Wednesday, October 20, 2010

Learn from the Ramayana

रामायण जीवन प्रबंधन का श्रेष्ठ ग्रंथ

आज के युग में हर क्षेत्र में प्रबंधन का महत्व बढ़ता जा रहा है। सामान्यत: प्रबंधन व्यवसाय से ही जोड़ा जाता है परंतु हमारे जीवन का भी प्रबंधन किया जाना चाहिए। जीवन प्रबंधन का मतलब है कि हमें कैसा जीवन जीना है, समाज में, हमारे परिवार में कैसे रहना है, यही मुख्य बिंदू रामायण में बखुबी बताए गए हैं। रामायण में श्रीराम के गुणों और उनके जीवन प्रबंधन के सूत्र से हम भी अपना जीवन स्तर ऊंचा बना सकते हैं-
1. आदर्श नेता- राम आदर्श नेता हैं। सोलह गुणों से परिपूर्ण। सभी को साथ लेकर चलना और सभी का सम्मान कैसे करना है, उन्हीं से सीखा जा सकता है।
2. धर्म प्रमुख - चार पुरुषार्थ में धर्म, अर्थ और काम की रामायण में खूब चर्चा है। उल्लेख है धर्म मूल है। अर्थ और काम भी धर्म का उल्लंघन किए बगैर हासिल हों तो उनका कोई मूल्य नहीं है।
3. भक्त प्रमुख- भक्त भगवान से भी बड़ा है। तभी तो भगवान अपने भक्तों के लिए स्वयं कष्टï सहने को तैयार रहते हैं।
4. शरणागति- जो भगवान की शरण आया उसे भगवान स्वीकार करते हैं। फिर वह चाहे किसी भी जाति, वर्ण या रूप का हो। भगवान सभी को समभाव से देखते हैं और सभी पर समान कृपा बरसाते हैं।
5. नारी प्रधानता- मान्यता है रामायण राम की कथा है, लेकिन वह सीता का चरित्र है। रामायण में नारियां एक से बढ़कर एक हैं। सभी गुणों से भरी हुईं। फिर चाहे सीता हो, मंदोदरी या तारा। आज की महिलाएं इनसे बहुत कुछ सीख सकती हैं।

रामायण: नारी की महानता का ग्रंथ

वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण एक ऐसा ग्रंथ है जिसे सामान्यत: राम की जीवन गाथा कहा जाता है। रामायण राम की जीवन गाथा तो है ही साथ ही रामायण में ऐसी बातें और सूत्र भी मौजूद है जो नारी को महान बनाती हैं।
रामायण में ऐसी कई महिलाएं हैं जिन्होंने अपना नारी धर्म पूरी निष्ठा के साथ निभाया और इसी वजह से वे आज भी पूजनीय है। रामायण की प्रमुख महिला पात्र सीता, कैकेयी, कौशल्या, सुमित्रा, अहिल्या, उर्मिला, अनसूया, शबरी, मन्दोदरी, त्रिजटा और शूर्पणखा, लंकिनी, मंथरा हैं। इन सभी महिलाओं में सीता, उर्मिला, अनसूया और मंदोदरी इन महिलाओं को सदैव पूजनीय माना गया है क्योंकि इन्होंने अपना पतिव्रत धर्म कभी नहीं छोड़ा। इनके अतिरिक्त भक्ति-भावना की प्रतिमूर्ति शबरी भी है। लंका में सीता की रखवाली करने वाली त्रिजटा भी है जो राक्षसी होते हुए भी सीता की सेवा कर खुद को अनुगृहीत मानती है।

