जाता है। इसी तरह दोपहर में माता गायत्री तरुण या युवती रूप में दर्शन देती हैं और सावित्री कहलाती है। वहीं संध्याकाल या शाम के समय माता गायत्री सरस्वती रूप में दर्शन देती है। यह रूप वृद्ध रूप कहलाता है। जानते हैं इन तीन अलग-अलग रूपों के स्वरूप और गुणों को -
ब्राह्मी गायत्री - प्रात: काल या सूर्योदय के पूर्व का समय ब्रह्ममुहूर्त कहलाता है। इसलिए माता के इस रूप को ब्राह्मी कहते हैं। इस रूप में माता गायत्री हंस पर विराजित, कुमारी, लाल रंग वाली, लाल वस्त्रधारी, तीन नेत्र वाली होती हैं। साथ ही वह पाश, अंकुश, जप माला और कमण्डल हाथों में रखने वाली है। माता गायत्री का यह स्वरूप पृथ्वीलोक में रहने वाला माना जाता है। इनकी उपासना शरीर को निरोग रखती है। वह ऋग्वेद की अधिष्ठात्री हैं।
सावित्री गायत्री - दोपहर के वक्त माता गायत्री युवती रूप में पूजी जाती है। इस वक्त सूर्य की तरह तेज होने से वह सावित्री कहलाती है। इस स्वरूप में माता का रंग सफेद या उजला, सफेद वस्त्रधारी, त्रिनेत्रधारी है। वहीं वह हाथों में पाश, अंकुश, त्रिशूल और डमरू लिये हुए हैं। सावित्री वृषभ पर विराजित होती है। वहीं सामवेद की अधिष्ठात्री हैं। इनकी उपासना धर्म और कर्म के लिए प्रेरित करती है।
सरस्वती गायत्री -संध्या के समय गायत्री रूप सरस्वती के रूप में पूजनीय है। ढलता दिन काला और धुंधलापन लिए होता है। इसलिए सरस्वती का स्वरूप वृद्धा, कृष्ण यानि काले रंग वाली, काले वस्त्रधारी, तीन नेत्रधारी है। वहीं वह हाथों में शंख, चक्र, गदा, पद्म लिये गरुड़ पर सामवेद के साथ विराजित होती है। गायत्री के इस रूप की उपासना विवेक और विचारशक्ति देने वाली होती है।

ये 16 मुरादें पूरी करते हैं शिव
हिन्दू धर्म शास्त्र बताते हैं कि देव भक्ति से इंसान ही नहीं देवताओं ने भी अपने मनोरथ पूरे किए। वास्तव में भक्ति प्रेम, समर्पण और त्याग का ही रुप है। धार्मिक आस्था है कि जब ऐसी भक्ति से ईश्वर को स्मरण किया जाता है, तो ईश्वर भी उस प्रेम के वशीभूत हो दृश्य या अदृश्य रूप से भक्त पर कृपा करते हैं।
हिन्दू धर्म में भक्ति से कामनापूर्ति की बात हो तो भगवान शिव की भक्ति सबसे आसान और जल्द मुरादें पूरी करने वाली मानी जाती है। इसलिए भगवान शिव को भक्त भोलेनाथ, भोलेशंकर जैसे नामों से पुकारते हैं। किंतु धर्मग्रंथों के अनेक प्रसंग हैं जिनमें इच्छापूर्ति के लिए अनेक देवताओं ने शिव की भक्ति की।
ऐसे ही धर्मग्रंथों में प्रमुख है हिन्दू धर्मग्रंथ महाभारत। जिसमें जगत को कर्म का महत्व बताने वाले स्वयं भगवान श्रीकृष्ण द्वारा पुत्र कामना के लिए भगवान शिव की भक्ति करने के बारे में लिखा गया है।
महाभारत के सौप्तिक पर्व में भगवान शिव ने स्वयं कहा है - श्री कृष्ण मेरी भक्ति करते हैं, इसलिए मुझे श्रीकृष्ण सबसे प्रिय है। भगवान श्रीकृष्ण ने शिव की उपासना शिव के हजार नामों के उच्चारण और बिल्वपत्रों को अर्पित कर सात माह तक कठोर तप के साथ की। महाभारत के अनुशासन पर्व में बताया गया है कि श्रीकृष्ण ने शिव की भक्ति से 16 कामनाओं को पूरा किया। यह ऐसी 16 इच्छाएं है, जिनको व्यावहारिक जीवन में भी हर व्यक्ति पूरी करना चाहता है।
जानते हैं श्री कृष्ण ने किन 16 मुरादों को पूरा करने की शिव से की प्रार्थना की और उन मुरादों का व्यावहारिक रूप से अर्थ क्या है? -
- धर्म में मेरी दृढ़ता रहे यानि सत्य, प्रेम परोपकार जैसा धर्म पालन।
- युद्ध में शत्रुघात यानि विरोधियों और जीवन के संघर्ष में विपरीत हालात पर काबू पा लेना।
- जगत में उत्तम यश यानि प्रसिद्धि, सम्मान,
- परम बल यानि हर तरह से शक्ति संपन्न
- योग बल यानि संयम और संतोष
- सर्व प्रियता यानि सबसे मधुर संबंध और व्यवहार
- शिव का सानिध्य यानि भगवान, धर्म और कर्म से जुड़े रहना।
- दस हजार पुत्र यानि संतान और कुटुंब सुख
- ब्राह्मणों में कोपाभाव यानि पवित्रता और शुचिता प्राप्त हो।
- पिता की प्रसन्नता यानि पिता का प्रेम और आशीर्वाद
- सैकड़ों पुत्र यानि दाम्पत्य सुख
- उत्कृष्ट वैभव योग यानि सुख-समृद्धि
- कुल में प्रीति यानि परिवार और संबंधियों में मेलजोल
- माता का प्रसाद या अनुग्रह यानि माता से प्रेम और आशीर्वाद
- शम प्राप्ति यानि हर तरह से शांति मिलना
- दक्षता यानि कार्य कुशलता या हुनरमंद होना।

छुरी से भी तेज होती है शब्दों की चुभन
इस दुनिया में सिर्फ जुबान ही कड़वी और मीठी भी है ऐसा कहा जाता है कि किसी तीखे हथियार से ज्यादा गहरे जख्म किसी के तीखे शब्दों के होते हैं क्योंकि हथियार से किए गए जख्म तो भर जाते हैं लेकिन शब्दों के जख्म कभी नहीं भरते। आपकी बोली भी आपके व्यक्तित्व का एक आइना होती है अगर आप मीठा नहीं बोल सकते तो कोई बात नहीं लेकिन कोशिश करें कि आप जो भी बोले उससे किसी की भावनाओं का ठेस ना पहुंचे।
एक बार चार दोस्त बैठकर गप्पे लड़ा रहे थे। उनमें से एक ने पूछा कि संसार में मीठा क्या है? और तीखा क्या है? सभी ने अपनी राय दी किसी ने कहा गुड़ मीठा है। किसी ने कहा शक्कर। किसी ने कहा रसगुल्ले सभी ने मनपसंद चीजों के नाम बताए।उनमें से एक दोस्त ने कहां कि मेरी राय में तो जुबान ही कड़वी और मीठी होती है। सब दोस्तों ने उसका खुब मजाक बनाया कहा ये कैसी अजीब बात है। उस बात को बहुत दिन गुजर गए। एक दिन उस दोस्त ने अपने सारे दोस्तों को खाने पर बुलाया। उसने अपने घर में दावत की पूरी तैयारी कर रखी थी। खाना लाजवाब बना था। अब सभी लोग खाना खाने बैठे तो वह बोला आप लोग तो ऐसे खा रहे हैं जैसे कभी खाना देखा ही नहीं ये सुनकर सभी दोस्त नाराज हो गए लेकिन सबसे अलग वह दोस्त एकदम निश्चिंत था। अब सारे दोस्त अपने-अपने घर चले गए।
अब वह दोस्त जिसने सब का अपमान किया था। उसने अपने उस दोस्त को फोन लगाकर कहा कि मैं तुम सबसे मिलना चाहता हूं। वो दोस्त उसके नेचर को जानता था कि ये जो बोलता है वो साबित करके दिखाता है। इसलिए उसने हां कह दिया। उसने बड़ी मुश्किल से नाराज दोनों दोस्तों को मना लिया। उसने सब को कहा कि क्या मैंने आपको बुरा खाना खिलाया था क्या मेरे यहां कोई कमी थी तो उनमें से एक दोस्त बोला- नहीं, सब कुछ बहुत अच्छा था लेकिन तुम ने ऐसे शब्द कहे कि सारा जायका बिगाड़ दिया। उसने कहा ऐसा कैसे हो सकता है उस दिन तुम लोग ही तो मेरा मजाक बना रहा थे कि जायका तो खाने में होता है। जुबान में नहीं तो फिर तुम लोगों का जायका मेरे बिगाडऩे से कैसे बिगड़ गया। तीनों दोस्त मुस्कुराने लगे। कहने लगे हमे माफ कर दो हमने तुम्हारी बात का मजाक बनाया था लेकिन तुम सही थे। हम सभी मान गए की जुबान ही कड़वी और मीठी होती है।


