Thursday, November 18, 2010

Parampara Part (3)

भगवान को (GOD)गॉड भी कहा जाता है, क्यों?
जिस तरह हिन्दी में भगवान को देव, देवता आदि कई प्रचलित नामों से पुकारा जाता है, उसी तरह अंग्रेजी में उन्हीं को गॉड कहा जाता है।
हिन्दू धर्म में मुख्य रूप से तीन देवता प्रसिद्ध हैं- ब्रह्मा, विष्णु और महेश। लेकिन जब बात अंग्रेजी की आती है तो इन्हें गॉड भी कह दिया जाता है।
क्या हिन्दी में भगवान और अंग्रेजी में गॉड कहना न्यायसंगत है?
क्यों एक ही शक्ति को भगवान और गॉड, दो अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है?
धार्मिक दृष्टि से देखा जाए तो ब्रह्माजी सृष्टि का निर्माण करते हैं मतलब जीवों को जीवन देकर उन्हें उत्पन्न करते हैं वहीं विष्णुजी उनका पालन-पोषण करते हैं और अन्त समय में भगवान शंकर संहारक की अपनी भूमिका का निर्वाह करते हैं।
इस तरह ब्रह्माजी बनाने वाले, विष्णुजी संचालन करने वाले और शंकरजी नाश करने वाले हुए। अंग्रेजी में इन्हीं को गॉड कहते हैं।
गॉड के एक-एक अक्षर का विश्लेक्षण करने पर ब्रह्मा,विष्णु और शिव का नाम उभरकर सामने आता है।
गॉड अंग्रेजी के GOD से बना है।
G का अर्थ है जनरेट। जनरेट का मतलब होता है- उत्पन्न करना। उत्पन्न करने वाले ब्रह्माजी हुए।
O का अर्थ है ऑपरेट। ऑपरेट का मतलब होता है- संचालन करना। संचालन करके सृष्टि की रचना करने वाले भगवान विष्णु हुए।
D का अर्थ है डिस्ट्राय। डिस्ट्राय का मतलब होता है- नष्ट करना। नष्ट करने वाले अर्थात संहार करने वाले भगवान शंकर हुए।
इस तरह अंग्रेजी में गॉड का भी वही अर्थ हुआ जिन्हें हम भगवान मानते हैं। बस भाषा का फर्क है। लिखने का तात्पर्य यह है कि यह तीन महाशक्तियां ही सृष्टि की कर्ता-धर्ता हैं।

दूल्हे के हाथ में तलवार क्यों रहती है?
विवाह, हमारे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण संस्कार है। शास्त्रों में मनुष्य जीवन के सोलह आवश्यक संस्कार बताए गए हैं, शादी भी उन्हीं संस्कारों में से एक है। विवाह के समय दूल्हा और दुल्हन का श्रंगार और उनकी सुंदरता सबसे अधिक आकर्षण का केंद्र होती है। दोनों का ही रूप सभी को रोमांचित करने वाला होता है। इतने शुभ अवसर पर दूल्हे के हाथ में तलवार सभी ने देखी होगा। इस मांगलिक अवसर पर तलवार रखने की परंपरा के पीछे क्या वजह है?
विवाह के अवसर पर दूल्हे के हाथ में तलवार रहना शुभ शकुन माना जाता है। यह परंपरा अति आवश्यक मानी गई है। तलवार वीरता की प्रतीक है। साथ ही ऐसी मान्यता है कि तलवार रखने से वातावरण में मौजूद नैगेटिव ऊर्जा दूल्हे को प्रभावित नहीं कर पाती अन्यथा वर की सजावट और सुगंध से बुरी शक्तियों उसकी ओर बहुत अधिक आकर्षित होती हैं। बुरी शक्तियों से तात्पर्य सामान्य बोलचाल की भाषा में बुरी आत्माओं से है। तलवार रखने से यह सभी शक्तियां वर से दूर ही रहती हैं। वहीं दूल्हे का मनोबल बढ़ाने में सहायक होती है।
तलवार रखने के संबंध में एक और तथ्य विचार करने योग्य है प्राचीन काल से ही विवाह के समय युद्ध किए जाते थे। उस समय स्वयंवर के लिए प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती थी, जहां संभावित दूल्हों को शक्ति प्रदर्शन करना होता था। इसी वजह से स्वयंवर में जाने के लिए भावी वर अपनी तैयारी से जाते थे। तब युद्ध के लिए तलवार ही सबसे सहज हथियार हुआ करती थी, इस वजह से सभी प्रतियोगियों की म्यान में तलवार रहती थी। जो स्वयंवर की प्रतियोगिता जीत जाता था कन्या उसी को अपना पति स्वीकार कर लेती थी। विवाह के संबंध में यही चलन था प्राचीन काल में।
वहीं ग्रंथों में ऐसे कई प्रसंग आते हैं जब दूल्हे को दुल्हन के लिए रणभूमि में युद्ध करना पड़ा। माता सीता के स्वयंवर से सभी भलीभांति परिचित हैं। वहां भी जब जानकी श्रीराम के गले में वरमाला डालने जा रही थी तो स्वयंवर स्थल पर मौजूद सभी राजाओं ने अपनी-अपनी तलवार निकाल ली थी। सभी ने श्रीराम से युद्ध करने की तैयारी कर ली थी। वहीं श्रीकृष्ण और रुकमणि के विवाह के समय भी युद्ध हुआ था। पांडव भी द्रोपदी को स्वयंवर में ही जीतकर लाए थे, वहां भी हथियारों (तीर-कमान) की प्रतियोगिता थी।
ऐसे ही कई प्रसंग हैं जहां दूल्हे के पास तलवार होना आवश्यक था। बस यही परंपरा आज तक जीवित है और आज इसे शकुन के रूप में अनिवार्य माना जाता है।

शिव के सिर पर चंद्र क्यों?
शिव, शंकर, भोलेनाथ, महादेव, महाकाल आदि असंख्य नामों से पूजे जाते हैं भोलेभंडारी। इनका एक नाम शशिधर भी है। शिवजी अपने मस्तक पर चंद्र को धारण किया है इसी वजह से इन्हें शशिधर के नाम से भी जाना जाता है। भोलेनाथ ने मस्तक पर चंद्र को क्यों धारण कर रखा है?
इस संबंध में शिव पुराण में उल्लेख है कि जब देवताओं और असुरों द्वारा समुद्र मंथन किया गया, तब 14 रत्नों के मंथन से प्रकट हुए। इस मंथन में सबसे विष निकला। विष इतना भयंकर था कि इसका प्रभाव पूरी सृष्टि पर फैलता जा रहा था परंतु इसे रोक पाना किसी भी देवी-देवता या असुर के बस में नहीं था। इस समय सृष्टि को बचाने के उद्देश्य से शिव ने वह अति जहरीला विष पी लिया। इसके बाद शिवजी का शरीर विष प्रभाव से अत्यधिक गर्म होने लगा। शिवजी के शरीर को शीतलता मिले इस वजह से उन्होंने चंद्र को धारण किया।
चंद्र को धारण कर क्या संदेश देते हैं शिव?
शिवजी को अति क्रोधित स्वभाव का बताया गया है। कहते हैं कि जब शिवजी अति क्रोधित होते हैं तो उनका तीसरा नेत्र खुल जाता हैं तो पूरी सृष्टि पर इसका बुरा प्रभाव पड़ता है। साथ ही विषपान के बाद शिवजी का शरीर और अधिक गर्म हो गया जिसे शीतल करने के लिए उन्होंने चंद्र आदि को धारण किया। चंद्र को धारण करके शिवजी यही संदेश देते हैं कि आपका मन हमेशा शांत रहना चाहिए। आपका स्वभाव चाहे जितना क्रोधित हो परंतु आपका मन हमेशा ही चंद्र की तरह ठंडक देने वाला रहना चाहिए। जिस तरह चांद सूर्य से उष्मा लेकर भी हमें शीतलता ही प्रदान करता है उसी तरह हमें भी हमारा स्वभाव बनाना चाहिए।

गाय को क्यों रखते थे घर में?
शास्त्रों में गाय को माता कहा है। गाय एक बहुपयोगी पशु है जो कि कई रूपों में फायदेमंद भी है। पुराने समय में सभी के घरों में गाय अनिवार्य रूप से होती थी। आज भी गांव में रहने वाले या ग्रामीण परिवेश से संबंधित लोगों के यहां गाय रहती है।
प्राचीन काल से गाय को माता का दर्जा प्राप्त है। गाय बहुत ही पवित्र और पूजनीय मानी गई है। ऐसा माना जाता है कि गाय की पूजा करने से सभी देवी-देवताओं की कृपा प्राप्त हो जाती है। इसी वजह से आज भी गाय को पूजा जाता है। पहले गाय को घर में रखना अनिवार्य था इसके पीछे कई कारण हैं।
- गाय जहां रहती है वहां किसी भी प्रकार की नकारात्मक ऊर्जा सक्रिय नहीं हो पाती और सकारात्मक ऊर्जा बढ़ती रहती है।
- गाय से निकलने वाली गंध से वातावरण में मौजूद कई हानिकारक कीटाणु नष्ट हो जाते हैं।
- गाय का दूध भी कई बीमारियों में औषधि का ही काम करता है।
- गाय को घर में रखने से सभी प्रकार के वास्तु दोष भी नष्ट हो जाते हैं।
- गाय का मूत्र कई बीमारियों में औषधि के रूप काम लिया जाता है।
- गौमूत्र से कैंसर का इलाज हो जाता है। गाय के प्रभाव में रहने वाले व्यक्ति को कभी ऐसी कोई भी बीमारी नहीं होती।
- गाय का गोबर भी कई कामों में उपयोग किया जाता है।
इनके अतिरिक्त कई फायदे हैं गाय को घर पर रखने के। इन्हीं सब की वजह से गाय को अपने घरों पर रखा जाता था।

हनुमानजी को सिंदूर का चोला क्यों चढ़ाते हैं?
श्रीराम के परमभक्त हनुमानजी आज सभी श्रद्धालुओं की आस्था के केंद्र हैं। हनुमानजी को माता सीता द्वारा अमरता का वरदान प्राप्त है। ऐसा कहा जाता है कि जहां भी सुंदरकांड का पाठ विधि-विधान से किया जाता है वहां श्री हनुमान अवश्य पधारते हैं। वे जल्द ही अपने भक्तों की सभी परेशानियों का हरण कर लेते हैं। जब भक्त की परेशानियों दूर हो जाती है तब कई श्रद्धालु हनुमानजी को सिंदूर का चोला चढ़वाते हैं।
हनुमानजी को सिंदूर का चोला चढ़ाने की परंपरा काफी प्राचीन समय से चली आ रही है। इस प्रथा के पीछे धार्मिक मान्यता यह है कि पवन पुत्र को सिंदूर अर्पित करने से वे अति प्रसन्न होते हैं। इस संबंध में एक कथा प्रचलित है कि एक दिन हनुमानजी ने माता सीता को मांग में सिंदूर लगाते देखा। हनुमानजी ने माता सीता से पूछा कि वे मांग में सिंदूर क्यों लगाती हैं? इस पर देवी जानकी ने बताया कि इससे मेरे स्वामी श्रीराम की उम्र और सौभाग्य बढ़ता है। यह सुनकर हनुमानजी ने सोचा कि यदि इतने सिंदूर से श्रीराम की उम्र और सौभाग्य बढ़ता है ता मैं पूरे शरीर पर सिंदूर लगाऊंगा तो श्रीराम हमेशा के अमर हो जाएंगे और इनकी कृपा सदैव मुझ पर बनी रहेगी। इस विचार के बाद हनुमानजी अपने पूरे शरीर पर सिंदूर लगाने लगे।
हनुमानजी की प्रतिमा को सिंदूर का चोला चढ़ाने के पीछे वैज्ञानिक कारण भी है। हनुमानजी को सिंदूर लगाने से प्रतिमा का संरक्षण होता है। इससे प्रतिमा किसी प्रकार से खंडित नहीं होती और लंबे समय तक सुरक्षित रहती है। साथ ही चोला चढ़ाने से प्रतिमा की सुंदरता बढ़ती है, हनुमानजी का प्रतिबिंब साफ-साफ दिखाई देता है। जिससे भक्तों की आस्था और अधिक बढ़ती है तथा हनुमानजी का ध्यान लगाने में किसी भी श्रद्धालु को परेशानी नहीं होती।