राम से बड़ा राम का नाम
भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा गया है। हमारे धर्म शास्त्रों के अनुसार राम सिर्फ एक नाम नहीं अपितु एक मंत्र है, जिसका नित्य स्मरण करने से सभी दु:खों से मुक्ति मिल जाती है। राम शब्द का अर्थ है- मनोहर, विलक्षण, चमत्कारी, पापियों का नाश करने वाला व भवसागर से मुक्त करने वाला। रामचरित मानस के बालकांड में एक प्रसंग में लिखा है-
नहिं कलि करम न भगति बिबेकू।
राम नाम अवलंबन एकू।।
अर्थात कलयुग में न तो कर्म का भरोसा है, न भक्ति का और न ज्ञान का। सिर्फ राम नाम ही एकमात्र सहारा हैं।स्कंदपुराण में भी राम नाम की महिमा का गुणगान किया गया है-
रामेति द्वयक्षरजप: सर्वपापापनोदक:।
गच्छन्तिष्ठन् शयनो वा मनुजो रामकीर्तनात्।।
इड निर्वर्तितो याति चान्ते हरिगणो भवेत्। स्कंदपुराण/नागरखंड
अर्थात यह दो अक्षरों का मंत्र(राम) जपे जाने पर समस्त पापों का नाश हो जाता है। चलते, बैठते, सोते या किसी भी अवस्था में जो मनुष्य राम नाम का कीर्तन करता है, वह यहां कृतकार्य होकर जाता है और अंत में भगवान विष्णु का पार्षद बनता है।इसमें कोई संदेह नहीं है कि जो शक्ति भगवान की है उसमें भी अधिक शक्ति भगवान के नाम की है।
नाम जप की तरंगें हमारे अंतर्मन में गहराई तक उतरती है। इससे मन और प्राण पवित्र हो जाते हैं, बुद्धि का विकास होने लगता है, सारे पाप नष्ट हो जाते हैं, मनोवांछित फल मिलता है, सारे कष्ट दूर हो जाते हैं, मुक्ति मिलती है तथा समस्त प्रकार के भय दूर हो जाते हैं।

मर्यादा सीखें रामायण से

रामायण में ऐसे कई गूढ़ रहस्य छिपे हैं जो वर्तमान समय में हमें जीने की सही राह दिखाते हैं। रामायण में मर्यादाओं के पालन पर विशेष जोर दिया गया है। रामायण में ऐसे कई प्रसंग आते हैं जहां भगवान श्रीराम ने मर्यादाओं के पालन के लिए त्याग कर आदर्श उदाहरण पेश किया। श्रीराम ने मर्यादा के पालन के लिए 14 साल का वनवास भी सहज रूप से स्वीकार कर लिया। इसीलिए उन्हें मर्यादापुरुषोत्तम कहा गया।
रामायण में ऐसे भी कई प्रसंग आते हैं जहां मर्यादा का पालन न करने पर पराक्रमी व बलशाली को भी मृत्यु का वरण करना पड़ा। जब भगवान राम ने किष्किंधा के राजा बालि का वध किया तो उसने भगवान से प्रश्न पूछा-
मैं बेरी सुग्रीव प्यारा
कारण कवन नाथ मोहि मारा,
प्रति उत्तर में जो बात राम ने कही वह मर्यादा के प्रति समर्पण को दर्शाती है-अनुज वधू, भग्नी, सुत नारी,सुन सठ ऐ कन्या सम चारीअर्थात अनुज की पत्नी, छोटी बहन तथा पुत्र की पत्नी। यह सभी पुत्री के समान होती है। तुमने अपने अनुज सुग्रीव की पत्नी को बलात अपने कब्जे में रखा इसीलिए तुम मृत्युदंड के अधिकारी हो।
ऐसे ही मानवीय संबंधों को मर्यादाओं में बांधा गया है। इस प्रकार मर्यादाएं व्यक्ति के मन पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालती है। वर्तमान समय में जहां पाश्चात्य सभ्यता हमारे बीच घर करती जा रही हैं वहीं रामायण एकमात्र ऐसा ग्रंथ है जो हमें मर्यादाओं की शिक्षा दे रहा है।

क्या है रामायण के सात कांडों की कथा

इस रामकथा को सात कांडों में विभक्त किया गया है। इन सात कांडों में राम का संपूर्ण जीवन है। 1. बालकांड: इस कांड में वाल्मीकि को रामकथा के लिए ब्रह्मा की आज्ञा, दशरथ का पुत्रेष्टि यज्ञ, राम जन्म, राम विवाह आदि।2. अयोध्या कांड: राम का वनगमन, चित्रकूट यात्रा, दशरथ मरण, भरत की चित्रकूट यात्रा, राम का चित्रकूट से प्रस्थान।3. अरण्यकांड: दण्डकारण्य प्रवेश, शूर्पणखा का विरूपीकरण, सीताहरण, जटायुवध, सीताखोज, शबरी प्रसंग।4. किष्किंधाकांड: सुग्रीव से मैत्री, बालिवध, वानरों का प्रेषण, वानरों की खोज।5. सुंदरकांड: लंका में हनुमान का प्रवेश, रावण-सीता संवाद, हनुमान-सीता संवाद, लंका दहन, हनुमान का प्रत्यावर्तन।6. युद्धकांड: लंका का अभियान, विभीषण की शरणागति, सेतुबंध, कुंभकरणवध, लंका दहन, रावण वध, अग्नि परीक्षा, अयोध्या प्रवेश।7. उत्तरकांड: सीता त्याग, अश्वमेद्य यज्ञ का आयोजन, स्वर्गगमन।यह जीवन के सिद्धांतों पर आधारित काव्य है। मानव जीवन बालू की भीत के समान शीघ्र ही ढहकर गिर जाने वाली वस्तु नहीं है। इसमें स्थायित्व है तथा आने वाली पीढिय़ों को राह दिखाने की क्षमता है।

