Monday, November 8, 2010

Jigyasa(जिज्ञासा) Part 3

सफर में ऊर्जा और आराम के लिए जरूरी है पड़ाव

हमारी दौड़भाग भरी दिनचर्या में पल भर भी आराम नहीं है। यह एक ऐसा सफर बन गया है जिसमें सातों दिन, चारों पहर बस चलते ही जाना है। चाहे शरीर में ऊर्जा रहे या न रहे। पहले की तरह अब पड़ाव वाले सफर का सिलसिला नहीं रहा। तनिक ठहरिए, सफर में थोड़ी देर ही सही कहीं पड़ाव जरूर डालें, यानि तनाव और थकान को दूर करने के लिए हम सत्संग का सहारा ले सकते हैं।
आदमी अपनी प्रगति के लिए जिस तेजी से खुद को और अपने समाज को दौड़ा रहा है वह तेजी उसे एक दिन या तो गिरा देती है या फिर उस निराशा में डाल देती है जहां उसे लगता है हम वहां नहीं पहुंचे जहां पहुंचना चाहिए था। मंजिल की तलाश में मार्ग ही बदलते रहते हैं। आज के प्रबंधन की भाषा में यह रिजल्ट ओरियेन्टेड युग है। परिणाम पाने के लिए आदमी किसी भी हद तक चला जाता है और सबकुछ उपलब्ध करने के साथ बेचैनी भी हासिल कर लेता है। दरअसल सारी दौड़ एकतरफा हो गई है। नियम बना दिया गया है कि जो भी आगे जाएगा, ऊपर आएगा। वह प्रेम के भाव से नहीं प्रतिद्वंद्वता की भावना से भरा हुआ होगा। प्रतिस्पर्धा को ऊर्जा बना लिया गया है। जिस प्रगति से मनुष्य देवत्व की ओर बढ़ सके आज उस प्रगति का मार्ग ही बंद हो गया है।
भागते हुए समाज में कुछ पड़ाव ऐसे हैं जहां यदि थोड़ा रुक लिया जाए तो ऊर्जा भी मिलेगी, विश्राम भी। यह पड़ाव ऐसे केन्द्र हैं जहां से बाहर दुनिया में भी जाया जा सकता है और भीतर अपनी आत्मा तक भी पहुंचा जा सकता है। इन पड़ावों पर सुविधा है रुकावट नहीं।गुरुनानक ने इन पड़ावों को सत्संग कहा है। वे तो कहते हैं दुनियावालों, हमें फायदा हुआ है तो तुम्हें भी होकर रहेगा। नानक कहते हैं, च्च्सत्संगति कैसी जाणीऐ। जिथै एको नामु वखाणीऐज्ज् फकीरों के सत्संग में केवल शब्द का प्रचार होता है। यहां कोई घाटा नहीं होता फायदा ही फायदा है। सबसे ऊंची कमाई है नाम की। मन को समझाने के लिए ऐसे शब्द बड़े काम के होते हैं और ये शब्द जिस पड़ाव पर मिलते हैं उसका नाम सत्संग है। और सत्संग करते हुए अपनी जीवन यात्रा में चाहे जितने तेज भागें गिरने के खतरे अशांति के अवसर कम हो जाएंगे।

बुराई के आगे न झुकें, यही नैतिक बल है
पैसा और पॉवर, इन दो शब्दों ने लगभग सभी को झुका लिया है। जिनके भीतर आज भी नैतिक बल है वे न तो इन चीजों के आगे झुकते हैं, न ही कभी गलत लोगों से हार मानते हैं। अधिकतर लोगों के साथ यह होता है कि वे इन दो चीजों के कारण गलत लोगों प्रभाव में आ जाते हैं, यहीं से हमारा नैतिक पतन शुरू हो जाता है। हनुमानजी से सीखिए अपने नैतिक बल को कैसे बनाए रखा जा सकता है।तड़क-भड़क, चकाचौंध और आक्रामक व्यवहार आजकल केवल दूसरों को प्रभावित करने के लिए ही नहीं होता, बल्कि उन्हें भयभीत करने के लिए भी उपयोग में लाया जाता है। जो लोग अनुचित आचरण में जीते हैं, वे दूसरों को डराने में अधिक रुचि रखते हैं। गलत लोग यह तरीका अपनाते है कि अपनी बुराइयां दूसरों पर हावी करने के लिए भय की सृष्टि की जाए। रावण इसका उदाहरण था। दूसरों को भयभीत करने की वृत्ति को रावण ने हथियार की तरह इस्तेमाल किया था। जीवन में उसे लगातार सफलता भी मिलती रही। पहली बार उसका गणित तब गड़बड़ाया जब श्री हनुमानजी महाराज उसके सामने थे। सुंदरकांड में प्रसंग आता है। मेघनाद के प्रहार से स्वेच्छा से बंधकर हनुमानजी महाराज रावण की सभा में खड़े थे।
दसमुख सभा दीखि कपि जाई, कहि न जाई कछु अति प्रभुताई।।
(हनुमानजी ने जाकर रावण की सभा देखी, उसकी अत्यन्त प्रभुता, ऐश्वर्य कुछ कही नहीं जाती) क्योंकि च्च्कर जोरें सुर दिसिप बिनीता, भृकुटि बिलोकत सकल सभीता।।ज्‍ज देवता, दिग्पाल सभी हाथ जोड़े बड़ी विनम्रता के साथ भयभीत हुए रावण की भौं ताक रहे थे (उसका रुख देख रहे थे)। इतना आतंक था रावण का। वह सोच भी नहीं सकता था कि कोई उसके सामने निर्भय होकर भी खड़ा रह सकता है। लेकिन च्च् देखि प्रताप न कपि मन संका।ज्‍ज (उसका ऐसा प्रताप देखकर भी हनुमान के मन में जरा भी डर नहीं हुआ।) इस प्रसंग में हनुमानजी महाराज अपने आचरण, चरित्र से हमें यही शिक्षा दे रहे हैं कि गलत लोगों से न प्रभावित हों और न भयभीत। धनबल, बाहुबल, पदबल, इनके सामने बड़े-बड़े झुक जाते हैं परंतु हनुमानजी महाराज के पास इन तीनों बलों के ऊपर बल था और वह था, नैतिक बल जिसके सामने इन तीनों को झुकना पड़ता है।

हमेशा रहें सचेत और सक्रिय
हम जितने ऊंचे ओहदे पर होते हैं, उतना ही सक्रिय और सचेत रहने की जरूरत होती है। जब हम परमात्मा के निकट होने की कोशिश करते हैं तो यह अतिआवश्यक हो जाता है। कोई भी कार्य हम करें, उसमें हमारी सारी इंद्रियां जागृत रहें।
किसी कार्य की जिम्मेदारी अपने ऊपर आ जाने पर उसे एक बार में सफलतापूर्वक समाप्त कर देने से ही जिम्मेदारी समाप्त नहीं होती। जीवन में सतत् प्रयास और निरंतरता ही आगे बढ़ाती है और भविष्य को चमकाती है। वरना सफलता प्राप्त करके विश्राम में बैठ जाना आलस्य बन जाता है। निरंतर अपने दायित्व को पूरा करते रहने का श्रेष्ठ उदाहरण है श्रीलक्ष्मण का चरित्र। जब श्रीराम के वनवास की घोषणा हुई तो लक्ष्मणजी ने जिद करके उनके साथ वनवास चलने का निर्णय लिया। लक्ष्मणजी ने तब निर्णय लिया था कि वह चौदह वर्ष तक श्रीराम और सीता की सेवा करेंगे तथा निद्रा का त्याग का देंगे। लक्ष्मण ने अपनी जिम्मेदारी को न सिर्फ सफलतापूर्वक निभाया बल्कि निरंतर उसमें जागरूक भी रहे। श्रीराम और सीता वनवास गए तो तुलसीदासजी ने लिखा है कछुक दूरि सजि बान सरासन। जागन लगे बैिठ बीरासन ‘‘कुछ दूर पर धनुष बाण से सजकर लक्ष्मण वीरासन से बैठकर जागने (पहरा देने लगते हैं)’’ चाहे शूर्पणखा का आक्रमण हो लक्ष्मण तब भी सावधान थे चाहे समुद्र पर सेतु बनाना हो वे तब भी जागरूक थे। यदि समुद्र से मार्ग मांगने के श्रीराम के निर्णय से लक्ष्मण सहमत नहीं थे तो अपना विरोध भी जताया। उन्होंने श्रीराम से स्पष्ट कहा था - नाथ दैव कर कवन भरोसा। सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा॥ कादर मन कहुं एक अधारा। दैव दैव आलसी पुकारा॥ हे नाथ, दैव का कौन भरोसा। मन में क्रोध ले आइए और समुद्र को सुखा डालिए। यह दैव तो कायर के मन के एक आधार (तसल्ली देने का उपाय) है। आलसी लोग ही दैव-दैव पुकारा करते हैं। लक्ष्मण ने रावण के पुत्र मेघनाथ का युद्घ में वध भी किया। इस चरित्र से सबसे बड़ी शिक्षा मिलती है अपने दायित्व के निर्वहन में निरंतरता रखना चाहिए। थोड़ा सा ढ़ीलापन, लापरवाही, सुस्ती, आलस्य और ‘‘फिर कर लेंगे की’’ मानसिकता संपूर्ण सफलता पर आघात लगाती है।

समझिए, भगवान क्या चाहता है
हम भगवान से हमेशा वो मांगते हैं जो हम चाहते हैं। कभी ये भी सोचिए कि भगवान क्या चाहता है। जब भी कोई घटना आपके खिलाफ घट जाए तो धर्य मत खोइए, उसमें अपने लिए सकारात्मक ढूंढ़िए, संभव है जिसे आप अब तक अनदेखा कर रहे थे, वो ही आपके लिए श्रेष्ठ हो। कभी परमात्मा के किए का विरोध न करें।कई बार जीवन में जो हम चाहते हैं वह नहीं होता और ईश्वर क्या चाहते हैं यह हम समझ नहीं पाते हैं। जो लोग धार्मिक होते हैं वे ऐसी स्थिति में और परेशान हो जाते हैं। अधार्मिक लोग तो ऐसी स्थितियों में अपने तरीके से उत्तर ढूंढ लेते हैं। परंतु धार्मिक लोग मनचाहा हो इसे अपना हक मानते हैं। कई लोग तो शब्दों की इस गरिमा को भी लांघ जाते हैं कि जब इतना सब भगवान, ईश्वर, परमात्मा को मानते-पूजते हैं तो फिर भी चाहा काम न हो तो क्या मतलब? पूजापाठ, धर्मकर्म का? इसे समझना होगा। जिसने चाह बदल ली वह धार्मिक नहीं होता, धार्मिक वह होता है जिसने चाह समझ ली।आइए राजा दशरथ के जीवन के एक प्रसंग से समझें। उनकी इच्छा थी राम अवध की राजगादी पर बैठें, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जिन्हें राम जैसी मूल्यवान संतान प्राप्त हो गई हो, उनके मन की मुराद भी पूरी नहीं हुई। बहुत बारीकी से देखें तो हम कहीं दशरथ में नजर आ जाएंगे। दशरथ की चाह थी राम राजा बनें पर चाहत में कैकयी थीं। दशरथ के धार्मिक होने में कोई संदेह नहीं है लेकिन उनका कैकयी से आचरण विलासी हो गया था। भक्ति और वासना एकसाथ कैसे हो सकते हैं। राम और काम साथ-साथ रखने का परिणाम राम राज्य चौदह वर्ष के लिए दूर हो जाना।
इसलिए धार्मिक लोग अपनी चाह को ईश्वर से जोड़ें और सावधानी, शुद्धता से जोड़ें। होने दें जो हो रहा है। आपकी इच्छा का हो जाना बढ़िया है पर यदि न हो तो वह परमात्मा की मर्जी का हो जाना मानें वह उससे श्रेष्ठ हुआ मानें।

हर काम में आपका प्रजेंटेशन स्ट्रांग हो
यह मैनेजमेंट का दौर है, बिना प्रभावी प्रस्तुति के आप कोई सफलता हासिल नहीं कर सकते। फस्र्ट इंप्रेशन का दौर है, सामने वाले के सामने आप कितने आत्मविश्वास से टिकते हैं, यह आपकी सफलता की दिशा तय करता है। जब भी किसी के सामने जाएं तो आप स्वयं का प्रस्तुतिकरण ऐसे करें कि वह आपको लंबे समय याद रखे। यह कला आप हनुमानजी से सीख सकते हैं।
अपने इरादों से सामने वाले पर अनुकूल प्रभाव बनाना भी एक कला है। आपके बोलचाल का तरीका, हावभाव का प्रदर्शन, सोचने समझने की शैली यदि सामने वाले को अनुकूल वातावरण देती है तो प्रबंधक लोग इसे अपनी भाषा में पॉजेटिव स्ट्रोक्स कहते हैं अन्यथा नेगेटिव स्ट्रोक्स के नुकसान सामने आ जाते हैं। यदि स्थिति विपरीत हो तो उस श्रेष्ठ प्रबंधक के गुणों की सही परीक्षा होती है। हनुमानजी जब लंका पहुंचे तो सारी स्थितियां प्रतिकूल थीं। राक्षसों का वह किला अभेद था ऊपर से माया नगरी। हनुमानजी पहली बार विभीषण से मिले तो उनके मन में यह विचार था कि विभीषण का निवास लगता तो किसी सज्जन का निवास है लेकिन लंका में किसी का भरोसा नहीं। तो हनुमानजी ने
बिप्र रूप धरि बचन सुनाए। सुनत बिभीषण उठि तहँ आए।।
ब्राह्मण का रूप धरकर हनुमानजी ने उन्हें वचन सुनाए। इसे कहते हैं पॉजिटिव स्ट्रोक्स। ब्राह्मण के रूप में हनुमानजी के हावभाव, उनकी बोलचाल और अपनी बात का जो प्रस्तुतिकरण था, इतना अद्भुत था कि विभीषण ने यह मान लिया कि अब रावण का विरोध करना ही ठीक है। इसी तरह जब हनुमानजी को नागपाश से बांधकर रावण के दरबार में ले गए तो जिस तरह से वे रावण से पेश आए और वार्तालाप किया उससे रावण भी चौंक उठा। जब रावण ने अपने बल को बढ़ा-चढ़ाकर कहा तब हनुमान बोले-
जानउं मैं तुम्हारि प्रभुताई। सहसबाहु सन परी लराई॥
समर बालि सन करि जसु पावा। सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा॥
अर्थात मैं तुम्हारी प्रभुता को खूब जानता हूं। सहस्त्रबाहु से तुम्हारी लड़ाई हुई थी और बालि से युद्ध करके तुमने यश प्राप्त किया था। बालि से युद्ध में रावण पराजित हुआ था। एक तरह से हनुमानजी ने यहां रावण का परिहास किया है। हनुमानजी के ये वचन सुनकर रावण खिसियाकर हंस पड़ा। यह पूरी घटना इस बात की शिक्षा दे रही है कि कैसी भी स्थिति हो हमें प्रस्तुति प्रभावशाली करना चाहिए। हनुमानजी ने रावण का अतीत बताकर यह जता दिया कि उन्हें उसके (रावण के) बारे में पर्याप्त जानकारी भी है। इसीलिए हनुमानजी रावण के ऊपर श्रीराम का प्रभाव और स्वभाव दोनों स्थापित करके लौटे।