गणेश-विष्णु की पीठ के दर्शन क्यों ना करें...
हमारे धर्म ग्रंथों में कहा गया है कि देवी-देवताओं के दर्शन मात्र से हमारे सभी पाप अक्षय पुण्य में बदल जाते हैं। फिर भी श्री गणेश और विष्णु की पीठ के दर्शन वर्जित किए गए हैं।
गणेशजी और भगवान विष्णु दोनों ही सभी सुखों को देने वाले माने गए हैं। अपने भक्तों के सभी दुखों को दूर करते हैं और उनकी शत्रुओं से रक्षा करते हैं। इनके नित्य दर्शन से हमारा मन शांत रहता है और सभी कार्य सफल होते हैं।
गणेशजी को रिद्धि-सिद्धि का दाता माना गया है। इनकी पीठ के दर्शन करना वर्जित किया गया है। गणेशजी के शरीर पर जीवन और ब्रह्मांड से जुड़े अंग निवास करते हैं। गणेशजी की सूंड पर धर्म विद्यमान है तो कानों पर ऋचाएं, दाएं हाथ में वर, बाएं हाथ में अन्न, पेट में समृद्धि, नाभी में ब्रह्मांड, आंखों में लक्ष्य, पैरों में सातों लोक और मस्तक में ब्रह्मलोक विद्यमान है। गणेशजी के सामने से दर्शन करने पर उपरोक्त सभी सुख-शांति और समृद्धि प्राप्त हो जाती है। ऐसा माना जाता है इनकी पीठ पर दरिद्रता का निवास होता है। गणेशजी की पीठ के दर्शन करने वाला व्यक्ति यदि बहुत धनवान भी हो तो उसके घर पर दरिद्रता का प्रभाव बढ़ जाता है। इसी वजह से इनकी पीठ नहीं देखना चाहिए। जाने-अनजाने पीठ देख ले तो श्री गणेश से क्षमा याचना कर उनका पूजन करें। तब बुरा प्रभाव नष्ट होगा।
वहीं भगवान विष्णु की पीठ पर अधर्म का वास माना जाता है। शास्त्रों में लिखा है जो व्यक्ति इनकी पीठ के दर्शन करता है उसके पुण्य खत्म होते जाते हैं और धर्म बढ़ता जाता है।
इन्हीं कारणों से श्री गणेश और विष्णु की पीठ के दर्शन नहीं करने चाहिए।

नवरात्रि में ही क्यों होते हैं तांत्रिक अनुष्ठान?
नवरात्रि को देवी आराधना का सर्वोत्तम समय माना जाता है। चैत्र और अश्विन मास में पडऩे वाली नवरात्रि का हिन्दू त्योहारों में बड़ा महत्व है।
अश्विन मास की नवरात्रि को शारदीय नवरात्रि भी कहा जाता है। इसमें अश्विन मास की नवरात्रि को तो तांत्रिक अनुष्ठानों के लिए सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
ऐसा क्यों होता है कि दोनों ही नवरात्रियां माता पर्व के दिन हैं, फिर भी तांत्रिक अनुष्ठानों व सिद्धियों के लिए अश्विन नवरात्रि को ही श्रेष्ठ माना जाता है? क्या इस समय में तांत्रिक अनुष्ठान पूरे करने से उनका विशेष फल मिलता है?
इस नवरात्रि पर्व को सिद्धि के लिए विशेष लाभदायी माना गया है। नवरात्रि में की गयी पूजा, जप-तप साधना, यंत्र-सिद्धियां, तांत्रिक अनुष्ठान आदि पूर्ण रूप से सफल एवं प्रभावशाली होते हैं।
चूंकि मां स्वयं आदि शक्ति का रूप हैं और नवरात्रों में स्वयं मूर्तिमान होकर उपस्थित रहती हैं और उपासकों की उपासना का उचित फल प्रदान करती हैं।
सृष्टि के पांच मुख्य तत्वों में देवी को भूमि तत्व की अधिपति माना जाता है। तंत्र-मंत्र की सारी सिद्धियां इस धरती पर मौजूद सकारात्मक और नकारात्मक ऊर्जा से जुड़ी होती हैं।
नवरात्रि के नौ दिनों में चूंकि चारों ओर पूजा और मंत्रों का उच्चारण होता है, इससे नकारात्मक ऊर्जा कमजोर पड़ जाती है। इन नौ दिनों में सकारात्मक ऊर्जा अपने पूरे प्रभाव में होती है।
इस कारण जो भी काम किया जाता है उसमें आम दिनों की अपेक्षा बहुत जल्दी सफलता मिलती है। तंत्र-मंत्र के साथ भी यही बात लागू होती है। तंत्र की सिद्धि आम दिनों के मुकाबले बहुत आसानी से और कम समय में मिलती है।

मंदिरों में चमड़ा वर्जित क्यों?
हम जब भी मंदिर या किसी धर्मस्थल पर जाते हैं तो अपने जूते, बैल्ट, पर्स इत्यादि बाहर ही छोड़कर जाते हैं।
ये सभी वस्तुएं अधिकतर चमड़े की बनी होती हैं। तो क्या कारण है कि मंदिरों व धर्मस्थलों में चमड़ा पहनकर नहीं जाना चाहिए?
मंदिरों व धर्मस्थलों में चमड़ा वर्जित क्यों है?
चमड़े को धार्मिक दृष्टि से अपवित्र माना जाता है। चमड़े की वस्तु पहनकर कोई भी पूजा-अनुष्ठान नहीं किया जा सकता।
चूंकि चमड़ा जानवरों की खाल से बनाया जाता है इसलिए अपवित्र माना जाता है। इसलिए धर्म की दृष्टि से चमड़ा अपवित्र है।
वैज्ञानिक दृष्टि से भी चमड़े की बनी वस्तुओं को अपवित्र माना जाता है। विज्ञान भी यह सिद्ध कर चुका है कि चमड़े में पशुओं की खाल का उपयोग किया जाता है।
मरे हुए जानवरों के शरीर से चमड़ा उतारकर आज फैशन की उच्चकोटि की वस्तुएं बनायी जा रही हैं। किसी की बलि लेकर उसके शरीर की खाल का यह इस्तेमाल कैसे पवित्र माना जा सकता है?
इन वस्तुओं को दुर्गन्ध रहित बनाने के लिए केमिकल्स का प्रयोग करते हैं जो शरीर के लिए नुकसानदायक होता है। आप खुद ही इस बात को सच मानते हैं कि किसी भी वस्तु को साफ करने या अच्छा बनाने के लिए उसे पानी से धोया जाता है।
पर चमड़ा पानी में खराब होने लगता है और सडऩे लगता है जो हमारे शरीर के लिए नुकसानदायक होता है। इसलिए जहां तक हो सके चमड़े के उपयोग से बचना चाहिए।

यमराज को धर्मराज क्यों कहते हैं?
यमराज का नाम जेहन में आते ही एक भयानक और खुंखार तस्वीर सामने आती है जिसे बड़ा ही निर्दयी और कष्ट देने वाला देवता कहा गया है।
यमराज को मृत्यु का देवता भी कहते हैं। साथ ही यमराज को धर्मराज भी कहा जाता है।
अब सवाल यह उठता है कि जिस देवता को हम धर्मराज की उपमा देकर पूजते हैं, उन्हीं को मृत्यु का देव कहते हुए उनकी चर्चा तक करना भी पसंद नहीं करते?
और यदि यमराज सचमुच इतने ही निर्दयी देव हैं तो उन्हें धर्मराज क्यों कहा जाता है?
एक ही देवता के साथ दो अलग-अलग विसंगतियां क्यों?
यमराज को कठोर हृदय का देवता कहा जाता है। कहते हैं कि ये लोगों के मरने के बाद उनके कर्मों के अनुसार उन्हें दण्ड देते हैं। ये सब बातें इसी दुनिया के लोग आपस में करते हैं जिससे यमराज के नाम का हौव्वा खड़ा हो गया है।
वे तो बस लोगों को उनके अच्छे-बुरे को देखते हुए दण्ड देते हैं। यही कारण है कि इन्हें धर्मराज कहा जाता है क्योंकि ये धर्मानुसार ही बिना किसी भेदभाव के लोगों को उनके कर्मों के अनुसार स्वर्ग-नरक का अधिकारी बनाते हैं अथवा किसी नई योनि में दोबारा अपने पाप भोगने के लिए नया जन्म देते हैं।
चूंकि ये कर्मों का उचित लेखा-जोखा करके ही कर्म दण्ड देते हैं अर्थात धर्मपूर्वक जीव के साथ न्याय करते हैं। ये परलोक के जज हैं इसलिए यमराज को धर्मराज कहा जाता है।

शकुन-अपशकुन की मान्यता क्यों?
हिन्दू धर्म ग्रन्थों में शुभ-अशुभ शकुनों के विषय में विस्तार से जानकारी दी गई है। शकुन-अपशकुन, शुभ-अशुभ आदि के बारे में पता कैसे चले?
इसके लिए जिस चिन्ह, संकेत या निमित्त द्वारा शुभ जानकारी मिले, वह शुभ शकुन और अशुभ जानकारी मिले, उसे अपशकुन कहते हैं।
पर आज के इस वैज्ञानिक युग में भी शकुन-अपशकुन की मान्यता क्यों?
क्या ये शकुन-अपशकुन वास्तव में हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं?
ऐसा माना जाता है कि ये चिन्ह ही शुभाशुभ का ज्ञान कराकर भविष्य की घटनाओं का निर्धारण करते हैं। वास्तव में अच्छी या बुरी घटनाओं की पुनरावृत्ति ही इन विश्वासों की जड़ में होती है।
प्रकृति ने पशु-पक्षियों को कई विशेषताओं से सम्पन्न बनाया है। कई घटनाएं ऐसी होती हैं जिनका पूर्वानुमान इंसान से पहले पशु-पक्षियों को हो जाता है।
इतना ही नहीं भविष्य में घटने वाली घटनाओं के संकेत प्रकृति में भी चिन्हों के रूप में नजर आने लगते हैं। आध्यात्मिक साधनाओं, ज्योतिष और तंत्र-मत्र के क्षेत्र में ऐसी कई विधियां होती हैं जिनकी सहायता से कुछ गुप्त संकेतों को पकड़कर भविष्य में घटने वाली घटनाओं का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है।
अचानक जलते हुऐ दीपक का बुझ जाना, कांच का फूटना, दूध का उफनना, पशु-पक्षियों जैसे कुत्ते, बिल्ली या गाय आदि का कुछ विशेष हाव-भाव प्रकट करना ये सभी कुछ शकुन-अपशकुन के संकेत माने जाते हैं।
इन संकेतो के आधार पर इंसान समुचित उपाय करके कई दु:खद घटनओं से बच सकता है।
पर इन शकुन-अपशकुनों के फेर में उलझकर मन अकारण ही आशंकित और आतंकित रहता है और व्यर्थ ही अपना नुकसान करा बैठता है। इसलिए जहां तक हो सके इनके फेर में नहीं पडऩा चाहिए।

धर्म में लोग मान्यताओं को क्यों मानते हैं?
भारत विश्व का एकमात्र ऐसा देश है जहां सभी धर्मों को मानने वाले समान रूप से रहते हैं। धर्म भी हमेशा मान्यताओं पर चलता है।
ऐसा इसलिए नहीं कि कोई उसे बदलना नहीं चाहता बल्कि धर्म सम्बन्धी सभी मान्यताएं विशेष प्रायोजनों के कारण स्थापित की गयी हैं। फिर भी किसी एक चीज को कसकर पकड़ रखना दकियानूसी विचार है।
लेकिन सभी धर्मों के अनुयायी आज भी मान्यताओं पर चलते हैं। क्या कारण है कि आज के इस वैज्ञानिक युग में भी धर्म और मान्यताएं एक दूसरे की पूरक बनी हुई हैं?
धर्म में लोग मान्यताओं को अधिक महत्व क्यों देते हैं?
जैसा कि सभी जानते हैं कि धर्म और मान्यताओं का गहरा संबंध है। धर्म में मान्यताओं को स्थान इसलिए मिला क्योंकि जो जीवन का सत्य नहीं जानते थे वे उन मान्यताओं के सहारे अपना जीवन गुजार सकते थे।
इससे वे कुछ भी गलत करने से बच जाते थे। चूंकि ये धार्मिक मान्यताएं हमारी संस्कृति का आईना होती हैं, इसलिए विज्ञान भी इन पर कुतर्क करने से बचता है।
हमारी इन धार्मिक मान्यताओं के कारण ही हमारी संस्कृति आज तक बची हुई है। ये धार्मिक मान्यताएं प्राचीन जीवन शैली, वातावरण आदि को ध्यान में रखकर बनाई गई थीं जिन पर चलकर समाज अपने आप को प्रगति की ओर अग्रसर कर सकता है।
वर्तमान में जो लोग ये सोचते हैं कि अब तो ये मान्यताएं वक्त के साथ कमजोर पड़ गई हैं, वे यह भूल जाते हैं कि इन्हीं मान्यताओं ने हमारे संस्कारों और संस्कृति को जिंदा रखा हुआ है।
फिर हमारे पास इन धार्मिक मान्यताओं को मानने के अलावा और कोई विकल्प भी नहीं है। यही कारण है कि आज भी धर्म में लोग मान्यताओं को अधिक महत्व देते हैं।

बायीं सूंड वाले गणपति शुभ क्यों?
गणपति को देवताओं में प्रथम पूज्य कहा जाता है। वैसे भी अपने अद्भुत शरीर और आश्चर्यजनक व्यक्तित्व के कारण गणपति सभी की श्रद्धा के प्रतीक हैं।
गणपति की सूंड को लेकर जितना कौतूहल है, उतना शायद किसी और विषय के संबंध में नहीं है। तस्वीरों में देखने पर गणपति की सूंड दोनों ओर यानि दाएं ओर बाएं तरफ दिखाई देती है। पर बायीं सूंड वाले गणपति ज्यादा सिद्ध माने जाते हैं।
लेकिन ऐसा क्यों होता है कि सिर्फ दिशा में अंतर होने से ही शुभ-अशुभ का फैसला करना पड़ता है?
क्यों होते हैं बायीं सूंड वाले गणपति शुभ?
बायीं ओर की सूंड किए गणपति हमेशा ही सकारात्मक नतीजे देते हैं। वैसे भी गणपति को बुद्धि का देवता कहा जाता है। यदि विज्ञान के दृष्टिकोण से देखें तो बुद्धि दो भागों में बटीं होती है।
दायें तरफ के हिस्से को कर्म प्रधान कार्यों में महारथ हासिल होती है जबकि बायें तरफ का हिस्सा रचनात्मकता में प्रवीण होता है। बायीं सूंड वाले गणपति रचनात्मक बुद्धि के प्रतीक माने जाते हैं।
जिस किसी भी घर, दुकान, प्रतिष्ठान आदि में बायीं सूंड वाले गणपति की प्रतिमा स्थापित की जाती है वहां हमेशा रचनात्मक कार्यों के प्रति लगाव बना रहता है।
ऐसा स्थान हमेशा उन्नति करता है। ऐसे स्थान पर विध्वंस और नकारात्मक विचारों का सर्वथा अभाव होता है। इसलिए बायीं सूंड वाले गणपति शुभ माने जाते हैं।

