Sunday, October 3, 2010

Cycle: the story of civilization - in short(कालचक्र: सभ्यता की कहानी)

कालचक्र: सभ्यता की कहानी - संक्षेप में

सभ्यता की यह कहानी सृष्टि के विचारों से लेकर साम्राज्यों और युद्ध के उतार-चढ़ाव के बीच होकर आधुनिक वैचारिक आंदोलनों तक की गाथा है। इसका रंगमंच संपूर्ण जगत है। कैसे मानव जीवन में विचार उत्पन्न हुये? कैसे उसने कुटुंब के रूप में रहना सीखा? कैसे साम्राज्य-लालसा के साथ तथाकथित सभ्यताओं का संघर्ष हुआ? और अब हम नई सदी की दहलीज पर आकर खड़े हैं। कौन से विचार हैं जिन्होंने मानव को भिन्न देशों में व भिन्न समय में आलोडित किया, कैसे संस्कृति उपलाई—का यह सरल बोधगम्य विवेचन है।

वैज्ञानिक और तार्किक दृष्टिकोण से लिखी कई यह पुस्तक आज के युग की विचारधराओं का इतिहास व उनकी पृष्टभूमि ही नहीं, वरन उस संघर्ष की और उसमें खपते लोगों की भी कहानी है, जिन्होंने युद्ध के नगाड़ों के बीच मानव सभ्यता व उसके मूल्यों को जीवित रखा, जो साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं के बीच विस्मृत हो जाते हैं।

प्राचीन भारतीय चिंतन को विशद करता यह ग्रंथ मानव संस्कृति के प्रवाह को विज्ञान व मानविकी के स्तरों में स्पष्ट करता है और जन-जीवन से लेकर राष्ट्र-जीवन को प्रेरणा देने वाला है। इसलिये यह विश्व विजय का स्वप्न सँजोए, क्रूरता भरे अध्यायों का तथा साम्राज्यों की नामावली व उनके संवत्सर का क्रम प्रकट करता इतिहास न होकर मानव जीवन की,उसके विचारों की कहानी है। जहां यह पुस्तक विद्यार्थियों के लिए जिज्ञासा और अधिक जानने की प्रेरणा देती है वहां साधारण पाठक के लिए अपने और मानव संस्कृति के विषय में एक उपन्यास की तरह रूचिकर ढंग से आधुनिक खोजों को उजागर करती है। पुरातत‍व से लेकर आधुनिक विज्ञान तक की विकास यात्रा इसकी परिधि है।

भौतिक जगत और मानव-१ (कालचक्र: सभ्यता की कहानी)

वसंत ऋतु की यह सुहावनी अँधेरी रात्रि। आओ, बाहर निकलकर देखें। अभी आठ बजे हैं और रात्रि प्रारंभ हुई है। सारे आकाश में तारे छिटके हुए हैं। यह अनंताकाश और इसमें टिमटिमाते आसमानी दीपक, इन्‍होंने कितनी सुंदर कवि- कल्‍पनाओं को जन्‍म दिया है। प्राचीन काल में हमारे पूर्वजों ने इस आकाश के गोले यानी खगोल (celestial sphere) को देखा था और इसमें चित्रित अनेक तारा समूह, जिन्‍हें उन्‍होंने नक्षत्र (constellation) की शंज्ञा दी, देखकर भिन्न-भिन्न आकारों की कल्पनाऍं की थीं। उन्हीं आकारों से या उनमें स्थित प्रमुख तारे के नाम से ये नक्षत्र पुकारे जाने लगे। तारे और नक्षत्रों के ये नाम भारतीय ब्रम्हांडिकी (Cosmology) की देन है।

जैसे-जैसे पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है, तारे पूर्व से पश्चिम की ओर चक्कर काटते दिखाई पड़ते हैं। आकाश में रविमार्ग अर्थात पृथ्वी का केन्द्र, जिस समतल में सूर्य के चारों ओर घूमता है, उसका खगोल (आकाशीय गोले) पर प्रक्षेपण ‘क्रांतिवृत्त’ कहलाता है। इस आकाशीय मार्ग (क्रांतिवृत्त) को १२ बराबर भागों में बॉंटा गया है, जिन्हें राशियां कहते हैं। पूरे वृत्त में ३६० अंश होते हैं, इसलिए प्रत्‍येक राशि ३० अंश की है। यह क्रांतिवृत्‍त २७ नक्षत्रों से गुजरता है और इस प्रकार एक राशि में सवा दो नक्षत्र हैं। ये सभी भारतीय गणनाऍं हैं।