तो रावण और समाज दोनों बच जाते
हमारे जीवन में एक गुरु का होना बहुत जरूरी है, गुरु भी ऐसा हो जो हमारे प्रभाव में आए बिना हमें सही रास्ता दिखलाता रहे। हमारी बुराई को दूर करने के लिए प्रयास करे। रावण के जीवन में ऐसा कोई गुरु नहीं था, जो थे सब चाटुकार थे, सो उसका परिणाम कैसा हुआ, सभी जानते हैं।दुष्चरित के घर यदि सरस्वती चली जाए और उसका दुरुपयोग हो जाए तो वह लक्ष्मी से भी अधिक घातक साबित होगी। रावण के साथ यही हुआ था। ज्ञानी दुगरुण पाल ले तो वह समाज के लिए बड़ा खतरनाक हो जाता है। हम रावण की कीमत आज तक इसीलिए चुका रहे हैं। परमविद्वान रावण की अनेक बुराईयों की चर्चा वर्षो से साधु संत कई तरीकों से कर रहे हैं। लंका के रणागंन में रूप-रावण का श्रीराम ने इकत्तीस बाण मार कर वध कर दिया था लेकिन अरूप-रावण आज तक जीवित है। हर वर्ष उसे हम मारते हैं और अलग रूपों में फिर-फिर जिन्दा रहता है।
रावण वध का एक सरल और स्थायी तरीका है पहले अपने भीतर के रावण को ढूंढा जाए और उस पर काम किया जाए। रावण के पथभ्रष्ट होने के अनेक कारणों में एक महत्वपूर्ण कारण था उसके पास शास्त्र तो थे पर गुरु नहीं थे। ज्ञान की अति न सिर्फ अहंकारी बनाती है बल्कि भटका भी देती है, उलझा देती है। गुरु उलझाव से निकलने का उपाय होता है। परंतु रावण जैसे लोग खुद ही अपना उपाय बनने की कोशिश में रहते हैं और इसी चक्कर में जीवन सारी व्यवस्था, प्रबंधन बिगाड़ लेते हैं। रावण किसी को गुरु क्यों नहीं बना पाया? क्योंकि गुरु होता है जीवित व्यक्ति और जीवित व्यक्ति के सामने झुकने में अहंकार को बड़ी चोट लगती है। इसीलिए लोग शास्त्रों को, केवल किताबों को गुरु बना लेते हैं क्योंकि इनके साथ सुविधा है, न जमे तो फाड़ कर फेंक दो, अहंकार को तृप्ति मिल जाती है।लोग शास्त्रों से ऊबने पर गुरु की खोज शुरु कर देते हैं। तब तक देर हो जाती है। ज्ञान का अहंकार गुरु की कृपा से मुकाबले पर उतर आता है। गुरु एक साक्षात शास्त्र है, जीवित पुस्तक, जिन्दा किताब। शास्त्रों के भरोसे गुरु मत चुनना। परमात्मा से मांग करें जीवन में कोई गुरु भेज दें, आपकी मांग में गहराई होगी तो गुरु चलकर आपके द्वार आएंगे, और रावण इसी में चूक गया था। जीवन में स्वयं के ही कारण एक गुरु का अभाव होना और परिणाम रावण जैसी बर्बादी।

झूठ को कभी मौन स्वीकृति न दें
कई बार हमारे सामने झूठ आता है और हम चुप रह जाते हैं। झूठ पर चुप रह जाना उसे अपनी मौन स्वीकृति देने जैसा होता है। धीरे-धीरे वही झूठ हमारे भीतर एक सच का रूप ले लेता है और हम उसे ही सच मानने लगते हैं। इससे बचें, झूठ को पकड़ने के लिए खुद को भीतर से पकड़ना होता है।न चाहते हुए भी मुंह से झूठ निकल जाता है। यह बड़ी आम समस्या है। संवेदनशील व्यक्ति भीतर ही भीतर पछताते हैं। जो भक्त हैं वो पश्चापात के साधन करते हैं। आखिर क्यों असत्य आचरण हो जाता है। सत्य हमें साधुता से जोड़ता है और असत्य असाधुता की ओर ले जाता है। महावीर स्वामी से जब पूछा गया साधु कौन हैं और असाधु कौन? उनका उत्तर था जो जागा हुआ है वह साधु जो सोया हुआ है वह असाधु। मूर्छित होकर जी रहे लोग असाधु हैं और जो होश में हैं उन्हें साधु माना जाए।आइए, इस बात पर विचार करें झूठ आखिर हमारे भीतर आता कहां से है। उस प्रोजेक्टर को ढूंढा जाए जहां से यह फिल्म चलती है। थियेटर में फिल्म देखने वाले लोग इस अनुभव से गुजरे ही होंगे कि पर्दे पर जो नजर आ रहा है वह सब खेल तमाशा है। वास्तविकता उस प्रोजेक्टर में है जो हमारे पीठ पीछे है। हम और हमारी आंखें पर्दे पर इतनी गहरी टिक गई कि विस्मृति ही होगई कि पीछे कुछ घट रहा है।हम पर्दे को बदलें, उस पर नया रंग रोगन करें तो कुछ नहीं होगा, बदलना प्रोजेक्टर में चल रही फिल्म को ही होगा। जिन्दगी में आ रहे झूठ को पकड़ना हो तो प्रोजेक्टर पर पकड़ रखनी होगी। हमारे भीतर प्रोजेक्टर में फिल्म झूठ की चल रही हो और हम पर्दे पर सच देखना चाहें तो कैसे संभव होगा। हम हमारे जीवन में पर्दे बदलते रहते हैं, बदलना पड़ेगा प्रोजेक्टर की फिल्म को।जीवन में जब भी झूठ आए अपने आप को रोकें। यदि आगे बढ़ जाएंगे तो झूठ आदत बन जाएगा। रूकें अपने भीतर गहरें लौट जाएं उस बिंदु तक जाएं जहां यह झूठ आरंभ हुआ, फिर थोड़ा ध्यान लगाएं, आप पाएंगे अब पर्दे पर वही दृश्य होगा जो सत्य की फिल्म प्रोजेक्टर पर आपके होश से चल रही होगी।

हम उसी में खो जाएंगे एक दिन
हमारे जितने भी धर्म ग्रंथ हैं सबकी शिक्षा का सार लगभग एक सा है। कोई ग्रंथ परमात्मा की तलाश में बाहर भटकने की हिमायत नहीं करता, सूक्ष्मता से समझा जाए तो हर ग्रंथ यही कहता है कि खुद में परमात्मा की तलाश शुरू करो, अपनी हृदय की गहराइयों में उतरो, अपने भीतर झांकों।लगभग सभी धर्मशास्त्रों का मकसद एक ही था, भीतर उतर कर खुद को जानें और उस परमशक्ति से जुड़ जाएं। ऐसे शास्त्रों की व्याख्या सूफी फकीरों ने अपने अपने अंदाज से की है। दक्कनी बाबा के नाम से ख्यात तुलसी साहिब ने शेख तकी को समझाते हुए कहा था च्च्यह सदा तुलसी की है आमिल अमल कर ध्यान दें। कुन कुरां में है लिखा अल्लाह अकबर के लिएज्‍ज जो बात मैने तुझे समझाई है उस पर यदि तू अमल करे तो कुरान शरीफ में जो लिखा है वह तुझे समझ मंे जाएगा। कुरान में लिखा है जिस कुन ने सारी दुनिया बनाई वह कुन क्या है, कहां है और सभी को वापस जाकर एक दिन इस कुन में ही समाना है।इसी बात को अन्य धर्मो के शास्त्र भी कह रहे हैं। भीतर उतरें और उस परम सत्ता की आवाज सुनें च्च्गोशे बातन हो कुशादा जो करे कुछ दिन अमल ला इलाह अल्लाह अकबर पै जाने के लिएज्‍ज इन पंक्तियों में यही समझाया गया है कि किसी कामिल मुर्शिद (सदगुरु) की संगति कर तो सुमिरन से हमारे भीतर के कान खुल जाएंगे और हमारा ख्याल आंखों के पीछे टिकने लगेगा और ये शब्द हमें अल्लाह अकबर यानी पहली मंजिल यानी योग की भाषा में सातवां केन्द्र सहस्त्रार तक पहुंचा देगा।
सुमिरन का हर शब्द उस मुकाम पर पहुंचाने की सीढ़ी हैं जहां वह परवर दिगार रहता है।
गौर से सुनें पढ़ें तो समझ में आ जाता है, धर्म कोई भी हो बात वही कही जा रही है। अपने अस्तित्व को उस परम सत्ता से कैसे मिलाना। क्योंकि उस सर्वोच्च शक्ति के पास न कोई धर्म न जाति चलती है। यदि कुछ मान्य है तो आपका च्च्होनाज्‍ज ही उसका स्वीकार है और आज आदमी अपने च्च्होनेज्‍ज से ही लगातार दूर होता जा रहा है।

समझिए, संसार और संन्यास को
हमने अध्यात्म को हमेशा कठिन रास्ता समझा है, लगभग यह मान लिया गया है कि अध्यात्म को पाने के लिए संन्यास का मार्ग ही पकड़ना पड़ेगा। हम बाहरी आवरणों पर टिककर भीतरी सार को भूला बैठे हैं। संसारी होना या संन्यासी होना दोनों को हमने आवरणों में लपेट दिया है, संसारी यानी तड़क-भड़क और संन्यासी यानी भगवा।
अध्यात्म जगत में साधु संत बार-बार कहते हैं संसार और भगवान एक दूसरे के विपरित हैं। एक को पकड़ो तो दूसरा छूटेगा। हम संसारियों को यहीं से भ्रम शुरु हो जाता है। कहा गया है संसार पर मत टिको, हम शुरु हो जाते हैं संसार छोड़ने के लिए। टिकने से हटना है छोड़ना नहीं है। आइए, एक रूपक बांधें। दूसरे लोग हमारे और हम दूसरों के मकान को जब बाहर से देखते हैं तो केवल बाउंड्रीवाल, मैन गेट, ज्यादा से ज्यादा बगीचा देख पाते हैं। लेकिन वास्तव में मकान इतना ही नहीं होता। जो बाहर से दिख रहा है, वही नहीं होता। भीतर हमारे अपने अंत:-कक्ष हैं, महत्वपूर्ण कमरे हैं। भीतर कुछ ऐसी व्यवस्थाएं हैं जहां सिर्फ हम ही होते हैं और हमारे लिए ही होता है। बस यही फर्क देह और अंतस का है।संसार बाहर से देखता है और बार बार कहता आप एक शरीर हो क्योंकि उन्हें बाहर का ही दिख रहा होता है। जब दिन रात, जीवनभर यही दोहराया जाता है तो हम मान ही लेते हैं हम शरीर हैं, परंतु वास्तव में ऐसा है नहीं। शरीर के अतिरिक्त हम भीतर से हम ही हैं।एक तरफ सारी दुनिया दूसरी ओर हम अकेले। अब हमें इससे मुक्त होना चाहिए, धीरे-धीरे प्रयास करें। संसार छोड़ने का अर्थ यह नहीं कि जंगल-पहाड़ पर कूच कर जाएं, सीधा सा मतलब है संसार जिस दृष्टि से हमें देख रहा बोल रहा है, बस उस बोल-दृष्टि से मुक्त हो जाना। यही फर्क है टिको मत-छोड़ो मत का।
संन्यास यहीं से शुरू होता है। संन्यास नाम आते ही हम सबसे पहले कपड़े के रंग पर टिक जाते हैं। जबकि जीने के ढंग पर टिकना है। जब भी हम संन्यारत होंगे संसार से मुक्त होने लगेंगे यानी संसार की राय, उसकी मंशा, उसके सुझाव से ही नहीं चलेंगे कुछ अपनी भीतर की आवाज भी सुनेंगे। बाहर दुनिया का शोर जितना कम सुनेंगे भीतर परमात्मा की आवाज उतनी साफ सुनाई देगी। अपने ही मकान में बाहर से भीतर जाकर जो सुकून मिलता है वही आनंद शरीर में फासला बनाकर भीतर अंतस में जाने पर मिलेगा, उससे भी कहीं अधिक।

मां से ही शुरू होता है महानता पथ

वल्र्ड मदर्स डे के मौके मां पर चर्चा की जाए। मां केवल कोई औरत नहीं होती, उसमें सृष्टि है। वह न केवल अपनी संतान को जन्म देती है बल्कि पूरी तल्लीनता से उसे संवारती भी है। मां ही वह गुरु होती है, जो अगर थोड़ी भी लापरवाह हो जाए तो फिर उसकी संतान को दुनिया में कोई नहीं सुधार सकता, मां ही संतान को महानता के गुण देती है। आइए, अपनी जिंदगी की इस पहली पाठशाला के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करें।दुनियाभर की संताने अपनी-अपनी मां का क्रिएशन होती हैं। माताएं अपनी औलादों को सहेजती हैं, संवारती हैं और सुयोग्य बना देती हैं। संताने केवल लाड़-प्यार से नहीं, त्याग, विछोह और कड़े अनुशासन से योग्य तथा सक्षम बनती हैं। एक बहुत पहुंचे हुए मुस्लिम संत हुए हैं बायजीद। वे हमेशा कहा करते थे मेरे पास जो भी खुदा का नूर है, इल्म है वो मेरी मां की वजह से है। वे घर से दूर मदरसे में पढ़ रहे थे। एक दिन घर लौट आए और बोले मेरे भीतर यह आयत (कुरान के दिव्य शब्द) कह रही है कि खुदा का कहना है तू मेरी और मां-बाप की इज्जत कर, उनका शुक्र कर। बायजीद ने मां से कहा मैं दो काम एक साथ कैसे करुंगा। या तो आप अपनी खिदमत में रख लें या खुदा को सौंप दें।मां समझ गईं, बालक भ्रम में है। उन्हांने फौरन फैसला सुनाया, जा तुझे खुदा की खिदमत में ही देती हूं। एक खुदा हाथ लगा हो तो सारी खुदाई आसपास होगी। बायजीद इबादत में लग गए और महान संत हुए। ऐसी शिक्षा मां सुनीति ने पुत्र ध्रुव को दी थी। मां कयाधु ने प्रहलाद को सौंपी थी। परमशक्ति से जुड़ने का अर्थ दुनिया को छोड़ना नहीं है, उसे समझकर जानकर जीना है।जो मातांए अपने बच्चों की ऊर्जा का रूपांतरण करना अच्छे से जानती हैं वे उनका सदुपयोग कर संतानों का भविष्य संवार देती हैं। बायजीद की फकीरी देख उस समय के सूफी संत कहा करते थे दो सौ साल की इबादत हो तब जाकर किसी को जितना इल्म मिले, बायजीद को अभी हासिल हो गया है। वैसे सब अपना-अपना मुकद्दर लाते हैं। फिर भी संतान को संवारने में प्रयासांे की पवित्रता रहे तो शुभ और श्रेष्ठ की संभावना बढ़ जाएगी।