क्यों मानते हैं आग को पवित्र?
हमारे सांस्कृतिक अनुष्ठानों में आग को बड़ा ही पवित्र माना जाता है। सात जन्मों के पवित्र बंधन में भी आग को ही साक्षी माना जाता है।
हिन्दू संस्कृति के आधार स्तम्भ ऋग्वेद के पहले ही भाग में आग को देवता माना गया है। एक ओर तो आग को बड़ा ही पवित्र मानते हैं वहीं इसे खतरनाक भी माना जाता है।
इसके तेज को सह पाना हर किसी के बूते की बात नहीं। फिर भी क्या कारण है कि आग को इतना पवित्र माना जाता है?
आग को अग्रि देव का ही रूप माना जाता है। अग्रिदेव ही आलोक अर्थात उजाले का प्रतीक हैं, ऊर्जा के स्रोत हैं और सृष्टि को शक्ति संपन्न करने वाले हैं।
मानव सभ्यता मे भी आग के कारण ही विकास ने रफ्तार पकड़ी। सृष्टि के पांच मुख्य तत्वों में भी आग का प्रमुख स्थान है। यज्ञ में अग्रि की आहुति देने का पावन विधान प्राचीनकाल से ही प्रचलित है।
वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो जहां आग को जलाया जाता है वहां उसके तेज के कारण वातावरण में मौजूद विषाणु मर जाते हैं। इससे वातावरण पवित्र होता है।
आज भी गांव में मच्छर भगाने के लिए आग का ही सहारा लिया जाता है। किसी भी प्रकार के कर्मकांड में तो अग्रि का बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान होता है। इसके बिना तो कोई भी अनुष्ठान पूरा नहीं होता।
इन्हीं विशेषताओं के कारण ही अग्रि को पवित्र माना जाता है।

दशहरे पर क्यों पूजा जाता है शमी का पेड़?
दशहरे को हिन्दू त्योहारों का प्रमुख पर्व कहा जाता है। कहते हैं कि इस दिन राम ने रावण को मारकर धरती से राक्षस वंश का नाश कर दिया था।
वर्तमान में उसी खुशी को मनाने के लिए हर साल दशहरे पर पूरे देश में रावण के प्रतीकात्मक पुतले को जलाया जाता है।
कहीं-कहीं तो रामलीला का आयोजन करवाकर राम से ही रावण-दहन करवाया जाता है। इस पर्व को लेकर लोगों में बड़ा उत्साह देखने को मिलता है। इस दिन शस्त्र पूजन का भी विधान है।
दशहरे पर शमी के पेड़ की पूजा भी की जाती है। क्या इसके पीछे भी कोई धार्मिक मान्यता है?
क्यों दशहरे के दिन शमी के पेड़ को विशेष रूप से पूजा जाता है?
दरअसल शमी का पेड़ शांति का प्रतीक माना जाता है। शम का अर्थ होता है-शांति। राम ने रावण को मारकर पूरी धरती को शांति की राह पर अग्रसर किया था।
रावण ने अपने जीते-जी जो अशांति का वातावरण पैदा किया था राम ने उससे मुक्ति दिलवाई थी। उस शांति का प्रतीक है-शमी का पेड़। दशहरे पर शमी के पेड़ की पत्तियां एक-दूसरे को देने का विधान है।
ऐसी मान्यता है कि इससे चारों तरफ शांति का वातावरण पैदा होता है और आसुरी शक्तियों का दमन होता है। शांति की कामना हेतु दिए गए शमी के पत्ते जीवन में सुख-शांति के द्योतक हैं।
इसलिए दशहरे पर शमी की पत्तियां देना का रिवाज है।

दशहरे पर ही क्यों होती है शस्त्र-पूजा?
दशहरा राम की रावण पर विजय का प्रतीक है। इस दिन समस्त बुराईयों को जीतकर अच्छाईयों को आत्मसात किया जाता है। दशहरे के दिन चूंकि राम ने रावण पर विजय पाई थी, इसलिए इस पर्व को विजय-पर्व के रूप में मनाया जाता है।
विजय-पर्व यानि ताकत की आराधना और ताकत आती है, शस्त्रों से। फिर भी क्या कारण है कि दशहरे के दिन शस्त्रों की विधिवत पूजा का विधान है?
क्यों की जाती है दशहरे पर शस्त्र पूजा?
हिन्दू त्योहार भी प्राचीन वर्ण-व्यवस्था के अनुसार मनाये जाते हैं। हिन्दू त्योहारों की शुरुआत रक्षाबंधन पर्व से होती है जिसे मूलत: ब्राह्मणों का त्योहार माना जाता है।
इसके बाद स्थान आता है क्षत्रियों के त्योहार का जिसे सभी दशहरा या विजयादशमी कहते हैं। क्षत्रियों का मूल धर्म होता है, प्राणी मात्र की रक्षा करना।
इसके लिए उन्हें शस्त्रों की आवश्यकता भी पड़ती है। यही शस्त्र क्षत्रिय समाज का गहना होते हैं। चूंकि दशहरा विजय का प्रतीक है, इसलिए इस दिन शस्त्रों की पूजा का विधान है।
वर्तमान समय के हिसाब से देखें तो आज दशहरा सिर्फ शस्त्र पूजन के लिए ही नहीं बल्कि सेवा-समर्पण भाव की पूजा का पर्व बन गया है। शस्त्र पूजन से अभिप्राय मात्र शस्त्र या हथियार नहीं है।
किसान अगर खेतों में काम कर रहा है तो ये उसकी पूजा है। इस प्रकार वह निष्काम भाव से प्राणियों की सेवा कर रहा है।
दशहरा पर्व बुराई पर अच्छाई की जीत का संदेश देता है। क्षमा, त्याग, सेवा, समर्पण आदि मनुष्य के ऐसे हथियार हैं जिनसे वह बड़ी से बड़ी बुराई को जीत सकता है।
दशहरे की शस्त्र पूजा अपने मन में व्याप्त बुराईयों को दबाकर अच्छाईयों को उभारना और उन्हें सेवा-भाव से लागू करना ही है।

क्यों बांधते हैं जैन संत मुख-वस्त्रिका?
जैन धर्म के स्थानकवासी एवं तेरापंथी साधु-साध्वी, उपाध्याय, आचार्य अपने मुंह पर कपड़े की एक पट्टी लगाते हैं, जिसके दोनों ओर धागा बांधकर कान के पास से सिर के पीछे बांध दिया जाता है।
इस प्रकार यह वस्त्रिका मुख पर लटकती हुई मुख-वस्त्रिका के नाम से जानी जाती है। क्या कारण है कि जैन समुदाय में इसे बड़ा पवित्र माना जाता है?
क्यों बांधते हैं जैन संत मुख-वस्त्रिका?
जैन समुदाय में अहिंसा को बड़ा पवित्र और जीव मात्र के लिए आवश्यक माना गया है। मुख-वस्त्रिका को अहिंसा का सबसे बड़ा प्रतीक माना जाता है।
यह भी देखने में आता है कि मुख-वस्त्रिका भी एकदम सफेद बांधी जाती है। अत्यधिक स्वच्छ व सफेद रंग की मुख-वस्त्रिका का प्रयोग अंहिसा के उद्देश्य से किया जाता है।
जब सभी प्राणी जीवित रहने के अभिलाषी होते हैं तो किसी का भी प्राण लेना या जीवन समाप्त करना अन्याय है। जैन धर्म में सूक्ष्म-से-सूक्ष्म जीव की भी हिंसा करना वर्जित है।
अत: इस आदर्श को अपने जीवन में उतारते हुए जैन साधु-साध्वी अपने मुंह पर मुख-वस्त्रिका लगाते हैं, जिससे वायु में उपस्थित नन्हे-से-नन्हे जीवाणु भी उनके मुंह तक न पहुंच सकें।
मुख वस्त्रिका के प्रयोग का दूसरा लाभ यह भी होता है कि किसी से बातचीत करते समय, प्रवचन देते समय मुंह का थूक किसी के ऊपर न जाए। मुंह से निकलने वाली दुर्गंधित वायु भी किसी सामने वाले को कष्ट न पहुंचाए।
मुख-वस्त्रिका का प्रयोग जहां अहिंसा के आदर्शों के परिप्रेक्ष्य में हितकारी है वहीं समाज के लिए भी इसका प्रयोग अत्यधिक लाभकारी है। इसके आकार-प्रकार शास्त्रोक्त विधि-विधानों के अनुसार रहते हैं।

सफलता दिलाते हैं रत्न.. क्यों व कैसे?
मनुष्य जीवन में संपन्नता कई तरह से आंकी जाती है। धन-दौलत, बेहतर जीवन स्तर आदि जीवन जीने के स्तर को ऊंचा करते हैं। प्राचीन काल से ही रत्न, नग-नगीने आदि मनुष्य की संपन्नता को बढ़ाते रहे हैं।
कुछ लोग शौकिया तौर पर रत्न धारण करते हैं तो कुछ ज्योतिष मान्यताओं के आधार पर। लेकिन क्या रत्नों से ज्योतिष का कोई संबंध है?
क्यों पहने जाते हैं रत्न?
रत्नों की रमणीयता जहां मानव मन को मोहित कर अपने आकर्षण से लुभाती रहती है वहीं हर कोई इनको पाने के लिए लालायित रहता है।
रत्नों को पहनने से जहां समृद्धि की भावना समाहित रहती है वहीं शारीरिक, मानसिक, भौतिक आदि आपदाओं से बचने के उद्देश्य से भी रत्नों को पहना जाता है।
कुण्डली में नवग्रहों के प्रभाव से बचने या उसे अपने पक्ष में करने के लिए रत्न पहने जाते हैं। कुछ लोग इसे अंधविश्वास मानते हैं पर वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर यह सिद्ध हो चुका है कि इष्ट-प्राप्ति और अनिष्ट-निवारण में ये रत्न अपनी प्रभावकारी भूमिका निभाते हैं।
सूर्य की किरणें सात रंग की होती हैं। ये किरणें जब रत्नों पर पड़ती हैं तो सकारात्मक ऊर्जा का भण्डार इन रत्नों से हमारे शरीर में प्रवेश करता है। यही सकारात्मक ऊर्जा जीवन के लिए प्रेरणादायक होती है।
इससे मनुष्य के अंदर का आत्म-विश्वास जागता है और वह निरंतर आगे बढऩे की दिशा में प्रयासरत हो जाता है। इन रत्नों का प्रभाव भी राशि अनुसार पहनने वाले पर पड़ता है।
जिस किसी भी कमजोर ग्रह का प्रभाव हमारे शरीर पर विपरीत पड़ता है सूर्य की किरणें रत्नों द्वारा उस कमी को पूरा करती हैं और वह कमजोर कमी दूर हो जाती है।

हल्दी को क्यों माना जाता है पवित्र?

हल्दी की छोटी सी गांठ में बड़े गुण होते हैं। शायद ही कोई ऐसा घर हो जहां हल्दी का उपयोग न होता हो। पूजा-अर्चना से लेकर पारिवारिक संबंधों की पवित्रता तक में हल्दी का उपयोग होता है।
पूजा-अर्चना में हल्दी को तिलक व चावल से साथ इस्तेमाल किया जाता है। हल्दी का सबसे ज्यादा उपयोग घर के दैनिक भोजन में होता है। स्वास्थ्य के लिए हल्दी रामबाण ही है।
हल्दी का उपयोग शरीर में खून को साफ करता है। हल्दी के उपयोग से कई असाध्य बीमारियों में फायदा होता है।
हल्दी का भोजन में उपयोग भोजन के स्वाद को बढ़ा देता है।
तंत्र-ज्योतिष में भी हल्दी का महत्वपूर्ण स्थान होता है। तंत्रशास्त्र के अनुसार, बगुलामुखी पीतिमा की देवी हैं। उनके मंत्र का जप पीले वस्त्रों में तथा हल्दी की माला से होता है।
हिन्दू धर्म दर्शन में भी हल्दी को पवित्र माना जाता है। ब्राह्मणों में पहना जाने वाला जनेऊ तो बिना हल्दी के रंगे पहना ही नहीं जाता है।जब भी जनेऊ बदला जाता है तो हल्दी से रंगे जनेऊ को ही पहनने की प्रथा है। इसमें सब प्रकार के कल्याण की भावना निहित होती है।शारीरिक सौन्दर्य को निखारने में भी हल्दी की महत्वपूर्ण भूमिका है। आज भी गांवों में नहाने से पहले शरीर पर हल्दी का उबटन लगाने का चलन है। कहते हैं इससे शरीर की कांति बढ़ती है और मांसपेशियों में कसावट आती है।
हल्दी को शुभता का संदेश देने वाला भी माना गया है। आज भी जब कागज पर विवाह का निमंत्रण छपवाकर भेजा जाता है, तब निमंत्रण पत्र के किनारों को हल्दी के रंग से स्पर्श करा दिया जाता है। कहते हैं कि इससे रिश्तों में प्रगाढ़ता आती है।
वैवाहिक कार्यक्र मों में भी हल्दी का उपयोग होता है। दूल्हे व दुल्हन को शादी से पहले हल्दी का उबटन लगाकर वैवाहिक कार्यक्रम पूरे करवाए जाते हैं। इतने गुणों के कारण ही हल्दी को पवित्र माना जाता है।