अभी आकाशमंडल के शिरोबिंदु से दक्षिण-पश्चिम में मृगशिरा नक्षत्र (Orion)है, जो आकाश के सबसे मनोहर दृश्यों में से एक है। इसे देहात में ‘हिरना-हिरनी’ कहते हैं। इसमें तीन तारों का एक कटिबंध है और उत्‍तर की ओर है एक लाल तारा ‘आर्द्रा’, तथा दक्षिण में एक चमकदार नीला तारा। कटिबंध एवं पश्चिम के तारे मानो मृग का सिर है और लटकते तीन तारे खूँटा और रस्सी हैं, जिससे वह मृग बंधा है। यह रस्सी खूँटे की रेखा दक्षिण क्षितिज को दक्षिणी बिंदु पर काटती है। इसके पूर्व मिथुन राशि में दो चमकते तारे हैं—‘पुनर्वसु’ एवं ‘कस्तूरी’। उसके पूर्व कर्क राशि में ‘पुष्य’ और ‘अश्लेषा’ हैं तथा उसके भी पूर्व सिंह राशि में ‘मघा’ तारे का उदय हो चुका है। मृगशिरा नक्षत्र के पश्चिम में है रोहिणी नक्षत्र तथा उसी नाम का तारा। उसके पश्चिम दिख रही हैं कृत्तिकाऍं (Pleiades), छोटे-छोटे तारों से भरा एक छोटा सा लंबा-तिकोना पुंज, जिसे देहात में ‘कचबचिया’ कहते हैं। इन्‍हें छोड़ उत्‍तर की ओर दृष्टि डालें तो ध्रुव तारा है और उसके कुछ दूर पूर्व में उदित हुए सप्तर्षि, जिन्हें पहले ऋक्ष ( इसी से अंग्रेजी में Great Bear) कहते थे। इनका चौखटा ऊपर निकल आया है और तीन तारों के हत्थे का अंतिम तारा उदित होने जा रहा है। हत्थे के बीच का तारा ‘वसिष्ठ’ है। उसी के बिल्‍कुल समीप बहुत मद्धिम ‘अरूंधति’ है। चौखटे के ऊपरी दो तारे सीधे ध्रुव तारे की ओर इंगित करते हैं। ध्रुव तारे से नीचे क्षितिज की ओर सप्तर्षि के आकार की ही ऋक्षी (Little Bear) है, जिसके हत्थे का अंतिम तारा ध्रुव है। वैसे ही प्रभात में पॉंच बजे शीर्ष स्थान से कुछ पश्चिम दो ज्वलंत तारे ‘स्वाति’ एवं ‘चित्रा’ क्रमश: थोड़ा उत्तर व दक्षिण में दिखाई देंगे। शीर्ष स्थान के आसपास ‘विशाखा’ नक्षत्र के चार तारे मिलेंगे और पूर्व-दक्षिणी आकाश में वह बिच्छू की शक्ल, वृश्चिक राशि। इस बिच्छू के डंक का चमकीला तारा ‘मूल नीचे की ओर है पर आकाश में सबसे चमकदार तारा ‘ज्येष्ठा’ पास अपनी लाल छवि दिखा रहा है। उसके पश्चिम, जहाँ से बिच्छू के मुख के पंजे प्रारंभ होते हैं, है ‘अनुराधा’।

रात्रि को मृगशिरा के दक्षिण में जिसका आभास-सा दिखेगा, वह गरमी में और भी स्पष्ट, आकाशगंगा की ‘दूध धारा’ (the Milky Way) है। अगणित तारे इस आकाशीय दूध धारा के अंदर दिखते हैं। आकाश गंगा में फैले अगणित तारापुंज हमारी नीहारिका (Galaxy) बनाते हैं। कैसा है यह रंगमंच, जिसके अनंताकाश के धूल के एक कण के समान इस पृथ्वी के अंदर जीवन का उदय हुआ, जिसकी यह कहानी है।

यह नीहारिका [‘दूध धारा’ (the Milky Way)] अधिकांशत: आकाश या शून्यता है, जिसमें अचानक कहीं छोटे से जलते प्रकाश-कण के समान विशाल और लगभग अपरिमित दूरी के बाद तारे मिल जाते हैं। जिस प्रकाश की गति लगभग तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकेंड है उसे भी निकटस्थ तारे से पृथ्वी तक आने में साढ़े चार वर्ष और दूर के तारों से तो लाखों वर्ष लगते हैं। कहते हैं कि हमारी नीहारिका एक-दूसरे से ढकी दो तश्तरियों के समान एक दीर्घवृत्तज (ellipsoid) है, जिसके किनारे आकाश गंगा के रूप में दिखते हैं। इसी से संस्कृत में इसे ‘ब्रम्हांड’ कहा गया। आज विज्ञान कहता है कि इन तारों का रहस्य मानव उसी प्रकार जान रहा है जैसे सागर तट पर बालू के कुछ लोकोक्ति कण उसके हाथ पड़ गए हों। इससे समझ सकते हैं कि भारतीय ब्रम्हांडिकी की देन कितनी बड़ी है।

उन [तारों] की दूरी का पता लगाना भी ‘लंबन सिद्धांत’ (parallax) पर आधारित है। रेलगाड़ी में हम यात्रा कर रहे हों तो खिड़की से दिखता है कि पास के पेड़, खंभे या मकान हमारे विरूद्ध दौड़ रहे हैं, और दूर की वस्तुऍं हमारी ही दिशा में। पृथ्वी भी वर्ष में दो बार—अर्थात२२ जून को, जब दिन सबसे बड़ा तथा रात्रि सबसे छोटी होती है और २२ दिसंबर को, जब दिन सबसे छोटा और रात्रि सबसे बड़ी होती है - अपने सूर्य के चारों ओर दीर्घवृत्त कक्षा के दो दूरस्थ बिंदुओं (पात: elliptical nodes)पर रहती है। इन दोनों बिंदुओं से तारों का लंबन नापकर उनकी दूरी की गणना की गई। भारतीय गणितज्ञ भी इस सिद्धांत से भलीभांति परिचित थे।

कुछ युग्म तारे (double stars) हैं। एक भीमकाय तारे के साथ एक वामन तारा एक-दूसरे का चक्कर काट रहे हैं। उभयनिष्ठ परिभ्रमण में जब भीमकाय सूर्य तारे और पृथ्वी के बीच यह काला एवं अंध वामन तारा आ जाता है तो प्रकाश कुछ धीमा पड़ जाता है। यह काला वामन भीमकाय सूर्य की तुलना में सदा बहुत छोटा, पर अत्यधिक सघन होता है। सप्तर्षि मंडल में उल्लिखित वसिष्ठ और अरूंधति (वसिष्ठ पृथ्वी के पास एवं अरूंधति बहुत दूर), दोनों ऐसे ही युग्म तारे हैं।

कहीं-कहीं अपारदर्शी भीमकाय काले गड्ढे आकाश में दिखाई पड़ते हैं। ये काले छिद्र (black holes) (या ‘कालछिद्र’ इन्हें कहें क्या ?) संभवतया ऐसे पदार्थ या तारे हैं जो प्रकाश-कण को भी आकर्षित करते हैं, अर्थात प्रकाश-कण (photons) उससे बाहर नहीं निकल सकते। कहते हैं कि इन तारों की एक चम्मच धूलि इतनी सघन है कि वह इस पृथ्वी के लाखों टन द्रव्यमान (mass) के बराबर है। इन ‘कालछिद्रों’ के अंदर कैसा पदार्थ है, हम नहीं जानते।किस भयंकर ऊर्जा-विस्फोट के दाब ने परमाणु की नाभि (nucleus) और विद्युत कणों (electrons) को इस प्रकार पीस डाला कि ऐसे अति विशाल घनत्व के पदार्थ का सृजन हुआ? वहॉं पर भौतिक नियम, जैसे हम जानते हैं, क्या उसी प्रकार क्रिया करते हैं ? और ‘काल’ की गति वहॉं क्या है, कौन जाने।

