Wednesday, October 27, 2010

Christianity (ईसाई धर्म)

ऐसे पड़ी ईसाई धर्म की नींव

ईसाई धर्म का प्रवर्तन ईसा मसीह (जीसस क्राइस्ट) ने किया था। ईसा मसीह यहूदी थे। ईसाई धर्म के प्रमुख ग्रंथों बाइबिल और 'न्यू टेस्टामेंट के आधार पर ईसा मसीह के प्रारंभिक जीवन की जानकारी प्राप्त होती है। इन ग्रंथों के अनुसार ईसा मसीह बचपन से ही धार्मिक स्वभाव के थे। धार्मिक ग्रंथों की टीकाएं एवं भाष्य पढऩा उनकी प्रमुख रुचियों में शामिल था। सत्य की खोज, ईश्वर की प्राप्ति एवं जीवन के उद्देश्य आदि विषयों में उनकी जिज्ञासा प्रारंभ से ही थी। अवसर मिलने पर जंगल में चले जाना और एकांत में चिंतन मनन करना, विद्वानों के साथ विचार-विमर्श करना इनकी आदतों में शामिल था।

ईशू का जन्मईसाई धर्म को मानने वालों की मान्यता के अनुसार जीसस का जन्म बेथलेहम (जोर्डन) में कुंवारी मरीयम (वर्जिन मरीयम) के गर्भ से हुआ था। उनके पिता का नाम युसुफ था जो पेशे से बढ़ई थे। स्वयं ईसा मसीह ने भी 30 वर्ष की आयु तक अपना पारिवारिक बढ़ई का व्यवसाय किया। पूरा समाज उनकी ईमानदारी और सद्व्यवहार, सभ्यता से प्रभावित था। सभी उन पर भरोसा करते थे।

उपदेशक ईसा30 वर्ष की आयु से ही ईसा मसीह ने लोगों को क्षमा, शांति, दया, करूणा, परोपकार, अहिंसा, सद्व्यवहार एवं पवित्र आचरण का उपदेश देना प्रारंभ कर दिया था। उनके इन्हीं सद्गुणों के कारण लोग उन्हें शांति दूत, क्षमा मूर्ति और महात्मा कहकर पुकारने लगे थे। इससे संबंधित जानकारी 'बाइबिल के प्रथम-भाग से प्राप्त होती है। ईसा की दिनों-दिन बढ़ती ख्याति से तत्कालीन राजसत्ता ईष्र्या करने लगी थी। उन्हें प्रताडि़त करने की योजनाएं राजसत्ता द्वारा बनने लगी थी।

ईसा के जीवन में मोड़यहूदी विद्वान यहुन्ना से भेंट होना ईसा के जीवन की महत्वपूर्ण घटना थी। यहुन्ना जोर्डन नदी के तट पर रहते थे। ईसा ने सर्वप्रथम जोर्डन नदी का जल ग्रहण किया और फिर यहुन्ना से दीक्षा ली। यही दीक्षा के पश्चात् ही उनका आध्यात्मिक जीवन शुरू हुआ। अपने सुधारवादी एवं क्रांतिकारी विचारों के कारण यहुन्ना को तत्कालीन राजसत्ता द्वारा कैद कर लिया कर लिया गया । यहुन्ना के कैद हो जाने के बाद बहुत समय तक ईसा मृत सागर और जोर्डन नदी के आस-पास के क्षेत्रों में उपदेश देते रहे। स्वर्ग के राज्य की कल्पना एवं मान्यता यहूदियों में पहले से ही थी किंतु ईसा ने उसे एक नए और सहज रूप में लोगों के सामने प्रस्तुत किया।

यह सिखाता है ईसाई धर्म- कभी भी हिंसा और हत्या को जीवन में मत अपनाओं।- ईष्र्या, द्वेष से सदैव दूर रहो।- सदैव नैतिक नियमों का पालन करों और पवित्र जीवन जीयो।- संकल्प सोच-समझ कर करो।- जो तुम्हारे दाहिने गाल पर थप्पड़ मारे उसकी ओर दूसरा भी फेर दो। हिंसा न करो।- जब दान करो चुपचाप करो, तारीफ से बचो।- कभी किसी पर दोष न लगाओ।- ज्यादा धन इकट्ठा न करो।- गरीबों की मदद करो।- विवाह करना वासना में दग्ध रहने से अच्छा है।- कोढिय़ों की सेवा करो। किसी से मुफ्त मत लो।- अपने प्राण बचाने की जगह दूसरों के प्राण बचाओ।