खुद की भूल का दोष भगवान पर न थोपें
यह मनुष्य की आम मानसिकता होती है कि जब हमें कोई बड़ी सफलता मिलती है तो हम खुद के पुरुषार्थ का गुणगान करते हैं। लेकिन जैसे ही थोड़ी परेशानी आती है, असफलता मिलती है उसका सारा दोष भगवान और किस्मत पर मढ़ देते हैं। ऐसा न करें, भगवान पर कोई भी आरोप लगाने से पहले यह सोचें कि आपने कर्म कैसा किया है।च्च्हमने कभी किसी का बुरा नहीं किया फिर हमारे साथ ईश्वर ने ऐसा विपरित क्यों कर दियाज्‍ज इस आदर्श वाक्य को हम लोग आए दिन दोहराते हैं। हमारे ऊपर आई दुख की घड़ी में परमात्मा की ओर उछाला गया यह पहला पार्थिव संवाद होता है। सोचिए, यदि हमें कभी ईश्वर मिल जाए और यही प्रoA हम उनके सामने रख दें तब पूरी दृढ़ता से उनका जवाब यह होगा कि संभव ही नहीं है कि आप भला करो और आपके साथ बुरा हो जाए। उस सबके मालिक के खेत का कायदा कड़क है। बीज नीम का होगा तो फसल आम की उगेगी ही नहीं। परमात्मा कहता है फसल कभी झूठ नहीं बोलती। उगा हुआ पेड़ कभी गलत कैसे बोलेगा कि मेरा बीज कोई और था और मैं उगा कोई और हूं, संभव नहीं है। बीज, पेड़, फसल झूठ नहीं बोलते, मनुष्य की बात और है।आइए, ऊपर वाले से ही जवाब मांगे तो फिर झंझट कहां हो जाती है। भगवान पूछ रहे हैं कहीं बीज बोते समय बेहोश तो नहीं थे, भूल में तो नहीं थे। काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, मात्सर्य जैसे विकरों की मदहोशी में हम दावा करते हैं, बीज आम का है पर वह था नीम का। नशे में सिर्फ दावा रहता है सत्य नहीं। भगवान का दृढ़ उत्तर है। मैं शुभ के बीज में अशुभ की फसल नहीं देता।कई बार भलाई करते समय हम भला काम कर तो रहे होते हैं लेकिन भीतर से हमारा मन स्वीकार नहीं कर रहा होता। मजबूरी, कानून का भय, समाज की मर्यादा के कारण ऊपर ऊपर भलाई हो रही होती है। मन तैयार नहीं रहता। प्रत्यक्ष पाप के हिसाब तो नीचे दुनिया में रख लिए जाते हैं। पर अप्रत्यक्ष हो गए गलत कामों का बहीखाता सिर्फ ऊपर वाले के पास होता है। इसलिए होश जगाएं अपने भीतर का। तब इस पीड़ा का उत्तर मिल जाएगा, हमारे साथ ऐसा क्यों हो जाता है।

इसलिए टूट जाते हैं परिवार
परिवार टूटना, छोटे होना आधुनिक समाज का सबसे बड़ा नुकसान है। परिवार के प्रति कम हो रहे भाव को बचाना होगा, परिवार प्रेम से बनते हैं और अभिमान से टूट जाते हैं। अगर परिवार को बचाना है तो अहंकार को तिलांजलि देनी होगी, वरना एक दिन देश में संयुक्त परिवार दुर्लभ हो जाएगा।परिवार क्यों अशांत हो जाता है। दरअसल परिवार बनता है अनेक सदस्यों से। पति-पत्नी, पिता-पुत्र, मां-बेटी सबमें अपना-अपना अहंकार और अपनी-अपनी कामनाएं होती है। कम या अधिक हो सकती हैं पर होती जरूर हैं। देखा जाए तो प्रेम ही परिवार का आधार है। परिवार में जितना अधिक प्रेम होगा उतनी अधिक शांति और स्वर्ग की अनुभूति होगी। परिवार के प्रेम को ठिकाने लगाने के लिए अहंकार और स्वार्थ कैंची की तरह काम करते हैं। अहंकार के कारण परिवार के सदस्य एक-दूसरे पर अपने अधिकार जमाने का प्रयास करते हैं और कामना के कारण हर सदस्य अपने निज हित और सुख की बात सोचने लगता है। सदस्यों के बीच जो पारिवारिक राग होता है वह ऐसे में द्वेष में बदलने लगता है और प्रेम वैर का रूप ले लेता है। परिवारों में देखा गया है शुरुआत में जब मतभेद आरंभ होते हैं तो हंसी-मजाक के साथ टीकाटिप्पणी शुरु होती है। यहीं से अंतरमन में दरार पड़ना शुरु हो जाती है। व्यक्तिगत टिप्पणियां व्यक्तियों के बीच दूरी बढ़ाती है। इस गेप में द्वेष को प्रवेश की जगह मिल जाती है। परिवार में अधिकांश संबंध राग से शुरु होते हैं जिन्हें लोग प्रेम कहते हैं किंतु यह विशुद्ध प्रेम नहीं होता, सिर्फ राग होता है। राग धीरे-धीरे द्वेष में बदलता है और इसमें अहंकार की बड़ी भूमिका रहती है। अहंकारी के मन का स्वभाव होता है कि वह अपने मनमाफिक काम कराने के लिए दूसरों को बाध्य करता है। ठीक यही बात दूसरे सदस्य के मन में भी हो रही होती है। यदि इसका उल्टा हो, मन में प्रेम, सेवा अपनेपन की भावना हो तो सामने वाले में भी वैसी भावना जागने लगती है। मन संक्रमण करता है। इसीलिए परिवार बचाना हो तो प्रेम बचाएं और प्रेम को अहंकार तथा राग से बचाएं।

सफलता चाहिए तो शब्दों के अर्थ में उतरें
हमारी सारी सफलता इस पर निर्भर करती है कि हम अपनी बात को कैसे कहते हैं। कई लोगों के साथ यह समस्या होती है कि शब्दों के अर्थ समझे बगैर ही बोल देते हैं, परिणाम में असफलता हाथ लगती है। शब्दों की मारक शक्ति को समझिए, हमारी सफलता इसी पर निर्भर है, यह संचार क्रांति का युग है लेकिन विडंबना यह है कि संचार के सबसे बड़े साधन शब्द ही अर्थ खो रहे हैं।
शब्द तब बोले जाएं जब हम उनके अर्थ स्वयं समझ चुके हों। इससे भी महत्वपूर्ण है कि हम दूसरों को ठीक वैसी बात समझा भी सकें। लोग हमारे शब्दों को ही न सुनें बल्कि उसके पीछे के अर्थ और उद्देश्य को समझ भी लें। हनुमानजी महाराज इस कला में खूब माहिर थे। श्रीराम से पहली बार मिलने के बाद उन्होंने जब सुग्रीव से उनकी मैत्री कराई तो रामकथा में पंक्तियां आई हैं-ज्‍जतब हनुमन्त उभय दिसि की सब कथा सुनाइ। पावक साखी देइ करि जोरी प्रीति दृढ़ाइ।।ज्‍ज यानी तब हनुमानजी ने दोनों पक्ष की सब कथा सुनाकर, अग्नि को साक्षी देकर दोनों के बीच में दृढ़ प्रेम और मैत्री की स्थापना करा दी।यहां उभय दिसि शब्द आया है इसका अर्थ है हनुमानजी ने दोनों पक्षों की ओर से अपना वक्तव्य दिया। उस समय यह आवश्यक था कि श्रीराम की बात और समस्या सुग्रीव समझ लें तथा सुग्रीव के संकट के निराकरण को श्रीराम ठीक से जान लें। एक-एक शब्द में संतुलन और स्पष्टता आवश्यक थी। हनुमानजी के शब्दों ने श्रीराम को सहयोगी उपलब्ध कराए और सुग्रीव को भय मुक्त कराया। हनुमानजी के शब्द उस समय सुग्रीव की समूची वानर सेना सुन रही थी। श्रीराम हनुमानजी की वाक्य कुशलता देखकर इसलिए भी प्रभावित हुए कि उस समय उन्हें मरमिटने वाले साथियों की आवश्यकता थी। रावण से युद्ध करने पर उनकी सेना में देवता आ नहीं सकते थे क्योंकि वे रावण से डरे हुए थे। अयोध्या से सेना श्रीराम बुलवाना नहीं चाहते थे। इसलिए सारा दारोमदार वानरों पर था। हनुमानजी के शब्दों ने न सिर्फ मैत्री कराई बल्कि वानरों को हमेशा के लिए प्रेरित कर दिया कि हमें श्रीराम के लिए मरमिटने की तैयारी करना होगी। शब्द जब अपने अर्थ के साथ बोले जाएं तो परिणाम कितना सार्थक होता है यह प्रसंग उसका उदाहरण है।

अपनी कमजोरियों के गुलाम न बनें
हर व्यक्ति की कुछ कमजोरियां होती हैं, हम अपनी कमजोरियों के गुलाम भी होते हैं, कुछ आदतें ऐसी होती हैं जिनमें सबकुछ गलत दिखता है फिर भी वे हमें प्राणों की तरह प्यारी होती हैं। हम उसी आदत के अधीन होकर अपना भला-बुरा सब भूल जाते हैं। रामायण का यह प्रसंग हमें अपनी कमजोरियों के अधीन होने के नुकसान बता रहा है।हमारी कमजोरियां हमें न सिर्फ नुकसान पहुंचाती हैं बल्कि पतन भी करा देती हैं। श्रीराम के पिता राजा दशरथ की कमजोरी रानी कैकेयी थीं। राजा दशरथ ने कोप भवन में बैठी रानी को मनाने के लिए ऐसे वचन कहे थे -
प्रिया प्रान सुत सरबसु मोरें। परिजन प्रजा सकल बस तोरें॥
हे प्रिये, मेरी प्रजा, कुटुम्बी, सारी सम्पत्ति, पुत्र और यहां तक मेरे प्राण ये सब तेरे अधीन हैं। तू जो चाहे मांग ले पर अब कोप त्याग, प्रसन्न हो जा। यह राजा की कमजोरी थी। कैकेयी की कमजोरी उनकी दासी मंथरा थी जो कि स्वभाव से ही लालची थी।
करइ बिचारू कुबुद्धि कुजाती। होइ अकाजु कवनि बिधि राती॥
वह दुबरुद्धि, नीच जाति वाली दासी विचार करने लगी कि किस प्रकार से यह काम रातोंरात बिगड़ जाए। श्रीराम के राजतिलक के पूर्व कैकेयी ने मंथरा की बात सुनी, उसके बहकावे में आ गईं और दशरथ से भरत के लिए राजतिलक तथा श्रीराम के लिए वनवास मांग लिया। अपनी कमजोरी के वश में आकर कैकेयी ने रामराज्य का निर्णय उलट दिया और तो और, दासी का सम्मान करते हुए कहा -
करौ तोहि चख पूतरि आली।
यदि मेरा यह काम होता है, मैं तुझे अपनी आंखों की पुतली बना लूंगी। मनुष्य अपनी ही कमजोरी के वश में होकर गलत निर्णय लेता है और इसी कमजोरी को पूजने लगता है।
श्रीरामचरितमानस में एक प्रसंग आता है कि जब श्रीराम वनवास चले गए, दशरथ का निधन हो गया और भरत तथा शत्रुघ्न अपने ननिहाल से लौटे तब मंथरा पर शत्रुघ्न ने प्रहार किया था।
हुमगि लात तकि कू बर मारा। परि मुह भर महि करत पुकारा ।।
उन्होंने जोर से कुबड़ पर एक लात जमा दी और वह मुंह के बल जमीन पर गिर पड़ी।’’ इसमें प्रतीक की बात यह छिपी है कि जो कमजोरी पर प्रहार करता है वह शत्रुघ्न कहलाता है और हमें अपने शत्रु का नाश ऐसे ही करना चाहिए। लोभ हमारा सबसे बड़ा शत्रु है, कमजोरी है इसे बक्शना नहीं चाहिए। वरना जो लोग कमजोरियों को ढोते हैं एक दिन वह कमजोरी उनको पटकनी दे देती है।

फिर हादसे आपको डराएंगे नहीं, प्रेरणा देंगें
हादसों से जो डरते हैं वे सृजन की राह पर नहीं चल सकते। अगर आप सृजन के पक्षधर हैं तो हादसों को भी जीवन में स्थान दें, उनसे यह सीखें की गलतियों से कैसे बचा जा सकता है। कैसे हादसे जीवन के लिए नए सृजन का कारण बन सकते हैं, इनके प्रति भी सकारात्मक दृष्टि रखें। फिर हादसे आपको डराएंगे नहीं, प्रेरणा देंगे।दुर्घटनाएं सभी की जिन्दगी में होती रहती हैं। आदमी बड़ा हो या छोटा कभी न कभी हादसों से गुजरना ही पड़ जाता है। सभी महान् व्यक्ति जीवन के विपरित का सामना कर चुके हैं लेकिन यदि दृष्टि आध्यात्मिक हो तो हादसे के विनाश में भी सृजन किया जा सकता है। सृजन की यही वृत्ति दुख, पीड़ा, कष्ट, परेशानी, निराशा से हमको ऊबार लेगी। श्रीराम ने सीता अपहरण, श्रीकृष्ण ने तो अपने बचपन में दुर्घटनाओं की लम्बी श्रंखला देखी थी। वृन्दावन के वन में आग लग जाना, पिता नन्दबाबा पर राक्षसों के आक्रमण, महावीर ने अपनों से दुर्घटनाएं झेली थीं। मोहम्मद ने इस्लाम को हादसों के बीच गुजारकर सलामत स्थापित किया था। कौन बचा है कुदरत की मार से। लिहाजा हादसे होते ही रहते हैं सवाल है
सामना कैसे करें।भागवत में कहा है याद करने पर बीता हुआ सुख भी दुख देता है तो फिर दुख तो दुख देगा ही। जीवन में हुई दुर्घटनाओं के बाद उसकी पीड़ा को जितनी जल्दी विस्मृत करेंगे उतनी ही शीघ्रता से नया सृजन कर पाएंगे। इसलिए पीड़ा को विस्मृत करें और सृजन के संकल्प को स्मृति में रखें। राम-कृष्ण से लेकर जितने भी महान लोग हुए उन्होंने जीवन के विपरीत में पीड़ा को भी सुख में बदलने की कला सिखाई। अध्यात्म ने कहा है अपने साक्षी हो जाओ। इसी साक्षी भाव को जागरण, ध्यान, मुक्ति कहा गया है। जो भीरू होते हैं वह भगवान को उपलब्ध नहीं होते। भगवान ने कहा मैंने जो जीवन दिया है उसे विपरीत परिस्थितियों में आपने कैसे गुजारा, मैं उसका भी हिसाब रखता हूं। इसलिए जब संकट आए तो बाहर की व्यवस्थाएं हमें अपने कर्म से जुटाना है लेकिन अन्तरमन की व्यवस्थाओं को अध्यात्म से सुनियोजित करना है। नतीजे में भीतर हम शान्त होंगे और बाहर बेहतर नवसृजन कर पाएंगे।