हम जानते हैं कि संसार में निरपेक्ष स्थिरता या गति नहीं है। सभी सापेक्ष र्है। आकाशीय पिंडों में कोई ऐसा नहीं जिसे हम स्थिर निर्देश बिंदु मान सकें। यह प़ृथ्‍वी अपने अक्ष पर घूम रही है, जिससे दिन-रात बनते हैं। यह सूर्य के चारों ओर अपनी कक्षा में घूमती है। इसका अक्ष भ्रमण कक्षा के समतल पर लंब (perpendicular) नहीं, पर लगभग २३.२७ अंश का कोण बनाता है। इससे ऋतुओं का सृजन होता है। यजुर्वेद (२००० संवत पूर्व) के अध्याय 3 की कंडिका छह में कहा गया है- ‘यह पृथ्वी अपनी कक्षा में सूर्य के चारों ओर अंतरिक्ष में घूमती है जिससे ऋतुऍं उत्पन्न होती हैं।‘ इसी प्रकार सभी ग्रह सूर्य के चारों ओर घूम रहे हैं। उनकी कक्षाओं में भी कोणीय गति है। इनके अक्ष भी कहीं-कहीं टेढ़े नाचते हुए लट्टू के अक्ष की भॉंति घूमते हैं।

सूर्य सौरमंडल सहित अपनी नीहारिका, आकाशगंगा में अनजाने पथ का पथिक है। यह नीहारिका भी घूम रही है अनजाने केंद्र के चारों ओर। संभवतया यह केंद्र ऋग्‍वैदिक ‘वरूण’ है। लगभग ८० करोड़ सूर्य इस नीहारिका में है। तारे, जो शताब्दियों के खगोलीय वेध के बाद ऊपरी तौर पर स्थिर दिखते हैं, अज्ञात पथ पर चल रहे हैं। इन हलचलों के गड़बड़झाले के बीच कौन कह सकता है, क्या गतिमान है और क्या स्थिर। सभी गति सापेक्ष हैं और सारा ब्रम्हाण्ड आंदोलित है।

गुरूत्वाकर्षण, जो पदार्थ मात्र का गुण है,सदा से वैज्ञानिकों के लिये एक पहेली रहा है। वैशेषिक दर्शन (२००० विक्रमी पूर्व) में इसका उल्लेख आया है। आज भी यह पहेली अनबूझी है और प्रकृति का यह नियम है, कहकर हमने छुट्टी पा ली है। पर हम जानते हैं कि चुंबकीय या विद्युतीय आकर्षण (attraction) और अपकर्षण (repulsion) दोनों होते हैं। गुरूत्‍वाकर्षण और त्वरित गति (acceleration) दोनों के प्रभाव समान हैं। अत: ऐसे ही क्या कहीं कोई विलोम-द्रव्‍य (anti-matter) है, जिसका प्रभाव अपकर्षण होगा ? यह जादुई द्रव्य अभी मिला नहीं।

साधारणतया पृथ्वी पर हम आकाशीय समष्टि (space) की तीन विमाओं (dimensions) का जगत जानते हैं; पर सापेक्षिकता सिद्धांत इसमें एक नई दिशा, विमा जोड़ देता है ‘समय’ (time) की। इस दिक-काल (space-time) के चतुर्विमीय ताने-बाने में यह संसार बुना हुआ है। गतिमान जगत में कहीं पर भी समय निर्धारण करने पर ही हमें किसी ( आकाशीय) पिंड की सही स्थिति का ज्ञान हो सकता है। पर ‘काल’ विचित्र विमा है। समष्टि की तीन विमाओं में आगे-पीछे, ऊपर-नीचे, सभी ओर जा सकते हैं; पर ‘काल’ या ‘समय’ सदैव एक ओर प्रवाहित होता है। यह अटल है। बीता हुआ समय फिर कभी वापस नहीं आता। (चाहे जैसी कल्पनाऍं विज्ञान कहानियॉं कर लें।) उसकी यह कैसी अक्षय,अनंत गति है, कौन सा भयानक रहस्य इसमें बँधा है? इसने प्राचीन काल से दार्शनिकों को विमोहित किया है। आज तक इसकी गुत्थी पर जितना विचार हुआ, यह उतनी ही उलझती गयी। ‘काल’ के मूलभूत स्वरूप के बारे में उसकी प्रकृति एवं क्रियाओं पर सोचते हुये भारतीय चिन्तकों ने भौतिकी ( Physics) से पराभौतिकी (Metaphysics) में अतिक्रमण किया है। अंततोगत्वा यह कोरे सिद्धान्तवाद के कल्पना विलास में विलीन हो जाता है। पर इतिहास समय के साथ ग्रथित है।

सूर्य, जिसे हमने जीवन का दाता कहा, अनन्य ऊर्जा केन्द्र है। यह पीला तारा है, तारों के विकास-क्रम में प्रौढ़। यह पृथ्‍वी से लगभग १५ करोड़ किलो मीटर दूर एक आग का गोला है, जहां तप्त-दीप्त धातुओं के वाष्प बादल हिरण्यगर्भ में घुमड़ते रहते हैं। वहाँ से प्रकाश की किरण को पृथ्वी पर आने में लगभग 9 मिनट लगते हैं। सौरमंडल में सूर्य के प्रकाश से आलोकित दस ग्रह एवं अनेक ग्रहिकाऍं हैं, जो दीर्घवृत्त (ellipse) कक्षा में उसकी नाभि पर स्थित सूर्य की परिक्रमा कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त हैं अंतरिक्ष से प्रेत की भॉंति पूँछ फटकारते कभी-कभार आने वाले और आदि मानव को भय-विकंपित करने वाले धूमकेतु या पुच्छल तारे।