ईसा के जीवन की प्रमुख घटनाएं

अंतिम भोज'अंतिम भोज' के नाम से प्रसिद्ध घटना के समय भोजन के बाद वे अपने तीन शिष्यों - पतरस, याकूब और सोहन के साथ जैतन पहाड़ के'गेथ सेमनी' बाग में गए। मन की बैचेनी बढ़ते देख वे उन्हें छोड़कर एकांत में चले गए तथा एक खुरदुरी चट्टान पर मुंह के बल गिरकर प्रार्थना करने लगे। उन्होंने प्रार्थना में ईश्वर से कहा-'' दु:ख उठाना और मरना मनुष्य के लिए दु:खदायी है किंतु हे पिता यदि तेरी यही इच्छा हो तो ऐसा ही हो।''

ईसा की गिरफ्तारीईसा ने अपने शिष्यों से कहा- ''वह समय आ गया है जब एक विश्वासघाती मुझे शत्रुओं के हाथों सौंप देगा। इतना कहना था कि (द्भह्वस्रड्डह्य) नामक शिष्य उनकी गिरफ्तारी के लिए सशस्त्र सिपाहियों के साथ आता दिखाई दिया। जैसा कि ईसा मसीह ने पहले की कह दिया था उनको गिरफ्तार कर लिया गया। अंत में न्यायालय में उन पर कई झूठे दोष लगाए गए। यहां तक की उन पर ईश्वर की निंदा करने का आरोप लगाकर उन्हें प्राणदंड देने के लिए जोर दिया गया। यूदस ने विश्वासघाती होने के कारण आत्महत्या कर ली। सुबह होते ही उन्हें अंतिम निर्णय के लिए न्यायालय में भेजा गया। न्यायालय के बाहर शत्रुओं ने लोगों की भीड़ इकट्ठी की और उनसे कहा कि वे पुकार-पुकार कर ईसा को प्राणदंड देने की मांग करें। ठीक ऐसा ही हुआ।

हत्यारों के लिए क्षमा प्रार्थनान्यायाधीश ने लोगों से पूछा इसने कौन सा अपराध किया है? मुझे तो इसमें कोई दोष नजर नहीं आता। किंतु गुमराह किए हुए और बिके हुए लोगों ने कहा'' उसे सूली दो। अंतत: उन्हें सूली पर लटका कर कीलों से ठोक दिया गया। हाथ पैरों में ठुकी कीलें आग की तरह जल रही थी। ऐसी अवस्था में भी ईसा मसीह ने परमेश्वर को याद करते हुए प्रार्थना कि-'' हे मेरे ईश्वर तुने मुझे क्यों अकेला छोड़ दिया। इन्हें माफ कर देना, क्योंकि ये नहीं जानते ये क्या कर रहे हैं?

फिर लौटे ईसाकुछ घंटों ईसा मसीह शरीर क्रूस पर झूलता रहा। अंत में उनका सिर नीचे की ओर लटक गया और इस तरह आत्मा ने शरीर से विदा ले ली। ईसा की मृत्यु हो गई। कहा जाता है कि मृत्यु के तीसरे दिन एक चमत्कार हुआ और ईसा पुन: जीवित हो उठे। मृत्यु के उपरांत पुन: जीवित हो जाना उनकी दिव्य शक्तियों एवं क्षमताओं का प्रतीक था।

ईसाई धर्म के प्रमुख ग्रंथ

ईसाई धर्म के सर्वमान्य प्रमुख ग्रंथ दो ही हैं-१.पुरानी बाइबिल२.नई बाइबिल

पुरानी बाइबिल- पुरानी बाइबिल में हजरत मूसा के आने व हजरत नूह व उनके पुत्रों द्वारा ईसाई धर्म फैलाने का जिक्र है। यह मानती हैं कि नूह के पुत्र हेम के वंशज ही अरब यहूदी और मिश्री ईसाईयों का समूह था जो सामी परंपरा कहलाया। पुरानी बाइबिल में हजरत मूसा का कार्य-कलाप व उपदेशों का वर्णन है।

नई बाइबिल- नई बाइबिल हजरत ईसा मसीह प्रभु यीशु पर आधारित है। यह प्रभु ईसा मसीह को कुंवारी मरियम से जन्मे मानती है। कुंवारी मरीयम को पवित्र आत्मा से गर्भवती हुआ बताया गया है। इसमें बताया गया है कि आकाशवाणी ने बताया कि कुंवारी लड़की गर्भवती हागी और एक पुत्र को जन्म देगी। उसका इम्मानुएला रखा जाएगा। वह बालक बड़ा होकर लोगों को राह दिखाएगा,सब पाप मिल जाएंगे। वह सबको रोशनी देगा, इजऱाइल की रखवाली करेगा। वह प्रभू यीशु होगा, खुदा का बेटा कहलाएगा।