गुण देखिए, दोष खुद मिट जाएंगे
मनुष्य की प्रकृति ही ऐसी है कि उसे सामने वाले में गुण छोड़कर दोष ही देखता है और आज के युग में तो लोग इस आदत को लेकर एक दूसरे पर हावी हो रहे हैं। लेकिन अगर इंसान किसी के दोषों को अनदेखा कर केवल खूबियों पर ध्यान दे तो जिदंगी में हर समस्या का समाधान मिल जाएगा।

एक बार देवराज इन्द्र अपनी अपनी सभा में बैठकर देवताओं से चर्चा करते हुऐ कहा कि पृथ्वी पर श्री कृष्ण देवराय सबसे श्रेष्ठ और गुणवान राजा है कुछ देवताओं को राजा की तारीफ सुनना अच्छी नहीं लगी। तब एक देवता राजा कृष्णदेव की परीक्षा लेने के लिए पहुंचे । देवता मरे हुए कुत्ते का रूप धर धरती पर लेट गया उसके शरीर से गंदी बदबू आ रही थी और उसका मुंह फटा हुआ था। तभी उस रास्ते से राजा कृष्णदेव का निकलना हुआ जब राजा ने रास्ते पर पड़े कुत्ते को देखा तो कहने लगे इस कुत्ते के दांत कितने सुन्दर हैं मोती के जैसे चमक रहे है। तभी देवता अपने असली रूप में प्रकट हुआ और राजा से कहने लगा हे राजन तुम सचमुच श्रेष्ठ राजा हो तुम्हें रास्ते पर पड़े कुत्ते के दांत तो दिखाई दिए लेकिन उससे आती दुर्गन्ध पर तुमने गौर ही नहीं किया। संसार में तुम्हारे जैसा इंसान ही हमेशा खुश रह सकता है।
कथा बताती है कि अगर इंसान कमियों को छोड़कर केवल खूबियों पर ध्यान दे तो समस्याऐं कभी पैदा ही नहीं होंगी।

ऐसे हैं हनुमान के 5 चमत्कारिक मुख
श्री हनुमान रूद्र के अवतार माने जाते हैं। आशुतोष यानि भगवान शिव का अवतार होने से उनके समान ही श्री हनुमान थोड़ी ही भक्ति से जल्दी ही हर कलह, दु:ख व पीड़ा को दूर कर मनोवांछित फल देने वाले माने जाते हैं। श्री हनुमान चरित्र गुण, शील, शक्ति, बुद्धि कर्म, समर्पण, भक्ति, निष्ठा, कर्तव्य जैसे आदर्शों से भरा है। इन गुणों के कारण ही भक्तों के ह्रदय में उनके प्रति गहरी धार्मिक आस्था जुड़ी है, जो श्री हनुमान को सबसे अधिक लोकप्रिय देवता बनाती है।
श्री हनुमान के अनेक रूपों में साधना की जाती है। लोक परंपराओं में बाल हनुमान, भक्त हनुमान, वीर हनुमान, दास हनुमान, योगी हनुमान आदि प्रसिद्ध है। किंतु शास्त्रों में श्री हनुमान के एक चमत्कारिक रूप और चरित्र के बारे में लिखा गया है। वह है पंचमुखी हनुमान।
धर्मग्रंथों में अनेक देवी-देवता एक से अधिक मुख वाले बताए गए हैं। किंतु पांच मुख वाले हनुमान की भक्ति न केवल लौकिक मान्यताओं में बल्कि धार्मिक और तंत्र शास्त्रों में भी बहुत ही चमत्कारिक फलदायी मानी गई है। जानते हैं पंचमुखी हनुमान के स्वरुप और उनसे मिलने वाले शुभ फलों को -
पौराणिक कथा के अनुसार एक बार पांच मुंह वाले दैत्य ने तप कर ब्रह्मदेव से यह वर पा लिया कि उसे अपने जैसे ही रूप वाले से मृत्यु प्राप्त हो। उसने जगत को भयंकर पीड़ा पहुंचाना शुरु किया। तब देवताओं की विनती पर श्री हनुमान से पांच मुखों वाले रूप में अवतार लेकर उस दैत्य का अंत कर दिया।
श्री हनुमान के पांच मुख पांच दिशाओं में हैं। हर रूप एक मुख वाला, त्रिनेत्रधारी यानि तीन आंखों और दो भुजाओं वाला है। यह पांच मुख नरसिंह, गरुड, अश्व, वानर और वराह रूप है।
पंचमुखी हनुमान का पूर्व दिशा में वानर मुख है, जो बहुत तेजस्वी है। जिसकी उपासना से विरोधी या दुश्मनों को हार मिलती है।
पंचमुखी हनुमान का पश्चिमी मुख गरूड का है, जिसके दर्शन और भक्ति संकट और बाधाओं का नाश करती है।
पंचमुखी हनुमान का उत्तर दिशा का मुख वराह रूप होता है, जिसकी सेवा-साधना अपार धन, दौलत, ऐश्वर्य, यश, लंबी आयु, स्वास्थ्य देती है।
पंचमुखी हनुमान का दक्षिण दिशा का मुख भगवान नृसिंह का है। इस रूप की भक्ति से जिंदग़ी से हर चिंता, परेशानी और डर दूर हो जाता है। पंचमुखी हनुमान का पांचवा मुख आकाश की ओर दृष्टि वाला होता है। यह रूप अश्व यानि घोड़े के समान होता है। श्री हनुमान का यह करुणामय रूप होता है, जो हर मुसीबत में रक्षा करने वाला माना जाता है।
पंचमुख हनुमान की साधना से जाने-अनजाने हुए सभी बुरे कर्म और विचारों के दोषों से छुटकारा मिलता है। वही धार्मिक रूप से ब्रह्मा, विष्णु और महेश त्रिदेवों की कृपा भी प्राप्त होती है। इस तरह श्री हनुमान का यह अद्भुत रूप शारीरिक, मानसिक, वैचारिक और आध्यात्मिक आनंद और सुख देने वाला माना गया है।

अच्छा बनना है तो खुद सोचो
इंसान को अगर खुद को बेहतर बनाना है और अपनी किसी बुराई को छोडऩा है तो उसे इस बात की शुरूवात खुद से ही करनी होगी क्यों कि किसी और के भरोसे आप अपनी किसी बुराई को नहीं छोड़ सकते। बस जरूरत है तो केवल दृढ़ विश्वास की ।

एक बार भूदान आंदोलन के प्रणेता विनोबा भावे के पास एक शराबी युवक आया और हाथ जोड़कर कहने लगा कि गुरूजी मैं बहुत परेशान हूं । यह शराब मेरा पीछा ही नहीं छोड़ती। आप कुछ उपाए बताइए जिससे मुझे पीने की इस आदत से मुक्ति मिल सके।विनोबाजी ने कुद देर तक सोचा और फिर बोले- अच्छा बेटा तुम कल मेरे पास आना, किंतु मुझे बाहर से ही आवाज देकर बुलाना, मैं आ जाऊंगा युवक खुश होकर चला गया।
अगले दिन वह फिर आया और विनोबाजी के कहे अनुसार उसने बाहर से ही उन्हें आवाज लगाई। तभी भीतर से विनोबाजी बोले- बेटा। मैं बाहर नहीं आ सकता। युवक ने इसका कारण पूछा, तो विनोबाजी ने कहा- यह खंबा मुझे पकड़े हुए है, मैं बाहर कैसे आऊं। ऐसी अजीब सी बात सुनकर युवक ने भीतर झांका, तो विनोबाजी स्वयं ही खंबे को पकड़े हुए थे। वह बोला- गुरुजी। खंबे को तो आप खुद ही पकड़े हुए हैं। जब आप इसे छोडेंगे, तभी तो खंबे से अलग होंगे न।युवक की बात सुनकर विनोबाजी ने कहा- यही तो मैं तुम्हें समझाना चाहता था कि शराब छूट सकती है, किंतु तुम ही उसे छोडऩा नहीं चाहते। जब तुम शराब छोड़ दोगे तो शराब भी तुम्हें छोड़ देगी।उस दिन के बाद से उस युवक ने शराब को हाथ भी नहीं लगाया।