क्यों किया जाता है पूजा में शहद का उपयोग?
शिव का अभिषेक हो या किसी और देवता की पूजा, पूजन सामग्री में शहद का उपयोग पंचामृत के एक हिस्से के रूप में किया जाता है। विशेषतौर पर भगवान शिव के अभिषेक में इसका उपयोग सबसे ज्यादा होता है। शहद में ऐसे कौन से गुण होते हैं जिनके कारण यह इतना खास माना गया है?
वास्तव में शहद को उसके गुणों के कारण ही पूजा में उपयोग किया जाता है। शहद तरह होकर भी पानी में नहीं घुलता है। जैसे संसार में रहकर भी अलग रहने के भाव का प्रतीक है। यह घी या तेल की तरह पानी में बिखरता भी नहीं है। यह पंच तत्वों में आकाश तत्व का प्रतीक भी माना गया है। शहद में कई औषधीय गुण भी होते हैं। इसे आयुर्वेद में भी स्थान दिया गया है। शहद ऐसा पदार्थ होता है जिसे पेट और शारीरिक कमजोरी संबंधी सभी बीमारियों में इस्तेमाल किया जा सकता है। इसकी तासिर ठंडी होती है।
एकदार्शनिक कारण यह भी है कि शहद ही ऐसा तत्व है जो जिसके लिए इंसान को प्रकृति पर निर्भर रहना पड़ता है, इसे कृत्रिम रूप से नहीं बनाया जा सकता। मधुमक्खियों द्वारा तैयार किया गया एकदम शुद्ध पदार्थ होता है। जिसके निर्माण में कोई मिलावट नहीं हो सकती। शहद को भगवान को इसी भाव से चढ़ाया जाता है कि हमारे जीवन में भी शहद की तरह ही पवित्र और पुण्य कर्म हों। चरित्र और व्यवहार में शहद जैसा ही गुण हो, जो संसार में रहकर भी उसमें घुले मिले नहीं, उसमें रहे भी और उससे अलग भी हो।

क्यों पूजा जाता है सभी धर्मों में सांप को?
हिन्दू संस्कृति में नाग को भगवान मानकर पूजा जाता है। भगवान विष्णु भी शेषनाग पर शयन करके मानो जीवरक्षा का संदेश देते हैं कि जिस जीव को हम विषधर कहकर मारने लगते हैं, वही जीव हमारी संस्कृति में पूजा जाता है।
हमारी संस्कृति में हर साल नागपूजा की जाती है जिसे आम भाषा में नाग-पंचमी का पर्व कहा जाता है। भगवान शिव भी सर्पों की माला गले में धारण करके मानो नाग देवता के प्रति आदर करने का उपदेश देते हैं।
जैन धर्म, दर्शन तथा साहित्य में भी नाग को विशिष्ट स्थान दिया गया है। तेईसवें तीर्थंकर पाश्र्वनाथ के गर्भकाल में ही मां वामादेवी ने समीप में सरकते नाग को देखा जो दैवी दिव्यता का प्रतीक था।
भगवान पाश्र्वनाथ की नाग से समलंकृत प्रतिमा की ओजस्विता का अपना अनूठा ही आकर्षण है।
बौद्ध धर्म में भी सर्पों से संबंधित कई प्रसंग आए हैं। भगवान बुद्ध की मूर्तियों पर भी नागदेव की छाया देखी जा सकती है।
जैन एवं बौद्ध शिल्पकला-मूर्तिकला में भी सर्प संबंधी पर्याप्त सामग्री देश के कोने-कोने में पाई जाती है।
विश्व के अनेक देशों व धर्मों में नागपूजा की प्रथा प्रचलित है। वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो भी नाग हमारे पर्यावरण के लिए काफी उपयोगी सिद्ध होते हैं। ये प्रकृति-चक्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
सांप का जहर यूं तो काफी जहरीला होता है पर इससे कई जीवनरक्षक दवाएं भी बनाई जाती हैं। इन्हीं सब कारणों से सर्प को मारना वर्जित है। अत: सर्प से सतर्क रहते हुए भी इसकी पूजा-अर्चना की प्रथा सभी धर्मों में प्रचलित है।

पति के बायीं ओर ही क्यों बैठती है पत्नी?
पति-पत्नी का रिश्ता बड़ा ही कोमल और पवित्र होता है। यह विश्वास की डोर से बंधा होता है।
कहते हैं पत्नी, पति का आधा अंग होती है। दोनों में कोई भेद नहीं होता। पर जहां तक धार्मिक अनुष्ठानों का सवाल है, पत्नी को हमेशा पति के बायीं ओर ही बिठाया जाता है।
क्या इसके पीछे कोई मान्यता है या पुराने रीति-रिवाज?
हमारे धर्म-ग्रथों में पत्नी को पति का आधा अंग कहा जाता है। उसमें भी उसे वामांगी कहा जाता है अर्थात पति का बायां भाग। शरीर विज्ञान और ज्योतिष ने पुरुष के दाएं और महिलाओं के बाएं हिस्से को शुभ माना है।
हस्त ज्योतिष में भी महिलाओं का बायां हाथ ही देखा जाता है। मनुष्य के शरीर का बायां हिस्सा खास तौर पर मस्तिष्क रचनात्मकता का प्रतीक माना जाता है। दायां हिस्सा कर्म प्रधान होता है।
हमारा मस्तिष्क भी दो हिस्सों में बंटा होता है दायां हिस्सा कर्म प्रधान और बायां कला प्रधान। महिलाओं को पुरुषों के बायीं ओर बैठाने के पीछे भी यही कारण है।
स्त्री का स्वभाव सामान्यत: वात्सल्य का होता है और किसी भी कार्य में रचनात्मकता तभी आ सकती है जब उसमें स्नेह का भाव हो। दायीं ओर पुरुष होता है जो किसी शुभ कर्म या पूजा में कर्म के प्रति दृढ़ता के लिए होता है, बायीं ओर पत्नी होती है जो रचनात्मकता देती है, स्नेह लाती है।
जब कोई कर्म दृढ़ता और रचनात्मकता के साथ किया जाए तो उसमें सफलता मिलनी तय है।

क्यों पूजा जाता है अशोक का पेड़?
अशोक के पेड़ को पवित्र माना जाता है। शोक-दु:ख को दूर करने के कारण ही संभवत: इसे अशोक नाम की उपमा दी गई है। भगवान राम ने खुद ही इसे शोक दूर करने वाले पेड़ की उपमा दी थी।
कामदेव के पंच पुष्प बाणों में एक अशोक भी है। कवियों ने भी इसकी महत्ता के बारे में खूब लिखा है। रावण ने सीता हरण के बाद उन्हें अशोक-वाटिका में ही रखा था। चूंकि यहां अशोक के पेड़ अधिक संख्या में थे, इसलिए इसे अशोक-वाटिका कहा गया है।
यहीं अशोक के पेड़ पर बैठकर हनुमान जी ने सीता माता के दर्शन किये थे। श्रद्धा, विश्वास, पवित्रता, शोक-निवारण आदि के परिपेक्ष्य में अशोक का गुणगान प्राचीन साहित्य में भरपूर किया गया है।
तांत्रिक रूप से अशोक आवास की उत्तर दिशा में लगाना विशेष मंगलकारी माना जाता है तथा अशोक के पत्ते घर में रखने से शांति रहती है।
बौद्ध धर्म और साहित्य में भी अशोक के पेड़ को बड़ा पवित्र माना जाता है। कहते हैं कि अशोक के पेड़ के नीचे कई वर्षों तक गौतम बुद्ध ने तपस्या की थी।
अशोक का पेड़ शीतलता प्रदान करता है, इसी कारण आयुर्वेद में भी इसका उपयोग किया जाता है।अपनी इन्हीं विशेषताओं और धार्मिक महत्व को कारण अशोक के पेड़ को पवित्र मानकर पूजा जाता है।

क्यों होती है शादी के पहले सगाई?
शादी दो विपरीत लिंगों को न केवल शारीरिक रूप से बल्कि भावनात्मक रूप से भी जोड़ती है। इसमें न केवल दो व्यक्ति बल्कि दो समाज मिलते हैं। शायद इसलिए शादी को सामाजिक रूप दिया गया है।
शादी के पवित्र बंधन में बंधने के बाद दो जुदा लोग एक साथ अपनी जिंदगी की शुरुआत करते हैं। जाहिर सी बात है कि बिना जान-पहचान के जिंदगी की गाड़ी पटरी पर चलाना आसान काम नहीं है।
जब दो समाज या समुदाय शादी के पवित्र बंधन के कारण एक होते हैं तो उनमें बहुत से वैचारिक या सैद्धान्तिक मतभेद होते हैं। दोनों के रीति-रिवाज काफी अलग होते हैं। दोनों की धार्मिक मान्यताओं में अंतर होता है।
अगर उन्हें एक-दूसरे को समझने का पर्याप्त समय न मिले तो यह अंतर या मतभेद और गहरे हो सकते हैं। ऐसे में तो शादी की सामाजिक मान्यता पर ही प्रश्रचिन्ह लग सकते हैं।
इस अप्रिय स्थिति से बचने के लिए ही शादी के पहले सगाई करवाने की प्रथा है। सगाई से शादी होने तक का समय एक-दूसरे को समझने तथा उनकी मान्यताओं को स्वीकार करने का होता है।
यही वह समय होता है जब भावी दम्पत्ति आपस में सामन्जस्य स्थापित कर भावी जीवन की शुरुआत के लिए मानसिक और शारीरिक रूप से ढ़ृढ़ होते हैं।
सगाई के पीछे एक और मान्यता है कि इससे भावी दम्पत्ति एक-दूसरे को जान सकते हैं, आपस में संवाद स्थापित कर भावी जीवन की बेहतरी के लिए प्रेरणा ले सकते हैं। इसलिए शादी से पहले सगाई करवाने की प्रथा है।

क्यों पवित्र माना जाता है क्रास को?
ईसाई धर्म के अनुयायियों की संख्या विश्व में सर्वाधिक है। इस धर्म के लोग ईसा मसीह को अपना भगवान मानते हैं।
ईसाई धर्म में क्रास को बड़ा पवित्र माना जाता है। लोग इसकी पूजा करते हैं और इसके प्रतीक चिन्ह को गले में पहनते हैं।
क्या कारण है कि ईसाई धर्म में क्रास को इतना पवित्र माना जाता है?
ईसाई मसीह जिस तरह दुनिया भर में ज्ञान और प्रेम का संदेश फैला रहे थे, वह कुछ लोगों को खटक रहा था। इसलिए उन्हें एक चौकोर सी लकड़ी की आकृति पर चढ़ा दिया गया।
इसे ही ईसाई धर्म में क्रास कहते हैं। चूंकि इस पर ईसा मसीह को मौत दी गई थी इसलिए यह चिन्ह ईसाई धर्म में बड़ा पवित्र माना जाता है।
क्रास के चिन्ह में चार चौकोर डण्डियां होती है। माना जाता है कि ये चारों दिशाओं से आती सकारात्मक ऊर्जा को बरकरार रखते हुए उसे सृजनात्मकता में लगाती है।
इनके प्रभाव से नकारात्मकता का जीवन में कोई प्रभाव नहीं रहता है। मानने वाले तो यहां तक कहते हैं कि क्रास धारण करने से बुरी आत्माओं और भूत-प्रेत का साया नहीं पड़ता है।
इन्हीं सब के कारण क्रास को दुनिया भर में पवित्र माना जाता है।

क्यों पहने जाते हैं गहने?
गहना या आभूषण हर महिला या पुरुष का प्रमुख आकर्षण होता है। खासकर महिलाओं की तो यह कमजोरी माने जाते हैं।
गहने को प्राचीनकाल से ही सुंदरता बढ़ाने वाला माना गया है।
पर क्या सिर्फ शारीरिक सौन्दर्य को बढ़ाने के लिए ही इतने मंहगें गहने पहनना जरूरी है?
क्या यह मात्र अपने धन का बेमतलब प्रदर्शन नहीं है?
प्राचीन भारतीय परंपराओं का जब हम गहराई से और वैज्ञानिक नजरिये से विश्लेषण करते हैं तो पता चलता है कि ज्यादातर परंपराओं या मान्यताओं के पीछे कुछ न कुछ वैज्ञानिक आधार अवश्य होता है।
गहने पहनने की परंपरा भी ऐसी ही है कि यह बेहद लोकप्रिय होने के साथ उपयोगकर्ताओं के लिये बेहद ही फायदेमंद भी होती है।
हम देखते हैं कि इंसान ही नहीं बल्कि देवी- देवताओं को भी तरह-तरह के गहनों और जवाहरातों को पहने दिखलाया जाता है।
दरअसल धातुओं का अपना अलग ही विज्ञान होता है। प्रत्येक धातु अपने गुणों के आधार पर ब्रह्माण्ड की शक्तियों को आकर्षित या विकर्षित करती हैं।
सोना, चांदी आदि मूल्यवान धातुओं से बने गहनों की यह खासियत होती है कि वे दूर ग्रह-नक्षत्रों से आने वाली सकारात्मक किरणों को आकर्षित करने के साथ ही बुरा प्रभाव डालने वाली किरणों को हम तक पहुंचने से पहले ही लौटा देती हैं।
गहने हमारे शरीर पर अपने गुणों के आधार पर प्रभाव डालते हैं जो अमूमन सकारात्मक ही होता है।
यही कारण है कि वर्तमान समय में गहनों को पहनने का प्रचलन बढ़ गया है।