बाइबिल का पूर्वाद्र्धईसाई धर्म के प्रमुख ग्रंथ 'बाइबिल में कहीं भी ईश्वर के स्वरूप का दार्शनिक विवेचन नहीं मिलता। बाइबिल में मनुष्य के साथ ईश्वर के व्यवहार का जो इतिहास मिलता है, उससे ईश्वर के अस्तित्व और स्वरूप के बारे में भी जानकारी मिलती है। 'बाइबिल के पूर्वाद्र्ध में वर्णित ईश्वर संबंधी धारणा से यह अवश्य स्पष्ट होता है कि ईश्वर एक है और वह अनादि, अनंत और सर्वशक्तिमान है। ईसाई धर्म के अनुसार कोई भी स्थूल मूर्ति उस ईश्वर का वास्तविक स्वरूप व्यक्त करने में असमर्थ है। ईश्वर मनुष्य को पवित्र बनाने, ईश्वरीय आराधना करने तथा ईश्वर के नियमों के अनुसार जीवन बिताने का आदेश देता है।

बाइबिल का उत्तराद्र्ध'बाइबिल के उत्तराद्र्ध से पता चलता है कि ईसा ने ईश्वर के बारे में एक नया विचार दिया कि एक ही ईश्वर में तीन व्यक्ति हैं- पिता पुत्र और पवित्र आत्मा। तीनों ही महान एवं शक्तिमान है। तीनों समान रूप से अनादि, अनंत और सर्वशक्तिमान हैं, क्योंकि वे एक रूप के अंश है। इसीलिए ईसाई धर्म 'परस्पर प्रेम भावना पर अधिक बल देता है। ईसाई धर्म के अनुयायियों के अनुसार ' ईश्वर-पुत्र ईसा क्रू स पर मरकर मानव-जाति के सभी पापों का प्रायश्चित किया था।

बाइबिल दिखाती है प्रेम और प्रार्थना का मार्ग

परमेश्वरउनकेलिएमित्रकीतरहहैजोउसकेबताएमार्गपरचलतेहैं। जीवनपरमेश्वरकादियाबेशकीमतीवरदानहै।इसेजानें, समझें, खोजें, संवारेंऔरकद्रकरें। क्रोध, हिंसाऔरहत्यासेसदैवबचें। किसीकेप्रतिद्वेषयाघ्रणाकेभावलाकरअपनेतन, मनमेंजहरनघोले। स्त्रियोंकाआदरऔरसम्मानकरें।स्त्रियोंकोनिम्नदृष्टिसेनदेखें।पवित्रतासेदेखेंऔरपवित्रबनें। दोषियोंकोक्षमाकरें।क्षमासेहीकिसीकास्थाईसुधारसंभवहै।बात-बातमेंसंकल्पनलें।अतिआवश्यकहोतोहीसंकल्पलेंऔरहरकीमतपरअपनेवचनकोनिभाएँ। अपनीमेहनतकीकमाईकाकुछहिस्साजरूरतमंदोंकोअवश्यदें। दूसरोंकीगलतियाँ, कमियांऔरदोषनदेखेंक्योंकिकुछअलगतरहकीकमियांऔरदोषतुममेंभीहै।उन्हेंदूरकरनेमेंसमयलगाओं। धनसंपत्तिकेसंग्रहमेंहीजीवननखपाओं।जीवनमेंऔरभीकईमहत्वपूर्णकार्यहैकरनेकेलिए।विवाहकरनावासनामेंजलतेरहनेसेतोअच्छाहीहै। किसीकोछोटा, नीच, घ्रणित, पापी, आदिनसमझो।इन्हेंपरिस्थितिऔरअज्ञानतानेइसअवस्थामेंलापटकतेहैं।होसकेतोऊपरउठनेमेंइनकीमददकरों। अपनेप्राणगंवाकरभीकिसीकीरक्षाकरसकोतोअवश्यकरों।