तो फिर दुनिया जीतने में देर नहीं लगेगी

शरीर और मन दोनों अलग-अलग मोर्चे हैं, शरीर को नियंत्रित रखना हो तो रास्ता अलग है और अगर मन पर काबू पाना है तो अलग। अध्यात्म में इसका बहुत महत्व है। मन को काबू करने के लिए हमें अपनी भीतरी शक्तियों को जागृत करना होगा। मन काबू में आ जाए तो जानिए कि संसार जीतने में अग देर नहीं है।जो दिखता है वह शरीर है और जो नहीं दिखता है पर करता बहुत है वह मन है। यह एक आध्यात्मिक कहावत है। बहुत आसान है किसी के शरीर को पकड़ लेना लेकिन मन को पकड़ना कठिन है। बिना तपस्या के मन पकड़ में नहीं आता। आदमी का शरीर दो भागों में बंटा है स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर। इनका भेद, अंतर और उपयोग तीनों ही आदमी को आना चाहिए। ईसा मसीह कहा करते थे-मेरी बातों को वे लोग सुनें जिनके कान हों और वे लोग देखें जिनकी आंखें हों। उनके शिष्य पीटर ने उनसे एकबार पूछा आप ऐसा क्यों कहते हैं। जीसस का जवाब था-शरीर में आंख, कान और दूसरे अंग ऐसे लगते हैं जैसे चिपका दिए गए हैं। बहुत कम लोग होते हैं जो उनका सद्उपयोग करते हैं। बुद्ध के लिए भी कहा जाता है कि वे एक ही बात को तीन बार दोहराते थे। ऐसा वे इसलिए करते थे कि लोग बेहोश हैं। कम से कम तीसरी बात सुनकर तो होश में आएं। इसीलिए अध्यात्म जगत की यात्रा में शरीर, उसके अंग और उसके भीतर के सूक्ष्म रूप को जानना जरूरी है। हम लोग अधिकांशत: जीवन को ऐसी जगह से देखते हैं जहां से उसका एक ही भाग नजर आता है। दूसरा भाग ओट में रह जाता है। जैसे पेड़ को देखें तो देखनाभर काफी नहीं होगा। उसका बीज और उसकी जड़ देखे बिना या जाने बिना वृक्ष को देखना पूरा नहीं माना जाएगा। बस जिन्दगी के साथ यही है। हम स्थूल शरीर पर टिक जाते हैं लेकिन इसके पीछे जो सूक्ष्म कारण है जहां सूक्ष्म शरीर है उसे भी जानना चाहिए। स्थूल में सूक्ष्म और सूक्ष्म में स्थूल बसा है। साधारण भाषा में कहें तो मन सूक्ष्म शरीर है। मन को जानते ही मन शून्य हो जाएगा या शांत हो जाएगा और यहीं से ध्यान हटेगा। ध्यान में दोनों शरीर दिव्यता को प्राप्त होंगे।

आपकी सफलता में ये पांच अवरोध हैं

हमारी तरक्की और सफलता के बीच पांच रोड़े हैं। विडंबना यह है कि हम सारे अवरोध बाहर ही तलाशते रहते हैं, कभी भीतर नहीं देखते। जो परेशानी नहीं है, रुकावट नहीं है उसे भी हम बहुत बड़ी समस्या समझकर दूर करने में लगे रहते हैं जबकि समस्या हमारे भीतर से उपजती है। अपने भीतर उतरें और इन अवरोधों को दूर करें।
जीवन में विपरित और विपत्तिकाल आते ही रहते हैं। जो उन्नति के अभिलाषी हों उन्हें पांच बातें ऐसे वक्त में त्याग देना चाहिए-निराशा, दीनता, आलस्य, कटुता और क्रोध। ये बातें जब जीवन से हट जाती हैं तब जीवन में धर्म का सही स्वरूप सामने आता है। धर्म का अर्थ सम्प्रदाय न लिया जाए। धर्म का एक अर्थ यह भी है किया जाने वाला सही कर्म। कर्म में से राग द्वेष हटाना पड़ेगा। जैन धर्म में महावीर स्वामी एक जगह कहते हैं-
रागो य दोसो वि य कम्मबीयं, कम्मं च मोहप्पभवं वयन्ति।
कम्मं च जाईमरणस्स मूलं दुक्खं च जाईमरणं वयन्ति।।
यानी राग और द्वेष कर्म के बीज हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होता है। मोह जन्म और मरण का मूल है तथा जन्म और मरण दुख का कारण है। अभी हम यहां जन्म और मरण की बात छोड़ दें केवल कर्म और उसके धर्म की बात करें तो एक घटना याद आती है। महाभारत का युद्ध आरंभ होने वाला था और युधिष्ठिर उदास हो गए। उन्होंेने अजरुन से कहा कौरवों के पास यौद्धा अधिक सक्षम और सेना ज्यादा है। हम पाण्डव इन मामलों में कमजोर हैं। हमारी विजय संदिग्ध है। तब अजरुन ने पूरे आत्म विश्वास से कहा था कौरवों के पास सबकुछ हो फिर भी विजय हमारी होगी, क्योंकि हमारे पास श्रीकृष्ण हैं, धर्म है, सत्य है। अजरुन उस समय युधिष्ठिर को समझा देते हैं हालांकि थोड़ी देर बाद स्वयं संशय में आ जाते हैं और तब गीता का जन्म होता है। अजरुन जिस धर्म की बात कर रहे थे उस शब्द में सृजन छुपा है। धर्म में सृजन होता ही है। यदि युद्ध और विनाश भी किसी समय धर्म बन जाए तो उसमें भी सृजन की संभावना बनी रहेगी। इसलिए हमारे हर कर्म का धर्म यही हो कि सृजन किया जाए।

इसका भी अपना शाही अंदांज है

हर काम का अपना एक अंदाज होता है, जो बिलकुल राजसी ठाटबाट से हो उसे शाही अंदाज कहते हैं। सबसे शाही अंदाज होता है उसका जिसके मन में फकीरी यानी वैराग्य जन्म ले ले। वैराग्य के आते ही आपके अंदाज शाही हो जाते हैं, न बीते कल की यादें सताती है और न आने वाले कल फिक्र। बस आज में जीते हैं, बादशाहों की तरह।वैराग्य किसी के भी भीतर उतरे होता उसका अपना शाही अंदाज है। फकीरों को आज भी इसीलिए याद किया जाता है कि उनके भीतर उतरे वैराग्य ने उनकी जीवनशैली को एक अलग ही ढंग दे दिया था। सभी फकीर पहले अपना मंगल साधते हैं और फिर इस मंगल से सारी दुनिया मंगलमय करने की तैयारी करते हैं। मुस्लिम संत हातमअसम चीजों को बड़े मजेदार ढंग से समझाया करते थे। एकबार स्वर्ग और नर्क को लेकर उन्होंने बड़ी गहरी और रोचक व्याख्या की। वे किसी की दावत में गए हुए थे। दावत तीन शर्तो पर मंजूर की गई थी। पहली जहां चाहूंगा वहीं बैठूंगा और जब बैठने का मौका आया तो वे जूते-चप्पलों के पास जाकर बैठ गए। दूसरी शर्त थी जितना चाहूंगा उतना ही खाउंगा और बहुत गुजारिश के बाद भी उन्होंने दो ही रोटी खाई। उनकी तीसरी शर्त थी जो मैं कहूंगा वैसा ही करना और उन्होंने एक तवा बुलवाया। उस गरम तवे पर खड़े हो गए आसमान की तरफ देखकर बोले मैंने दो रोटियां खाई हैं। तवे पर से उतरे वहां मौजूद लोगांे से कहा यदि तुम्हें इस बात का यकीन है कि कयामत में र्जे-र्जे का हिसाब देना होता है तो इस तवे पर खड़े हो जाओ। लोगों ने कहा हमें यकीन तो है कि ऐसा करना पड़ता है लेकिन हम तवे पर खड़े नहीं हो सकते। हातमअसम बोले-जब आप लोग इस तवे पर खड़े होकर अपने गुजारे हुए एक दिन का हिसाब नहीं दे सकते तो कयामत के दिन उस जमीन पर खड़े होकर जहां केवल आग ही आग होगी सारी जिन्दगी का हिसाब कैसे दोगे। यहां फकीर ने बात इतनी समझाई कि जो भी इस जिन्दगी में कर रहे हो ऊपर कोई इसका हिसाब रख रहा है। इसलिए अपने जमीर को साफ रखो और उसके मुताबिक भले काम करो क्योंकि जवाब एक दिन देना ही है।

यह उड़ान ही प्रगतिशीलता है

सिर्फ काम पर लगे रहना प्रगतिशीलता नहीं होती, हम काम करते हैं बदले में बेहतर मेहनताना पाते हैं और समझते हैं कि बस प्रमोशन यही है। दरअसल प्रगतिशीलता का मतलब है अपनी जमीन से उड़कर आसमान में जगह बनाना, जो लोग अपने दायरे से बाहर आते हैं, अपने आसपास की रूढ़ियों को तोड़ते हैं वे ही सच्चे प्रगतिशील लोग होते हैं।
तेजी से बदलते युग में प्रगतिशीलता और रूढ़िवादिता का झगड़ा चलता ही रहता है। रूढ़िवादिता एक भ्रमित हठ है, जबर्दस्ती की जिद है जबकि प्रगतिशीलता सर्वस्वीकार्य स्थिति है। रूढ़ीवादी लोग मेंढक की तरह शोर तो अधिक कर लेंगे लेकिन कुए में ही पड़े रह जाएंगे। प्रगतिशील आदमी भले ही कोल्हू के बैल की तरह नजर आए लेकिन कम से कम वह खेतों को जल से सींच तो सकते हैं या तेल के चक्र को घुमा तो पाते हैं।रामकथा में हनुमानजी ने विभीषण को एक बात समझाई थी रावण से जुड़कर तुम न सिर्फ गलत कर रहे हो बल्कि रूढ़िवादिता का समर्थन कर रहे हो। प्रगतिशील बनो, बाहर निकलो। रिश्तों के दायित्व के और जीवनशैली के नए अर्थ ढूंढो। विभीषण ने ऐसा ही किया और वह रावण से मुक्त हुआ। हनुमानजी से प्रगतिशीलता के मामले में हम उड़ना सीखें। मनुष्य अपने पंख खोल ही नहीं पाता, जबकि अनंत आकाश में उड़ने की संभावना उसके भीतर भरी हुई है।इसे आध्यात्मिक दृष्टि से समझें। जब तक आप संसार के बंधन से बंधे हैं आकाश की स्वतंत्रता उपलब्ध नहीं कर पाएंगे। हनुमानजी समुद्र तैरकर भी जा सकते थे लेकिन वे उड़कर गए। उन्होंने यह संदेश दिया कि इस उड़ने का नाम ही प्रगतिशीलता है। जो लोग सूर्य की ओर मुख करके चलेंगे अंधकार उनके पीछे रहेगा और जब आप सूर्य की ओर पीठ कर लेंगे तब आप अपनी ही परछाईं के अंधकार के पीछे चल रहे होंगे। हनुमानजी की उड़ान का अर्थ है प्रगतिशीलता। मनुष्य परमात्मा तक केवल विश्वास से ही नहीं पहुंचता बल्कि ओवरफ्लोविंग एनर्जी से पहुंचता है।

तो फिर आपकी जीत पक्की है
कभी-कभी जीवन एक प्रतिस्पर्धा जैसा लगने लगता है, हर तरफ भागदौड़ मची हुई है। कभी कोई आपसे आगे निकल रहा है तो कोई आपको पीछे खींचने की कोशिश करता है। ऐसे में मन अशांत और निराश होने लगता है। कभी कभी ऐसा भी होता है कि आप बहुत कोशिश करते हैं फिर भी सफलता हाथ नहीं लगती। ऐसे में सबसे ज्यादा निराशा खुद से ही होती है। हमें अपनी काबिलीयत पर भी संदेह होने लगता है। जब ऐसी परिस्थितियों में निराशा हाथ लगती है तो मन बैठ जाता है और एक अनचाहा बोझ हमारे मन पर आता है। दुनिया में मन नहीं लगता, खुद के प्रति एक अपराधबोध जैसा महसूस होने लगता है।ऐसी परिस्थिति में कई लोग टूट जाते हैं, जिंदगी से मोह खत्म कर बैठते हैं। ऐसी परिस्थितियों में हमें जो चीज बल देती है वह है अध्यात्म। अगर हम अध्यात्म में भरोसा रखें तो शायद जिंदगी में ऐसे पलों का सामना भी न करना पड़े। वाल्मीकि रामायण के सुंदरकांड में एक प्रसंग आता है जो हमे आत्मबल और अध्यात्म दोनों से पूर्ण करता है। हनुमान लंका में सीता की खोज कर रहे थे, हर भवन देख लिया, सारे रास्ते, कोने देख डाले लेकिन सीता कहीं दिखाई नहीं दी। एक बार रावण के कक्ष में सोती मंदोदरी को देखकर उसे ही सीता समझने का भ्रम भी हुआ, हनुमान खुश हो गए कि सीता मिल गई लेकिन फिर उन्होंने विचार किया और अनुमान लगाया कि इतनी निश्चिंतता से सोने वाली स्त्री सीता नहीं हो सकती। जब सीता कहीं नहीं दिखाई दी तो मन में यह विचार भी आया कि राक्षसों ने सीता को मार तो नहीं दिया। बस ऐसे ही विचार आते रहे और हनुमान निराशा में डूबने लगे। एक जगह बैठकर विचार किया कि अगर सीता नहीं मिलीं तो सारी उम्र लंका में ही रहकर गुजार दूंगा। बस ये विचार आया और उनका अध्यात्म जागा। हनुमान ने फिर विचार किया कि अगर लंका में ही रहना है तो फिर क्यों न आखिरी सांस तक प्रभु काज किया जाए। ऐसा सोचते ही उनके मन में फिर रोमांच भर गया, निराशा हट गई। उन्होंने विचार किया कि हार मानने से पहले एक बार फिर नए सिरे से सीता को खोजना चाहिए। बस फिर वे अपने अभियान पर निकले और अशोक वाटिका पहुंच गए। जहां सीता के दर्शन हुए।
यह प्रसंग हमें बताता है कि कैसे असफलता सामने देखते ही हमारे मन में घोर निराशा के विचार छा जाते हैं। कमजोर लोग इसी निराशा में खुद को डुबो देते हंै और फिर सबकुछ खत्म हो जाता है। हनुमान जैसे योगी पुरुष ऐसे में अध्यात्म का सहारा लेते हैं। निराशा मन में हावी हो उसके पहले ही अपनी इंद्रियों में फिर उत्साह भर लेते हैं। हार मानने से पहले एक बार फिर प्रयास करने का विचार करते हैं। हमें इस विचार को कभी भी त्यागना नहीं चाहिए। हमेशा अपने मन में आखिरी प्रयास शेष है ऐसा भाव बनाए रखें। फिर हर क्षेत्र में जीत आपकी ही होगी।