चिकित्सा में पंचगव्य क्यों महत्वपूर्ण है?
गाय के दूध, घृत, दधी, गोमूत्र और गोबर के रस को मिलाकर पंचगव्य तैयार होता है। पंचगव्य के प्रत्येक घटक द्रव्य महत्वपूर्ण गुणों से संपन्न हैं।
इनमें गाय के दूध के समान पौष्टिक और संतुलित आहार कोई नहीं है। इसे अमृत माना जाता है। यह विपाक में मधुर, शीतल, वातपित्त शामक, रक्तविकार नाशक और सेवन हेतु सर्वथा उपयुक्त है।
गाय का दही भी समान रूप से जीवनीय गुणों से भरपूर है। गाय के दही से बना छाछ पचने में आसान और पित्त का नाश करने वाला होता है।
गाय का घी विशेष रूप से नेत्रों के लिए उपयोगी और बुद्धि-बल दायक होता है। इसका सेवन कांतिवर्धक माना जाता है।
गोमूत्र प्लीहा रोगों के निवारण में परम उपयोगी है। रासायनिक दृष्टि से देखने पर इसमें पोटेशियम, मैग्रेशियम, कैलशियम, यूरिया, अमोनिया, क्लोराइड, क्रियेटिनिन जल एवं फास्फेट आदि द्रव्य पाये जाते हैं।
गोमूत्र कफ नाशक, शूल गुला, उदर रोग, नेत्र रोग, मूत्राशय के रोग, कष्ठ, कास, श्वास रोग नाशक, शोथ, यकृत रोगों में राम-बाण का काम करता है।
चिकित्सा में इसका अन्त: बाह्य एवं वस्ति प्रयोग के रूप में उपयोग किया जाता है। यह अनेक पुराने एवं असाध्य रोगों में परम उपयोगी है।
गोबर का उपयोग वैदिक काल से आज तक पवित्रीकरण हेतु भारतीय संस्कृति में किया जाता रहा है। यह दुर्गंधनाशक, पोषक, शोधक, बल वर्धक गुणों से युक्त है।
विभिन्न वनस्पतियां, जो गाय चरती है उनके गुणों के प्रभावित गोमय पवित्र और रोग-शोक नाशक है।
अपनी इन्हीं औषधीय गुणों की खान के कारण पंचगव्य चिकित्सा में उपयोगी साबित हो रहा है।

क्यों करते हैं मंगल की लाल गुलाब से पूजा?
मंगल की पूजा में कुछ चीजें आवश्यक मानी गई हैं। भात यानी चावल, लाल गुलाल, कुंकुं, लाल गुलाब ये चीजें ऐसी हैं जो मंगल की पूजा में अनिवार्य मानी गई हैं। कहा जाता है मंगल को यह वस्तुएं चढ़ाने से वे व्यक्ति के अनुकुल असर करते हैं। आखिर फूलों में लाल गुलाब ही मंगल को क्यों प्रिय है?लाल गुलाब न हो तो लाल रंग का कोई दूसरा फूल भी उन्हें चढ़ाया जा सकता है। आखिर लाल फूल खासतौर पर गुलाब ही मंगल को क्यों चढ़ाया जाता है?
मंगल अग्नि का कारक ग्रह है। उसका स्वरूप लाल है। मंगल लाल कपड़े, लाल फूल आदि से प्रसन्न होते हैं। मंगल किसी राशि में खराब स्थान पर बैठा हो, विपरित राशि में बैठा हो तो व्यक्ति को उनके क्रोध का शिकार होना पड़ता है। मंगल जब ठीक नहीं हो तो उन्हें शीतल यानी ठंडी प्रकृति की चीजें चढ़ाई जाती हैं। जैसे भात, गुलाब, दही, दूध आदि। गुलाब मंगल ग्रह के लिए सबसे श्रेष्ठ फूल है।यह लाल रंग का होता है जो मंगल के रंग को दर्शाता है और दूसरा इसकी प्रकृति शीतल मानी गई है। गुलाब का रंस और गंध दोनों ही मानव शरीर को ठंडक देने वाले माने गए हैं। गर्मियों में गुलाब का शरबत भी बनाया जाता है जो मानव शरीर में शीतलता प्रदान करता है। मंगल ग्रह को लाल गुलाब चढ़ाने से उसके रंग का लाभ तो मिलता ही है, मंगल के क्रूर स्वभाव में शीतलता आती है और फूल चढ़ाने वाले से वह कू्रर दृष्टि हटाने लगते हैं।

शाम के समय क्यों नहीं सोना चाहिए?
आदमी का शरीर चौबीसों घण्टे मशीन की तरह काम करता है। जाहिर सी बात कि उसे भी आराम चाहिए होता है। तभी तो कई बार दिन में लोग कुछ देर के लिए आराम करते हैं।
कई लोग समय की कमी के कारण शाम के वक्त आराम करते हैं। यहां आराम करने से हमारा मतलब है-सोने से।
पर शाम को सोना शास्त्रों की दृष्टि से अनुचित माना जाता है।
क्या कारण है कि शाम को सोना वर्जित माना जाता है?
वैसे देखा जाए तो सोने के रात्रि को ही श्रेष्ठ माना जाता है। शास्त्रों के अनुसार तो दिन भी नहीं सोना चाहिए। दिन में सोने से आयु घटती है, शरीर पर अनावश्यक चर्बी बढ़ती है, आलस्य बढ़ता है आदि।
इसलिए दिन में सोना प्रतिबन्धित है। सिर्फ वृद्ध, बालक एवं रोगियों के मामले में यहां स्वीकृति है।
इस प्रकार जब शास्त्रों में दिन में सोने पर पाबंदी है तो शाम का समय तो वैसे भी संध्या-आचमन का होता है। शाम का समय देवताओं की आराधना एवं संध्या का होता है।
इस समय सोने से शरीर में शिथिलता आती है और नकारात्मक विचारों का आगमन होता है। इस समय तो पूरे भक्तिभाव से भगवान की पूजा-अर्चना एवं संध्या करनी चाहिए।
शाम को सोने के साथ ही खाना खाना, पढ़ाई करना एवं मैथुन कर्म करना भी वर्जित है। कहते हैं इन कर्मों को शाम को करने से आयु तो घटती ही है, साथ ही यश, लक्ष्मी, विद्या आदि सभी का नाश हो जाता है।
इसलिए शाम को सोना शास्त्रोक्त विधान के अनुसार अनुचित माना गया है।
सगाई की अंगूठी रिंगफिंगर में ही क्यों पहनाते हैं?
किसी भी व्यक्ति की जिंदगी में शादी किसी सुनहरे सपने के सच होने जैसी होती है। शादी दो व्यक्तियों ही नहीं बल्कि दो समाजों और समुदायों को भी एक करती है।
शादी से पहले सगाई करवाने की प्रथा है। इसके पीछे यह सोच होती है कि सगाई से शादी के बीच का जो समय है वह दो लोगों को एक-दूसरे को समझने के लिए काम आता है।
सगाई में भावी वर-वधु एक-दूसरे को अंगूठी पहनाते हैं। यह अंगूठी भी अनामिका यानि रिंगफिंगर में ही पहनाई जाती है।
क्या इसके पीछे कोई विशेष कारण है?
क्यों सगाई की अंगूठी सिर्फ अनामिका यानि रिंगफिंगर में ही पहनाई जाती है?
दरअसल ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शरीर के हर हिस्से का अपना अलग ही प्रभाव होता है। अनामिका अंगुली यानि रिंगफिंगर का भी अपना ही अलग महत्व है।
कहते हैं कि इसकी नाड़ी सीधे दिल तक जाती है। इससे दो लोगों के बीच हमेशा प्यार बना रहता है।
जब भावी वर-वधु एक-दूसरे को सगाई की अंगूठी पहनाते हैं तो यही कामना होती है कि दोनों का प्यार सदा एक-सा बना रहे।
यही कारण है कि सगाई की अंगूठी हमेशा अनामिका यानि रिंगफिंगर में ही पहनाई जाती है।

सुबह उठते ही धरती को प्रणाम क्यों?
हमारी हिन्दू संस्कृति कई मायनों में सभी से अलग है। पर कुछ अनुकरणीय बातें इसमें ऐसी भी हैं कि जो सभी धर्मों में समान रूप से मानी जाती हैं। ऐसी ही एक आदत है- सुबह सोकर उठते ही धरती को प्रणाम करना।
क्यों किया जाता है ऐसा, वो भी धरती के लिए?
दरअसल सभी धर्मों में धरती को मां समान पूजा जाता है। इसके पीछे यह धारणा होती है कि जो धरती अन्न पैदा कर पूरे जीवन भर हमारा लालन-पोषण करती है, उसके प्रति हमारे दिल में श्रद्धा-भाव हमेशा बना रहे।
धरती को भगवान का रूप माना जाता है। इसलिए भी वह हमारे लिए पूजनीय है।
रात भर सोने से मनुष्य के शरीर में नकारात्मक शक्तियां हावी हो जाती हैं। जब सुबह हम धरती को प्रणाम करने के लिए झुकते हैं तो सारी नकारात्मक ऊर्जा धरती में समा जाती है।
वहीं शरीर में सकारात्मकता का संचार होता है। यह सकारात्मक ऊर्जा दिनभर शरीर को आलस्य से दूर रखती है और मन-मस्तिष्क को कर्म करने की प्रेरणा देती है।
सुबह-सुबह उठते ही धरती को प्रणाम करना हमारी सांस्कृतिक विरासत की अग्रणी परंपरा है।
इन्हीं सब कारणों से सुबह उठते ही धरती को प्रणाम किया जाता है।

गोदभराई फल और सूखे मेवों से क्यों?
किसी भी महिला के लिए मां बनने का सुख सबसे बड़ा होता है। हमारे धर्म में बच्चे के जन्म में पहले ही कई परंपराओं का निर्वाह किया जाता है। इनमें से एक परंपरा है गोदभराई की। फल और सूखे मेवों से गर्भवती स्त्री की गोद भराई की जाती है।
कभी आपने सोचा है कि फल और सूखे मेवे ही गोद भराई में उपयोग क्यों किए जाते हैं? दरअसल गोद भराई की पूरी रस्म होने वाले बच्चे के स्वास्थ्य के लिए की जाती है। उस समय विशेष पूजा से गर्भ के दोषों का निवारण तो किया ही जाता है साथ ही गर्भ में पल रहे बच्चे के स्वास्थ्य के लिए यह पूरी प्रक्रिया की जाती है।
फल और सूखे मेवे पौष्टिक होते हैं। गर्भवती महिला को ये फल और मेवे इसीलिए दिए जाते हैं कि वो इन्हें खाए, जिससे गर्भ में बच्चे की सेहत अच्छी रहेगी। दूसरा कारण यह है कि फल और सूखे मेवों से शरीर में शक्ति तो आती ही है साथ ही इनके तेलीय गुणों के कारण इसमें चिकनाई भी आ जाती है। जिससे प्रसव के समय महिला को कम से पीड़ा होती है और शिशु भी स्वस्थ्य रहता है।

दान को क्यों माना जाता है महत्वपूर्ण?
हिंदू संस्कृति हो या पाश्चात्य हर जगह की संस्कृति में दान को महत्वपूर्ण माना गया है। हिंदू संस्कृति में तो हर तीज-त्योहार पर दान का महत्व माना गया है। पुराणों और अन्य धार्मिक ग्रंथों में दान को मोक्ष के लिए सबसे अच्छा रास्ता माना गया है। आखिर दान करने से ऐसा क्या लाभ होता है जो इसको सभी धर्मों में प्रमुख कार्य बनाता है? क्या वाकई दान से मोक्ष मिलता है या यह केवल कोरी कल्पना है?
वास्तव में दान हमारे मानसिक विकास में सहायक है। दान का दार्शनिक महत्व भी है और व्यवहारिक भी। दान से हमारे व्यवहार में परिवर्तन आता है। हिंदू संस्कृति में मानव जीवन का लक्ष्य मोक्ष माना गया है। मोक्ष के लिए जो आचरण और व्यवहार में जो बातें आवश्यक होती हैं, उनमें है ज्ञान, धर्म, अर्थ, काम, वैराग्य, भक्ति आदि। अर्थ और काम की पूर्ति तो व्यक्ति अपने व्यवसायिक और वैवाहिक जीवन से पूरी कर लेता है लेकिन दर्शन शास्त्र के मुताबिक व्यक्ति ज्ञान, धर्म और वैराग्य तक तब तक नहीं पहुंच सकता जब तक कि उसके मन में मोह है। जब वह मोह को छोड़ देता है तो उसमें वैराग्य, ज्ञान और धर्म का भाव जागता है।
कोई भी व्यक्ति अपनी प्रिय वस्तु को जब दान देता है तो उसमें एक तरह का वैराग्य स्वभाविक रूप से जागता है। हिंदू धर्म में इसी कारण को ध्यान में रखते हुए दान की परंपरा निर्धारित की गई है। वैराग्य जागने के बाद ही व्यक्ति का मन धर्म और ज्ञान की प्राप्ति की ओर बढ़ता है। धर्म, वैराग्य उसके व्यवहार में उतरने लगते हैं। इस कारण से दान को सबसे महत्वपूर्ण माना गया है।