जीवन के आदर्शों की कहानी रामायण

रामायण जीवन मूल्यों और आदर्शों की कहानी है। भगवान राम के जीवनकाल पर आधारित यह कहानी हमें अमूल्य आदर्शों की शिक्षा देती है। राम के ही जीवन काल में उनके समकालीन ब्रह्मर्षि वाल्मीकि ने इस कथा की रचना की थी। यह कथा बताती है कि हमारे आदर्श कैसे हों। आदर्श पिता-माता, पत्नी, भ्राता, इतना ही नहीं महर्षि वाल्मीकि ने अपनी रामकथा में संपूर्ण भारतीय सभ्यता की प्रतिष्ठा गृहस्थाश्रम में स्थापित की है। यह संपूर्ण गृहस्थी और परिवार का ग्रंथ है। रामायण को आदिकाव्य तथा महर्षि वाल्मीकि को आदिकवि की संज्ञा दी गई है। रामायण सात अध्यायों में है। इसके अध्यायों को कांड की संज्ञा दी गई है। इन कांडों के नाम बाल कांड, अयोध्याकांड, अरण्यकांड, किष्किंधा कांड, सुंदर कांड, युद्ध कांड और उत्तरकांड हैं। इसमें राम के जन्म से लेकर उनके महाप्रयाण तक की संपूर्ण कथा है।

सीता स्वयंवर में शिव का धनुष क्यों रखा गया?

राजा जनक द्वारा अपनी कन्या सीता के विवाह हेतु स्वयंवर आयोजित किया गया। स्वयंवर में शिवजी का धनुष रखा गया और शर्त रखी गई कि जो इस धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाएगा सीता उसे ही वरमाला पहनाएगी। इस धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाना इसलिए खास था क्योंकि यह धनुष स्वयं शिवजी का था और बहुत अधिक वजनी था।
धनुष के वजन के संबंध में तुलसीदास ने लिखा है कि स्वयंवर में उपस्थित हजारों राजा एक साथ मिलकर भी उस धनुष को हिला तक नहीं पाए थे। वहीं श्रीराम ने शिव धनुष को खेल ही खेल में प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए उठाकर तोड़कर दिया और सीता ने श्रीराम को वरमाला पहना दी।
स्वयंवर में इतनी कठिन शर्त क्यों रखी गई, इसके पीछे कई कथाएं प्रचलित हैं:
शास्त्रों के अनुसार विश्वकर्मा ने दो दिव्य धनुष बनाए थे एक विष्णु के लिए और एक शिव के लिए। शिव ने इस धनुष से एक दैत्य का संहार किया और इसे परशुराम को भेंट में दिया था। परशुराम ने इस धनुष और फरसे से 21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहिन कर दिया और जनक के पूर्वज देवराज के यहां इस धनुष को रखवा दिया था।

धनुष इतना भारी था कि कोई इसे हिला भी नहीं सकता था। जब राजा जनक के यहां सीता आई और सीता बचपन में सीता धनुष को उठाकर खेलती थी। यह देखकर जनक समझ गए कि सीता कोई साधारण कन्या नहीं है अत: इसका विवाह भी किसी असाधारण वर से किया जाना उचित है। इसी वजह से जनक ने सीता के स्वयंवर के समय इस धनुष को रखा।

क्या सीता और रावण में पिता-पुत्री का संबंध था?