अंतरिक्ष कैसी विस्तृत शून्यता से व्याप्त है, यह एक नमूना खड़ा करने से समझ में आ सकता है। यदि पृथ्वी की कल्पना ढाई सेंटीमीटर व्यास की एक छोटी गेंद से करें तो सूर्य २८० सेंटीमीटर व्यास का एक गोला उस ढाई सेंटीमीटर की पृथ्वी से २९,४४३ सेंटीमीटर दूर होगा। इसी प्रकार दो मटर के दानों के समान ग्रह बुध (Mercury) एवं शुक्र (Venus) ११,३४० तथा २१,२१४ सेंटीमीटर दूर होंगे। पृथ्वी की कक्षा के बाहर लाल ग्रह मंगल (Mars), नील ग्रह बृहस्पति (Jupiter), वलयित शनि (Saturn), उरण ( Uranus), वरूण ( Neptune), हर्षल ( Herschell) तथा यम (Pluto) उससे क्रमश: ४४६, १,५८८, २,८०४, ५,६४१, ८,८३९, १०,००० (?) तथा १२,४६२ मीटर दूरी पर होंगे। चंद्रमा उपग्रह पृथ्वी से ३६ सेंटीमीटर की दूरी पर मटर के एक छोटे दाने के समान रहेगा। और कुछ अन्य ग्रहिकाएँ, जो लाल ग्रह मंगल एवं नीलग्रह बृहस्पति के बीच सूर्य का चक्कर लगाती हैं, केवल धूलि कणों के समान दिखेंगी। निकटस्थ तारा तो इस पैमाने पर ६४,४०० किलोमीटर दूर होगा और बहुतांश तारे इस छोटे नमूने में करोडों किलोमीटर दूर होंगे। बीच में और चारों ओर मुँह बाए मानो समष्टि की अगाध शून्यता खड़ी है—निष्प्राण, निर्जीव, ठंडी, केवल रिक्तता। कैसा आश्चर्य है कि इस रिक्तता, अर्थात शून्य आकाश और अंतरिक्ष का भाव सुदूर अतीत में भारतीय चिंतकों के मन में आया।

यह संसार, चराचर सृष्टि कैसे आई, यह गुत्थी आज भी रहस्य की अभेद्य चादर ओढ़े खड़ी है। भारतीय दर्शन का कहना है कि जब संसार में एक ही तत्व था तब वह जाना ही नहीं जा सकता था। ऐसी दशा में न जाननेवाला कोई था, न जो जानी जाय वह वस्तु थी। ब्रम्हांडिकी का आदि सूत्र नासदीय सूक्त है - ‘नासदासीन्नो सदासीत्तदानीम‘। तब कोई अस्तित्व (existence) न था, इसलिये अनस्तित्व (non-existence) भी न था।‘ उस साम्यावस्‍था में आदि पदार्थ (primordial matter) में असंतुलन (imbalance) उत्पन्न होने के कारण भिन्न-भिन्न पदार्थ या पिंड निर्मित हुये। इसी से सृष्टि उत्पन्न हुई (‘सदेव सौम्‍य ! इदमग्रमासीत’)। जब विमोचन होता है तो सृष्टि होती है और जब संकोचन होता है, सब कुछ किसी नैसर्गिक प्रचंड शक्ति के दबाव से सूक्ष्म बनाता है तो प्रलय। आज कुछ वैज्ञानिक विश्वास करते हैं कि ब्रम्हांड किसी मध्यमान के दोनों ओर स्पंदित है और इस समय विस्तार की अवस्था में है। जड़ जगत के निर्माण की यह परिकल्पना (hypothesis) आज भी अपने ढंग की अनूठी है।


भौतिक जगत और मानव-२ (कालचक्र: सभ्यता की कहानी)

समय के पैमाने में ब्रम्हाण्ड कब प्रारम्भ हुआ ? समय का स्वाभाविक नपना एक अहोरात्र (दिन-रात) है। इसी का सूक्ष्म रूप ‘होरा’ है, जिससे अंग्रेजी इकाई ‘आवर’ (hour) बनी। पृथ्वी सूर्य के चारों ओर एक वर्ष घूमती है, जिसमें ऋतुओं का एक क्रम पूर्ण होता है। इसे ज्योतिष में ‘सायन वर्ष’ कहते हैं। यह ३६५.२५६ अहोरात्र के बराबर है। चंद्रमा, जिसका एक ओर का चेहरा ही सदा पृथ्वी से दिखता है, एक चंद्रमास में (जो २७ अहोरात्र ७ घंटा ४३ मिनट ८ सेकेंड का होता है) पृथ्वी का एक चक्कर लगाता है। हमारे पंचांग में चंद्रमास से गणना एवं सौर गणना की असंगति को मिटाने के लिए ढाई वर्ष के अनंतर एक चंद्रमास बढ़ा देने की परंपरा है, जिसे अधिमास (अर्थात अधिक मास) कहते हैं। प्राचीन काल से समय की गणना भारत स्थित उज्जैन के समय ( देशांतर ८२०.३०) से होती थी, जो ग्रीनविच (Greenwich) समय से ५.३० घंटे पहले है। यह पुरातन काल में अंतरराष्ट्रीय काल-गणना की पद्धति थी।