वास्तव में दृढ़ निश्चय या इच्छाशक्ति, संकल्प से बुरी आदत को भी छोड़ा जा सकता है। यदि व्यक्ति खुद अपनी बुरी आदतों से मुक्ति पाना चाहे और इसके लिए मन मजबूत कर संकल्प हो जाए, तो दुनिया की कोई ताकत उसे अच्छा बनने से नहीं रोक सकती।

दान कभी छोटा नहीं होता
मनुष्य के जीवन में दान का बड़ा महत्व होता है श्रद्धा से दिया गया दान हमेशा सार्थक होता है। इसलिए दान में दी जाने वाली चीज की कीमत ज्यादा हो या कम देने वाले की नीयत उसे अपने आप कीमती बना देती है।

चीन के चांग चू नामक प्रदेश में एक मठ था एक दिन वहां के मंहत ने अपने शिष्यों को अपने पास बुलाकर मठ के लिए भागवान बुद्ध की मूर्ति बनवाने की इच्छा प्रकट की। मंहत ने कहा कि तुम सभी अलग अलग दिशाओं में घर घर जाकर मूर्ति के लिए पैसा इकठठा करो। मंहत जी ने अपने शिष्यों को यह निर्देश भी दिए कि इस काम के लिए किसी से जोर जबरदस्ती मत करना जो भी अपनी खुशी से दे वह ले लेना मंहत की आज्ञा पाकर शिष्य अलग अलग दिशाओं में जाकर मठ की मूर्ति के लिए दान मांगने लगे।

एक दिन एक तिन नू नाम की बच्ची मिली उसके पास एक सिक्का था जब उसे भगवान बुद्ध की मूर्ति निर्माण के बारे में पता चला तब उसने श्रद्धावश वह एक सिक्का दान करना चाहा। लेकिन शिष्य ने उसे छोटा दान समझकर लेने से इंकार कर दिया। कुछ दिन बाद सारे शिष्य लौट आए मंहत जी ने मूर्ति निर्माण शुरू करवाया लेकिन वह काम किसी न किसी कारण से अधूरा रह जाता। मंहत जी को संदेह हुआ तब उन्होने अपने शिष्यों से पूछा तब एक शिष्य ने उस बालिका के बारे में बताया मंहत जी ने शिष्य को उस बच्ची के पास भेजा शिष्य ने तिन नू से माफी मांगते हुए उससे वह सिक्का ले आया और धातुओं के घोल में उस सिक्के को मिला दिया जिसके बाद आसानी से मूर्ति का निर्माण हो गया।

कथा बताती है कि दान बेशक कम मात्रा में हो लेकिन यदि वह श्रद्धा से दिया हो तो सार्थक जरूर होता है।

तो हमेशा रहेंगे खुश और शांत
जीवन में व्यक्ति सुख-सुविधा किसी न किसी तरह जुटा लेता है। इसके लिए कभी वह धन खर्च करता है, तो कभी किसी की मदद लेता है। लेकिन जिंदगी से जुड़ी कुछ बातें ऐसी है जो धन से खरीदी नहीं जा सकती और इसके अभाव में तमाम सुखों के बीच भी व्यक्ति परेशान रहता है। यह बात है मन की शांति।
आधुनिक जीवन में अशांत मन के ढेरों कारण मौजूद है। लेकिन खुद से शुरुआत करें तो वह है - निंदा या आलोचना यानि दूसरों की बुराई। जब हम दूसरों की बुराई करते हैं तो असल में खुद भी मानसिक रूप से अशांत हो जाते हैं।
दूसरों की बुराई करने या दोष दर्शन करने के दौरान कुछ समय के लिए मन को सुकून मिलता है। लेकिन वास्तव में यह भ्रम मात्र होता है। क्योंकि अंदर से मन अशांत और अनजाने भय से ग्रसित रहता है। यही अशांत मन आपको अपने मकसद से भटका सकता है और आखिर में आपकी नाकामयाबी, दुर्गति और दु:ख का कारण भी बन सकता है।
धर्म के सूत्रों में भी इसे एक दोष माना गया है, किंतु इससे निजात पाने के कुछ उपयोगी सूत्र भी बताए गए है। ईश्वर हो या मानव दोनों के नजदीक जाने के लिए प्रेम की राह ही श्रेष्ठ है। क्योंकि भगवान और इंसान सरल और सादगी को ही पसंद करते हैं। जिसमें बुराई करना या किसी ओर के दोष दर्शन करना बाधा बन जाता है।
व्यावहारिक उपाय यही है कि किसी की बुराई या दोषों पर ध्यान देने के बजाय खुद का मन अच्छे और सकारात्मक बातों में लगाएं। दूसरों की कामयाबी से प्रेरणा लेकर खुद भी मेहनत और लगन से अपने लक्ष्य को साधें।
इस तरह निंदा, दोष दर्शन या आलोचना छोड़ उसकी जगह प्रेम भाव को अहमियत देने पर दूसरों की बुराई करने से मन में पैदा हुई ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध व लालसा जैसी बुरी भावनाएं भी खत्म हो जाती है। जिससे अशांत और परेशान मन शांत और संतुलित हो जाता है। ऐसा शांत और साफ मन ही भगवान की भक्ति और मानवीय संबंधों की शक्ति का एहसास कर पाएगा।
सार यही है कि निंदा और बुराईयों से दूर खुशमिजाज व्यक्तित्व और स्वभाव ही जिंदगी में कामयाबी का सूत्र है।

भगवान विष्णु के अवतार हैं दत्तात्रेय
मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा को दत्तात्रेय जयंती मनाई जाती है। धर्मशास्त्रों के अनुसार इसी दिन भगवान दत्त का अवतार हुआ था। भगवान दत्तात्रेय को विष्णु का अवतार माना जाता है। इसकी कथा अनेक ग्रंथों में उल्लेखित हैं। उसके अनुसार-
एक बार माता लक्ष्मी, पार्वती व सरस्वती को अपने पातिव्रत्य पर अत्यंत गर्व हो गया। भगवान ने इनका अंहकार नष्ट करने के लिए लीला रची। उसके अनुसार एक दिन नारदजी घूमते-घूमते देवलोक पहुंचे और तीनों देवियों को बारी-बारी जाकर कहा कि अत्रिपत्नी अनुसूईया के सामने आपका सतीत्व कुछ भी नहीं। तीनों देवियों ने यह बात अपने स्वामियों को बताई और उनसे कहा कि वे अनुसूईया के पातिव्रत्य की परीक्षा लें। तब भगवान शंकर, विष्णु व ब्रह्मा साधुवेश बनाकर अत्रिमुनि के आश्रम आए। महर्षि अत्रि उस समय आश्रम में नहीं थे। तीनों ने देवी अनुसूईया से भिक्षा मांगी मगर यह भी कहा कि आपको निर्वस्त्र होकर हमें भिक्षा देनी होगी।
अनुसूईया पहले तो यह सुनकर चौंक गई लेकिन फिर साधुओं का अपमान न हो इस डर से उन्होंने अपने पति का स्मरण किया और बोला कि यदि मेरा पातिव्रत्य धर्म सत्य है तो ये तीनों साधु छ:-छ: मास के शिशु हो जाएं। और तुरंत तीनों देव शिशु होकर रोने लगे। तब अनुसूईया ने माता बनकर उन्हें गोद में लेकर स्तनपान कराया और पालने में झूलाने लगीं। जब तीनों देव अपने स्थान पर नहीं लौटे तो देवियां व्याकुल हो गईं। तब नारद ने वहां आकर सारी बात बताई। तीनों देवियां अनुसूईया के पास आईं और क्षमा मांगी। तब देवी अनुसूईया ने त्रिदेव को अपने पूर्वरूप में कर दिया।
प्रसन्न होकर त्रिदेव ने उन्हें वरदान दिया कि हम तीनों अपने अंश से तुम्हारे गर्भ से पुत्ररूप मं। जन्म लेंगे। तब ब्रह्मा के अंश से चंद्रमा, शंकर के अंश से दुर्वासा और विष्णु के अंश से दत्तात्रेय का जन्म हुआ।