ये योग समस्या है और वह योग समाधान

धर्म कभी समस्या नहीं होता है, हम उसे भी समस्या की तरह ही लेते हैं कारण है धर्म को हम केवल संसार से जोड़कर देखते हैं। धर्म और संसार का योग जब भी होता है यह समस्या ही पैदा करेगा, इसका कारण है कि धर्म वैराग्य पैदा करता है और संसार राग का पक्षधर है। अगर इसका समाधान चाहिए तो आपको इस योग से इतर एक दूसरा योग बनाना होगा, धर्म और अध्यात्म का। यह हर उस सवाल का समाधान होगा जो धर्म और संसार के योग से पैदा हुए हैं।धर्म क्या है इसको लेकर सदैव बहस होती रहती है। कार्ल माक्र्स का यह संवाद बहुत लोकप्रिय है कि धर्म जनता के लिए अफीम है यानी नशा है। माक्र्स ने इस सवाल को बहुत पहले उठाया था कि धर्म से उत्पन्न रिक्तता को कैसे भरा जाए। मनुष्य धर्म की रचना करता है या धर्म मनुष्य की रचना करता है यह बहस का एक पुराना मुद्दा है। किसी ने धर्म को मनुष्य की स्वचेतना कहा है, स्वप्रतिष्ठा माना है, भटके हुए लोगों के लिए सद्मार्ग माना है। मनुष्य रहता है राज्य और समाज में। जीता है किसी धर्म में और कई बार धर्म और राज्य, समाज एक-दूसरे के लिए उल्टे नजर आते हैं। वे एक-दूसरे को शीर्षासन करते हुए देखते हैं लेकिन तमाम प्रगतियों के बाद अब यह तय हो गया है कि धर्म के विरूद्ध संघर्ष का मतलब है संसार के विरूद्ध संघर्ष। संसार में अध्यात्म की जो सुगंध होती है उस तक पहुंचने के लिए धर्म एक साफ-सुथरी पगडंडी है। धर्म को संसार में उलझाएं तो अनेक विवाद हैं लेकिन अध्यात्म से जोड़ें तो उससे भी अधिक समाधान हैं।
जैसे अध्यात्म से जुड़कर धर्म कहता है मनुष्य के विकास की चार सीढिय़ां हैं और धर्म ने इन्हें आश्रम का नाम दिया है-बृह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम। बृह्मचर्य आश्रम ज्ञान की उपासना को बताता है। गृहस्थाश्रम में प्रेम, सहयोग और त्याग के प्रयोग किए जाते हैं, वानप्रस्थ आश्रम में परिवार की मर्यादित आसक्ति को छोड़कर सेवा की जाए इसका आग्रह होता है। संन्यास आश्रम का अर्थ है निर्माण। एक ऐसा जीवन जो सिर्फ परमात्मा के लिए होगा। सन्यास भारतीय संस्कृति का मौलिक शब्द है। इसलिए धर्म को अध्यात्म से जोड़कर खूब लाभ उठाया जा सकता है और संसार में उलझा कर हानि भी प्राप्त की जा सकती है।

काम नहीं, परिणाम का ख्याल करता है अशांत

इस दौर में आदमी पहले से भी ज्यादा काम कर रहा है लेकिन फिर भी अशांति पीछा नहीं छोड़ रही। आखिर क्या है जो आपको अशांत कर रहा है? दरअसल हम कर्म करने से अशांत नहीं है, विचलित हैं परिणाम सोच कर। हम जो भी काम करते हैं उसकी सफलता का संशय या असफलता की आशंका हमें बेचैन करती है। हम परिणाम को परमात्मा पर छोड़ देंगे तो यह अशांति स्वत: ही खत्म हो जाएगी।यह खूब काम करने का समय है। इसे अध्यात्म ने कर्मयोग कहा है। गीता को कर्मयोग का प्रतिनिधी साहित्य माना है। अनेक श्लोक कर्मयोग को लेकर कहे गए हैं। कर्म करने के बाद मनुष्य अशांत क्यों हो जाता है यह सवाल सबके मन में है। कर्म करते हुए तनाव में क्यों आ जाते हैं। दबाव मुक्त होकर कर्म कैसे किया जाए। दरअसल कर्म किसी को नहीं दबाता, दबाता है कर्ता भाव। इसलिए कर्ता भाव को छोड़ना है, कर्म को नहीं छोड़ना। सबसे बड़ा कर्म परमात्मा कर रहा है और हम उसकी व्यवस्था के छोटे से पुर्जे हैं।कर्म को लेकर जैन साहित्य में एक सुंदर महावीर वाणी आई है। यह सूत्र भी कर्म दृष्टि पर आधारित है। भगवान कहते हैं, जिस प्रकार सेनापति के नष्ट हो जाने पर सेना समाप्त हो जाती है, वैसे ही एक मोहनीय कर्म के नष्ट हो जाने पर सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं। इसमें महावीर ने कहा है कर्म के आठ चरण हैं-पहला ज्ञानवरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गौत्र और अन्तराय। इसमें मोहनीय कर्म चौथा है। यह कर्म जब साधक के जीवन में पैदा हो जाता है तब वह संसार में उलझ जाता है। मोह के बंधनों में बंध जाता है। जैसे मदिरा के नशे में व्यक्ति दूसरों का उपहास करता है पर लोग जानते हैं कि यह नशे में है। मोहिनीय कर्म का अर्थ ही है कि कर्म के परिणाम के प्रति मोह हो जाना और यहीं से अशांति आरंभ होती है। महावीर ने इसे सेनापति कहा है। उनका कहना है सेनापति को हरा दो तो सेना को अपनेआप जीत जाओगे। कर्मो के परिणाम की आसक्ति से मुक्त हुए कि आपके भीतर जितेन्द्रिता आ गई और जो जितेन्द्रिय है, वीतरागी है वही शांत है। फिर वह कितने भी कर्म करे दबाव में नहीं आएगा।

विचारों को भगवान के सहारें कर दें
ध्यान लगाते समय सबसे बड़ी समस्या होती है मन नहीं लगना। अधिकतर लोगों की शिकायत होती है कि ध्यान के लिए बैठते हैं तो मन और तेज दौड़ने लगता है। खोया-पाया के विचारों में ही ध्यान का सारा समय चला जाता है। परमात्मा की राह में सबसे बड़ी समस्या ही मन है, विचार है। भक्त बनना है तो अपने सारे विचार को परमात्मा के पैरों में बांध दो, फिर ये विचार न तो ध्यान भंग करेंगे और न विचलित करेंगे।भक्त की एक भावदशा होती है। जिन्हें भक्त बनना हो वे लगातार प्रयास करें कि उनके मन में यह भाव आ जाए कि जो कुछ भी संसार में हमारे हाथ लगा है वह परमात्मा ने कृपा की है। अज्ञानी के हाथ जब कुछ लगता है तो वह कहता है कि मैने पाया। इससे अहंकार बढ़ता है। भक्त को जब मिलता है तो वह कहता है कि है परमात्मा, मेरे रहते तो न मैं कुछ पा सकता था और न ही कुछ कर सकता था जो कुछ भी हुआ है आपके रहते हुआ है और धीरे-धीरे यही भाव सारे संसार के प्रति भक्त के मन में आ जाता है। जिन्हें मेडिटेशन करना हो उनके लिए यह भाव दशा बड़े काम आएगी। क्योंकि भक्त ने अपने सारे विचारों को भगवान से जोड़ दिया है। उसके विचार जब परमात्मा से मिल गए तब उसका चित्त अपनी ओर लौटने लगता है। पतंजलि योग में इसे ही प्रत्याहार कहा गया है। सभी धर्मो के संत-फकीरों ने इसे कहा है अपनी ओर लौटो, भीतर मुड़ जाओ। जितना आप भीतर मुड़े उतने ही आप ध्यान में डूब जाएंगे।गुरुबानी में कहा गया है-जिह घाट सिमरन राम को सो नर मुक्त जान, हरिजन हरि अंतर नहीं नानक कहियो बखान अर्थात जो हरि का सुमिरन करते हैं उनमें और हरि में फर्क नहीं रह जाता। नानक की यह पक्तियां ध्यान लगाने वालों के लिए बड़ी काम की है। सुमिरन करते-करते आप स्वयं में और संसार में हरि देखने लगते हैं। इस हरि दर्शन का अर्थ ही है विचारों से कट जाना और अपने चित्त को अपने पर लौटा लाना। हम और हमारा हरि बस इसी का नाम एकांत है और ऐसे एकांत का एक नाम ध्यान है।

डर कर भी पा सकते हैं परमात्मा को
भक्ति के समय भय का भाव नहीं होना चाहिए, न भय में भक्ति। ये दोनों एक-दूसरे के विपरित हैं। फिर भी इंसानी स्वभाव है कि कई बार वह डर से ही भगवान को मानना और मनाना शुरू करता है। भय में भी भगवान मिलते हैं लेकिन इसका एक तरीका होता है। भय भी परमात्मा से मिला सकता है।भय और भक्ति एक-दूसरे की तरफ पीठ करके होना चाहिए। जो भक्ति कर रहे हों उन्हें भयभीत नहीं होना है लेकिन देखा यह गया है कोई न कोई भय किसी न किसी रूप में हर एक के जीवन में समाया हुआ है। ज्ञात भय तो समझ में आता है पर कई लोग अज्ञात भय में भी जीते हैं। जो लोग डर-डर कर जीएंगे वे परमात्मा को कैसे पा सकेंगे। आइए आज एक ऐसे डर की बात करें जो आध्यात्मिक जीवन में अचानक आ जाता है। यह डर है च्च्कहीं भूल न हो जाए।ज्ज् कई भक्त इस भूल हो जाने के डर के कारण उलझ जाते हैं। उनके चिंतन की सारी ऊर्जा इस बात पर लग जाती है कि कहीं भूल न हो जाएं, जबकि सारी ऊर्जा लगना चाहिए की गई भूल को ठीक करने में। भूल होना स्वाभाविक है। भूल के प्रति सावधानी रखी जाए चिंता नहीं। ऊर्जा इस बात में लगाई जाए कि भूल ठीक करने में चूक न हो। जो इस डर में जीएगा कि कहीं भूल न हो जाए वह जीवन में कोई बड़ा सृजन नहीं कर पाएगा। ऐसे लोग मित्र इसलिए नहीं बना पाएंगे कि उन्हें मित्रता में शत्रुता का भय पहले दिखेगा। उन्हें शत्रुता मिले न मिले पर मित्रता से वे जरूर वंचित हो जाएंगे। ऐसे लोग प्रेम इसलिए नहीं कर पाएंगे कि इससे पहले ही उन्हें ईष्र्या का भय सताएगा। सारी ऊर्जा मित्रता, प्रेम, भक्ति में लगाई जाए। भूल होगी, परमात्मा संभालेगा। अपनी श्रृद्धा को बलवती करें भूलोंे को भगवान पर छोड़ दें। सावधानी रखना है लेकिन सावधानी के चक्कर में सारी ऊर्जा को भूल न होने पर ही नहीं टिका देना है। जो लोग ड्रायविंग जानते हैं वे अच्छे से समझ सकेंगे कि अधिकांश एक्सीडेंट दूसरांे की भूल से होते हैं। अत: सारी ताकत भूल को ठीक करने में लगाई जाए तो दुर्घटनाओं से हम पार पा जाते हैं। ऐसा ही प्रयोग अध्यात्म मार्ग में भी काम आएगा।

पढ़ते समय अपने विचारों को किताबों पर न थोपें

आज हम पढ़ते कुछ और हैं, उसका अर्थ कुछ और लगाते हैं और उसका परिणाम कुछ और ही निकालते हैं। ऐसा क्यों हैं, किताबें या शास्त्र अपना मूल अर्थ, अपनी मौलिक विचारधारा क्यों खो रहे हैं। सीधा कारण है कि अब लोग पढ़ते समय अपने विचारों को किताबों पर थोप देते हैं। खासकर धर्म शास्त्रों के साथ यह दुर्घटना घट रही है।इस संसार में सभी किसी न किसी से जुड़े हुए हैं। रिश्तों से, धर्म से, काम काज से जुड़ाव बना ही रहता है। यदि इसमें विवेक न रखा जाए तो यह जुड़ाव पथभृष्ट, मतिभ्रम होने का कारण भी बन सकता है। आज धर्म की ही बात की जाए। धर्म से किया गया विवेकहीन लगाव शास्त्रों में वर्णित शब्दों के अर्थ भी बदल देता है।पढ़ने वालों ने अपनी निजी सोच, चिंतन, मंशा, बुद्धि और इरादों के कारण शास्त्रों के संदेशों के अर्थ ही बदल डाले। संतों ने कहा है कि पढ़ते समय शब्दों के प्रति जितने तटस्थ रहेंगे, शब्दों से उतना ही सही अर्थ मिल पाएगा। हमारा मन जिन-जिन बातों से जकड़ा हुआ है उनमें शब्द प्रमुख हैं। मनुष्य का मन पूरी तरह से शब्दों की पकड़ में हैं। बाहर यदि किसी ने कुछ कहा उसके शब्द हमें प्रीतिकार हैं तो हमारा मन गद्गद हो जाता है यदि कहे गए शब्द हमारे विरोध में हैं तो मन उदास, चिढ़चिढ़ा हो जाएगा।
हम शब्दों से इतना भी न जुड़ जाएं, शब्द सिर्फ तरंग है, हमें उन्हें तटस्थ भाव से सुनना, समझना होगा। कुरआन का उदाहरण लें। जो इस्लाम धर्म के नहीं हैं वे कुरआन के कुछ शब्दों का अर्थ अलग ले लें यह तो समझ में आता है लेकिन जो इस्लाम मानते हैं वैसे भी कुछ लोग शब्द के प्रति अपना निज आग्रह के कारण भटक गए।कुरआन में एक आयत उतरी है। जिनके मन में कुटिलता (कजी) है वे कुरआन के उन आयतों के पीछे हो लेते हैं ताकि फसाद फैलाएं (सुर-३, आयत-७) इस्लाम मानता है खुदा ने ये आयतें पैगम्बर मोहम्मद पर खुद उतारी थीं। मोहम्मद का इशारा यही था कि कई लोग आयतों के अपने-अपने अर्थ निकालते हैं और उसी पर चल देते हैं। इसीलिए शास्त्र अपना मूल अर्थ खो देते हैं। पढ़ने वाले की बुद्धि से अधिक उसकी अपनी मंशा काम कर जाती है। इसलिए शब्दों के प्रति अर्थ ग्रहण करते समय थोड़ा तटस्थता का भाव रखें।

फैसला आपका ही है स्वर्ग में रहें या नर्क में

हम स्वर्ग में भी रह सकते हैं और नर्क में भी रखे जा सकते हैं। इसका पूरा दारोमदार खुद हम पर है। हम स्वर्ग में रहें या नर्क में तय हमें ही करना है। ये दोनों हमारे आसपास ही हैं और हमारे कर्म, व्यवहार और विचारधारा इनकी ओर ले जाएगी। ईसा मसीह ने इसका बहुत सटीक जवाब दिया था, हम इसके अर्थो में उतरें तो अपनेआप स्वर्ग और नर्क का फर्क हमारे सामने आ जाएगा।
स्वर्ग-नर्क हैं या नहीं इसे लेकर सभी धर्मो के आचार्यो में मतभेद भी रहे और आपस में भिड़े भी बहुत। बहुत बहस के बाद ऊपरी सतह पर यह तय हुआ कि जहां सुख है वहां स्वर्ग, जहां दुख वहां नर्क। सबने इसे अपने-अपने हिसाब से भूगोल, घर, शरीर और अपने भीतर स्वर्ग-नर्क रख कर अपनी-अपनी परिभाषा तय कर ली। सभी लगे हैं जुगाड़ में स्वर्ग पाने की, नर्क छुड़ाने की। स्वर्ग को परमात्मा का राज्य माना गया है, जहां रहकर ईश्वर से निकटता और बढ़ जाए वह स्वर्ग। ईसा मसीह से किसी ने पूछा था हमें प्रभु का राज्य यानी स्वर्ग कब और कैसे मिलेगा। उन्होंने छोटा सा सीधा जवाब दिया था पहले आप मरो, फिर से जन्म लो तब मिलेगा। इसका अर्थ समझ लें। शरीर समाप्त करके मरने वाली बात यहां नहीं कही जा रही है। ईसा मसीह का इशारा यह है आज की तारीख में हम लोग जिस प्रकार से जी रहे हैं वैसे न रहें, मिट जाए इस प्रकार के होने से, और इस तरह के बन जाएं जैसे हम हो सकते हैं, ईश्वर भक्त के रूप में। इस हो सकने की संभावना में ही स्वर्ग छुपा है। मिटकर पुन: पैदा होने का अर्थ है हम शारीरिक, मानसिक और नैतिक तीन रूप में समानता के साथ स्वस्थ हों। इनके असन्तुलन में नर्क है। कर्म करने की सुविधा और उसके फल भोगने की विवशता को समझकर स्वर्ग-नर्क का निर्माण हमारे हाथों में है। यह पुनर्जन्म या जागरुकता हमें सिखा देगी कि केवल भौतिक सुख सुविधा स्वर्ग नहीं है या इसका अभाव नर्क नहीं है। हम कैसे इसको निर्मित करते हैं, भोगते हैं इस पर निर्भर है हमारा स्वर्ग-नर्क।जैसे बीच मिटकर पेड़ बनता है वैसे ही हम भी मिटकर वो कल्प वृक्ष बनेंगे जो स्वर्ग का प्रतीक है। सुख के साथ शांति के वृक्ष नहीं लगेंगे।