भारतीय ज्योतिष (astronomy) के ‘सूर्य- सिद्धान्त’ के अनुसार एक महायुगीन इकाई ‘मन्वंतर’ है। कृतयुग (सतयुग), त्रेता, द्वापर एवं कलियुग को मिलाकर एक चतुर्युगी हुई। कलियुग के ४,३२,००० वर्ष होते हैं, द्वापर उसका दुगुना, त्रेता उसका तिगुना और कृतयुग उसका चौगुना है। अर्थात एक चतुर्युगी कलियुग की दस गुनी हुई। इस प्रकार ७१ चतुर्युग एक ‘मन्वंतर’ बनाते हैं। प्रत्येग मन्वंतर के बाद कृतयुग के बराबर (१७,२८,००० वर्ष) की संध्या अथवा संधिकाल है। इस प्रकार 14 मन्वंतर और उनके संधिकाल की १५ संध्या ( जो स्वयं मिलकर ६ चतुर्युगों के बराबर है), अर्थात १००० चतुर्युगों के बराबर एक ‘कल्प’ (४.३२x१०^९ वर्ष) है। यह ब्रम्हा का एक दिवस है। 2 कल्प मिलकर ब्रम्हा का ‘अहोरात्र’ और ऐसे ३६० ब्रम्ह अहोरात्र मिलकर ब्रम्हा का एक वर्ष कहाते हैं। यह समय-गणना हमें कल्पना के एक ऐसे छोर पर पहुँचा रही है जहॉं मस्तिष्क चक्कर खाने लगे। काल के जिस प्रथम क्षण से हमारे यहॉं गणना आरंभ हुई, उससे इस समय ब्रम्हा के ५१ वें वर्ष का प्रथम दिवस अर्थात कल्प है। इस कल्प के भी ६ मन्वंतर अपनी संध्या सहित बीत चुके हैं। यह सातवाँ (वैवस्वत) मन्वंतर चल रहा है। इसके २७ चतुर्युग बीत चुके हैं, अब २८वें चतुर्युग के कलियुग का प्रारंभ है। यह विक्रमी संवत कलियुग के ३०४४ वर्ष बीतने पर प्रारंभ हुआ। जब हम किसी धार्मिक कृत्य के प्रारंभ में ‘संकल्प’ करते हैं तो कहते हैं—‘ब्रम्हा के द्वितीय परार्द्ध में, श्वेत वारह कल्प में, ७वें ( वैवस्वत) मन्‍वंतर की २८वीं चतुर्युगी के कलियुग में, इस विक्रमी संवत की इस चंद्रमास की इस तिथि को, मैं संकल्प करता हूँ—‘ इतने विशाल ‘काल’ इकाई की आवश्‍यकता सृष्टि एवं सौरमंडल के काल-निर्धारण के लिए हुई।

खगोलीय वेध से ग्रहों की गति जानने के बाद हमारे पूर्वजों ने सोचा होगा, वह कौन सा वर्ष होगा जिसके प्रारंभ के क्षण सभी ग्रह एक पंक्ति में रहे होंगे। यह विज्ञान की उस कल्पना के अनुरूप है जो सौरमंडल का जन्म किसी अज्ञात आकाशीय भीमकाय पिंड के सूर्य के पास से गुजरने को मानते हैं, जिससे उसका कुछ भाग गुरूत्वाकर्षण से खिंचकर तथा ठंडा होकर सूर्य के चक्कर लगाते भिन्न-भिन्न ग्रहों के रूप में सिकुड़ गया। तभी से काल-गणना का प्रारंभ मान लिया। इस प्रकार यह कल्‍प अर्थात ब्रम्हांड विक्रमी संवत के १.२१५३१०४१x१०^८ वर्ष पहले प्रारंभ हुआ। अपने यहॉं इसे प्रलय के बाद नवीन सृष्टि का प्रारंभ मानते हैं। इस समय ब्रम्हा की रात्रि समाप्त हुई, संकोचन समाप्त हुआ और विमोचन से सृष्टि फिर जागी। सुदूर अतीत में की गई भारतीय ज्‍योतिष की इस काल-गणना को आधुनिक खोजों ने सर्वोत्तम सन्निकट अनुमान बताया है।

सौरमंडल कैसे बना, इसके बारे में वैज्ञानिकों के दो मत हैं। पहले सौरमंडल की उष्ण उत्पत्ति की परिकल्पना थी। सूर्य के प्रचंड तरपमान पर, जहॉं सारी धातुऍं तापदीप्त वाष्प अवस्था में हैं, यह चक्कर खाता सूर्य गोला जब किसी विशाल आकाशीय पिंड के पास से गुजरा तो उसके प्रबल गुरूत्वाकर्षण से इसका एक भाग टूटकर अलग हो गया। परंतु फिर भी सूर्य के गुरूत्वाकर्षण से बँध रहकर यह सूर्य की परिक्रमा करने लगा। कालांतर में ठंडा होकर उसके टुकड़े हो गए और वे ठोस होकर ग्रह बने। इसी से सूर्य के सबसे पास और सबसे दूर के ग्रह सबसे छोटे हैं तथा बीच का ग्रह बृहस्पति सबसे बड़ा है। संभवतया एक ग्रह मंगल एवं बृहस्पति के बीच में था, जो किसी कारण से चकनाचूर हो गया और उसके भग्नावशेष छोटी-छोटी ग्रहिकाओं के रूप में दिखते हैं। पृथ्वी, जो कुछ वैज्ञानिक मानते हैं कि नाशपाती की तरह थी, के सिर का टुकड़ा टूटकर पृथ्वी की परिक्रमा करने लगा। इसी से प्रशांत महासागर का गड्ढा और चंद्रमा उपग्रह बना। अमृत मंथन की पौराणिक गाथा है कि सागर से चंद्रमा का जन्म हुआ। धीरे-धीरे ऊपरी पपड़ी जम गई, पर भूगर्भ की अग्नि कभी-कभी ज्वालामुखी के रूप में फूट पड़ती है। वर्तमान में सौरमंडल की शीत उत्पकत्त की एक नई कल्पना प्रस्‍तुत हुई है। पर साधारणतया आज वैज्ञानिक एक विस्फोट (big bang) में सौरमंडल की उत्पत्ति मानते हैं, जब पृथ्वी व अन्य ग्रह अलग हो गए।