ऐसी हैं इन्द्रलोक की 51 अप्सराएं
हिन्दू धर्मशास्त्रों में अप्सराओं के प्रसंग रोचकता और जिज्ञासा का विषय रहे हैं। अनेक पौराणिक प्रसंगों में अप्सराओं के बारे में लिखा गया है। रंभा, मेनका, उर्वशी सहित देवलोक की अप्सराओं ने अनेक सिद्ध पुरुषों को अपने रुप-रंग से मोहित कर तप भंग किया। यही कारण रहा कि भारतीय समाज में अप्सरा रुप और सौंदर्य का पर्याय बन गई है। जानते हैं आखिर कौन होती हैं-अप्सराएं।
हिन्दू धर्मशास्त्रों के अनुसार अप्सरा देवलोक में रहने वाली अनुपम अति सुंदर, अनेक कलाओं में दक्ष, तेजस्वी और अलौकिक दिव्य स्त्री है। इन अप्सराओं में रंभा को सर्वश्रेष्ठ अप्सरा माना जाता है। रंभा एक अद्भुत प्रतिभाशाली और कुशल नर्तकी भी है। वह संगीत और प्रेमकला में भी माहिर मानी जाती है। वह अपने जादुई गायन और नृत्य के द्वारा स्वर्ग में देवताओं का मनोरंजन करती है। पुराणों के अनुसार देवताओं के राजा इंद ने सिंहासन की रक्षा के लिए अनेक बार संत-तपस्वियों के कठोर तप को भंग करने के लिए रंभा को भेजा। रंभा ने भी अपने रुप और आकर्षण से उनको मोहित कर लक्ष्य में सफलता पाई। इन प्रसंगों में ऋषि विश्वामित्र का एक अप्सरा द्वारा तप भंग किया जाना भी प्रमुख है।

कुछ मान्यताओं में अप्सराओं की संख्या 1008 तक बताई गई है। लेकिन यहां जानते हैं प्रमुख 51 अप्सराओं के नाम -

अम्बिका, अलम्वुषा, अनावद्या, अनुचना, अरुणा, असिता
बुदबुदा, चंद्रज्योत्सना, देवी, घृताची, गुनमुख्या, गुनुवराहर्षा, इंद्रलक्ष्मी,
काम्या, कर्णिका, केशिनी, क्षेमा
लता, लक्ष्मना, मनोरमा, मारिची, मेनका, मिश्रास्थला, मृगाक्षी
नाभिदर्शना, पूर्वचिट्टी, पुष्पदेहा
रक्षिता, रंभा, रितुशला,
साहजन्या, समीची, सौरभेदी, शारद्वती, शुचिकासोमी, सुवाहु, सुगंधा, सुप्रिया, सुरजा, सुरसा, सुराता
तिलोत्तमा,
उमलोचा, उर्वशीवपु,
वरगा, विद्युतपर्ना, विषवची

ये नौ हैं अनूठे भक्त
भक्ति प्रेम का ही रूप है। इसका हर रूप समर्पण और सेवा के भावों से भरा है। शास्त्रों में भक्ति के ही नौ रूपों को बताया गया है। यह नौ प्रकार की भक्ति नवधा भक्ति कहलाती है। यह असल में आत्म भाव से ईश्वर से जुडऩे के नौ उपाय है। खासतौर पर श्रीमद्भागवत, रामचरितमानस और नारद भक्तिसूत्र में भाव और प्रेम से भरे भक्ति के इन पवित्र नौ सूत्रों के बारे में लिखा गया है।
ईश्वर की भक्ति के यह नौ रूप व्यावहारिक जिंदगी में सुख, शांति पाने के लिए बहुत ही कारगर सूत्र है। जानते हैं नवधा भक्ति के नौ रूपों के साथ उन नौ भक्तों को जिन्होंने नवधा भक्ति से ईश्वर की समीपता और प्रेम को पाया -
श्रवण - भगवान के गुण, लीलाओं और नाम को सुनना। राजा परीक्षित द्वारा श्रीमद्भागवत का श्रवण भक्ति के इस रूप का श्रेष्ठ उदाहरण है।
कीर्तन - भगवान को संगीत, गायन द्वारा याद करना। ऐसी भक्ति का श्रेष्ठ उदाहरण शुकदेव महाराज को माना जाता है।
स्मरण - भगवान के नाम का मन ही मन स्मरण द्वारा विचारों को पवित्र करना। भक्ति के इस मार्ग पर चलकर ही भक्त प्रहलाद ने ईश्वरीय प्रेम और कृपा को पाया। चरण सेवा - भगवान के चरण यानि पैरों की पूजा। यह भक्ति का सरल उपाय है। शास्त्र में लक्ष्मी द्वारा भगवान विष्णु की चरण सेवा इसी भक्ति का अद्भुत रुप है।
अर्चन - साधारण मानव के लिए भगवान के दिव्य रूप को समझना या दर्शन कठिन है। इसलिए सांसारिक भक्तों के लिए ईश्वर की प्रतिमा की भक्ति यानि अर्चन श्रेष्ठ माना गया है। शास्त्रों में राजा पृथु ने ऐसी भक्ति से ईश्वर की समीपता पाई। वहीं माना जाता है कि चैतन्य महाप्रभु ने भी ऐसी भक्ति से भगगवान प्रतिमा में ही समा गए।
वंदन - यह भक्ति बिना अहंकार के निष्ठा और श्रद्धा से भगवान के लिए प्रेम का सुंदर रूप है। यह भाव ही वंदना कहलाता है। ऐसी भक्ति से अक्रूर महाराज ने भगवान का प्रेम पाया।
दास्य - भगवान को ही अपना स्वामी या मालिक मान सब कुछ समर्पित कर देना। हर काम को भगवान का काम मानकर करना। जिससे मनोबल बना रहता है और कार्य में सफलता भी मिलती है। इस भक्ति का सबसे श्रेष्ठ उदाहरण श्री हनुमान को माना जाता है।
सख्य - ईश्वर के लिए सखा यानि मित्रता या दोस्ती का भाव रखना। जिस तरह दोस्त पर भरोसा और विश्वास कर मन की हर बात बांटी जाती है। उसी तरह भगवान पर विश्वास कर भक्ति करना। शास्त्रों में अर्जुन और श्रीकृष्ण इसी भक्ति का उदाहरण।
आत्मनिवेदन - आत्म निवेदन का अर्थ होता है किसी के सामने पूरी तरह समर्पित हो जाना या शरणागत हो जाना। दूसरे अर्थ में बिना किसी इच्छा, कामना, अहं, दंभ से दूर अपना सब कुछ ईश्वर को समर्पित कर देना। ऐसी भक्ति का उदाहरण शास्त्रों में राजा बलि हैं।

कहां होता है कामदेव के पांच बाणों का असर?
शास्त्रों में बताए मानव जीवन के चार पुरूषार्थो में से धर्म, अर्थ और मोक्ष के अलावा काम भी अहम मान गया है। काम का देवता कामदेव को बताया गया है। धार्मिक दृष्टि से कामदेव जगत के सृजन चक्र को बनाए रखने में अहम भूमिका निभाते हैं। जिसके लिए माना जाता है कि वह प्रकृति और प्राणियों में भाव रूप में मौजूद रहते हैं।
पुराण कथा है कि देवताओं के कहने पर जगत कल्याण के लिए कामदेव ने भगवान शिव का तप भंग किया। इसी प्रसंग का वर्णन रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास द्वारा भी किया गया। जिसमें कामदेव के स्वरूप और काम भाव से जगत को वशीभूत करने वाले पांच बाणों के बारे में लिखा गया है।
रामचरित मानस के बालकाण्ड में कामदेव के रूप का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि कामदेव फूल का धनुष व पांच बाण रखने वाले और मछली के चिन्ह वाला ध्वजाधारी हैं। उनके काम भाव पैदा करने वाले पांच बाणों को बिषम या विषम कहा गया है। मानस की चौपाई में इन पांच बाणों से शिव पर छोड़ उनके तप भंग करने के बारे में कुछ इस तरह लिखा गया है -
छाड़े विषम बिसिख उर लागे। छूटि समाधि संभु तब जागे।
आगे की घटना में तप भंग होने के बाद क्रोधित शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया। जिसके बाद कामदेव की पत्नी रति और देवताओं के निवेदन पर शिव ने ही शिव को बिना अंग भाव रूप में जगत में रहने का वरदान दिया। तब कामदेव अनंग कहलाए।
असल में कामदेव के काम रूपी पांच बाण और उसका असर प्रतीकात्मक है। जिसमें व्यावहारिक जीवन के लिए कुछ संदेश छुपे हैं। जिसका संबंध सीधे इंद्रिय संयम से है। जब पांच ज्ञानेन्द्रियां आंख, कान, त्वचा के साथ ही जीभ और नाक भी दृश्य, श्रवण, स्पर्श, स्वाद और सुंगध द्वारा वासना भरे भावों के बुरे प्रभाव में आती हैं तो उसका सीधा असर पांच कर्मेन्द्रियों पर होता है, जिनमें हाथ, पैर, मुंह, लिंग और गुदा शामिल होते हैं। ऐसे समय अगर शिव की भांति संयम न रख पाएं तो कामदेव के यह बाण सृजन की बजाय संहार का कारण बन सकते हैं।
संकेत है कि पांच बाण रूपी काम भाव वासनापूर्ति का नहीं बल्कि रचनात्मकता का विषय है। इसलिए व्यावहारिक जीवन में भी काम को भोग नहीं बल्कि योग बनाकर शिव की भांति काबू पाएं। धर्म दर्शन में भी यही बात इंद्रिय निग्रह या इंद्रिय संयम का मूल भाव है।