बाइबिल: प्रेम से भरा एक ग्रंथ
बाइबिल ईसाइयों का पवित्रतम धर्म ग्रंथ है।
ऐसा धर्म ग्रंथ जो ईसाई धर्म की आधार शिला है।
पे्रम और परमेश्वर से सराबोर एक अमूल्य पुस्तक।
इसकी रचना 1400 ई.पू. से 900ई. तक हुई ऐसी मान्यता है।
बाइबिल में कुल मिलाकर 72 ग्रंथों का संकलन है। पूर्व विधान में 45 तथा नव विधान में 27 ग्रंथ हैं।
बाइबिल दो भागों में विभक्त है। पूर्व विधान (ओल्ड टेस्टामेंट) और नव विधान (न्यू टेस्टामेंट)
बाइबिल का पूर्व विधान (ओल्ड टेस्टामेंट) ही यहूदियों का भी धर्म ग्रंथ है।
माना जाता है कि बाइबिल ईश्वरीय प्रेरणा (इंस्पायर्ड) से रचित गं्रथ है। किंतु उसे अपोरुषेय नहीं कहा जाता है।
बाइबिल ईश्वरीय प्रेरणा तथा मानवीय परिश्रम दोनों का सम्मिलित परिणाम है।
बाइबिल बड़ी ही सहज है इससे गूढ़ दार्शनिक सत्यों का संकलन नहीं है।
बाइबिल यह बताती है कि ईश्वर ने मानव जाति की मुक्ति का क्या प्रबंध किया है।
इंसान को प्रेम, उदारता और आत्म व्यवहार का पाठ पढ़ाती है बाइबिल।
बाइबिल में लौकिक ज्ञान एवं विज्ञान संबंधी जानकारी भी मिलती है।
बाइबिल के पूर्व विधान में यहूदी धर्म और यहूदी लोगों की गाथाएं, पौराणिक कहानियां आदि का वर्णन है।
बाइबिल के पूर्व विधान (ओल्ड टेस्टोमेंट) की भाषा इब्रानी है।
बाइबिल के नव विधान को ईसा ने लिखा। इनमें ईसा की जीवन, उपदेश और शिष्यों के कार्य लिखे हैं।
नव विधान की मूल भाषा अरामी और प्राचीन ग्रीक है।
नव विधान में चार शुभ संदेश हैं जो ईसा की जीवनी का उनके चार शिष्यों द्वारा वर्णन है।
ईसा के चार प्रमुख शिष्य: मत्ती, लूका, युहन्ना और आकुसथे।
हजरत मूसा बाइबिल के सर्वाधिक प्राचीन लेखक हैं जिन्होंने 1100 ई.पू. में पूर्व विधान का कुछ अंश लिखा था।
नव विधान की रचना 50 वर्ष की अवधि में हुई यानि सन 50 ई से. 100 ई. के बीच।
बाइबिल में लोक कथाएं, काव्य और भजन, उपदेश, नीति कथाएं आदि अनेक प्रकार के साहित्यिक रूप पाए जाते हैं।


ईसाई धर्म : सिद्धांत और उपदेश

ईसा बहुधा ईश्वर के राज्य (किंग्डम ऑफ गॉड) की चर्चा करते थे। इसका अर्थ यह था कि पृथ्वी पर ईश्वर की सत्ता ही सबसे अधिक बलवती है। ईसा का कहना था कि पृथ्वी पर ईश्वर के राज्य की स्थापना शीघ्र ही होने वाली है। उनका कहना था कि मनुष्य, ईश्वर प्रेम से पवित्र होकर, ईश्वर में पूर्ण आस्था रखकर, ईश्वर राज्य की स्थापना कर सकता है। वे ईश्वर को पिता और स्वयं को ईश्वर का पुत्र कहते थे।

ईसाई धर्म के प्रमुख संप्रदाय एंव शाखाएंईसाई धर्म में बहुत संप्रदाय है। जिनमें से कुछ प्रमुख संप्रदाय इस प्रकार है:१.ऐवोनिया२.मार सियोनी३.मानी कबीर४.रोमन कैथोलिक५.यौनी टैरिपन६.यूटल केन७.बलकानियां८.प्रोट्रेस्टेन

ईस्टर का त्योहारप्रतिवर्ष इसी घटना की स्मृति में ईसाई धर्म के अनुयायी ईस्टर का त्योहार मनाते हैं। 'गुड फ्रायडे वह दिन समझा जाता है जिस दिन ईसा की मृत्यु हुई थी। मृत्यु के तीसरे दिन पुन: जीवित होने के बाद वे 40 दिनों तक अपने शिष्यों एवं मित्रों के साथ रहे, और अंत में स्वर्ग चले गए।