हमारा धर्म कहता है हमेशा मिलकर रहें

दुनिया कहती है भारत की जनता एक बिखरी भीड़ की तरह है। वास्तव में समूह में रहना हमारी मूल प्रवृत्ति है। हम न अकेले जीते हैं और न ही किसी को अकेले जीने देते हैं। हमारा धर्म, हमारा अध्यात्म कहता है कि हम हमेशा साथ में रहें, साथ में जीवन जीएं।
भारत की भीड़ को लेकर विदेशी लेखकों और चिन्तकों ने बहुत लिखा है। दरअसल भारतीय समूह की वृत्ति में जीते हैं और जल्दी अनुशासन छोड़ देते हैं। इस कारण हमारा समूह भीड़ में बदल जाता है। हमारी इसी भारतीय भीड़ का दुनियाभर में बहुत मजाक उड़ाया जाता है। अध्यात्म ने अधिक मनुष्यों की एक साथ उपस्थिति को अनुग्रह से जोड़ा है, जो बिल्कुल नई दृष्टि है। भारतीय संस्कृति ने जीवन में जो कुछ भी उपलब्ध हुआ है उसके प्रति आभार से भरे रहने के लिए अत्यधिक आग्रह किया । हमें जहां से जो भी मिला है उसके प्रति आभारी जरूर हों। हमारे यहां प्रत्येक धार्मिक आयोजन में सब एक साथ इकट्ठा होकर भाव से जुड़ें इसका प्रयास किया जाता है। धार्मिक अनुष्ठानों के कर्मकाण्डों से यही सन्देश दिया जाता है कि सब आपस में मिलकर रहें। भारतीय संस्कृति ने छोटे-छोटे पर्वो पर भी ऐसी व्यवस्था दी है कि परिवार के सदस्य एक साथ इकट्ठे हो जाएं। छोटे परिवारों के इस युग में पैदा हो रहे और पल रहे बच्चे जान ही नहीं पाते हैं कि मम्मी-पापा के अलावा भी रिश्तों का ऐसा संसार है जो जीवन को रिलेक्स कर सकता है। कुछ बच्चे तो रिश्तों के संबोधन ही भूल गए। घर की शोभा पूरे परिवार से होती है और पूरे परिवार में केवल तीन-चार सदस्य नहीं होते। परिवार में सब मिलकर रहें या वक्त-वक्त पर मिलते-जुलते रहें तो यहीं धरती पर घर में ही स्वर्ग होगा। मिल-जुलकर करने पर धार्मिक कार्य भी अपने आप में उत्सव हो जाता है। जो लोग दुनिया में सर्वश्रेष्ठ बने हैं वे इकट्ठा होने का रहस्य जानते हैं। सबके साथ इकट्ठा रहने पर अपने अहंकार को नियन्त्रित करना पड़ता है। इसके लिए सरल तरीका है आभार प्रकट करने की वृत्ति बनाए रखें। हम जितने आभार से भरे हुए होंगे उतना ही अपने भीतर की श्रेष्ठता को उजागर कर पाएंगे, मिल-जुलकर रहने का यह भी एक फायदा है।

हमारा धर्म कहता है हमेशा मिलकर रहें
दुनिया कहती है भारत की जनता एक बिखरी भीड़ की तरह है। वास्तव में समूह में रहना हमारी मूल प्रवृत्ति है। हम न अकेले जीते हैं और न ही किसी को अकेले जीने देते हैं। हमारा धर्म, हमारा अध्यात्म कहता है कि हम हमेशा साथ में रहें, साथ में जीवन जीएं।भारत की भीड़ को लेकर विदेशी लेखकों और चिन्तकों ने बहुत लिखा है। दरअसल भारतीय समूह की वृत्ति में जीते हैं और जल्दी अनुशासन छोड़ देते हैं। इस कारण हमारा समूह भीड़ में बदल जाता है। हमारी इसी भारतीय भीड़ का दुनियाभर में बहुत मजाक उड़ाया जाता है। अध्यात्म ने अधिक मनुष्यों की एक साथ उपस्थिति को अनुग्रह से जोड़ा है, जो बिल्कुल नई दृष्टि है। भारतीय संस्कृति ने जीवन में जो कुछ भी उपलब्ध हुआ है उसके प्रति आभार से भरे रहने के लिए अत्यधिक आग्रह किया । हमें जहां से जो भी मिला है उसके प्रति आभारी जरूर हों। हमारे यहां प्रत्येक धार्मिक आयोजन में सब एक साथ इकट्ठा होकर भाव से जुड़ें इसका प्रयास किया जाता है। धार्मिक अनुष्ठानों के कर्मकाण्डों से यही सन्देश दिया जाता है कि सब आपस में मिलकर रहें। भारतीय संस्कृति ने छोटे-छोटे पर्वो पर भी ऐसी व्यवस्था दी है कि परिवार के सदस्य एक साथ इकट्ठे हो जाएं। छोटे परिवारों के इस युग में पैदा हो रहे और पल रहे बच्चे जान ही नहीं पाते हैं कि मम्मी-पापा के अलावा भी रिश्तों का ऐसा संसार है जो जीवन को रिलेक्स कर सकता है। कुछ बच्चे तो रिश्तों के संबोधन ही भूल गए। घर की शोभा पूरे परिवार से होती है और पूरे परिवार में केवल तीन-चार सदस्य नहीं होते। परिवार में सब मिलकर रहें या वक्त-वक्त पर मिलते-जुलते रहें तो यहीं धरती पर घर में ही स्वर्ग होगा। मिल-जुलकर करने पर धार्मिक कार्य भी अपने आप में उत्सव हो जाता है। जो लोग दुनिया में सर्वश्रेष्ठ बने हैं वे इकट्ठा होने का रहस्य जानते हैं। सबके साथ इकट्ठा रहने पर अपने अहंकार को नियन्त्रित करना पड़ता है। इसके लिए सरल तरीका है आभार प्रकट करने की वृत्ति बनाए रखें। हम जितने आभार से भरे हुए होंगे उतना ही अपने भीतर की श्रेष्ठता को उजागर कर पाएंगे, मिल-जुलकर रहने का यह भी एक फायदा है।

महत्वाकांक्षाएं पूरी करने का तरीका सीखें हनुमान से
आज के प्रोफेशनल दौर में संवेदनाएं शून्य हो गई हैं। हर आदमी प्रतिस्पर्धा की दौड़ में है और अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए कुछ भी करने को तैयार है। ऐसे में सबसे बड़ा खतरा पैदा हुआ है व्यवहार में विनम्रता को, स्वभाव में सद्भाव को और आचरण में संवेदनशीलता को। हमारे भीतर से सत्य कहीं दूर हो रहा है। अच्छा रहते हुए भी अपना लक्ष्य हासिल किया जा सकता है, इसका सबसे अच्छा उदाहरण भगवान हनुमान हमें सिखाते हैं।अपनी महत्वाकांक्षाओं को हर हालत में पूरा करने का यह दौर है। तुलसीदास जी ने इस महत्वाकांक्षा को ही मनोरथ कहा है।
कीट मनोरथ दारु सरीरा, जेहि न लाग घुन को अस धीरा
- मनोरथ कीड़ा है, शरीर लकड़ी है, ऐसा धर्यवान कौन है जिसके शरीर में यह कीड़ा न लगा हो। आगे उन्होंने इसे और साफ करते हुए कहा है-
सुत बित लोक ईषना तीनी, केहि कै मति इन्ह कृत न मलीनी
पुत्र की, धन की और लोक प्रतिष्ठा की इन तीन प्रबल इच्छाओं ने किसकी बुद्धि को मलीन नहीं कर दिया, यानी बिगाड़ नहीं दिया। अच्छे-अच्छे इस चक्कर में उलझ गए। आज के प्रबंधन की भाषा में इसे ही अति व्यावसायिक दृष्टिकोण कहा गया है। मान लिया गया है कि अपने लक्ष्य की पूर्ति में संवेदनाएं खतरा हो सकती हैं। अत: सिर्फ प्रोफेशनल एटच्यीटच्यूड रखो। व्यक्तिगत, संवेदनशील सम्बन्ध कुछ नहीं होते। सम्बन्ध काम के रखे जाएं, दिल के नहीं। अब तो आदमी इतना कामकाजी हो गया है कि दिल के भी सौदे करने लग गया। इस दौर में जो लोग जॉब शिफ्ट या जंप करते हैं ज्यादातर मौकों पर उनके साथ यही होता है कि वे या तो अपने पुराने मैनेजमेंट को भूल ही जाते हैं या उनके पुराने मालिक उनकी सूरत नहीं देखना चाहते। हनुमानजी से सीखें कि सारे व्यावसायिक दायित्व रखते हुए भी सम्बन्धों में संवेदनाओं की गरिमा कैसे रखी जाए। रावण को मारकर जब राम अयोध्या लौटे तो कुछ समय बाद उन्होंने सभी वानरों को विदा किया। हनुमानजी थे तो राजा सुग्रीव के सचिव पर अब श्रीराम के सथ रहना चाहते थे, बड़ी मर्यादा से उन्होंने सुग्रीव से अनुमति ली थी-
तब सुग्रीव चरन गहि नाना, भाँति बिनय कीन्हे हनुमाना
सुग्रीव के चरण पकड़कर हनुमानजी ने अनेक प्रकार से विनीती की। उनके स्पष्ट और संवेदनशील व्यवहार के कारण ही उनके पुराने बॉस सुग्रीव को कहना पड़ा-
पुन्य पुंज तुम्ह पवनकुमारा, सेवहु जाइ कृपा आगारा
पवनकुमार तुम पुण्य की राशि हो, जाओ कृपाधाम राम की सेवा करो। हनुमानजी से सीखें अपने मनोरथों की पूर्ति में संवेदनाओं की गरिमा को कैसे जीवित रखें।

स्थायी सफलता दिलाते हैं संस्कार

सफलता केवल हमारी कार्यशैली या व्यवसायिक पक्ष पर ही निर्भर नहीं होती है। सफलता का अनछुआ पहलू भी है, ये है हमारे संस्कार। संस्कार हमारी जड़ें होती हैं, हमारी पहचान, संस्कारों से ही हमारा स्वभाव विकसित होता है और स्वभाव से हमारे भीतर व्यवसायिकता आती है। अगर यह व्यवसायिकता संस्कारों से उपजी है तो वह सफलता के साथ शांति भी लाते हैं। संस्कारहीन व्यवसायिक व्यवहार सफलता तो देता है लेकिन उससे कहीं ज्यादा अशांति भी देता है।
व्यावसायिक लक्ष्यों की पूर्ति में जितना महžव हमारी शिक्षा और योग्यता का होता है, एक समय बाद उतना ही संस्कारों का भी हो जाता है। आज की पीढ़ी के अधिकांश लोग या तो संस्कारों को जानते ही नहीं या महžव ही नहीं देते। जरा आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखें क्या जरूरत है जीवन में संस्कारों की । मन, बुद्धि, चित्त और अन्त:करण पर कर्म की अच्छाई तथा बुराई का सीधा प्रभाव पड़ता है। इसी से अच्छे और बुरे संस्कारों का निर्माण होता है। सात्विक प्रकृति अच्छे संस्कारों से जन्म लेती है। जिनकी प्रकृति सात्विक होती है वे जीवन को फिर सतही तौर पर ऊपर ही ऊपर नहीं लेते, थोड़ा भीतर गहरे में भी उतरते हैं। जैन धर्म ने ऐसे व्यक्तित्व को भावलिंग कहा है। महावीर स्वामी का वचन है-‘‘देहादिसंग रहिओ, माणकसाएहिं सयलपरिचत्तो अप्पा अप्पम्मि रओ, स भावलिंगी हवे साहू’’-जो देह आदि की ममता से रहित है, मान आदि कषायों से पूरी तरह से मुक्त है तथा जो अपनी आत्मा में ही लीन है वही साधु भावलिंगी है। इसका सीधा अर्थ है वेश परिवर्तन से कोई साधु नहीं होगा, भीतर परिष्कार करना होगा। व्यक्ति देह में रहे पर देह का होकर न रहे, बात साधारण है पर गहरे उतरने में सहायक है। इसके लिए सात्विक वृत्ति ही काम आएगी। इसीलिए हमारी भारतीय संस्कृति में सोलह संस्कारों की व्यवस्था है। ये सोलह संस्कार समूचे व्यक्तित्व को बाहर और भीतर से गढ़ते हैं। जिनके हाथों में नेतृत्व हो, सत्ता हो, फिर वो चाहे परिवार की, समाज की या राष्ट्र की हो वहां संस्कारों का प्रबन्धन ही काम आएगा। भीतर उतरते ही उपलब्धियों के प्रति दृष्टिकोण बदल जाएगा, यह बात समझ में आ जाएगी कि जो है वह हमेशा ही रहेगा और जो नहीं है उसे लाख बचाओ फिर भी कुछ नहीं बचता है।