सक्सेस के लिए चाहिए पोजिटिव थिंकिग।
अगर व्यक्ति को सही मायने में सक्सेस पाना है तो उसे कोशिश के साथ साथ पॉजिटिव एटिट्यूड रखना भी जरूरी होता है। क्यों कि लक्ष्य के प्रति सकारात्मक नजरिया ही हमें अपनी मंजिल तक पहुंचाता है।

एक बार गोलियथ नाम का राक्षस था उसने हर आदमी के दिल में दहशत बिठा रखी थी। सब उससे डरते और कहते कि उसे कोई मार ही नहीं सकता। एक दिन 17 साल का एक भेड़ चराने वाला लड़का अपने भाइयों से मिलने के लिए आया उसने पूछा कि तुम इस राक्षस से लड़ते क्यों नहीं। उसके भइयों ने कहा कि वह इतना बड़ा राक्षस है कि उसे मारा नहीं जा सकता। लेकिन उस लड़के ने कहा कि बात यह नहीं कि बड़ा होने कि वजह से उसे मारा नहीं जा सकता बल्कि सच तो यह है कि वह तो इतना बड़ा है कि उस पर लगाया गया निशाना चूक ही नही सकता। उसके बाद उस लड़के ने गुलेल से निशाना लगाकर उस राक्षस को मार ड़ाला।

कथा बताती है कि अगर नजरिया सही हो तो हम बड़ी से बड़ी कठिनाई को पार कर अपनी मंजिल को पा सकते हैं।

जिदंगी को जीना है तो खुश रहो
जिदंगी को जीना है तो खुश रहोजिन्दगी में परेशानियां सभी के साथ होती हैं। समस्याओं से हारकर आप जीवन को जीना नहीं छोड़ सकते हैं। भगवान जिन्दगी का हर दिन हमें एक अनमोल सिक्के के रूप में दिया है। अगर आप खर्च करें तो ठीक, नहीं तो वह जिस तरह से देता है उसी तरह वापस भी ले लेता है। जिन्दगी के जो पल हैं उन्हें खुशी से बिताएं क्योंकि जिन्दगी का समय सीमित है और मौत एक सच्चाई ।

एक शहर में चार साधु आए। एक साधु शहर के चौराहे पर जाकर बैठ गया दूसरा घंटाघर में, एक कचहरी में और चौथा साधु शमशान में जाकर बैठ गया। चौराहे परबैठे साधु से लोगों ने पूछा, बाबाजी आप यहां आकर क्यों बैठे हो? क्या कोई अच्छी जगह नहीं मिली? साधु ने कहां यहां चारों दिशा से लोग आते है और चारों दिशाओं मे जाते हैं। किसी आदमी को रोको तो वह कहता है कि रुकने का समय नहीं हैं, जरुरी काम पर जाना है। अब यह पता नहीं लगता कि जरुरी काम किस दिशा में है इसलिए यह जगह बढिय़ा दिखती है।
घंटाघर पर बैठे साधु से लोगों ने पूछा बाबा। यहां क्यों बैठे हो? साधु ने कहा घड़ी की सुइयां दिनभर घूमती है परंतु बारह बजते ही हाथ जोड़ देती है कि बस हमारे पास इतना ही समय है, अधिक कहां से लाएं? घंटा बजता है तो वह बताता है कि तुम्हारी उम्र में से एक घंटा और कम हो गया। जीवन का समय सीमित है। हमें यह जगह बढिय़ा दिखती है।
कचहरी के बाहर बैठे साधु से लोगों ने पूछा बाबा आप यहां क्यों बैठे हो? साधु ने कहा यहां दिन भर अपराधी आते हैं। मनुष्य पाप तो अपनी मर्जी से करता है परंतु दंड दूसरे की मर्जी से भोगना पड़ता है। अगर वह पाप करे ही नहीं तो दंड क्यों भोगना पड़े? इसलिए हमें यह जगह बढिय़ा दिखती है।
शमशान में बैठे साधु से लोगों ने पूछा बाबाजी आप यहां क्यों बैठे हो? साधु ने कहां शहर में कोई भी आदमी हमेशा नहीं रहता। सबको एक दिन यहां आकर उसकी यात्रा समाप्त हो जाती हैं। कोई भी आदमी यहां आने से बच नहीं सकता। हमें जीवन रहते-रहते ही इसे जी लेना चाहिये। जिससे फिर संसार में आकर दुख ना झेलना पड़े इसलिए यह जगह मुझे बैठने के लिए सबसे बढिया दिखती हैं।

कथा बताती है कि जिदंगी को हर हाल में खुशी से जिऐं क्यों कि मौत तो एक दिन सभी को आनी है उसकी चिंता में हम आज की खुशी न गवाएं।

हो निर्मल मन तो मिलेंगे भगवान
एक विधवा अपने इकलौते बेटे के साथ गांव में रहती थी। बड़े कष्टों से अपने व अपने बच्चे का पालन करती थी। उसने अपने बालक को पढऩे के लिए दूसरे गांव के स्कूल में भेजा था। दोनों गांवों के बीच में एक जंगल पड़ता था। बच्चे को उस जंगल से गुजरने में बड़ा डऱ लगता था। उसने अपनी मां से कहां- मां मैं स्कूल नहीं जाऊंगा। मुझे जंगल से गुजरने में डर लगता है। मां उसकी इस बात से बड़ी परेशान थी। वह खुद भी उसे छोडऩे नहीं जा सकती थी।एक दिन उसने एक उपाय किया और बेटे से कहा बेटा जब भी तुझे डर लगे तो तेरा बड़ा भाई जंगल में रहता है। उसे आवाज लगा लेना। बच्चे ने पूछा मां उनका नाम क्या है? मां ने कहां 'गोपाल। यह सुनकर बेटा स्कूल की ओर चल दिया।

रास्ते में फिर वहीं जंगल आया। लड़का डर के मारे चिल्लाने लगा गोपाल भइया बचाओ। उसी समय वहां एक ग्वाला आया और उसने बच्चे को हाथ पकड़कर स्कूल तक छोड़ दिया, तथा ले भी आया। अब रोजाना यही सिलसिला चलता रहा। मां ने एक दिन पूछा बेटा अब डर तो नहीं लगता। बेटे ने कहा नहीं मां गोपाल भइया बचा लेते हैं। मां ने समझा बच्चा बहल गया है। और अपने काम में लग गई।