रामायण के पात्रों, घटनाक्रम और कथानक को लेकर कई ग्रंथ रचे गए हैं। रामायण के कई पहलू आज भी शोध का विषय हैं और दुनियाभर के विद्वान इन विषयों का लगातार अध्ययन भी कर रहे हैं। इन विषयों में एक विषय है सीता और रावण के संबंध का। कई विद्वानों का मानना है कि सीता और रावण पिता-पुत्री थे। हालांकि रामायण के सबसे प्रामाणिक ग्रंथ वाल्मीकि रामायण में इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता है।
राम के जीवना पर करीब 125 अलग-अलग रामायण लिखी जा चुकी हैं। कई ग्रंथों को विद्वान प्रामाणिक भी मानते हैं। सीता और रावण के संबंध में कई कथाएं भी प्रचलित हैं। ऐसी ही एक रामायण है जिसका नाम है अद्भुत रामायण। यह रामायण 14वीं शताब्दी में लिखी मानी जाती है। यह मूलत: कथानक न होकर दो प्रमुख ऋषियों वाल्मीकि और भारद्वाज ऋषि के बीच का वार्तालाप है।
इस रामायण में यह उल्लेख है कि सीता का जन्म मंदोदरी के गर्भ से हुआ था। इस रामायण में पूरे घटनाक्रम का उल्लेख भी है। जिसमें रावण एक स्थान पर कहता है कि अगर में अनजाने में भी अपनी ही कन्या को स्वीकार करूं तो मेरा नाश हो जाए।
अदभुत रामायण में कथा आती है कि एक बार दण्डकारण्य मे गृत्स्मद नामक ब्राह्मण, लक्ष्मी को अपनी पुत्री रूप मे पाने के लिए हर दिन एक कलश में कुश के अग्र भाग से मंत्रोच्चारण के साथ दूध की बूदें डालता था। एक दिन उसकी अनुपस्थिति मे रावण वहां पहुंचा और ऋषियों का रक्त उसी कलश मे एकत्र कर लंका ले गया। कलश को उसने मंदोदरी के संरक्षण मे दे दिया-यह कह कर कि यह तीक्ष्ण विष है,सावधानी से रखे।

इसके बाद रावण विहार करने सह्याद्रि पर्वत पर चला गया। रावण की उपेक्षा से दुखी होकर मन्दोदरी ने आत्महत्या की इच्छा से, जहर समझकर उस घड़े में भरा वह रक्त पी लिया। इससे अनजाने में ही मंदोदरी गर्भवती हो गई। लोकापवाद और अशुभ के डर से उसने राजा जनक के राज्य में स्थित एक स्थान पर उन भ्रूण का निकालकर जमीन में दबा दिया। धरती में गढ़ा हुआ यही भ्रूण परिपक्व होकर सीता के रूप में प्रकट हुआ, जो हल चलाते समय मिथिला के राजा जनक को प्राप्त हुआ।
इस कथा के आधार पर कई विद्वान यह मानते हैं और दावा करते हैं कि सीता और रावण में पिता-पुत्री का संबंध था। हालांकि अन्य भी कई ग्रंथों में कई अन्य कथाएं भी प्रचलित हैं।

रावण ने सीता को राजमहल में क्यों नहीं रखा...

देवराज इंद्र की सभा में यूं तो कई अप्सराएं हैं। सभी एक से बढ़कर एक सुंदर... वहीं एक अप्सरा रंभा जिसकी सुंदरता की कोई सीमा नहीं... पलभर में कोई भी उसके मोह में पड़ सकता है। रंभा एक बार सज-धजकर कुबेरदेव के पुत्र नलकुबेर से मिलने जा रही थी। रास्ते में रावण ने उसे देखा और रंभा के रूप और सौंदर्य को देखकर मोहित हो गया। रावण ने रंभा को बुरी नियत से रोक लिया। इस पर रंभा ने रावण से उसे छोडऩे की प्रार्थना की और कहा कि आज मैंने आपके भाई कुबेर के पुत्र नलकुबेर से मिलने का वचन दिया है अत: मैं आपकी पुत्रवधु के समान हूं अत: मुझे छोड़ दीजिए। परंतु रावण था ही दुराचारी वह नहीं माना और रंभा के शील का हरण कर लिया।
रावण द्वारा रंभा के शील हरण का समाचार जब कुबेर देव के पुत्र नलकुबेर का प्राप्त हुआ तो वह रावण पर अति क्रोधित हुआ। क्रोध वश नलकुबेर ने रावण को श्राप दे दिया कि आज के बाद यदि रावण किसी भी स्त्री को बिना उसकी स्वीकृति जबरजस्ती करेगा या अपने राजमहल में रखेगा तो उसी दिन वह भस्म हो जाएगा। इसी श्राप के डर से रावण ने सीता को राजमहल में न रखते हुए अशोक वाटिका में रखा।