यह कमाई हर अभाव को दूर कर देगी
सबकुछ पा लेने की होड़ में जुटे इंसान को भीतर ही भीतर एक अभाव खाता जाता है। कुछ भी पा लो लेकिन मन में एक कमी बनी ही रहती है। शांति चाहते हुए भी नहीं मिलती और सारे प्रयास विफल हो जाते हैं। सबकुछ पाकर भी कुछ खाली-खाली होने का अहसास हमेशा ही बना रहता है। आखिर इस अभाव को दूर करने के लिए क्या किया जाए, इसका एक तरीका गुरु नानकदेवजी ने सुझाया है।अभाव किसी को भी नहीं भाता। वस्तु पास में न हो, स्थिति अनुकूल न रहे तब जो अभाव होता है वह तो समझ में आता है परन्तु मन चाहा मिल जाए और फिर भी जीवन में अभाव, असंतोष बना रहे, खतरा यहां से शुरू होता है और आज अनेक लोग इसी खतरनाक स्थिति में जी रहे हैं। जो लोग ये मानते हैं कि सम्पन्नता के साधनों से ही प्रसन्नता आएगी और प्रगति होगी वे भूल जाते हैं कि केवल इससे ही कुछ नहीं होगा। इन बाहरी साधनों के साथ भीतर की मनोवृत्ति पर भी काम करते रहना होगा। हमारी मनोवृत्ति में यदि संतोष, सहानुभूति, संयम और सदाचार नहीं है तो बाहर से सबकुछ मिल जाने पर भी अभाव का भाव बना रहेगा जो अशांति का कारण बनेगा। इसी कारण जिनके पास सबकुछ है जरूरी नहीं कि उनके पास शांति भी हो। भौतिकता और आध्यात्मिकता का संघर्ष यहीं से शुरू होता है। भौतिकता कहती है पदार्थ ही प्रमाण है, मटैरिएलिस्कि एप्रोच बनाए रखो, भावनाएं भ्रांति हैं। आध्यात्मिकता का आग्रह है पदार्थ गौण हैं, संवेदनाओं को साधो, इसी छीना-झपटी में मनुष्य उलझ जाता है फिर कैसे जीतें इस द्वन्द को? गुरूनानक की बात काम आ सकती है। वे कहते हैं
जउ भावै तिउ राखु तूं मै हरि नामु अधारू
हे प्रभु जैसे भी तुझे भाता हो हमें रख, तेरी मर्जी। ये जो दो शब्द हैं तेरी मर्जी ये हमारे सारे पुरूषार्थ को पवित्र और प्रभावशाली बना देंगे। हम कर्म तो पूरा करेंगे पर फल की प्राप्ति या अप्राप्ति हमें अशांत नहीं करेगी। नानक कहते हैं ऐसे रहते हुए शब्द की, नाम की कमाई करो। व्यावसायिक जीवन में जो भी कमाएं परन्तु आध्यात्मिक जीवन की इस आमदानी को न भूलें जिसे नानक ने च्च्नामु अधारूज्‍ज कहा। नाम की कमाई सारे अभाव दूर कर देती है।

ये है जीवन जीने का सूफीयाना अंदाज
यूं तो हर धर्म में जीवन जीने और मौत का सामना करने को लेकर अपने-अपने दार्शनिक खयाल हैं, जीवन को कैसे जीया जाए, इसे लेकर हर धर्म ने लगभग एक ही संदेश दिया है कि हम जीएं तो हमारे जीवन के केंद्र में वो परमशक्ति होनी चाहिए जिसे हम भगवान या परमात्मा कहते हैं। सूफी संतों ने भी यही कहा है कि जीवन में अल्लाह को हमेशा अपने साथ रखो, यानी उसमें डूब जाओ। सूफी उसी को कहते हैं जो शख्स अल्लाह के साथ साफ दिल रखे।ऊपर वाले ने हर इन्सान को दो बड़ी प्यारी चीज दी है श्रद्धा और सब्र, लेकिन आदमी इनको संभालकर इस्तेमाल नहीं करता। बशर हाफी नाम के फकीर ने जिन्दगी के आखरी वक्त में कैसे दुनिया छोड़ी जाए इस पर शानदार बातें कही हैं। उनका कहना था जिनके खयाल पाक और दिल साफ हैं वो ही लोग जिन्दगी की आजादी का लुत्फ उठा सकेंगे। उन्होंने शांति को लेकर एक अलग ही दर्शन दिया था। वे कहा करते थे इन्सान तब ही शांत हो सकेगा जब उसके दुश्मन उससे बेखौफ हो जाएंगे। बात सूफी अंदाज में है लेकिन अपना ली जाए तो दुनिया में अमन आने में सुविधा हो जाएगी। आज की तारीख में इस इस्लामी फकीर की यह बात समझना बहुत जरूरी है। इस वक्त में तो दुश्मन क्या बेखौफ हो, दोस्त ही दोस्त से डरा हुआ है।बशर की फकीरी अलग ही अन्दाज की थी। उनकी एक सूफ्ती का रहस्य समझा जाए। वे कहते थे ऊपर वाले ने अपने दोस्तों की फेहरिस्त में तेरा नाम दिया है, उसने तो अपना काम कर दिया अब ऐ बंदे, तू दोस्त होने की कोशिश तो कर। वह परवरदिगार, दोस्तों का दोस्त, हमें अपने साथ रखने की तबीयत हमेशा रखता है और हम हैं कि भूले भूले जाते हैं। बात समझने जैसी है बशर कहते हैं जिसका दोस्त अल्लाह है वह दुनिया को दुश्मन कैसे मान सकता है। हमें उसका शुक्रगुजार होना चाहिए कि उसने हमें अपना माना, सच तो यह है कि जिन्दगी जामे-शुकराना (कृतज्ञता का घूंट) है, इसीलिए जिन्दगी में प्रेम ही प्रेम होना चाहिए, फिर हिंसा और आतंक किस बात के लिए।

पहले भीतरी दुनिया को समझे, फिर बाहरी दुनिया को
दुनिया में अपना महत्व साबित करने का तरीका है कि पहले हम खुद का महत्व समझें। इसके लिए जरूरी है स्वयं के भीतर उतरा जाए, अपने आप से साक्षात्कार किया जाए। हम समझें कि हममें क्या खुबियां और क्या खामियां हैं। इसके बिना हम हमेशा दुनिया से शिकायत ही करते रहेंगे।सबका अपना अपना महत्व है। हम भी जरूरी हैं दुनिया के लिए यह एहसास सबको अच्छा लगता है। महत्वपूर्ण होना कौन नहीं चाहता। दुनिया में जितनी भौतिक प्रगति हुई है उसके पीछे मनुष्य का यह भाव भी रहा है मुझे महत्वपूर्ण माना और समझा जाए। पर आदमी केवल महत्ता पर टिक गया, वह यह भूलता ही जा रहा है कि उसकी एक सत्ता भी है, भीतरी सत्ता। असंयम की अति के कारण हमने अपने ही भीतर मुड़ना छोड़ दिया। बाहर हम महत्वपूर्ण माने जाएं इस शैली के कारण हमारी महत्ता तो कायम हो गई पर निर्भयता चली गई। अच्छे-अच्छे महत्वपूर्ण लोग भीतर से भयभीत हैं।
विश्वास और विश्वासघात जिन्दगी में एक साथ चलने लगे। महसूस होने लगा कि दुनिया बे-भरोसे की है फिर भी उसे मुट्ठी में भर लेने की चाहत बढ़ती ही गई। क्या करें कि बाहरी महत्ता और भीतरी सत्ता का तालमेल बैठ जाए। जीसस जिस समाज से जुड़े थे वहां के धर्म ने बाहरी प्रगति पर खूब काम किया। आज दुनिया विज्ञान तकनीक के जिस ऊंचे मुकाम पर है उसमें ईसाइयों ने बड़ा योगदान दिया है। जीसस इस उपलब्धि के खतरों को भी जान चुके थे। इसीलिए उन्होंने चर्च को ऐसा केन्द्र बनाया जहां से परमात्मा और प्रगति का तालमेल बैठाया जाए। वे जानते थे विज्ञान यथार्थ से परिचय तो करा देगा, फिर भी एक ऐसी सपने की दुनिया में ले जाएगा जहां आदमी नींद में उतार जाएगा। ऐसी नींद जिसमें होश जाता रहेगा। ऐसा बेहोश आदमी फिर विकासशील होकर भी अशांत रहेगा। उसके पास प्रगति होगी, प्रेम चला जाएगा। इसलिए जीसस कहते हैं-जितना दुनिया जाने उससे कम खुद न जानो। जितना ईश्वर से अधिक प्रेम करोगे उतना खुद से परिचित होते जाओगे इसी में शांति है।

मौन रहकर काम करें, परिणाम बेहतर होगा

आमतौर पर यह होता है कि अगर कोई थोड़ी सफलता पाता है तो उसको दोगुनी बखानता है। हम काम करते हैं तो यह जताते और बताते भी जाते हैं कि हम कर रहे हैं। बोलने में कोई दोष नहीं है लेकिन अगर वही काम कम बोले या बिना बोले किया जाए तो परिणाम बेहतर होंगे। यह कला हनुमानजी से सिखी जा सकती है। वे अपना सारा पराक्रम कार्य के परिणाम में लगाते थे, काम मौन होकर ही करते।धर्म को सामान्यतौर पर कर्म से जोड़ लिया गया है। आप क्या करते हुए दिख रहे हैं इससे आपका धार्मिक होना तय होता है। हमारी जीवनशैली, पूजा पद्धति, रहन-सहन से हम किसी धर्म विशेष से जोड़ दिए जाते हैं लेकिन यह सब धर्म का ऊपरी मामला है। गहराई में जाएं तो पता चलेगा कि धर्म का सम्बन्ध करने से नहीं होने से है। हम क्या करते हैं इससे ज्यादा महत्वपूर्ण है हम क्या होते हैं। यह करने से ज्यादा अस्तित्व के साथ जुड़ा है। हनुमानजी महाराज के भीतर सेवा भाव भरपूर भरा हुआ है, क्योंकि वे भक्त हैं। भक्त उनका होना है इसीलिए उनके सारे कृत्य दिव्य, सुनिश्चित, शुभ और श्रेष्ठ बन जाते हैं। एक उदाहरण देखें।
सीता खोज के समय जब सारे वानर आगे-आगे चल दिए तो पंक्ति आती है च्च्पाछे तनय सिरु नावाज्‍ज सबसे पीछे हनुमानजी ने श्रीराम के चरणों में नमन किया। देखने में ऐसा लगता है वे चुनौती का सामना करने में घबरा रहे हैं और सबसे पीछे रह गए, लेकिन दृश्य उल्टा है। इसमें दो प्रतीकात्मक संकेत हैं। पवन तनय लिखा गया है। पवन यानी वायु। जब सारे वानर आगे चले तो यदि उन सबके पीछे से हवा चले तो आगे चलने वाले के लिए वायु सहायक होगी, जाने वालों की गति को बल मिलेगा। साथ ही हनुमानजी ने पीछे रहकर यह भी बताया कि भविष्य में लंका दहन जैसी बड़ी उपलब्धि हासिल करने की क्षमता होने के बाद भी वे लोप्रोफाइल रहे। स्व प्रदर्शन से अधिक मूक सेवा ज्यादा ठोस परिणाम दे देती है। हनुमानजी काम करते समय मौन रहते हैं पर उनके कार्य का परिणाम खूब बोल जाता है। ऐसा इसलिए होता है कि हनुमानजी जानते हैं हम क्या करते हैं, इससे ज्यादा महत्वपूर्ण है हम क्या होते हैं।

दोनों तरह का डर मिटाएं जीवन से

हर आदमी के जीवन में कोई डर जरूर होता है। वह बाहरी आवरण का डर हो या खुद के भीतर का। कुछ बुरा होने या कुछ खोने का डर हमेशा बना ही रहता है। डर दो तरह का होता है। एक तो भौतिक चीजें खो जाने का जो बाहर से दिखाई देती हैं और दूसरा भीतरी डर जो हमें हमेशा आशंकाओं से घेरे रहता है।हमारी जिन्दगी में डर दो तरह से बना रहता है। पहला होता है हम जो चाहते हैं वह मिल ही जाए। हमारा पूरा व्यक्तित्व चिंतित होता है कि यदि न मिला तो क्या होगा, इसे कहते हैं न मिलने का डर। दूसरा मौका होता है भयभीत रहने का, जो हमारे पास है वो कहीं खो न जाए, उस पर चोरी, लूट या डाका न हो जाए। यह है प्राप्त अप्राप्त दोनों से ही भयभीत रहना। जो लोग महावीर, बुद्ध, ईसा के पास रहे होंगे उन्हें इन दिव्यात्माओं ने जो अनुभूति करवाई थी वैसी ही समझ आज हमें गुरु मिल जाने पर आ जाती है। गुरु मंत्र का सतत् जप हमें एक दिन यह बोध करा देता है कि हमारे पास केवल हम ही होते हैं और न तो इसे कोई चुरा सकता है, लूट सकता है और न ही यह खो सकता है। फिर हम क्यों भयभीत होते हैं। जिस नाम, दाम, प्रतिष्ठा के होने न होने पर हम इतने डरे रहते हैं, सच तो यह है कि इन्हें हमारे रहने न रहने पर कोई फर्क नहीं पड़ता।फर्क तो इस बात पर पड़ता है कि हम हमारा होना बचाएं जिसे कोई खरोंच भी नहीं लगा सकता। श्रीराम को जब अचानक राजतिलक के स्थान पर वनवास की घोषणा हुई तो उनके परिवार के लोग, प्रजा, अपने-अपने हिसाब से भयभीत हुई। कैकयी को मनचाहा मिला पर उन्हें भरत का डर बना हुआ था, पता नहीं भरत क्या करेंगे। दशरथ समेत अवध वासियों को न मिलने का डर था कि अब क्या होगा। इस पूरे दृश्य में एकमात्र निर्भय थे श्रीराम। वे जानते थे कि दुनियां जो नहीं है उसका स्मरण करती है और जो है उसका विस्मण कर जाती है। राम के राम होने को न मंथरा मिटा सकती थी नहीं कैकयी हटा सकती और अपने भीतर की इसी शाश्वत, सनातन अनुभूति, विश्वास ने उन्हें चौदह वर्ष वनवास में भी जन-जन का राजा बना दिया। हम भी रहने, खो ने का भय छोड़ें और अपने अस्तित्व में बसते हुए निर्भय होकर जीवन बिताएं।

भीतर और बाहर क्या घट रहा है ध्यान रखें

भागमभाग भरी दुनिया में हम दूसरों को याद रखना तो दूर कई बार खुद को ही भूल जाते हैं। ऐसे में सबसे बड़ी परेशानी यह होती है कि हम पर, हमारे अस्तित्व पर कोई और ही कब्जा कर लेता है। ये दुनिया खो जाने के लिए नहीं है, इसमें रहें तो खुद के चौकीदार बनकर ताकि आपके भीतर और बाहर जो भी हो रहा है उसका आपको खयाल रहे।परमात्मा को सदैव याद रखना अच्छी बात है। जीवन में ऐसे अवसर आते हैं कि हम भगवान को भूल भी जाते हैं, इसमें भी उतना खतरा नहीं होगा जितना तब होगा जब हम स्वयं को भूल जाते हैं। अपने को याद रखने का अभ्यास सतत् बनाए रखना होगा। जैसे ही हम खुद को भूलते हैं, काम, क्रोध, मद और लोभ अपना कब्जा हमारे ऊपर जमा लेते हैं। खुद को भूला हुआ आदमी बेहोश जैसा होता है। दुगरुण जानते हैं कि यह व्यक्ति होश में नहीं है कब्जा जमा लो, यह कोई प्रतिकार नहीं करेगा।अपने प्रति होश बना रहे, इसके लिए स्वयं के साक्षी होने का अभ्यास करना होगा। रोज, रोज, निरन्तर यह भाव जगाए रखना होगा कि मैं स्वयं-साक्षी हूं।मेरी चौकीदारी इतनी तगड़ी है कि न तो भीतर का सहज आनन्द बाहर जा सकता है और नहीं बाहर की परेशानी भीतर आ सकती है। प्रतिपल अपना अवलोकन आपको शांत करेगा। जितना हम खुद को नहीं भूलते हैं उतना ही हम अपने से जुड़ी बातों का सही इस्तेमाल भी करना सीख जाते हैं। यदि हमारे पास ज्ञान आता है तो हम सक्षम रहते हैं कि उसे पूरा आचरण में उतार लें। हम पवन के छोटे से झोंके, फूल की बारीक खुश्बू, प्रकृति के छोटे से छोटे अंश को भी पूरा का पूरा जीने लगते हैं। मनुष्यों के बीच रहने पर आप होते तो स्वयं-साक्षी हैं, लेकिन प्रत्येक को लगता है आप उन्हीं के लिए जी रहे और वे भी आपके लिए महत्वपूर्ण हैं। अपना अवलोकन करते रहना दूसरों की नजर में अपनेपन की खूबी बन जाता है। आज के भागमभाग और निजहित के इस दौर में यदि दूसरे यह महसूस कर लें कि आप उनके हैं तो यह बड़ी उपलब्धि होगी।