भौतिक जगत और मानव-3 (कालचक्र: सभ्यता की कहानी)
आजकल बिग बैंग सौरमंडल की उत्पत्ति मानी जाती है। उसी समय पृथ्वी व अन्य ग्रह अलग हो गए। उस समय वनस्पतिविहीन पृथ्वी में तूफान नाशलीला करते होंगे। पृथ्वी के घूर्णन (revolution) में अपकेंद्री बल (centrifugal force) के कारण तप्त वाष्प के रूप में भाप आदि ऊपर आ गए या ठंडे हो रहे धरातल से उष्णोत्स (geyser) के रूप में फूट निकले। जल क्रिया से परतदार तलछटी शैल (sedimentary rocks) का कालांतर में निर्माण हुआ। ज्वालामुखी ने अग्नि तथा लावा बरसाया। भूकंप और अन्य भीम दबाव ने बड़े-बड़े भूखंडों को खिलौने की तरह तोड़ डाला, इनसे पहाड़ों का निर्माण हुआ। ये तलछटी शैल पुन: अग्नि में पिघलकर बालुकाश्म (sandstone) या आग्नेय शैल (igneous rocks ) बने। इस तरह अनेक प्रकार की पर्वतमालाओं का जन्म हुआ। यह प्रक्रिया वाराह अवतार के रूप में वर्णित है।
पृथ्वी पर फैली आज की पर्वत-श्रृंखला को देखें, अथवा उसके किसी प्राकृतिक मानचित्र को लें। इसमें हरे रंग से निचले मैदान तथा भूरे,स्लेटी, बैंगनी और सफेद रंग से क्रमश: ऊँचे होते पर्वत अंकित हैं। यह पर्वत-श्रेणी मानो यूरोप के उत्तर नार्वे (स्कैंडिनेविया : स्कंद देश) में फन काढ़े खड़ी है। फिर फिनलैंड से होकर पोलैंड, दक्षिण जर्मनी होते हुए स्विस आल्पस (Swiss Alps) पर्वत पर पूर्व की ओर घूम जाती है। यहॉं से यूगोस्लाविया, अनातोलिया (एशियाई तुर्की), ईरान (आर्यान) होकर हिंदुकुश पर्वत, फिर गिरिराज हिमालय, आगे अल्टाई और थियनशान के रूप में एशिया के सुदूर उत्तर-पूर्व कोने से अलास्का में जा पहुँचती है। वहॉं से यह पर्वत-श्रेणी राकीज पर्वतमाला बनकर उत्तरी अमेरिका और एंडीज पर्वत-श्रृंखला बनकर दक्षिणी अमेरिका पार करती है। अंत में इस सर्पिल श्रेणी की टेढ़ी पूँछ नई दुनिया के दक्षिणी छोर पर समाप्त होती है। पुरानी दुनिया के उत्तर नार्वे से नई दुनिया के दक्षिणी छोर तक इस संपूर्ण नगराज को लें। इसने सर्प की भॉंति इस सारी दुनिया को आवेष्टित कर रखा है। हिमयुग के बाद पिघलती बर्फ के जल से प्लावित संसार में उभरा हुआ कुछ शेष रहा तो यह नगराज। मानो इसके द्वारा धरती की धारणा हुई। यही पुरानी भारतीय कल्पनाओं का शेषनाग है।
यह हमारी पृथ्वी ४०,००० किलोमीटर परिधि का गोला है। इसका ज्ञान ऊपरी पपड़ी तक सीमित है। इसे चारों ओर से अवगुंठित करता वायुमंडल ऊपर क्षीण होता जाता है और चिडियाँ कठिनाई से छह किलोमीटर ऊँचाई तक उड़ सकती हैं तथा वायुयान दस किलोमीटर तक। उष्णकटिबंध में भी सात किलोमीटर के ऊपर हिम से ढके पर्वतों पर कोई जीवन नहीं है। सागर में मछलियॉं या वनस्पति लगभग पॉंच-किलोमीटर गहराई तक ही मिलती हैं। इसी धरातल में जीवन का विकास हुआ।

भौतिक जगत और मानव-४ (कालचक्र: सभ्यता की कहानी)

कितने वर्ष पृथ्वी को निष्फल, अनुर्वर भटकना पड़ा, जब जीवन का प्रथम प्रस्फुटन हुआ? संभवतया एक प्रकार का अध: जीवन (sub-life) तीन अरब (३x१०^९) वर्ष पहले, सद्य: निर्मित ज्वालामुखी के लावा और तूफानों द्वारा ढोए कणों पर ज्वार-भाटा द्वारा निर्मित कीचड़ के किनारे, पोखरों तथा समुद्र-तटो के उष्ण छिछले जल में उत्पन्न हुआ, जहॉं सूर्य की रश्मियॉं कार्बनिक द्विओषिद (carbon-di-oxide) और भाप से बोझिल वातावरण से छनकर अठखेलियॉं करती थीं। इस पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति चमत्कारिक घटना थी क्या? जीवन के प्रति जिज्ञासा ने मानव को अनादि काल से चकित किया है।

यूनान के दार्शनिक काल में अरस्तु (Aristotle) ने स्वत: जीवन उत्पत्ति का सिद्धांत रखा। उसका कहना था कि जैसे गोबर में अपने आप कीड़े पैदा होते हैं वैसे ही अकस्मात जड़ता में जीवन संश्लेषित हो जाता है। यह विचार इतना व्याप्त हुआ कि यूरोप के २,५०० वर्षों के इतिहास में इसी का बोलबाला रहा। यूरोप में लोगों ने चूहे बनाने का फॉर्मूला तक लिखकर रखा। रक्त, बलि आदि तांत्रिक कर्मकांड के विभिन्न नुस्खे बने। पर सूक्ष्मदर्शी ( microscope) का आविष्कार होने पर देखा गया कि एक बूँद पानी में हजारों सूक्ष्म जंतु हैं। लुई पाश्चर ने पदार्थ को कीटाणुविहीन करने की प्रक्रिया (sterilization) निकाली। उस समय फ्रांसीसी विज्ञान परिषद (L’ Academie Francaise) ने यह सिद्ध करने के लिए कि जड़ वस्तु से स्वत: ही जीवन उत्पन्न हो सकता है या नहीं, एक इनाम की घोषणा की। लुई पाश्चर ने यह सिद्ध करके कि जीव की उत्पत्ति जीव से ही हो सकती है, यह पुरुस्कार जीता। आखिर जो कीड़े गोबर के अन्दर पैदा होते हैं वे उस गोबर के अंदर पड़े अंडों से ही उत्पन्न होते हैं।