किन लोगों का विरोध ना करें

रामचरित मानस के अनुसार जब रावण सीता हरण करने के लिए आया और उसने अपनी योजना अनुसार वह मारीच को स्वर्ण मृग बनने के लिए आदेश दिया। तब मारीच ने रावण से कहा कि श्रीराम कोई साधारण मानव नहीं है। एक बार ऋषि विश्वामित्र के यज्ञ के समय उन्होंने एक बिना फर का बाण मुझे मारा था और मैं कई सौ योजन दूर जा गिरा था। जिसमें इतनी शक्ति हो उसके पास जाकर छल करना अर्थात् मृत्यु को ही गले लगाने जैसा है। श्रीराम ने ही पलभर में ताड़का, सुबाहु, खर-दूषण, त्रिशिरा का वध कर दिया। श्रीराम ने ही शिवजी का धनुष एक खिलौने की भांति तोड़ दिया। वे कोई सामान्य मनुष्य नहीं है। उनसे वैर लेना मतलब मृत्यु के मुंह में खुद ही जाना है।
मारीच की ऐसी बातें सुनकर रावण क्रोधित हो गया और मारीच से अपने पराक्रम की महिमा गाने लगा। तब मारीच समझ गया कि रावण अब काल वश हो चला है अत: इससे विरोध करने पर यह अभी मुझे खत्म कर देगा। मारीच सोचने लगा कि शस्त्रधारी, भेद जानने वाला, समर्थ स्वामी, मूर्ख, धनवान, वैद्य, भाट, कवि और रसोइया से कभी विरोध नहीं करना चाहिए। रावण से विरोध करके इसके हाथों मरने से अच्छा है मैं श्रीराम के हाथों मर कर इस भव सागर से पार हो जाऊंगा।

और इंद्रजीत का कटा सिर भी हंस पड़ा

राम-रावण के युद्ध अपने चरम पर था। रावण बड़े-बड़े योद्धा मारे जा चुके थे। वहीं रावण पुत्र मेघनाद श्रीराम की सेना पर कहर बरपा रहा था और लक्ष्मण को भी मूर्छित कर दिया था। हनुमान द्वारा संजीवनी बुटि लेकर आने के बाद लक्ष्मण की मुर्छा टूट गई और फिर से लक्ष्मण और इंद्रजीत आमने-सामने आ गए। इस बार लक्ष्मण का पलड़ा भारी था और उनके एक बाण ने मेघनाद का एक हाथ काट दिया और बाण कटे हाथ सहित रावण में महल में इंद्रजीत की पत्नी सुलोचना के समक्ष जा गिरा। पति के कटे हाथ को देखकर सुलोचना को एहसास हो गया था कि अब उसके पति परमगति को प्राप्त हो गए हैं। परंतु फिर भी उसे संदेह था तो उसने कटे हाथ से कहा यदि मैंने अपना पतिव्रत धर्म पूरी निष्ठा और ईमानदारी से निभाया है तो मुझे बताओं कि मेरे जीवित हैं या नहीं? यह सुनते ही कटे में कुछ हरकत हुई और इशारों में इंद्रजीत की मृत्यु का समाचार दे दिया। पति की मृत्यु से उसे गहरा दुख हुआ और वह तुरंत रावण के पास गई और अपने पति के शीश के दर्शन की अभिलाषा व्यक्त की। इस पर रावण ने कहा तनिक रुको मैं अपने दुश्मनों के शीश सहित मेरे पुत्र को शरीर भी ले आउंंगा। परंतु सुलोचना को तुरंत ही पति के शीश के दर्शन करने थे ताकि वह दर्शन कर खुद के प्राण त्याग सके। अत: वह श्रीराम के पास जा पहुंची और अपने पति के शीश के दर्शन की प्रार्थना करने लगी साथ ही पूरी बात बताई उसे कैसे पता लगा कि उसके पति को परमगति प्राप्त हो गई है। सुलोचना की यह अवस्था देखकर भक्त वत्सल श्रीराम ने उससे कहा- हे देवी यदि तुम चाहो तो हम तुम्हारे पति को ही जीवित कर देते हैं। परंतु सुलोचना ने कहा भगवन् आपके हाथों उन्हें परमगति प्राप्त हुई है और अब वे आपके धाम में निवास करेंगे अत: मुझे भी आज्ञा दें कि मैं भी आपके धाम में ही पति की सेवा करूं। श्रीराम ने सुग्रीव को इंद्रजीत के शीश को लेकर आने की आज्ञा दी और सुग्रीव संदेह के साथ मेघनाद का शीश सुलोचना को सौंप दिया। सुग्रीव ने कहा यह कैसे हो सकता है कि कोई कटा हाथ किसी प्रकार हरकत करें। यदि वह बात सत्य है तो हे देवी इंद्रजीत के कटे शीश को हंसाकर दिखाओं। सुलोचना ने पति के कटे शीश से प्रार्थना की कि यदि मैंने मेरा पतिव्रत पूर्ण निष्ठा से निभाया है तो स्वामी आप एक बार हंसकर दिखाएं। यह सुनते ही इंद्रजीत का शीश हंस पड़ा। सभी ने सुलोसना को प्रणाम किया और उसके पतिव्रत धर्म की सराहना की।