सागर में ही क्यों रहते हैं विष्णु और लक्ष्मी?
भगवान विष्णु का वास क्षीरसागर माना गया है। इसे विष्णुलोक, वैकुंठ वगैरह नामों से भी जाना जाता है। विष्णु को सृष्टि का संचालक माना गया है, वे तीनों देवों में ऐसे हैं जो इस सृष्टि का पालन करते हैं फिर क्या कारण है कि भगवान विष्णु को धरती या स्वर्ग जैसे किसी स्थान की बजाय समुद्र का वासी माना गया है। वे शेषनाग पर लेटे हैं और हमेशा क्षीरसागर में ही रहते हैं, ऐसा क्यों?पुराणों और अन्य धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक भगवान विष्णु जिस क्षीरसागर में रहते हैं वह कामधेनु गाय की पुत्री सुरभि के दूध से भरा है। वहीं पर भगवान विष्णु शेषशैया पर विश्राम करते हैं और वहीं से इस सृष्टि का संचालन करते हैं। वास्तव में यह प्रतीकात्मक स्वरूप है। अगर दार्शनिक या व्यवहारिक रूप से देखा जाए तो क्षीरसागर, शेषनाग आदि सभी सांकेतिक हैं। दरअसल भगवान विष्णु सृष्टि के संचालक हैं और मूलत: वे एक गृहस्थ के प्रतिनिधि हैं। इसलिए भगवान विष्णु या कृष्ण सभी कर्म को महत्व देते हैं।क्षीरसागर इसी दुनिया का प्रतीकात्मक रूप है। यह दुनिया भी क्षीरसागर की तरह अथाह है और इसमें सागर के पानी जितने ही सुख-दु:ख भी हैं। जिस शेषनाग पर भगवान लेटे हैं, वह मूलत: गृहस्थ जीवन का प्रतीक है। व्यक्ति संसार में सबसे ज्यादा गृहस्थी की जिम्मेदारियों से बंधा होता है। जिसमें परिवार, समाज, देश, गुरुजन और आत्मकल्याण ये पांच जिम्मेदारियां उसकी गृहस्थी से जुड़ी होती हैं। ये ही शेषनाग के पांच फन हैं। विशेष बात यह है कि ये पांच जिम्मेदारियां ही हमारा सबसे बड़ा सहारा और आश्रय भी है। जिम्मेदारियों और हमारे आश्रय के बीच का सामन्जस्य ही गृहस्थी को सफलतापूर्वक चला सकते हैं।

क्यों किया जाता है दीपदान?
धनतेरस से दीपावली तक नदी-तालाबों में दीपदान करने का प्रचलन है। शास्त्रों का मानना है कि दीप दान करने से नरक के दर्शन नहीं होते। दीपदान लगभग पूरे देश में हर जगह होता है। आखिर क्या कारण है कि दीप दान को इतना महत्वपूर्ण माना गया है? क्या वाकई दीप दान से नरक के दर्शन नहीं होते? या इसका कोई और महत्व है।
दीप दान एक धार्मिक परंपरा तो हैं ही लेकिन इसके पीछे कई सारे अर्थ छिपे हैं। वास्तव में दीप दान के कई संदेश हैं, जो हमें बुरे कर्मों से बचने का संदेश देते हैं। कुछ विद्वान इसकी व्याख्या प्रकृति से जोड़कर करते हैं। दरअसल दीप दान इस बात का संकेत है कि हम अपने जीवन में ज्ञान और धर्म का उजाला लाएंगे। अज्ञान और अधर्म के कारण ही व्यक्ति को नर्क के दर्शन होते हैं यानी मरने के बाद नर्क में जाना पड़ता है। अज्ञानता के कारण हम अच्छे-बुरे का भेद नहीं कर पाते, परमात्मा को नहीं पहचान पाते हैं। ज्ञान आने पर यह परेशानी दूर हो जाती है। ज्ञान आता है तो उसके साथ ही धर्म भी हमारे जीवन में प्रवेश करता है। दूसरा कारण प्रकृति से जुड़ा है, बारिश के मौसम के बाद प्रकृति का सौंदर्य पूरे निखार पर होता है।
दीप दान के द्वारा हम प्रकृति यानी परमात्मा को यह विश्वास दिलाते हैं कि हम प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा करेंगे। उनमें कभी अंधकार नहीं होने देंगे। अगर प्राकृतिक संसाधन समाप्त होंगे तो धरती पर ही नर्क का उतर आएगा। इसलिए हम प्रकृति के संदेश वाहक जल स्रोतों में दीप दान कर यह संकल्प लेते हैं कि हम प्रकृति को नुकसान नहीं पहुंचाएंगे।

दीपावली पर क्यों खाते हैं खील-बताशे?
उज्जैन. दीपावली पर मां लक्ष्मी को तरह-तरह के पकवान तो भोग में रखे जाते हैं लेकिन खील-पताशे (धानी और बताशे) भी चढ़ाए जाते हैं। इसे ही लक्ष्मी का प्रमुख प्रसाद माना जाता है और सभी दीपावली पर खील-बताशे जरूर खाते हैं। आखिर सारे गरिष्ठ और तरह-तरह के पकवानों के बीच सूखी सी खील और पताशे देवी लक्ष्मी को क्यों चढ़ाते हैं? क्या खील-पताशों का कोई महत्व होता है? क्या इसका स्वास्थ्य से भी कोई संबंध है?
दीपावली धन और ऐश्वर्य की प्राप्ति का त्योहार है। इस दिन मां लक्ष्मी का पूजन कर जीवनभर धन-संपत्ति की कामना की जाती है। खील-पताशे का प्रसाद किसी एक कारण से नहीं बल्कि उसके कई महत्व है, व्यवहारिक, दार्शनिक, स्वास्थ्य और ज्योतिषीय ऐसे सभी कारणों से दीपावली पर खील-बताशे का प्रसाद चढ़ाया जाता है। खील यानी धान मूलत: धान (चावल) का ही एक रूप है। यह चावल से बनती है और उत्तर भारत का प्रमुख अन्न भी है। दीपावली के पहले ही इसकी फसल तैयार होती है, इस कारण लक्ष्मी को फसल के पहले भाग के रूप में खील-बताशे चढ़ाए जाते हैं।
स्वास्थ्य की दृष्टि से देखा जाए तो भी यह काफी लाभप्रद है। श्राद्ध में सोलह दिन तक खीर-पुरी और अन्य पकवानों के बाद नवरात्रि में नौ दिन उपवास से हमारा हाजमा प्रभावित होता है, खील सुपाच्य होती है। इसकी कमजोर हाजमा ठीक होता है। खील बताशों का ज्योतिषीय महत्व भी होता है। दीपावली धन और वैभव की प्राप्ति का त्योहार है और धन-वैभव का दाता शुक्र ग्रह माना गया है। शुक्र ग्रह का प्रमुख धान्य धान ही होता है। शुक्र को प्रसन्न करने के लिए हम लक्ष्मी को खील-बताशे का प्रसाद चढ़ाते हैं।

क्यों लगाते हैं भगवान को 56 भोग?
दीपावली के दूसरे दिन यानी गोवर्धन पूजा पर भगवान श्रीकृष्ण को 56 भोग का अन्नकूट भी लगाया जाता है। खासतौर पर वैष्णव जन इस दिन को बड़ी धूमधाम से मनाते हैं। इस सब के बीच एक सवाल यह उठता है कि भगवान को 56 व्यंजनों का ही भोग क्यों लगता है? आखिर इस संख्या में क्या खास बात है? क्यों भगवान इससे कम या ज्यादा का भोग स्वीकार नहीं करते?
56 भोगों को लेकर आज तक काफी कुछ लिखा गया है और लोग भी बड़ी श्रद्धा से इस परंपरा को निबाह रहे हैं। 56 भोग के पीछे सारे कारण बहुत ही दार्शनिक है। कुछ विद्वान यह मानते हैं कि यह संभव है कि जिस समय यह परंपरा शुरू हुई तो उस समय इतने ही पकवान बनते हों, इससे ज्यादा व्यंजन हो ही नहीं। लेकिन 56 के आंकड़े में कुछ खास बातें हैं। कहते हैं जिस कमल पर भगवान विष्णु विराजित हैं उसकी पंखुडिय़ों की संख्या 56 है, यह तीन चरणों में है, पहले में आठ, दूसरे में 16 और तीसरे में 32 पंखुडिय़ां होती हैं। इसी लिए भगवान को 56 भोग लगाए जाते हैं।
एक कारण ओर बताया गया है। एक प्राणी की 84 लाख योनियां बताई गई हैं, जिसमें से श्रेष्ठ है मनुष्य योनि। अगर मनुष्य योनि को अलग कर दिया जाए तो 83,99,999 संख्या होती है। ये सारी योनियां पशु-पक्षी की होती है। इन सबको जोड़ दिया जाए तो (8+3+9+9+9+9+9=56) 56 ही योग आता है। विद्वानों का मानना है कि मनुष्य जन्म को छोड़कर शेष जन्मों से मुक्ति पाने के लिए ही हम 56 भोग का प्रसाद भगवान को लगाते हैं। यह मानकर कि हमने अपने शेष 83,99,999 जन्म भगवान को अर्पित कर दिए हैं।

शनिवार को जूता चोरी हो जाना शुभ क्यों?
ऐसे तो चोरी होना आपके धन की हानि दर्शाता है लेकिन कई बार चोरी को शुभ भी माना जाता है। खासतौर पर अगर शनिवार को चमड़े के जूते चोरी हो जाएं तो उसे बहुत शुभ माना जाता है। कई लोग शनि मंदिरों में जूते छोड़ भी देते हैं, इसे शुभ माना जाता है। आखिर शनिवार को जूते चोरी हो जाने से क्या लाभ होता है? क्यों ऐसा माना जाता है कि चमड़े के जूते चोरी हो जाएं तो सारी परेशानी उसके साथ चली जाती हैं?
वास्तव में यह मान्यता ज्योतिषीय आधार पर प्रचलित है। ज्योतिष शास्त्र में शनि को क्रूर और कठोर न्यायप्रिय ग्रह माना गया है। शनि जब किसी के विपरित होता है तो उस व्यक्ति को जी-तोड़ मेहनत के बाद भी फल थोड़ा ही मिलता है। जिसकी कुंडली में साढ़े साती, ढैया हो, या जिसकी राशि में शनि अच्छे स्थान पर न हो, उसे यह खास परेशानी होती है। शनिवार शनि का दिन माना जाता है। हमारे शरीर के अंग भी ग्रहों से प्रभावित होते हैं। त्वचा (चमड़ी) और पैर में शनि का वास माना जाता है, इनसे संबंधित चीजें शनि के लिए दान की जाती हैं और इनकी बीमारियां भी शनि से संबंधित होती हैं।
चमड़ा और पैर दोनों ही शनि से प्रभावित होते हैं, इस कारण चमड़े के जूते अगर शनिवार को चोरी हो जाएं तो मानना चाहिए कि हमारी परेशानी कम होने जा रही हैं। शनि अब ज्यादा परेशान नहीं करेगा। कई लोग इसी कारण से शनिवार को शनि मंदिरों में जूते भी छोड़कर आते हैं ताकि शनि उनके कष्ट कम कर दें।

क्यों बनाई जाती है मंदिर में सांप की आकृति?
भारतीय मंदिर अपनी वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध हैं। मंदिरों में अधिकांशत: नदी, पहाड़, अग्रिकुंड जैसी आकृतियां तो दिखाई देती ही हैं लेकिन इनके साथ ही सांप की आकृति भी बनाई जाती है। कई बार ये साथ-साथ तो कई बार अकेली बनाई जाती है। सांप की आकृति क्यों बनाई जाती है? शेष जानवरों को छोड़कर केवल सांप ही को क्यों चुना जाता है?
मंदिरों का निर्माण वास्तु कला के आधार पर होता है। वास्तु शास्त्र के मुताबिक ही इसमें चिन्ह बनाए जाते हैं। इसी वास्तु शास्त्र के मुताबिक ही सांप की आकृति भी बनाई जाती है। दरअसल मंदिरों के वास्तु में पंच तत्वों को दर्शाना होता है। अग्रि को हवनकुंड से, पृथ्वी को पहाड़ और जंगलों से, आकाश को सूर्य-चंद्रमा से और जल को नदियों की आकृति बनाकर दर्शाया जाता है लेकिन वायु तत्व को दर्शाने के लिए कोई आकृति नहीं होती। वास्तुशास्त्र ने इसके लिए सर्प को चुना है, सर्प वायु की तरह ही अलग-अलग गतियों से चलता है। उसकी आवाज भी केवल सांसों के जरिए ही सुनी जा सकती है। इस कारण भारतीय वास्तु शास्त्र ने सांप को ही वायु तत्व का प्रतिनिधि माना है। इस कारण मंदिरों में सांपों की आकृति बनाई जाती है।