पर इससे पहले-पहल जीवन कैसे उत्पन्न हुआ, यह प्रश्न हल नहीं होता। ऐसे वैज्ञानिक अभी भी हैं जो यह विश्वास करते हैं कि पृथ्वी पर जीवन उल्का पिंड (meteors) द्वारा आया।

बाइबिल (Bible) में लिखा है—
‘ईश्वर की इच्छा से पृथ्वी ने घास तथा पौधे और फसल देनेवाले वृक्ष, जो अपनी किस्म के बीज अपने अंदर सँजोए थे, उपजाए; फिर उसने मछलियॉं बनाई और हर जीव, जो गतिमान है, और पंखदार चिडियॉं तथा रेंगनेवाले जानवर और पशु। और फिर अपनी ही भॉंति मानव का निर्माण किया और जोड़े बनाए। फिर सातवें दिन उसने विश्राम किया।‘
यही सातवॉं दिन ईसाइयों का विश्राम दिवस (Sabbath) बना। इसी प्रकार की कथा कुरान में भी है। पर साम्यवाद (communism) के रूप में निरीश्वरवादी पंथ आया। इन्होंने ( ओपेरिन, हाल्डेन आदि ने) यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि जीवन रासायनिक आक्षविक प्रक्रिया (chemical atomic process)से उत्पन होकर धीरे धीरे विकसित हुआ। इसे सिध्द करने के लिए कि ईश्वर नहीं है, उन्होने प्रयोगशाला में जीव बनाने का प्रयत्न किया। कहना चाहा,
‘कहाँ है तुम्हारी काल्पनिक आत्मा और कहाँ गया तुम्‍हारा सृष्टिकर्ता परमात्मा ?’
साम्यवादियों का यह अभिमान कि ईश्वर पर विश्वास के टुकड़े प्रयोगों द्वारा कर सकेंगे, उनकी खोज को कहॉं पहुँचा देगा, उनको पता न था। उन्होंने ईश्वर संबंधी विश्वासों का मजाक उड़ाया और यही उनके शोधकार्य की प्रेरणा बनी।

जीवों के शरीर बहुत छोटी-छोटी काशिकाओं से बने हैं। सरलतम एक-कोशिकाई (unicellular) जीव को लें। कोशिका की रासायनिक संरचना हम जानते हैं। कोशिकाऍं प्रोटीन (protein) से बनी हैं और उनके अंदर नाभिक में नाभिकीय अम्ल (nuclear acid) है। ये प्रोटीन केवल २० प्रकार के एमिनो अम्‍ल (amino acids) की श्रृंखला-क्रमबद्धता से बनते हैं और इस प्रकार २० एमिनो अम्ल से तरह-तरह के प्रोटीन संयोजित होते हैं। अमेरिकी और रूसी वैज्ञानिकां ने प्रयोग से सिद्ध किया कि मीथेन (methane), अमोनिया (ammonia) और ऑक्सीजन (oxygen) को कॉंच के खोखले लट्टू के अंदर बंद कर विद्युत चिनगारी द्वारा एमिनो अम्ल का निर्माण किया जा सकता है। उन्होंने कहना प्रारंभ किया कि अत्यंत प्राचीन काल में जीवविहीन पृथ्वी पर मीथेन, अमोनिया तथा ऑक्सीजन से भरे वातावरण में बादलों के बीच बिजली की गड़गड़ाहट से एमिनो अम्ल बने, जिनसे प्रोटीन योजित हुए।

अपने प्राचीन ग्रंथों में सूर्य को जीवन का दाता कहा गया है। इसीसे प्रेरित होकर भारत में ( जो जीवोत्पत्ति के शोधकार्य में सबसे आगे था) प्रयोग हुए कि जब पानी पर सूर्य का प्रकाश फॉरमैल्डिहाइड (formaldehyde) की उपस्थिति में पड़ता है तो एमिनो अम्ल बनते हैं। इसमें फॉरमैल्डिहाइड उत्प्रेरक (catalyst) का कार्य करती है। इसके लिए किसी विशेष प्रकार के वायुमंडल में विद्युतीय प्रक्षेपण की आवश्यकता नहीं।

भौतिक जगत और मानव-५ (कालचक्र: सभ्यता की कहानी)

अब कोशिका का नाभिकीय अम्ल ? इमली के बीज से इमली का ही पेड़ उत्पन्न होगा, पशु का बच्चा वैसा ही पशु बनेगा, यह नाभिकीय अम्ल की माया है। यही नाभिकीय अम्ल जीन (gene) के नाभिक को बनाता है, जिससे शरीर एवं मस्तिष्क की रचना तथा वंशानुक्रम में प्राप्त होनेवाले गुण—सभी पुरानी पीढ़ी से नई पीढ़ी को प्राप्त होते हैं। जब प्रजनन के क्रम में एक कोशिका दो कोशिका में विभक्त होती है तो दोनो कोशिकायें जनक कोशिका की भाँति होंगी, यह नाभिकीय अम्ल के कारण है। पाँच प्रकार के नाभिकीय अम्ल को लेकर सीढ़ी की तरह अणु संरचना से जितने प्रकार के नाभिकीय अम्ल चाहें, बना सकते हैं। नाभिकीय अम्ल में अंतर्निहित गुण है कि वह उचित परिस्थिति में अपने को विभक्त कर दो समान गुणधर्मी स्वतंत्र अस्तित्व धारणा करता है। दूसरे यह कि किस प्रकार का प्रोटीन बने, यह भी नाभिकीय अम्ल निर्धारित करता है। एक से उसी प्रकार के अनेक जीव बनने के जादू का रहस्य इसी में है।

क्या किसी दूरस्थ ग्रह के देवताओं ने, प्रबुद्ध जीवो ने ये पाँच नाभिकीय अम्ल के मूल यौगिक (compound) इस पृथ्वी पर बो दिए थे ?