समझिए, भगवान क्या चाहता है

हम भगवान से हमेशा वो मांगते हैं जो हम चाहते हैं। कभी ये भी सोचिए कि भगवान क्या चाहता है। जब भी कोई घटना आपके खिलाफ घट जाए तो धर्य मत खोइए, उसमें अपने लिए सकारात्मक ढूंढ़िए, संभव है जिसे आप अब तक अनदेखा कर रहे थे, वो ही आपके लिए श्रेष्ठ हो। कभी परमात्मा के किए का विरोध न करें।
कई बार जीवन में जो हम चाहते हैं वह नहीं होता और ईश्वर क्या चाहते हैं यह हम समझ नहीं पाते हैं। जो लोग धार्मिक होते हैं वे ऐसी स्थिति में और परेशान हो जाते हैं। अधार्मिक लोग तो ऐसी स्थितियों में अपने तरीके से उत्तर ढूंढ लेते हैं। परंतु धार्मिक लोग मनचाहा हो इसे अपना हक मानते हैं। कई लोग तो शब्दों की इस गरिमा को भी लांघ जाते हैं कि जब इतना सब भगवान, ईश्वर, परमात्मा को मानते-पूजते हैं तो फिर भी चाहा काम न हो तो क्या मतलब? पूजापाठ, धर्मकर्म का? इसे समझना होगा। जिसने चाह बदल ली वह धार्मिक नहीं होता, धार्मिक वह होता है जिसने चाह समझ ली।
आइए राजा दशरथ के जीवन के एक प्रसंग से समझें। उनकी इच्छा थी राम अवध की राजगादी पर बैठें, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जिन्हें राम जैसी मूल्यवान संतान प्राप्त हो गई हो, उनके मन की मुराद भी पूरी नहीं हुई। बहुत बारीकी से देखें तो हम कहीं दशरथ में नजर आ जाएंगे। दशरथ की चाह थी राम राजा बनें पर चाहत में कैकयी थीं। दशरथ के धार्मिक होने में कोई संदेह नहीं है लेकिन उनका कैकयी से आचरण विलासी हो गया था। भक्ति और वासना एकसाथ कैसे हो सकते हैं। राम और काम साथ-साथ रखने का परिणाम राम राज्य चौदह वर्ष के लिए दूर हो जाना।
इसलिए धार्मिक लोग अपनी चाह को ईश्वर से जोड़ें और सावधानी, शुद्धता से जोड़ें। होने दें जो हो रहा है। आपकी इच्छा का हो जाना बढ़िया है पर यदि न हो तो वह परमात्मा की मर्जी का हो जाना मानें वह उससे श्रेष्ठ हुआ मानें।

तब लक्ष्मण को खाली हाथ लौटा दिया था रावण ने

कई लोग प्रबंधन से जुड़े होने के बावजूद भी परिस्थिति के अनुसार व्यवहार करना नहीं जानते। वे हर समय अपने ही प्रभाव में होते हैं। परिस्थितियों के अनुसार व्यवहार करना, अपनी भूमिका को समझना और सामने वाले से कोई काम निकलवाना। ये सब मैनेजमेंट के गुर होते हैं, जो हर व्यक्ति को पता नहीं होते। हम हैं भले एक ही लेकिन परिस्थिति के मुताबिक हमारी भूमिकाएं बदलती रहती है, हमें अपनी भूमिका के मुताबिक व्यवहार को सीखना चाहिए।

रामायण युद्ध की एक घटना इस बात की शिक्षा देती है। राम ने रावण की नाभि में तीर मार कर चित कर दिया था। वह रथ से धरती पर गिर पड़ा। अंतिम समय नजदीक था, रावण आखिरी सांसें ले रहा था। सभी उसके आसपास जमा होने लगे। ऐसा माना जाता है कि उस समय राम ने लक्ष्मण को आदेश दिया कि रावण महापंडित है, राजनीति का विद्वान है। जाओ उससे राजनीति के कुछ गुर सीख लो, वह युद्ध हार चुका है, अब हमारा शत्रु नहीं है। लक्ष्मण ने राम की बात मानी और रावण के नजदीक सिर की ओर जाकर खड़े हो गए, रावण से राजनीति पर कोई उपदेश देने की प्रार्थना की। रावण ने लक्ष्मण को देखा और उसे बिना शिक्षा दिए, यह कहकर लौटा दिया कि तुम अभी मेरे शिष्य बनने लायक नहीं हो।