साधु-संत भगवा रंग के वस्त्र क्यों पहनते हैं?
साधु-संत किसी भी पंथ के हों, वे भगवा यानी केसरिया रंग जरूर औढ़ते हैं। खासतौर पर शैव संप्रदाय के सन्यासियों में भगवा रंग का ज्यादा प्रचलन है, कई बैरागी यानी वैष्णव संप्रदाय के लोग सफेद वस्त्रों को प्रमुख स्थान देते हैं। केसरिया या भगवा रंग में ऐसी क्या खास बात है कि इस रंग को इतना महत्व दिया जाता है? किसी और रंग में यह खासियत क्यों नहीं होती?
सन्यासियों में भगवा या केसरिया रंग का महत्व दो कारणों से होता है, पहला इस रंग की खासियत और दूसरा इस रंग के ज्योतिषीय गुण। कलर थैरेपी के मुताबिक केसरिया रंग सम्पन्नता का प्रतीक है। यह रंग आंखों पर विशेष प्रभाव डालता है, जो हमारे व्यवहार में शांति और आनंद की बढ़ोतरी करता है। यह प्रसन्नता बढ़ाता है। केसरिया रंग पहनने वाले लोगों को गुस्सा भी कम आता है। यह हमें भीतर से सम्पन्न बनाता है।
दूसरा कारण ज्योतिष से संबंधित है। ज्योतिष में पीला या इससे बनने वाले रंग बृहस्पति के माने गए हैं। बृहस्पति ज्ञान के देवता है, सन्यासी हमेशा ज्ञान की साधना में लीन रहते हैं। यह रंग उन्हें इस काम में सहायता देता है। बृहस्पति ग्रह भी इस रंग से प्रसन्न होते हैं और इस रंग को पहनने वाले पर विशेष कृपा करते हैं। इस रंग की बदौलत सन्यासियों को ज्ञान अर्जन और संसार में धर्म के ज्ञान के प्रचार में सहायता मिलती है।

तीर्थ यात्रा क्यों मानी जाती हैं जरूरी?
धर्म कोई भी हो, उसमें तीर्थ यात्रा या भ्रमण का महत्व बहुत ज्यादा माना गया है। हिंदू में चार धाम, 12 ज्योतिर्लिंग या 51 शक्तिपीठ, जैन समाज में तीर्थंकरों के स्थान, मुस्लिम समाज में मक्का-मदीना ऐसे ही हर समाज में कुछ प्रमुख तीर्थ माने गए हैं, जहां यात्राकर वहां दर्शन और पूजा जरूरी मानी गई है। आखिर तीर्थ यात्रा से क्या लाभ होता है? क्यों तीर्थों को इतना महत्व दिया गया है?
तीर्थ यात्रा के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण जो बात मानी गई है वह किसी भी समाज की संस्कृति और देश की भौगोलिक स्थिति पर निर्भर करती है। तीर्थ यात्राएं इसलिए जरूरी मानी गई हैं क्योंकि तीर्थों के आसपास मौजूद सकारात्मक ऊर्जा हमें मिल सके। हम तीर्थ यात्रा के जरिए यह देख सकें कि धरती पर कितनी तरह की संपदाएं बिखरी पड़ी हैं।
प्रकृति का सौंदर्य भी निहार सकें। इसके साथ ही यह भी देख सकें कि हमारी देश और संस्कृति कितनी दूर-दूर तक फैलें हुए हैं। तीर्थों के आसपास मौजूद सकारात्मक ऊर्जा से हमारा आत्मविश्वास तो बढ़ता ही है। साथ ही हमें जीवन के प्रति नया नजरिया मिलता है।

आरती राग में ही क्यों गाई जाती हैं?
हमारी प्राचीन परंपरा के अनुसार भगवान को प्रसन्न करने के लिए आरती की जाती है और ये आरती राग में गाई जाती हैं। आरती राग में ही क्यों गाई जाती हैं? इसके पीछे धार्मिक कारण तो है साथ ही इसका वैज्ञानिक कारण भी है।
आरती राग में करने के पीछे धार्मिक कारण यही है कि संगीतमय आरती भगवान को भी प्रसन्न कर देती है। सही संगीत हर स्थिति में मन को सुकून देने वाला ही होता है। हमारे धर्म ग्रंथों में कई प्रसंग ऐसे आते हैं जहां भगवान की प्रार्थना में विभिन्न वाद्ययंत्रों के साथ-साथ उनकी स्तुति को सही सुर में गाया जाता है। ऐसे स्तुति गान से देवी-देवता तुरंत ही प्रसन्न हो जाते हैं। ऐसा माना जाता है।प्रतिदिन प्रात: काल सही सुर-ताल के साथ आरती करना हमारे स्वास्थ्य के लिए भी लाभदायक है। सही सुर में गायन करने से हमारे शरीर का पूरा सिस्टम प्रभावित होता है। हमें ऊर्जा मिलती है, रक्त संचार बढ़ जाता है। आरती गान को योगा की तरह ही देखा जा सकता है। इससे हमारी आवाज साफ और सुरीली हो जाती है। नियमित आरती करने वाले लोगों की आवाज में अलग ही आकर्षण पैदा हो जाता है। साथ ही गले से संबंधित कई रोग हमेशा दूर ही रहते हैं। इनके अलावा भी कई अन्य स्वास्थ्य संबंधी लाभ हैं। लाभों को देखते हुए ही आरतियां राग में गाने की परंपरा शुरू की गई है।

अंगुठियां क्यों पहनते हैं?
हम और हमारे आसपास अधिकांश लोग अपने हाथों में अंगूठी पहनते हैं। वैसे तो आज के समय अंगुठियों को आभूषण के रूप में देखा जाता है लेकिन अंगूठी पहनने के कई ज्योतिषीय और वैज्ञानिक लाभ भी हैं।
पुराने समय से ही अंगूठी पहनने की परंपरा चली आ रही है। लड़के हो या लड़कियां सभी को अंगूठी पहनना काफी पसंद होता है। हाथों में अंगूठी पहनने के पीछे यह ज्योतिषीय कारण हैं कि अंगूठी में नग या रत्न जड़वाकर पहना जाता है। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार कुंडली में यदि कोई ग्रह अशुभ फल देने वाला है तो उसके निदान के लिए अंगूठी में रत्न लगवाकर पहनाया जाता है।
हस्तरेखा विज्ञान के अनुसार हमारे हाथों की अंगुलियां अलग-अलग ग्रहों का प्रतिनिधित्व करती हैं। हमारी कुंडली में जो ग्रह अशुभ होता है उस ग्रह का प्रतिनिधित्व करने वाली अंगूली में संबंधित रत्न धारण कर लिया जाता है। अंगूठी में रत्न पहनने के बाद अशुभ ग्रह का बुरा प्रभाव कम हो जाता है।
अंगूठी पहनने से उसकी धातू के सभी गुण हमारी त्वचा से शरीर में प्रवेश करते हैं। जो कि हमारे स्वास्थ्य के लिए बेहद लाभकारी होते हैं।
अंगुठियों में कीमती रत्न जड़वाकर पहने जाते हैं, इससे हाथों की सुंदरता बढ़ती है। अन्य लोगों पर इसका अच्छा प्रभाव पड़ता है। कोई भी नया व्यक्ति इसके आकर्षण से आपसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। रत्न धारण करने के लिए अंगुठियां पहनने का चलन आज फैशन बन गया है। इन्हीं सब फायदों की वजह से अंगुठियां पहनी जाती हैं।

ताविज क्यों बांधते हैं?
अक्सर देखने में आता है कि कई लोग गले में काले रंग के धागे में किसी धातु या लाल-काले रंग के कपड़े का टुकड़ा पहनते हैं। यही ताविज कहलाता है। सामान्यत: सभी छोटे बच्चों को तो अनिवार्य रूप से ताविज बांधा जाता है। कई लोग ताविज बांधने को अंधविश्वास मानते हैं परंतु ऐसा नहीं है। इसके स्वास्थ्य संबंधी कई फायदे भी होते हैं।
ताविज बांधने की परंपरा हर धर्म में मानी जाती है। यह अति प्राचीनकालीन प्रथा है। जिसे आज भी अधिकांश लोग मानते हैं। ताविज बांधने से बुरी नजर नहीं लगती है। वहीं कई लोग मंत्रों से सिद्ध किए ताविज धारण करते हैं। मंत्रों की शक्ति से सभी भलीभांति परिचत हैं। किसी सिद्ध संत या महात्मा द्वारा अपनी मंत्र शक्ति से ताविज बनाकर दिए जाते हैं। यह ताविज बीमारियों से निजात पाने के लिए बनवाए जाते हैं।
कैसे बनते हैं ताविज
ताविज में एक काला धागा होता है। इस धागे में किसी कपड़े में या धातु की छोटी सी डिबिया होती है। इस कपड़े या डिबिया में कोई मंत्र लिखा भोज पत्र, भभूती, सिंदूर के साथ कई लोग इसमें तांत्रिक वस्तुएं भी रखते हैं।
ताविज के फायदे
मान्यता है कि ताविज के प्रभाव से वातावरण में मौजूद नकारात्मक शक्तियां हमें प्रभावित नहीं कर पाती। साथ ही ताविज का धागा हमें दूसरों की बुरी नजर से बचाता है। ताविज का मंत्र लिखा भोज पत्र या भगवान की भभूति या सिंदूर आदि मंत्रों के बल सिद्ध किए होते हैं जो धारण करने वाले व्यक्ति के लिए शुभ रहते हैं।

शुभ काम से पहले कुछ मीठा हो जाए, क्योंकि...
कहा जाता है कि किसी भी शुभ कार्य को करने से पहले मुंह मीठा करना चाहिए, कोई मिठाई या दही, शकर खाना चाहिए। यह परंपरा भी पुराने समय से ही चली आ रही है। आज भी कई लोग घर से निकलने के पूर्व कुछ मीठा खाते हैं।
हम जब भी किसी परीक्षा या किसी शुभ कार्य के लिए घर से निकलते हैं तो हमारे बुजुर्ग कुछ मीठा खाकर जाने की बात कहते हैं। आखिर इससे फायदा क्या होता है?
ऐसा माना जाता है मीठा खाकर कुछ भी कार्य करने से हमें सफलता मिलती है। मीठा खाने से हमारा मन शांत रहता है। हमारे विचार भी मिठाई की तरह ही मीठे हो जाते हैं। हमारी वाणी में मिठास आ जाती है। यदि हमारा मन किसी दुखी करने वाली बात में उलझा हुआ है और हम मीठा खा लेते हैं तुरंत ही मन प्रसन्न हो जाता है। मीठा खाने के बाद हम किसी भी कार्य को ज्यादा अच्छे से कर सकते हैं।
साथ ही घर से निकलते समय मीठा खाने से हमारे सभी नकारात्मक विचार समाप्त हो जाते हैं और हमारे अंदर सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। कुछ लोग दही और शकर खाकर किसी भी शुभ कार्य की शुरूआत करते हैं। दही में खटास होती है और शकर में मिठास। इस खट्टे-मीठे स्वाद से हमारा मन तुरंत ही दूसरे सभी बुरे विचारों से हट जाता है। मीठा खाने से रक्त संचार बढ़ जाता है। एनर्जी मिलती है।
शुभ कार्य के पहले मीठा खाना चाहिए परंतु ज्यादा मीठा स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।

कुंडली मिलान के बाद ही शादी क्यों करें?
हिंदू धर्म शास्त्रों में हमारे सोलह संस्कार बताए गए हैं। इन संस्कारों में काफी महत्वपूर्ण विवाह संस्कार। शादी को व्यक्ति को दूसरा जन्म भी माना जाता है क्योंकि इसके बाद वर-वधू सहित दोनों के परिवारों का जीवन पूरी तरह बदल जाता है। इसलिए विवाह के संबंध में कई महत्वपूर्ण सावधानियां रखना जरूरी है। विवाह के बाद वर-वधू का जीवन सुखी और खुशियोंभरा हो यही कामना की जाती है।
वर-वधू का जीवन सुखी बना रहे इसके लिए विवाह पूर्व लड़के और लड़की की कुंडली का मिलान कराया जाता है। किसी विशेषज्ञ ज्योतिषी द्वारा भावी दंपत्ति की कुंडलियों से दोनों के गुण और दोष मिलाए जाते हैं। साथ ही दोनों की पत्रिका में ग्रहों की स्थिति को देखते हुए इनका वैवाहिक जीवन कैसा रहेगा? यह भी सटिक अंदाजा लगाया जाता है। यदि दोनों की कुंडलियां के आधार इनका जीवन सुखी प्रतीत होता है तभी ज्योतिषी विवाह करने की बात कहता है।
कुंडली मिलान से दोनों ही परिवार वर-वधू के बारे काफी जानकारी प्राप्त कर लेते हैं। यदि दोनों में से किसी की भी कुंडली में कोई दोष हो और इस वजह से इनका जीवन सुख-शांति वाला नहीं रहेगा, ऐसा प्रतीत होता है तो ऐसा विवाह नहीं कराया जाना चाहिए।
कुंडली के सही अध्ययन से किसी भी व्यक्ति के सभी गुण-दोष जाने जा सकते हैं। कुंडली में स्थित ग्रहों के आधार पर ही हमारा व्यवहार, आचार-विचार आदि निर्मित होते हैं। उनके भविष्य से जुड़ी बातों की जानकारी प्राप्त की जाती है। कुंडली से ही पता लगाया जाता है कि वर-वधू दोनों भविष्य में एक-दूसरे की सफलता के लिए सहयोगी सिद्ध या नहीं।
वर-वधू की कुंडली मिलाने से दोनों के एक साथ भविष्य की संभावित जानकारी प्राप्त हो जाती है इसलिए विवाह से पहले कुंडली मिलान किया जाता है।