एक बार स्कूल में एक कार्यक्रम हुआ जिसमें सभी बच्चों को एक रुपया और एक लोटा दूध ले जाना था। बच्चे ने अपनी मां से कहा तो मां बोली बेटा हम गरीब है। एक रुपया, एक लोटा दूध हम नहीं दे सकते। दूसरे दिन उसने अपने गोपाल भइया को बुलाया और कहा आज स्कूल में एक रुपया और दूध ले जाना है। गोपाल ने कहा रुपया तो मेरे पास नहीं है। दूध ले जाओ यह कहकर गोपाल ने एक लौटा दूध बालक को दे दिया। बालक खुशी-खुशी स्कूल आया। जब उसके लोटे का दूध बड़े बरतन में डाला गया तो वह पूरा भर गया। पर लोटा खाली नहीं हुआ। सब हैरान हो गए। ऐसे ही एक के बाद एक कई बरतन भर गए पर लोटे का दूध खत्म नहीं हुआ। स्कूल के प्रिंसीपल ने बच्चे से पूछा यह कहां से लाए हो? वह बोला गोपाल भइया ने दिया है। किसी को विश्वास नहीं हुआ। सभी उसकी मां के पास गए मां ने भी कहां मैं किसी गोपाल को नहीं जानती हूं। कोई भी बच्चे की बात कोई सुनने को राजी ना था। सभी उस पर नाराज हो रहे थे तथा उस दूध को अन्य कोई पदार्थ जान रहे थे। सभी बालक को शक की नजर से देख रहे थे। तब सभी जंगल में गए और तब बालक ने करुण पुकार की हे गोपाल भइया... सुनो आप आओ नहीं तो यह सब मुझे और मेरी मां को मार देंगे। बालक की करुण पुकार सुनकर सभी को एक आवाज सुनाई दी- बेटे मैं तो इन सभी के सामने ही हूं। किंतु इनको दिखाई नहीं देता, क्योंकि इनकी आंखों पर मान, मद, मोह और संदेह का पर्दा पड़ा हुआ है। केवल तु मुझे इसलिए देख पाता है कि तेरा मन पवित्र है। अब इस लोटे का दूध कभी खाली नहीं होगा। तुम इसी से अपनी आजीविका चलाओ सभी हैरान रह गए कि यह साक्षात परमेश्वर की कृपा है। सभी एक साथ बोल उठे गोपाल भइया की जय।
कथा का सार है कि भगवान को पाना है तो खुद उनके जैसे निर्मल बनो।

समर्पण से मिलता है भक्ति का फल
एक गांव में एक पंडित और एक लकड़हारा रहता था। गांव से कुछ दूर पर शिव मंदिर था। दोनों ही शिवजी के परम भक्त थे और अपने अपने तरीके से शिवजी की पूजा करते थे।
हर सुबह पंडित मंदिर जाते शिवजी को जल चढ़ाते और देर तक भजन कीर्तन करते रहते थे। उसके बाद लकड़हारा मंदिर जाता और शिवजी के हाथ जोड़कर वापस आ जाता।यह क्रम रोजाना चलता।
मंदिर और गांव के बीच में एक नदी भी पड़ती थी। एक दिन जब पंडित जी पूजा करने के लिए मंदिर जा रहे थे तो उन्होंने देखा कि नदी में बाढ़ आ गई है पंडित ने बह जाने के डर से नदी के एक तरफ से हाथ जोड़कर वापस चले आए। पीछे पीछे लकड़हारा भी पहुंच गया, जब उसने देखा कि नदी में बाढ़ आ गई है तो थोड़ी देर सोचने लगा और फिर नदी में छलांग लगा दी। मंदिर में पहुंच कर रोजाना की तरह शिवजी के हाथ जोड़े और लौटने लगा जैसे ही लकड़हारा पलटा तभी शिवजी प्रकट हुए और लकड़हारे से कहा कि भक्त में तुम्हारी भक्ति से बहुत प्रसन्न हूं तुम वरदान मांगो। तभी पंडित ने आवाज लगाकर कहा कि प्रभु ये क्या कर रहे हैं। आपके वरदान पर तो मेरा हक है क्योंकि आपकी पूजा तो में ही करता था। ये तो रोज आपके केवल हाथ जोड़ता था। तब शिवजी बोले आज जब नदी में बाढ़ आई तो तुमने अपने प्राणों के मोह के कारण मेरी पूजा नहीं की लेकिन इस लकड़हारे ने अपने प्राणों की परवाह न करते हुए अपने नियम का पालन किया और इसके समर्पण भाव से ही प्रसन्न होकर मैं इसे वरदान देना चाहता हूं।

कहानी का भाव यही है कि अगर आप घंटों बैठकर भी ध्यान मग्र रहें लेकिन आपका मन कहीं और हो तो आपको प्रभु कृपा नहीं मिल सकती। आपकी भक्ति में दिखावा नहीं बल्कि समर्पण भाव होना चाहिए तभी ईश्वर आप पर प्रसन्न होते हैं।


मुसीबत में होती है सच्चे प्यार की पहचान
आज बहुत सारे लोग सच्चे प्यार का दम भरते हैं लेकिन अगर सच्चाई पर गौर किया जाये तो हम देखते हैं कि वे ही लोग जरा सी मुसीबत आते ही अपने फर्ज से मुंह मोड़ लेते हैं और उनके सच्चे प्यार के दावे खोखले रह जाते हैं।
एक व्यक्ति ने अपने परिवार के खिलाफ जाकर एक सुन्दर लड़की से शादी की और रात दिन पत्नी को खुश करने में जुट गया। एक बार वह पत्नी के साथ नौका विहार के लिए गया तभी अचानक तूफान आया और नाव डूबने लगी पत्नी को परेशान देखकर वह कहने लगा कि तुम घबराओ नहीं में तुम्हें डूबने नहीं दूंगा और पत्नी को कंधे पर बिठाकर तैरने लगा।
बहुत देर तक कोई किनारा नहीं आया और वह युवक भी थक चुका था तभी उसके मन में स्वार्थ जागने लगा। वह अपनी पत्नी से बोला कि जब तक संभव हुआ मैंने तुम्हें बचाया लेकिन अब मैं थक चुका हूं और अगर मैं इसी तरह तुम्हें लेकर तैरता रहा तो मैं भी डूब जाऊंगा अब मैं मेरी जान की परवाह करूंगा क्योंकि अगर मैं जिन्दा रहा तो दूसरा विवाह कर सकता हूं।और इतना कह कर वह मझधार में अपनी पत्नी को छोड़कर चला गया।
कथा का सार है कि सच्चे प्यार की पहचान कठिन समय में ही होती है और जो मुसीबत में साथ देता है वही सच्चा साथी होता है।

सीख उसे दीजिए जो लायक हो...
संतो ने कहा है कि बिन मागें कभी किसी को सलाह नही देनी चाहिए। क्यों कि कभी कभी दी हुई सलाह ही हमारे जी का जंजाल बन जाती है।
एक जंगल में खार के किनारे बबूल का पेड़ था इसी बबूल की एक पतली डाल खार में लटकी हुई थी जिस पर बया का घोंसला था। एक दिन आसमान में काले बादल छाये हुए थे और हवा भी अपने पूरे सुरूर पर थी। अचानक जोरों से बारिश होने लगी इसी बीच एक बंदर पास ही खड़े सहिजन के पेड़ पर आकर बैठ गया उसने पेड़ के पत्तों में छिपकर बचने की बहुत कोशिश की लेकिन बच नहीं सका वह ठंड से कांपने लगा तभी बया ने बंदर से कहा कि हम तो छोटे जीव हैं फिर भी घोंसला बनाकर रहते है तुम तो मनुष्य के पूर्वज हो फिर भी इधर उधर भटकते फिरते हो तुम्हें भी अपना कोई ठिकाना बनाना चाहिए।
बंदर को बया की इस बात पर जोर से गुस्सा आया और उसने आव देखा न ताव उछाल मारकर बबूल के पेड़ पर आ गया और उस डाली को जोर जोर से हिलाने लगा जिस पर बया का घोंसला बना था। बंदर ने डाली को हिला हिला कर तोड़ डाला और खार में फेंक दिया।
बया अफसोस करके रह गया। इस सारे नजारे को दूर टीले पर बैठा एक संत देख रहे थे उन्हें बया पर तरस आने लगा और अनायास ही उनके मुंह से निकल गया सीख ताको दीजिए जाको सीख सुहाए सीख न दीजे बांदरे बया का घर भी जाए।

ब्रह्मचर्य : काबू में रहे तन और मन
साधारण रूप से ब्रह्मचर्य का मतलब मात्र शरीर से जोड़कर ही निकाला जाता है। जबकि शास्त्रों में ब्रह्मचर्य को हर व्यक्ति के मन, वचन और कर्म की शुद्धि के लिए अहम् माना गया है। चाहे वह व्यक्ति विवाहित हो या अविवाहित। पुरुष हो या स्त्री।
ब्रह्मचर्य का मतलब मात्र शरीर के स्तर पर काम, वासना या वीर्य या रज रक्षा से ही नहीं है। बल्कि ब्रह्मचर्य का गहरा अर्थ यह है कि मन और चित्त को काबू में रखना। चूंकि मन का संबंध इन्द्रियों से होता है। इसलिए सभी इन्द्रियों, जिनमें आंख, कान, जीभ, त्वचा, नाक और कर्मेन्द्रियों हाथ, पैर, मुख, गुदा, लिंग के दुरुपयोग न करना ही ब्रह्मचर्य का मूल है। इस तरह काम ही नहीं कामनाओं यानि इच्छाओं पर काबू करना वास्तविक ब्रह्मचर्य है।
इस तरह मन पर संयम से इन्द्रियों को काबू करना और शरीर स्तर पर काम-वासनाओं को काबू कर वीर्य और रज रक्षा से शरीर ओजस्वी, तेजस्वी, साहस, पराक्रम के गुण और भाव से भरा होता है। तन के समर्थ और बली होने पर मन और चित्त शुद्ध और स्वस्थ होने से परिश्रम, मेहनत, ईश्वर भक्ति, देव साधना, भक्ति में लगता है।
इस तरह ब्रह्मचर्य शारीरिक, आध्यात्मिक, वैचारिक ताकत देकर व्यवाहारिक रुप से कामयाब बनाता है।