लक्ष्मण ने राम के पास जाकर यह बात बताई। राम ने कहा तुम कहां खड़े थे, लक्ष्मण ने कहा रावण के सिर की ओर। राम ने कहा तुमने यहीं गलती की, तुम अभी योद्धा या युद्ध में जीते हुए वीर नहीं जो मरने वाले शत्रु के सिर के पास खड़े हो, अभी तुम एक विद्यार्थी हो, जो राजनीति सीखना चाहते हो, अबकी बार जाओ और रावण के पैर की ओर खड़े होकर प्रार्थना करना। लक्ष्मण ने ऐसा ही किया, रावण ने प्रसन्न होकर लक्ष्मण को राजनीति की कई बातें बताई। उसके बाद प्राण त्याग दिए।

रावण ने कैसे बनाया समय को गुलाम ?

रावण एक महान तपस्वी, महान योद्धा ही नहीं महान विद्वान भी था। लेनिक उसकी ये सारी महानताएं और योग्यताएं उसकी एक गलती अथवा अंहकार की भैंट चढ़ गईं। इसीलिये अनुभवी लोग कहते हैं कि, एक सफल व्यक्ति को गलतियों के प्रति सावधान रहने की अधिक आवश्यकता होती है। क्योंकि सफलता के शिखर से गिरने में जरा सी भी देर नहीं लगती। जबकि जो नीचे पड़ा है यानि कि असफल है उसे इतनी सावधानी की आवश्यकता नहीं क्योंकि वो गिर कर जाएगा भी कहां।

रावण ने अपने कठिन पुरुषार्थ और दुर्धश जीवटता के बल पर ही एक से बढ़कर एक उपलब्धियां और सफलताएं अर्जित की थीं। दस सिर,बीस हाथ, नाभि में अमृत,अनेक अद्भुत अस्त्र-शस्त्र, सोने की लंका, एकक्षत्र राज तथा और भी बहुत कुछ। रावण ने योग्यता और पराक्रम के बल पर देवताओं तक को अपना गुलाम और सेवक बना रखा था। देवताओं के साथ ही रावण ने काल यानि कि समय को भी अपना बंधक या गुलाम बना रखा था।

किसी के मन में यह संदेह हो सकता है कि समय जैसी अदृश्य वस्तु को कोई कैद करके अपना गुलाम कैसे बना सकता है। यहां जरूरत है प्रखर मस्तिष्क एवं गहन चिंतन की। समय दुनियां की सबसे अनमोल वस्तु है। जिसने समय को जीत लिया यानि नियंतित्र कर लिया अथवा कंट्रोल कर लिया, समझो उसने दुनिया की जंग जीत ली। रावण का भी समय के ऊपर पूरा नियंत्रण था। किसी कार्य के होने में जितने समय की आवश्यकता होती हे, उसके हजारवे भाग में ही रावण उस कार्य को सम्पन्न कर देता था। इतना ही नहीं रावण की कार्य करने की गति समय की गति से भी अधिक थी। तभी तो हजारों वर्ष बीतने के बाद भी रावण की इस उपलब्धि को याद किया जाता है।

राम के इकत्तीस बाणों से मरा रावण

राम-रावण के युद्ध में जब रावण के सारे यौद्धा मारे जा चुके थे। तब रावण खुद श्रीराम से युद्ध करने के लिए अपने दिव्य रथ और भयंकर अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित होकर रणभूमि में आया। रावण ने आते ही तरह-तरह की माया कई बार रची और वानर सेना के छक्के छुड़ाने लगा। तब श्रीराम ने रावण द्वारा रची गई माया को हर बार पलभर में समाप्त कर वानर सेना की रक्षा की।
फिर जब श्रीराम-रावण आमने-सामने आ गए तो बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। दोनों ने दिव्य और प्रलयकारी बाणों का अनुसंधान कर एक-दूसरे की ओर छोड़े। तब राम ने 30 शक्तिशाली बाण रावण की ओर छोड़े जिससे उसके दसों शीश और बीस हाथों को काट गिराया, परंतु रावण नहीं मरा और उसके सभी मुख और हाथ पुन: आ गए। ऐसा ही कई बार राम बाण छोड़ते पर रावण मरता ना था।
अंतत: विभीषण ने श्रीराम को बताया कि रावण की नाभि में अमृत है जिससे वह मर नहीं रहा है। तब राम में 31 बाणों का संधान किया और रावण की छोड़ दिए। 1 प्रमुख बाण रावण की नाभि पर जा लगा जिसने रावण का सारा अमृत सुखा दिया तत्पश्चात दस बाणों से उसके दसों शीश, बीस अन्य बाणों से रावण की बीसों भुजाएं कट गई और रावण मृत्यु को प्राप्त हुआ।