मंगलवार को कर्ज क्यों ना लें...
कर्ज, उधार, लोन यह ऐसे शब्द हैं जिन्हें हम दिन में कई बार सुनते हैं। आज अधिकांश लोग को लोन लेकर अपनी आवश्यकताओं को पूरा कर रहे हैं। अधिक से अधिक सुख-सुविधाओं को जुटाने के लिए दूसरों से कर्जा लेते हैं, बैंक से लोन लेते हैं। लोन तो आसानी से मिल जाता है परंतु कई बार इसे चुकाने में कई परेशानियां से जुझना पड़ता है। इन्हीं परेशानियां से बचने के लिए हमारे धर्म शास्त्रों और ज्योतिष द्वारा कुछ नियम बनाए गए हैं।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार मंगल देव को कर्ज का कारक ग्रह माना गया है। कोई भी व्यक्ति कर्ज लेता है तो यह मंगल ग्रह का ही प्रभाव होता है। मंगल का ग्रहों का सेनापति माना गया है। मंगल को क्रूर ग्रह माना जाता है यह अधिकांश स्थितियों में बुरा ही देने वाला है। इसी वजह से शास्त्रों द्वारा मंगल के दिन मंगलवार को कर्ज लेना वर्जित किया गया है। इस दिन लोन पर बहुत कम परिस्थितियों में कोई व्यक्ति इसे चुका पाता है।
मंगलवार को कर्ज लेने से यह चुका पाना बहुत मुश्किल होता है। ऐसा कहा जाता है कि इस दिन कर्ज लेने पर व्यक्ति के बच्चों तक को इस कर्ज से मुसीबतें उठाना पड़ती हैं। मंगलवार को कर्ज लेने वाले व्यक्ति पर मंगल की कुदृष्टि रहती है। इसी वजह से ज्योतिष शास्त्र द्वारा मंगलवार के दिन कर्ज लेना वर्जित किया गया है।

शव को मुखाग्नि पुत्र ही क्यों देता है?
मृत्यु एक अटल सत्य है। जिसने जन्म मिला है उसे मृत्यु अवश्य प्राप्त होगी। हिंदू धर्म में मृत्यु के संबंध में कई महत्वपूर्ण नियम बनाए गए हैं। जैसे सबसे महत्वपूर्ण नियम यह है कि किसी की भी मृत्यु के बाद शव को मुखाग्नि पुत्र ही देता है। यदि मृत व्यक्ति का पुत्र है तो मुखाग्नि उसे ही देना है, ऐसा विधान है।
मृतक चाहे स्त्री हो या पुरुष अंतिम क्रिया पुत्र की संपन्न करता है। इस संबंध में हमारे शास्त्रों में उल्लेख है कि पुत्र पुत नामक नर्क से बचाता है अर्थात् के हाथों से मुखाग्नि मिलने के बाद मृतक को स्वर्ग प्राप्त होता है। इसीलिए मान्यता के आधार पर पुत्र होना कई जन्मों के पुण्यों का फल बताया जाता है।
पुत्र ही माता-पिता का अंश होता है। इसी वजह से पुत्र का यह कर्तव्य है कि वह अपने माता-पिता की मृत्यु उपरांत उन्हें मुखाग्नि दे। इसे पुत्र के लिए ऋण भी कहा गया है।

छींक सुनाई दे तो, कुछ देर क्यों रुकें?
भविष्य में होने वाली संभावित घटनाओं के संबंध में हमें पहले जानकारी मिल जाए इसलिए कुछ शकुन और अपशकुन बनाए गए हैं। जिससे हमें मालूम हो जाए कि वे घटनाएं शुभ फल देने वाली है या अशुभ।
इन्हीं शकुन-अपशकुन में छींक भी शामिल है। ऐसा माना जाता है कि जब भी किसी शुभ कार्य के लिए जाते समय यदि छींक सुनाई दे तो निकट भविष्य में कुछ बुरा होने वाला है।
घर से निकलते वक्त या कोई नया काम शुरू करते समय छींक सुनाई दे तो इसे शुभ नहीं माना जाता है। इस संबंध में पुराने समय से ही मान्यता है कि ऐसा होने पर हमें कुछ देर रुक जाना चाहिए और पानी पीकर फिर अपने लक्ष्य की ओर आगे बढऩा चाहिए। यह व्यवस्था इसलिए लागू की गई है कि इससे हम कुछ देर रुक जाएं और यदि कुछ बुरा होने वाला हो तो वह समय टल जाए। इसी संभावना के चलते ऐसी परंपरा बनी है कि छींक सुनने के बाद कुछ क्षण रुकें और पानी पीएं। छींक एक संकेत मात्र है किसी अशुभ घटना से बचने के लिए।
कब आती है छींक?
छींक वैसे तो एक सामान्य क्रिया है। इस संबंध विज्ञान यह कहता है कि जब हमारी श्वास लेने की क्रिया में कोई रुकावट आ जाए या नाक में कोई कीटाणु, जीवाणु या कचरा फंस जाए तो हमें छींक आ जाती है। छींक कब आएगी? यह बता पाना संभव नहीं है, यह ऐसी क्रिया है जो कि अचानक घट जाती है। जब छींक आती है तो कुछ क्षण से हमारे शरीर का पूरा सिस्टम प्रभावित हो जाता है। छींक का इतना प्रभाव होता है कि हम छींकते समय आंख खोलकर नहीं रख सकते, आंखें भी बंद हो जाती है।

कार्तिक पूर्णिमा पर नदी स्नान क्यों?
कार्तिक पूर्णिमा पर नदी स्नान करने की परंपरा है। इस दिन बड़ी संख्या में देश की सभी प्रमुख नदियों पर श्रद्धालु स्नान के लिए पहुंचते हैं। प्राचीन काल से ही यह प्रथा चली आ रही है।
इस दिन नदी स्नान क्यों किया जाता है? इसके कई कारण हैं। हिंदू धर्म शास्त्रों के अनुसार कार्तिक मास को बहुत पवित्र और पूजा-अर्चना के लिए श्रेष्ठ माना गया है। पुण्य प्राप्त करने के कई उपायों में कार्तिक स्नान भी एक है। पुराणों के अनुसार इस दिन ब्रह्ममुहूर्त में किसी पवित्र नदी में स्नानकर भगवान विष्णु या अपने इष्ट की आराधना करनी चाहिए। ऐसा माना जाता है कलियुग में कार्तिक पूर्णिमा पर विधि-विधान से नदी स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
शास्त्रों में कहा गया है कि कार्तिक के समान दूसरा कोई मास नहीं, सत्ययुग के समान कोई युग नही, वेद के समान कोई शास्त्र नहीं और गंगाजी के समान कोई तीर्थ नहीं है।
कार्तिक महीने में नदी स्नान का धार्मिक महत्व तो है साथ ही वैज्ञानिक महत्व भी है। वर्षा ऋतु के बाद मौसम बदलता है और हमारा शरीर नए वातावरण में एकदम ढल नहीं पाता। ऐसे में कार्तिक मास में सुबह-सुबह नदी स्नान करने से हमारे शरीर को ऊर्जा मिलती है जो कि पूरा दिन साथ रहती है। जिससे जल्दी थकावट नहीं होती और हमारा मन कहीं ओर नहीं भटकता। साथ ही जल्दी उठने से हमें ताजी हवा से प्राप्त होती है जो स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत ही फायदेमंद होती है। ऐसे में ताजी और पवित्र नदी स्नान से कई शारीरिक बीमारियां भी समाप्त हो जाती है।

शनि से पीडि़त हनुमानजी को क्यों पूजें?
शनि, एक ऐसा ग्रह है जिसके प्रभाव से सभी भलीभांति परिचित हैं। ऐसा माना जाता है कि शनि अति क्रूर ग्रह है। जिस भी व्यक्ति की कुंडली में शनि अशुभ प्रभाव देने वाला होता है उसका जीवन काफी दुखों और असफलताओं से भरा होता है। शनि के बुरे प्रभाव से बचने के लिए श्रीराम के परम भक्त हनुमानजी की आराधना करना ही श्रेष्ठ उपाय है।
शनि के बचने के लिए हनुमानजी को क्यों पूजते हैं? इस संबंध में हिंदू धर्म शास्त्रों में एक कथा बहुप्रचलित है। कथा के अनुसार हनुमानजी अपने इष्ट देव श्रीराम के ध्यान में लीन थे। तभी सूर्यपुत्र शनि उनके समक्ष आ पहुंचा। शनि घमंड भरे स्वर में हनुमानजी को युद्ध के लिए ललकारने लगा। शनि की चुनौति के जवाब में हनुमानजी ने विनम्रता पूर्वक कहा कि इस समय में प्रभु श्रीराम के ध्यान में लीन हूं अत: अभी आप मुझे क्षमा करें, मैं आपसे युद्ध नहीं कर सकता। यह सुनकर शनिदेव और अधिक क्रोधित हो गए। वे हनुमानजी से युद्ध करने की जिद पर अड़ गए। हनुमानजी द्वारा बहुत समझाने के बाद भी जब शनि युद्ध टालने के लिए नहीं माने तो हनुमान ने उन्हें अपनी पूंछ में लपेट लिया। शनि बहुत प्रयत्न के बाद भी खुद को आजाद नहीं करा पाएं और हनुमानजी पर प्रहार करने लगे। तब पवनपुत्र ने उन्हें पत्थरों पर पटकना शुरू कर दिया, जिससे शनिदेव का अहंकार चूर-चूर हो गया और वे हनुमानजी क्षमायाचना करने लगे।
केसरी नंदन ने क्षमायाचना के बाद उन्हें छोड़ दिया और उनसे निवेदन किया कि वे भगवान श्रीराम के किसी भी भक्त को परेशान ना करें। इस पर शनिदेव ने कहा कि अब से वे श्रीराम सहित आपके (हनुमानजी के) भक्तों को भी परेशान नहीं करेंगे। ऐसे श्रद्धालुओं पर शनि की साढ़ेसाती और ढैय्या का भी बुरा प्रभाव नहीं पड़ेगा। इस घटना के बाद से ही शनि से पीडि़त लोगों को हनुमानजी की भक्ति करने की सलाह दी जाती है।

सिक्ख धर्म में केश और पगड़ी क्यों है जरूरी?
गुरुनानक देवजी द्वारा स्थापित सिक्ख धर्म में बाल कटवाना मना किया गया है साथ ही सिर पर पगड़ी बांधना अनिवार्य माना है। पगड़ी बांधने की परंपरा के संबंध में ऐसा माना जाता है कि सिक्खों की पगड़ी गुरुगोविंद सिंह का उपहार स्वरूप है। इस प्रथा के धार्मिक कारण के साथ ही वैज्ञानिक कारण भी हैं।
सिक्ख धर्म में माना जाता है कि हमारे शरीर ईश्वर का अमूल्य उपहार है, इस उपहार की रक्षा और आदर हमें हर हालत में करना चाहिए। अत: हमारे बाल (केश) भी परमात्मा का उपहार ही है, इन्हें कटवाना भगवान द्वारा दिए गए उपहार का अनादर करने के समान है। इसी मान्यता के चलते सिक्ख अपने बाल नहीं कटवाते हैं और उन्हें सिर पर लपेटा जाता है। बालों को हमेशा व्यवस्थित रखने के लिए पगड़ी बांधी जाती है।
योग शास्त्र के अनुसार हमारे सिर के मध्य भाग में सहस्रार चक्र सिक्ख धर्म के अनुसार यहां दशम द्वार होता है। दशम द्वार या सहस्रार चक्र बहुत ही संवेदनशील होता है, इस चक्र से हमारा मन सीधा जुड़ा हुआ है। हमारा सिर खुला रहने पर वातावरण में मौजूद दूषित तत्व हमारे मन को तुरंत ही प्रभावित कर लेते हैं। इसी प्रभाव से बचने के लिए प्राचीनकाल से ऋषिमुनियों द्वारा भी अपने सिर को हमेशा ढंककर रखा जाता था।
हमारे शरीर का पूरा संचालन सिर से ही होता है अत: इसे किसी प्रकार से कोई क्षति ना हो, इसे बचाए रखने में सिर के लंबे और पगड़ी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। साथ ही पगड़ी बांधने से जो दबाव सिर पर आता है उससे मन या दिमाग इधर-उधर नहीं भटकता, जल्दी मानसिक थकान नहीं होती, दिनभर शरीर में ऊर्जा और स्फूर्ति बनी रहती है। सिक्ख पगड़ी काफी सम्मान के साथ सिर पर धारण करते हैं।

महिलाओं का शमशान में जाना वर्जित क्यों?
शमशान ऐसी जगह है जहां कोई अपनी खुशी से जाना नहीं चाहता। यह ऐसा स्थान है जहां जीवन के अंत में सभी को जाना है। यहां जीवित अवस्था में केवल पुरुषों को जाने की अनुमति दी जाती है। शास्त्रों द्वारा स्त्रियों का यहां जाना वर्जित किया गया है।
शमशान का दृश्य किसी के भी हृदय को हिला देने वाला होता है। कोई भी कमजोर हृदय वाला इंसान वहां बड़ी मुश्किल से ही जा पाता है। महिलाओं का हृदय बहुत ही कोमल और जल्दी दुखी होने वाला होता है। महिलाओं को शमशान में जाना इसीलिए वर्जित किया गया है कि वहां का दृश्य देख पाना उनके लिए बहुत ही मुश्किल होता है।
साथ ही शमशान में बुरी शक्तियां हमेशा सक्रीय रहती है। ऐसी शक्तियों स्त्रियां पर बहुत जल्दी प्रभाव डालती है। जिससे उनके पागल होने का खतरा रहता है। शमशान के वातावरण में मृत शरीरों की वजह से कई विषेले कीटाणु मौजूद रहते हैं जो कि स्त्रियों को तुरंत ही बीमार कर सकते हैं। महिलाओं के स्वास्थ्य की दृष्टि से शमशान में जाना वर्जित किया गया है।

क्रमश:...

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