एक कोशिका में लगभग नौ अरब (९x१०^९) परमाणु (atom) होते हैं। कैसे संभव हुआ कि इतने परमाणुओं ने एक साथ आकर एक जीवित कोशिका का निर्माण किया। विभिन्न अवस्थाओं में भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रोटीन या नाभिकीय अम्ल बनने के पश्चात भी यह प्रश्न शेष रहता है कि इन्होंने किस परिस्थिति में संयुक्त होकर जीवन संभव किया।

भारत में डॉ. कृष्ण बहादुर ने प्रकाश-रासायनिक प्रक्रिया (photo-chemical process) द्वारा जीवाणु बनाए। फॉरमैल्डिहाइड की उत्प्रेरक उपस्थिति में सूर्य की किरणों से प्रोटीन तथा नाभिकीय अम्ल एक कोशिकीय जीवाणु मे संयोजित हुए। ये जीवाणु अपने लिए पोषक आहार अंदर लेकर, उसे पचाकर और कोशिका का भाग बनाकर बढ़ते हैं। जीव विज्ञान (biology) में इस प्रकार स्ववर्धन की क्रिया को हम उपापचय (metabolism) कहते हैं। ये जीवाणु अंदर से बढ़ते हैं, रसायनशाला में घोल के अंदर टँगे हुए सुंदर कांतिमय रवा (crystal) की भॉंति बाहर से नहीं। जीवाणु बढ़कर एक से दो भी हो जाते हैं,अर्थात प्रजनन (reproduction) भी होता है। और ऐसे जीवाणु केवल कार्बन के ही नहीं, ताँबा, सिलिकन (silicon) आदि से भी निर्मित किए, जिनमें जीवन के उपर्युक्त गुण थे।

भौतिक जगत और मानव-६ (कालचक्र: सभ्यता की कहानी )
कहते हैं कि जीव के अंदर एक चेतना होती है। वह चैतन्य क्या है? यदि अँगुली में सुई चुभी तो अँगुली तुरंत पीछे खिंचती है, बाह्य उद्दीपन के समक्ष झुकती है। मान लो कि एक संतुलित तंत्र है। उसमें एक बाहरी बाधा आई तो एक इच्छा, एक चाह उत्पन्न हुई कि बाधा दूर हो। निराकरण करने के लिए किसी सीमा तक उस संतुलित तंत्र में परिवर्तन (बदल) भी होता है। यदि यही चैतन्य है तो यह मनुष्य एवं जंतुओं में है ही। कुछ कहेंगे, वनस्पतियों, पेड़-पौधों में भी है। पर एक परमाणु की सोचें—उसमें हैं नाभिक के चारों ओर घूमते विद्युत कण। पास के किसी शक्ति-क्षेत्र (fore-field) की छाया के रूप में कोई बाह्य बाधा आने पर यह अणु अपने अंदर कुछ परिवर्तन लाता है और आंशिक रूप में ही क्यों न हो, कभी-कभी उसे निराकृत कर लेता है। बाहरी दबाव को किसी सीमा तक निष्प्रभ करने की इच्छा एवं क्षमता—आखिर यही तो चैतन्य है। यह चैतन्य सर्वव्यापी है। महर्षि अरविंद के शब्दों में,
‘चराचर के जीव ( वनस्पति और जंतु) और जड़, सभी में निहित यही सर्वव्यापी चैतन्य ( cosmic consciousness) है।‘


पर जीवन जड़ता से भिन्न है, आज यह अंतर स्पष्ट दिखता है। सभी जीव उपापचय द्वारा अर्थात बाहर से योग्य आहार लेकर पचाते हुए शरीर का भाग बनाकर, स्ववर्धन करते तथा ऊर्जा प्राप्त करते हैं। जड़ वस्तुओं में इस प्रकार अंदर से बढ़ने की प्रक्रिया नहीं दिखती। फिर मोटे तौर पर सभी जीव अपनी तरह के अन्य जीव पैदा करते हैं। निरा एक- कोशिक सूक्ष्मदर्शीय जीव भी; जैसे अमीबा (amoeba) बढ़ने के बाद दो या अनेक अपने ही तरह के एक-कोशिक जीवों में बँट जाता है। कभी-कभी अनेक अवस्थाओं से गुजरकर जीव प्रौढ़ता को प्राप्त होते हैं, और तभी प्रजनन से पुन: क्रम चलता है। किसी-न-किसी रूप में प्रजनन जीवन की वृत्ति है, मानो जीव-सृष्टि इसी के लिए हो। पर ये दोनों गुण‍ जीवाणु में भी हैं। यदि यही वृत्तिमूलक परिभाषा (functional definition) जीवन की लें तो जीवाणु उसकी प्राथमिक कड़ी है।

कोशिका में ये वृत्तियॉं क्यों उत्पन्न हुई ? इसका उत्तर दर्शन, भौतिकी तथा रसायन के उस संधि-स्थल पर है जहां जीव विज्ञान प्रारंभ होता है। यहां सभी विज्ञान धुँधले होकर एक-दूसरे में मिलते हैं, मानों सब एकाकार हों। इसके लिये दो बुनियादी भारतीय अभिधारणाएँ हैं—(1) यह पदार्थ (matter) मात्र का गुण है कि उसकी टिकाऊ इकाई में अपनी पुनरावृत्ति करनेकी प्रवृत्ति है। पुरूष सूक्त ने पुनरावृत्ति को सृष्टि का नियम कहा है। (2) हर जीवित तंत्र में एक अनुकूलनशीलता है; जो बाधाऍं आती हैं उनका आंशिक रूप में निराकरण, अपने को परिस्थिति के अनुकूल बनाकर, वह कर सकता है। इन गुणों का एक दूरगामी परिणाम जीव की विकास-यात्रा है। चैतन्य सर्वव्यापी है और जीव तथा जड़ सबमें विद्यमान है,यह विशुद्ध भारतीय दर्शन साम्यवादियों को अखरता था। उपर्युक्त दोनों भारतय अभिधारणाओं ने, जो जीवाणु का व्यवहार एवं जीव की विकास-यात्रा का कारण बताती हैं, उन्हें झकझोर डाला।

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