दुनिया पर नहीं, दुनिया बनाने वाले पर टिकें
दुनियादारी की दौड़ में हम पूरी तरह दुनिया पर टिक गए हैं, हमारी सोच का केंद्र भी दुनिया है और कर्म का केंद्र भी। परमात्मा पर हम तब पहुंचते हैं जब दुनिया से निराश हो जाते हैं। अगर शुरू से ही दुनिया बनाने वाले को केंद्र में रखा जाए तो फिर दुनिया कभी निराश नहीं करेगी। सूफी संतों ने इसका बहुत अच्छा उदाहरण पेश किया है। हमारा बाहरी व्यक्तित्व जिन बातों से दिव्य और चमकीला बनता है उनका सम्बन्ध मन से है।हम भीतर से जितने प्रकाशमान होंगे बाहर उतने ही नूरानी दिखेंगे। इस्लाम में कहा गया है इन्सान का दिल नूरी (प्रकाशमयी) है लेकिन इसमें जब दुनिया की मोहब्बत (राग) समा जाती है तो तारीकी (अंधकार) छा जाता है और नूर चला जाता है। सीधी सी बात है यह समझ आदमी को होना चाहिए कि कितना वह दुनिया पर टिके और कितना दुनिया बनाने वाले पर।मुस्लिम संत मन्सूर अम्मार के बारे में किस्सा मशहूर है कि उनसे हारुं रशीद ने दो सवाल पूछे थे। दुनिया में सबसे ज्यादा अक्लमंद और सबसे ज्यादा बेवकूफ कौन है। मंसूर का जवाब था अक्लमंद वह है जो खुद को अपने बनाने वाले के हाथ सौंप कर उसके हुक्म के मुताबिक जिन्दगी जीता है। ऊपर वाले ने जिस्म ही नहीं दिया है नसीहतें भी दी हैं। उसकी नसीहतें जिन्दगी को खुशनुमा बनाने के काम ही आती हैं। खुदा का कायदानामा निहायत ही साफ पाक और सरल है। उसे मानने में फायदे ही फायदे हैं, यही अक्लमंदी है। वह हमसे लेता कुछ नहीं, देता बहुत ज्यादा है।मंसूर की नजर में जाहिल (मूर्ख) उसे कहते हैं जो गलत काम, गुनाह करता रहता है और जानता भी है कि वह गलत कर रहा है लेकिन फिर भी करना नहीं छोड़ता। मंसूर कहते हैं अल्लाह ने आरीफों का दिल जिक्र के लिए और अहले दुनिया का दिल लालच के लिए बनाया है। सीधी सी बात है भक्तों को अपने दिल में भगवान के भजन जप-तप के लिए जगह रखना चाहिए और जो वासना में डूबे हुए हैं वे अपने भीतर दुनिया भर के ख्याल भरे रहते हैं और आखिर में ऐसे ख्यालों उन्हें अशांत करते हैं। मजहब कोई भी हो, खयाली अमन के लिए सभी एक जैसी बात कर रहे हैं।

ये हैं स्थायी सफलता और आनंद के सूत्र
जीवन में सत्य और इमानदारी का सबसे ज्यादा महत्व है, बेइमानी या छल-कपट से हासिल की गई सफलता भले ही काफी देर टिक जाएं लेकिन स्थायी नहीं होतीं। जब आवश्यकता हो वे भी हमें धोखा दे देती हैं। जो भी हासिल करना है अपनी लगन और मेहनत से हासिल कीजिए, इससे लाभ यह होगा कि आप शांत रह सकेंगे, ऐसी सफलता स्थायी भी होगी। जीवन में जो भी कार्य किया जाए सीधे-सीधे सोचकर, सही नीति से किया जाना चाहिए।दोहराव, दबाव, छल, कपट, झूठ, षड़यंत्र, धोखा-धड़ी लंबे समय तक नहीं टिकती। जो लोग गलत नीति से स्वार्थवश अपना कार्य करते हैं उनकी योग्यता भी समय पर उनके काम नहीं आती। कर्ण परशुराम से धनुर्विद्या सीखना चाहते थे। परशुराम का सिद्घांत था कि वे क्षत्रियों को शिक्षा नहीं देते सिर्फ ब्राrाणों को देते थे। कर्ण ने ब्राrाण युवक का वेश बनाया और परशुरामजी के पास पहुंच गया। परशुराम उस युवक को शस्त्र विद्या देने लगे। एक दिन गुरु विश्राम कर रहे थे, उन्होंने अपना सिर शिष्य (कर्ण) की गोदी में रखा था और सो गए। कुछ समय बाद एक कीड़े ने कर्ण की जांघ पर दंश मारा तथा वहां से रक्त बहने लगा। कर्ण को उस डंक से पीड़ा तो हुई परंतु उसने सोचा यदि पैर हिलाऊंगा तो गुरु की नींद टूट जाएगी और गुरु सेवा भंग होगी। अत: वह उस पीड़ा को सहता रहा। जब रक्त ने बहकर परशुराम के शरीर को स्पर्श किया तो उनकी नींद टूट गई। उन्होंने सोचा किसी ब्राrाण में इतना धैर्य नहीं है कि वह ऐसे दंश को सह सके।उन्होंने पूछा सच बताओ तुम कौन हो? कर्ण ने सत्य बता दिया मैं क्षत्रिय हूं और परशुराम ने शाप दिया कि मेरे साथ छल करके जो विद्या तुमने ली है समय आने पर तुम इसे भूल जाओगे, इसका उपयोग नहीं कर पाओगे। ऐसा ही हुआ जब महाभारत युद्ध के समय कर्ण का अजरुन से सामना हुआ, तब गुरु से छल द्वारा प्राप्त सारी विद्या का कर्ण उपयोग नहीं कर पाए। इसीलिए योग्य से योग्य व्यक्ति भी छल षडयंत्र का जीवन जीने लगते हैं तो समय आने पर वे अपनी योग्यता का उपयोग नहीं कर पाते और लोग उन्हीं के लिए कहते हैं पहले तो ये अच्छे थे परन्तु पद तथा अधिकार प्राप्त करते ही अयोग्य तथा भ्रष्ट हो गए।

सफलता के तीन आधार शार्ट-क्विक और परफेक्ट
हमारी जीवनशैली में दो-तीन बातें इतनी गहराई तक बैठ गई हैं कि हमारी सारी कार्यशैली, तरक्की और सफलता इससे प्रभावित हो रही है। ये आदतें हैं काम को टालना, छोटी बातों को भी बढ़ाचढ़ा कर बताना और पूरा जानते हुए भी अधूरा काम ही करना। बस ये ही हमारी राह के रोड़े हैं। आज प्रबंधन सिखाता है हर काम संक्षेप में, तेजी से लेकिन पूर्णता के साथ किया जाए।अमेरिका जाने पर वहां लोग बताते हैं कि यहां की प्रगति के तीन कारण हैं। यहां हर काम लोग बहुत शॉर्ट, क्विक और परफेक्ट करते हैं। हम भारतीय इसमें चूक जाते हैं। शॉर्ट में हमारी रुचि कम ही रहती है चीजों को बढ़ा-चढ़ाकर बताना हमारी शान में आ गया है। क्विक यानी तेजी से काम का परिणाम देने में हम इसलिए चूक जाते हैं कि करते हैं, क्या जल्दी है इसे भजन की तरह कई लोगों ने जीवन में उतार लिया है। धर्म की आड़ में पुनर्जन्म को मानकर हम जनम-जनम तक इन्तजार कर लेते हैं। कार्य में आलस्य इसी मानसिकता से पैदा होता है। परफेक्ट के मामले में भी हमारा सोचना रहता है काम हो गया, बस काफी है जबकि यह शतप्रतिशत सही परिणाम का जमाना है। हम कई बातों को सतही ले लेते हैं जबकि अब गहराई में उतरकर समझने का वक्त है। भारतीय संस्कृति इस मामले में बहुत धनी है कि उसके पास कई ऐसे शास्त्र, साहित्य हैं जो शॉर्ट, क्विक, परफेक्ट की पूर्ति करते हैं।
इनमें से एक है तुलसीदासजी की लिखी श्रीहनुमानचालीसा। इसका प्रत्येक शब्द जीवन- प्रबंधन के हर आयाम को स्पर्श करता है। इसमें हनुमानजी की योग्यता, दक्षता और समर्थता को बहुत ही शॉर्ट, क्विक और परफेक्ट के साथ तुलसीदासजी ने उतारा है। तीन मिनट में पूरी होने वाली ये पंक्तियां हर धर्म के संदेश की सुगंध लिए हैं। इसी स्तंभ में हर मंगलवार हम इसकी पंक्तियों से गुजर कर उस सुख को प्राप्त करने के सूत्र प्राप्त कर सकेंगे जो शांति भी दिलाएंगे। और सुख के साथ यदि शांति नहीं है तो सफलता अधूरी है।

क्या सुना जाए, सीखिए महावीर स्वामी से
अच्छा श्रोता होना भी महत्वपूर्ण है लेकिन समस्या यह है कि हम वक्ता होने की कोशिश में लगे रहते हैं किसी को सुनना नहीं चाहते। सुनने यानी श्रवण के भी कई फायदे हैं। कहा जता है कि अच्छा श्रोता ही अच्छा वक्ता बन सकता है। महावीर स्वामी ने सुनने को बहुत महत्व दिया है, क्या सुना जाए, कैसे सुना जाए इसकी कला महावीर स्वामी से सिखी जा सकती है। एक
सामान्य-सी कहावत यह है कि आंखो देखी पर भरोसा करो, कानों सुनी पर नहीं। जो लोग शंकालु प्रकृति के होते हैं उनके लिए कहा भी जाता है कि वे कानों से देखते हैं। लेकिन सुनने के मामले में अध्यात्म के पास बड़ा गहरा चिंतन है। जैन धर्म में महावीर स्वामी ने सुंदर बात कही है-
‘सोच्च जाणई कल्लाणं, सोच्च जाणई पावगं, उभयं पि जाणई सोच्च, जं छेयं तं समाअरे’।
सुनकर कल्याण और पाप का मार्ग जाना जा सकता है और फिर जो ठीक हो, श्रेष्ठ हो उसका आचरण किया जाए। यहां श्रवण की महत्ता बताई गई है। सुन लेना भी एक कला है। महावीर तो यहां तक कह गए कि सुनना सदा सर्वागीण होता है जबकि देखना नहीं। इस सम्यक् श्रवण के लिए भीतर उतरना होगा। हमारे अंदर एक अनुगूंज हो रही है। कानों से प्रवेश कर रहे शब्द और भीतर की ध्वनि का जब मेल हो तो इसे ही संतों ने राइट लिसनिंग कहा है। इसे साधारण भाष में संपूर्ण मनोयोग से सुनना माना गया है। यहां से देखने-सुनने का फर्क शुरू होता है। सरकारी दफ्तरों में हम देख-देख कर थक गए हैं कि काम करने वाले अधिकारी, कर्मचारी के पीछे दीवार पर टंगा है सत्य मेव जयते। जो दिख रहा है वह हो नहीं रहा। इसी आदर्श वाक्य के तले सारे घटिया कारनामे निपटा लिए जाते हैं। जब देख के दुख हो तो च्च्मनोयोगी श्रवणज्‍ज से सही को साधा जाए। अब हमारे देश में ज्यादातर दिख तो यही रहा है कि नेत्रहीन ही आंख वालों का नेतृत्व कर रहे हैं। जैन मुनि चन्द्रप्रभजी ने सरल सीढ़ियां बताई हैं। पहले सुनें, फिर मनन करें और फिर निदिध्यासन यानी स्वयं की आत्मस्मृति करें। यदि यह क्रम ठीक हो जाए तो सुनने की प्रक्रिया में हर शब्द मंत्र बन सकता है।

ऐसे जीएंगे तो नहीं रहेगा मौत का डर
जीवन में जितना रस है मौत शब्द उतना ही भयानक। संसार में संभवत: कोई ही ऐसा हो जिसे मौत का डर न सताता हो। दरअसल डर का कारण मौत या उसके आने का तरीका नहीं, बल्कि हमारे जीना का तरीका है। हम संसार में संसार के होकर रह जाते हैं। इससे आगे की कभी नहीं सोचते इस कारण संसार छूटने का भय बना रहता है। संसार को निर्लिप्त भाव से भोगिए फिर मृत्यु से भय नहीं होगा।जीवन में एक अज्ञात भय ऐसा है जो ज्ञात भी है, परन्तु है सबसे बड़ा और वह है मृत्यु का भय। उम्र, मौत और जिन्दगी इन तीनों के मामले में संसारी और साधु का फर्क पकड़ें तो भयमुक्त हुआ जा सकता है। संत कितना जिए यह महत्वपूर्ण नहीं होता, कैसे जिए यह उपयोगी होता है। देह त्यागने के पूर्व बुद्ध ने जो अंतिम वाक्य कहे थे उसे समझा जाए। च्च्हंद दानि भिक्खवे आमंत यामि वो, वह धम्मा संरवारा अप्पमादीन संपादे था इतिज्‍ज हर वस्तु नाशवान है, जीवन का संपादन अप्रमाद के साथ करो। आलस्य के साथ वासना का समावेश हो जाए तो प्रमाद शुरू होता है। बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को अपनी अंतिम क्रिया के लिए भी विस्तार से समझा दिया था। मौत को उन्होंने उत्सव बनाया।भौतिकता की आंधी में आज तो हम इतने भयभीत हैं कि सांप को तो मार देते हैं और रस्सी से डसा जाते हैं। हमारी मौत अवसाद और संतों की मृत्यु उपदेश हो जाती है। इसे दिव्य बनाने का प्रयास उम्र के हर पल में और जिन्दगी के हर पड़ाव पर सतत करना होगा। कहते हैं जब बुद्ध संसार से गए तो उनकी उम्र अस्सी वर्ष थी लेकिन संत समाज मानता है वे चालीस साल के थे क्योंकि जब वे चालीस वर्ष के थे तब एक पीपल के वृक्ष के नीचे सात दिन सतत समाधि में रहे और तब ही उन्हें पूर्णिमा के दिन बुद्धत्व प्राप्त हुआ था। इस ज्ञान प्राप्ति को संबोधि कहा गया है और उसके बाद वे चालीस वर्ष और जीवित रहे। अध्यात्म कहता है उम्र तो उसी को मानेंगे जब, जिन क्षणों में आप स्वयं को जान गए। इसलिए याद रखा जाए कितना जिए यह संसार का समीकरण है कैसा जिए यह अध्यात्म का गणित है।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,

और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....MMK

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