रिश्तों का आदर्श ग्रंथ है रामचरितमानस

रामचरित मानस 15 वी शताब्दी में महाकवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा लिखा गया एक महाकाव्य है। रामचरितमानस वाल्मिकी रामायण से प्रेरित है। रामचरित मानस त्रैता युग की कहानी है जिसके नायक मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम है। तुलसीदास ने सवंत् 1631 के प्रारंभ में रामनवमी के दिन रामचरित मानस की रचना प्रारंभ की। तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना उस समय की जब चारों ओर कृष्ण भक्ति का माहौल था। कृष्ण भक्ति का रंग संपूर्ण भारत पर छाया हुआ था। ऐसे समय में तुलसीदास जी ने रामचरित मानस की रचना कर समाज को भक्ति के एक नए रंग में रंग दिया। वह रंग था रामभक्ति का।
रामचरितमानस के बहुत अधिक लोकप्रिय होने का मुख्य कारण इस काव्य का अवधि में होना था। अवधि में होने के कारण इसका प्रसार बहुत तेजी से जनसामान्य में हुआ। इसकी रचना मूल रुप से चौपाई और दोहे के रूप में की गई है। रामचरित मानस में राम जैसा एक आदर्श नायक हैं जो पूरी तरह से आदर्श पति, राजा, पुत्र व भाई हैं। राम की पत्नी सीता एक आदर्श नारी, पतिव्रता स्त्री और बहु है। लक्ष्मण और भरत जैसे निष्ठावान भाई हैं। रामचरित मानस का हर एक किरदार समाज के लिए एक आदर्श प्रस्तुत करता है। रामचरित मानस में कुल सात कांड यानी अध्याय है पहला बाल कांड, दूसरा अयोध्या कांड, अरण्य कांड, किष्किधां कांड, सुन्दर कांड, लंका कांड, और उत्तर कांड।

क्या है रामचरित मानस के सात कांड में?
हम आपको बताने जा रहे हैं कि रामायण के किस कांड में राम के जीवन की कौन सी घटना का वर्णन है।

रामचरितमानस की में कुल सात अध्याय यानी कांड हैं।
1.बालकांड- इसमें रामचरितमानस मानस की भूमिका, राम के जन्म के पूर्व घटनाक्रम, राम और उनके भाइयों का जन्म, ताड़का वध, राम विवाह का प्रसंग आदि।
2. अयोध्या कांड- राम का वैवाहिक जीवन, राम को अयोध्या का युवराज बनाने की घोषणा, राम को वनवास, राम का सीता लक्ष्मण सहित वन में जाना, दशरथ की मौत आदि।
3. अरण्य कांड- राम का वन में संतों से मिलना, चित्रकुट से पंचवटी तक सफर, शुर्पनखा से युद्ध , सीता हरण।
4.किष्किंधा कांड- राम लक्ष्मण का सीता को खोजना, राम व सुग्रीव की मैत्री, बालि का वध, वानरों के द्वारा सीता की खोज।
5. सुन्दर कांड- हनुमान का समुद्र लांघना, विभीषण से मुलाकात, अशोक वाटिका में माता सीता से भेंट, रावण के पुत्रों से हनुमान वाटिका में हनुमान का युद्ध हनुमान का वापस लौटना, हनुमान द्वारा राम को सीता का संदेश सुनाना, लंका पर चढ़ाई की तैयारी, वानरसेना का समुद्र तक पहुंचना, राम का समुद्र से रास्ता मांगना।
6. लंका कांड- नील द्वारा समुद्र पर सेतु बनाना, वानर सेना का समुद्र पार कर लंका पहुंचना, अंगद को शांति दूत बनाकर रावण की सभा में भेजना, राम व रावण की सेना में युद्ध, रावण व कुंभकरण द्वारा रावण का वध, राम का सीता लक्ष्मण सहित अयोध्या लौटना, अयोध्या में राम का राजतिलक।
7. उत्तर कांड- अयोध्या में रामराज्य, सीता को वनवास, लवकुश जन्म, राम के द्वारा अश्वमेघ यज्ञ, लव कुश से राम सेना का युद्ध, अयोध्या में लव कुश का रामायण गायन, राम का लवकुश और सीता से मिलना, सीता का धरती में समाना, राम द्वारा लक्ष्मण का त्याग, राम के द्वारा जलसमाधि लेना।



जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

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