अगर शिखर पर बने रहना है तो ..
कामयाबी की राह ही कठिन नहीं होती, बल्कि उससे भी मुश्किल होती है कामयाबी को थामें रखना। ऐसा हुनर बिरलों में ही पाया जाता है। हर कामयाब व्यक्ति की जिंदगी में भी ऐसा समय आता है, जब वह कामयाबी की ऊंचाई से नीचे की ओर आने लगता है।
यह समय बहुत ज्यादा कठिन तब बन जाता है, जब कामयाबी की दौड़ में शामिल उसके प्रतिद्वंदी या बाधा बने विरोधी इस अवसर का फायदा उठाने के लिए उसकी आलोचना से या कार्य में दोषों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर हतोत्साहित करने का कोई मौका नहीं छोड़ते। खासतौर पर महत्वाकांक्षा और जोश से भरी युवा पीढ़ी ऐसे मौके पर कभी-कभी संयम खोकर अपना ही नुकसान कर लेती है।
अगर आप भी सफलता के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रहें या शिखर पर पहुंचकर विरोधियों के गलत हथकंड़ों का सामना कर रहें है, तो ऐसे वक्त खुद को कैसे संभाले? इसके लिए जानते हैं धर्म के नजरिए से कुछ व्यावहारिक सूत्र -
ऐसे संघर्ष के समय संयम और मौन दो ऐसे सूत्र है, जो जिंदग़ी में हर मुकाबले में फतह देगें। धर्म के नजरिए सेमौन या वाक् शक्ति बहुत अहम है। खासतौर पर युवाओं को वाणी के दुरुपयोग से बचना चाहिए।
विपरीत हालात में कम बोलना और अधिक सुनने पर ध्यान दें। जहां एक शब्द से काम बने वहां दस शब्दों का उपयोग न करें। क्योंकि इससे आप व्यर्थ की बातों और विवादों में उलझ सकते हैं। जिससे आपकी शक्ति, ऊर्जा और समय बेकार हो जाता है और आप लक्ष्य पर केन्द्रिस नहीं रह पाते। साथ ही आलोचनाओं में से नकारात्मक बातों को दिमाग में रख अशांत होने के बजाय खामोश रहकर उन बातों में से ही अपनी गलतियों और दोषों को पहचान सुधार करें।
मौन ध्यान और योग की भांति ही शांति और सुकून देता है। इससे आप अपनी विचार शक्ति का पूरा उपयोग काम को अच्छा करने और बेहतर नतीजों के लिए कर सकते हैं।
दूसरा सूत्र है- संयम। मौन की तरह ही संयम भी व्यक्ति को संतुलित और एकाग्रता बनाए रखने में अहम योगदान देता है। संयमहीन व्यक्ति न स्वयं तरक्की कर पाता है, न ही समाज के लिए उपयोगी होता है। शास्त्रों में संयम के श्रेष्ठ प्रतीक भीष्म पितामह माने जाते हैं। उनकी ब्रह्मयर्च व्रत की प्रतिज्ञा और संयमित जीवन ने ही उनको यश, कीर्ति देकर शिखर पुरूष बना दिया।सरल शब्दों में बातें कम, काम ज्यादा का सूत्र ही आपको किसी भी विपरीत हालात से निकालकर कामयाबी के शिखर पर ले जाएगा।

इन मंत्रों में है देव शक्तियों के गहरे राज
सनातन धर्म के सभी वैदिक मंत्र प्रकृति रुप ईश्वर की शक्ति की ही स्तुति है। मंत्र भक्त और भगवान को जोडऩे वाली शक्ति भी माना गया है। इसे प्राणी और प्रकृति जगत के लिए बहुत शुभ ही प्रभाव देने वाला माना गया है। शास्त्रों में अलग-अलग देवी-देवताओं की प्रसन्नता से कार्य और लक्ष्य सिद्ध करने के लिए बहुत से मंत्र बताए गए हैं।
इन मंत्रों में भी बीज मंत्रों को सबसे अधिक महत्व बताया गया है। क्योंकि इन बीज मंत्रों को देव विशेष का प्रतीक माना गया है। हर बीज मंत्र का अक्षर किसी देवता विशेष से संबंधित होता है और उस देवीय शक्ति का स्त्रोत भी होता है। जिसके बोलने से पैदा हुई ध्वनि सकारात्मक ऊर्जा और प्रभाव पैदा करती है। इसे योग की भाषा में नादयोग भी कहा जाता है। जिसके असर से मानव के अनेक रोग, कष्ट और दु:खों का अंत हो जाता है।
हर बीज मंत्र में देवताओं का प्रतीक रूप में आवाहन किया जाता है। इसी कड़ी में गणेश के लिए गं, हनुमान का हं और दुर्गा का दं और राम के लिए रां बीज मंत्र होता है। इन बीज मंत्र के अक्षर और उसका नाद ही अहम शक्ति होती है।
जानते हैं कुछ विशेष बीज अक्षरों में छुपी देव शक्तियों और उनके प्रभाव को -
श्रीं - इस लक्ष्मी बीज का मतलब है - श् - महालक्ष्मी, र-दौलत, ई - महामाया, नाद- जगतमाता और बिन्दु- दुखहर्ता । सार है ऐश्वर्य की देवी माता लक्ष्मी मेरे कष्टों को दूर करे।
ऐं- यह देवी सरस्वती बीज है, जिसका अर्थ है - ऐ - माता सरस्वती, नाद- जगतमाता व बिंदु- विघ्रनाशक। इस तरह पूरे बीज का मतलब है -जगतजननी मां सरस्वती मुझ पर प्रसन्न हो।
क्लीं- यह श्री कृष्ण का बीज है - जिसमें क - भगवान श्रीकृष्ण, ल- अलौकिक तेज, ई - योगेश्वर और बिंदु-पीड़ानाशक है। पूरे कृष्णबीज का मतलब है- भगवान श्रीकृष्ण मेरी पीड़ाओं का नाश करे।
ह्रीं- इस बीज में ह- शिव, र - प्रकृति, नाद - जगतमाता और बिंदु - विघ्रनाशक है। इस तरह इस बीज का मतलब है- शिव के साथ संयुक्त शक्ति हमारे कष्टों का अंत करे।
क्रीं- यह काली का बीज है- इस मंत्र में क - काली, र-प्रकृति, ई- माया, नाद- जगतमाता व बिंदु- पीडऩाशक है। सार है जगतजननी महाकाली कष्ट का अंत करे।
हौं -यह शिव बीज - इस में ह - शंकर, औ - सदाशिव , बिंदु - पीड़ानाशक है। सार है सदाशिव मेरे संताप का हरण करे।
गं- यह गणेश बीज है - जिसमें में ग्- गणपति, अ - कष्टनिवारण, बिंदु- पीड़ाहर्ता है। पूरे बीज का मतलब है। विघ्रहर्ता भगवान गणेश हमारे दु:खों का अंत करे।
दूं- यह दुर्गा का बीज मंत्र है। इसमें द्-दुर्गा, उ- रक्षा और बिंदु- दुखनाशक है। सार है मां दुर्गा रक्षा कर पीड़ाओं का अंत करे।

परिवर्तन प्रकृति का नियम है
दिन के बाद रात और रात के बाद दिन को आना ही होता है आना-जाना जगत का शाश्वत नियम है जो इस नियम को जान लेता है वह जीवन के बन्धनों से मुक्त हो जाता है।
एक नगर में एक सेठ रहता था वह उस नगर का सबसे धनी व्यक्ति था। एक दिन उसे व्यापार में बहुत बड़ा घाटा हुआ और सारी सम्पत्ति चली गई। निराश होकर उसने आत्महत्या करने का विचार किया। वर्षा ऋतु चल रही थी एक अंधेरी रात में वह घर से निकला और नदी पर जा पहुंचा। वह नदी में कूदने के लिए जैसे ही चटटान पर चढ़ा तभी दो मजबूत हाथों ने उसे पकड़ लिया।
बिजली की चमक में उसने देखा कि जिसने उसे पकड़ा है वह कोई साधू है। साधू ने उससे आत्महत्या का कारण पूछा तब सेठ ने साधू को अपनी निराशा का कारण बताया। सुनकर साधू हंसने लगे और सेठ से कहने लगे कि तुम यह स्वीकार करते हो कि पहले तुम सुखी थे। वह बोला हां महाराज पहले मेरा भाग्य चमक रहा था क्यों कि तब मेरे पास लक्ष्मी थी लेकिन अब मेरे जीवन में सिर्फ अंधकार है। साधू फिर हंसने लगा और बोला जैसे रात्रि के बाद दिन और दिन के बाद रात्रि का आना निश्चित है। वैसे ही जब अच्छे दिन नहीं रहे तो बुरे दिन भी नहीं रहेगें।
परिर्वतन प्रकृति का नियम है जो इस सच को जान लेता है वह सुख में सुखी नहीं होता और दु:ख में दु:खी नहीं होता उसका जीवन उस चटटान की तरह हो जाता है जो वर्षा और धूप दोनों में समान होती है। इस लिए तुम भी इस नियम को समझ कर इस का पालन करो और अपना कर्म करते रहो। सेठ को साधू की बात समझ में आ गई और वह अपने घर वापस चला आया।

शिव का कुदरती रूप है बाणलिंग
कुदरत को शिव का ही रूप माना गया है। यही कारण है कि शास्त्रों में भी प्राकृतिक शिवलिंग पूजा का बहुत महत्व है। वहीं स्वयंभू शिवलिंग पूजा में गहरी धार्मिक आस्था जुड़ी है। ऐसे ही प्राकृतिक और स्वयंभू शिवलिंगों में प्रसिद्ध है - बाणलिंग। बाणलिंग शिव का ही एक रूप माना जाता है। यह प्राकृतिक रूप से ही बनता है। असल में पवित्र नर्मदा नदी के किनारे पाया जाने वाला एक विशेष गुणों वाला पाषाण ही बाणलिंग कहलाता है।बाणलिंग गंगा नदी में भी पाए जाते हैं, किंतु नर्मदा नदी में पाए जाने वाले बाणलिंगों के पीछे पौराणिक महत्व है।
मान्यता है कि महादानी बलि के पुत्र बाणासुर ने इन लिंगों को पूजा के लिए बनाया था। उसने तप कर शिव को प्रसन्न किया और वरदान पाया कि शिव हमेशा लिंग रूप में इस पर्वत पर रहें। उसने ही नर्मदा नदी के तट पर स्थित पहाड़ों पर इन शिवलिंगों को विसर्जित किया था। बाद में यह बाणलिंग पहाड़ों से गिरकर नर्मदा नदी में बह गए। तब से ही इस नदी के किनारे यह बाणलिंग पाए जाते हैं।माना जाता है कि बाणलिंग की पूजा से हजारों शिवलिंग पूजा का पुण्य मिलता है। किंतु शास्त्रों में बताई गई कसौटी पर खरे उतरने वाले बाणलिंग ही शुभ फल देने वाले होते हैं। इस परीक्षा में वजन, रंग और आकृति के आधार पर गृहस्थ और संन्यासियों के लिए अलग-अलग बाणलिंग होते हैं।
बाणलिंग संगमरमर की भांति, छेद रहित होते हैं। इसलिए वजन में भारी भी होते हैं।बाणलिंग मिलने के बाद उसका संस्कार किया जाता है। उसे यथाशक्ति वेदी पर रखा जाता है। फिर गणेश पूजा, स्नान, ध्यान, सोलह पूजा सामग्रियों से पूजा की जाती है। शिव मंत्रों के जप और स्तुति के पाठ किए जाते हैं। बाणलिंग पूजा ज्ञान, धन, सिद्धि और ऐश्वर्य देती है।

सुख में सब साथी दुख में...
आज की स्वार्थी जगत में सुख में तो सभी साथ देते हैं परंतु जब बुरा समय आता है तो सब पीठ दिखाकर किनारा कर लेते हैं। ऐसा ही एक किस्सा है एक चीची नाम का चूहा था चीची किसी संयासी के घर के पास बिल बनाकर रहता था। संयासी रोज रात अपने घर में ऊंचे स्थान पर खाने की स्वादिष्ट भोजन रखता था। उस स्थान तक सामान्यत: कोई चूहा नहीं पहुंच पाता था। परंतु जब इस स्थान के बारे में चीची को पता लगा और वह बहुत खुश हुआ। अब वह रोज रात को वहां जाता और संयासी का सारा खाना खुद भी खाता और अपने साथी अन्य चूहे को भी दे देता था।

इसी तरह बहुत से दिन बीत गए। फिर एक दिन उस संयासी के यहां उसका मित्र साधु आया। संयासी ने मित्र से सारी बात कह सुनाई कि चूहे उसका सारा खाना रोज खा जाते हैं। वह मित्र देखकर हैरान था कि कोई चूहा इतनी ऊपर तक कैसे पहुंच सकता है? उसे शंका हुई कि जरूर इस चूहे के बिल के नीचे खजाना होगा जिसके बल पर यह इतनी ऊपर कूद लगा लेता है। अब दोनों मित्र चूहे के आने की प्रतीक्षा करने लगे और चूहे के आते ही पीछा कर उसके बिल तक जा पहुंचे। दोनों मित्रों ने उस बिल की खुदाई कर दी और वहां से उन्हें खजाना मिल गया। धन चले जाने से चूहे का बल समाप्त हो गया और धीरे-धीरे जब वह अन्य चूहों को खाना उपलब्ध नहीं करा सका तो सभी उसका साथ छोड़कर चले गए। ऐसे में उसकी मित्रता एक कौएं से हुई और वह कौआं उसे रोज खाना उपलब्ध कराने लगा।
यह बात सच है कि अच्छे समय में सभी आपका साथ देते हैं, आपका ध्यान रखते हैं, आपकी बात सुनते है और जब बुरा वक्त आता है तो सभी साथ छोड़ देते हैं। परन्तु सच्चे दोस्त की पहचान बुरे समय में ही होती आपके सच्चे हितेशी ही आपके बुरे समय में भी आपका सहयोग करने के लिए सदैव तत्पर खड़े रहते हैं।

जब न हो मन की..
इंसानी जिंदगी में इच्छाओं का अंत नहीं होता है। एक इच्छा पूरी होती है, दूसरी इच्छा पैदा होती है। कभी इच्छाएं पूरी होने पर सुख देती है, तो कई बार अधूरी इच्छाएं गहरा दु:ख बन जाती है। ज़िंदगी के सुख और दुख के खट्टे-मीठे सफर में व्यक्ति के मन में अधूरी आरजूओं की कसक ही बनी रहती है, जिसकी वजह से वह वर्तमान की खुशियों में भी खोया-खोया रहता है। सवाल यही बनता है कि व्यक्ति ऐसा क्या करे कि सुख-दु:ख में संतुलन बनाकर अपने साथ परिवार को भी खुहाहाल रख सके।
इसका सबसे सटीक उपाय धर्म शास्त्रों में बताया गया है। जिसके मुताबिक संतोष करना ही सबसे बड़ा सुख है। सरल शब्दों में कहें जो मिले उसमें खुशी ढूंढे। शास्त्रों में संतोषी व्यक्ति को ही दौलतमंद माना गया है। यह बात व्यावहारिक रूप से सच भी दिखाई देती है। जानते हैं संतोष कर कैसे सुखी रहा जा सकता है।
जब किसी व्यक्ति से जुड़ी उम्मीद और अपेक्षा पूरी न हो, किसी काम के वांछित नतीजे न मिले तो बैचेन होने या झुंझलाहट भरा व्यवहार स्वयं के लिए मानसिक और शारीरिक कष्टों का कारण बनता है यानि ज्यादा अपेक्षा या इच्छाएं लालसा बन जाती है। जो अंतत: तनाव, निराशा, कुण्ठा और दु:खों का कारण बनती है। दु:ख ही दरिद्रता की ओर ले जाते हैं। ऐसी स्थिति धनी को भी गरीब बना सकती है। वहीं संतोष व्यक्ति को सहज, प्रसन्न रखकर हर व्यक्ति को सकारात्मक ऊर्जा देता है। धर्म की नजर से यही वास्तविक संपन्नता है।
सार यही है कि जब भी आपके मन की न हो तो जो मिले उसी में मगन रहें।