ईसाई-धर्म और जिंदगी के अनसुलझे सवाल

कई ऐसे मुद्दे हैं जो इंसान और उसकी जिंदगी के साथ प्रारंभ से ही जुड़े हुए हैं। जैसे कि ईश्वर कौन, कहां और कैसा है?, जिंदगी का मकसद क्या है? हम जन्म से पहले कहां थे और मौत के बाद कहां होगे? इन मुद्दों पर दुनिया के विभिन्न धर्मों और हिस्सों में अलग-अलग मान्यताएं हैं। इन महत्वपूर्ण विषयों में ईसाई धर्म क्या कहता और मानता है, आइये देखते हैं-

- कौन है ईश्वर: एक सत्ता है पर उसके तीन रूप है। पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा।

- इंसान का पतन कैसे : ईश्वर ने मानव को पूर्ण बनाया किंतु आदम ने ईश्वर
का आदेश न मानने का अपराध किया। इस कारण मानव जाति ईश्वर से दूर
हो गई और उसका पतन हुआ। (पुरानी बाइबिल)

- अवतार क्या है: मनुष्य औ ईश्वर के पुनर्मिलन को पुन: स्थापित करने के लिए
ईश्वर ईशू के रूप में मनुष्य बनकर धरती पर अवतरित हुआ। (नई बाइबिल)

- कुंवारी से जन्मे यीशू: ईश्वर ने ईशू के रूप में चमत्कार पूर्वक कुंवारी मरीयम
की कोख (गर्भ) से जन्म लिया।

- यीशू के दो रूप: ईशू एक ही समय में ईश्वर भी था और मनुष्य भी।

- प्रायश्चित क्यों: ईश्वर ने ईशू के रूप में कष्ट सहा, मनुष्य बनकर बलिदान दिया।

- पुररुत्थान कैसे : ईश्वर ने ईशू की कब्र से उठकर विश्वास वालों को अमरता
प्रदान की।

- चर्च का देवी आधार: ईश्वर ने ईशू रूप में मनुष्य और ईश्वर के साम्राज्य को
स्थापित पद्धति के रूप में चर्च (संघ) का निर्माण किया।

- कृपा कब और क्यों: ईश्वर अपने प्रेम द्वारा मनुष्य को पाप से बचाने के लिए
सहायता देता है।

- पुरागमन : ईश्वर ईशू के रूप में फिर आएगा। भले लोग कब्र से उठ खड़े होंगे।
पुण्यात्मओं की मुक्ति होगी। पापी सदा के लिए नरक में जाएंगे।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,

और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....MMK

Sikhism (सिक्ख धर्म )

ऐसे जन्मा सिक्ख धर्म

अर्थ एंव स्वरूप एवं इतिहासशब्दकोश में दिए दिए अर्थ के अनुसार सिक्ख शब्द का अर्थ है- शिष्य, चेला, गुरुनानक के पंथ का अनुयायी, नानकदेव के अनुयायियों का एक वर्ग (जैस- सिक्ख समूह) सिक्ख धर्म भी जैन धर्म के अनुसार हिंदू धर्म के समीपस्थ धर्मों में से से एक है, अर्थात् हिंदू धर्म से समानता या एकरूपता रखने वाला है। वास्तविकता में सिक्ख धर्म गुरुओं पर आधारित धर्म है। इस धर्म के प्रणेता गुरुनानक देव हैं गुरुनानक देव सिख धर्म के प्रथम गुरु अवतार हुए है। सिक्ख धर्म में बहुदेवता वाद की मान्यता नहीं है।अकाल पुरुषसिक्ख धर्म केवल एक अकाल पुरुष को मानता है। यह 'एक ईश्वर तथा गुरुद्वारों पर आधारित धर्म है। इस धर्म में गुरु महिमा मुख्य पूज्यनीय व दर्शनीय मानी गई है। गुरु के माध्यम ही हम अकाल पुरुष तक पहुंचते है। गुरुनानक देव जी ने अकाल पुरुष का जैसा स्वरूप प्रस्तुत किया है। उसके अनुसार - अकाल पुरुष एक है, उस जैसा कोई नहीं है। वह सबमें एक समान रूप से एकरस रूप में बसा हुआ है। उस अकाल पुरुष का नाम अटल है।सृष्टि निर्मातावह अकाल पुरुष ही संसार की हर छोटी और बड़ी वस्तु को बनाने वाला है। वह अकाल पुरुष ही सब कुछ बनाता है तथा बनाई हुई हर एक चीज में उसका वास भी रहता है। अर्थात् वह हर कण-कण में अदृश्य रूप से निवास करता है। वह सर्वशक्तिमान है। तथा उसे किसी का डर नहीं है। उसका किसी के साथ विरोध, मनमुटाव एवं शत्रुता नहीं है।कालजयीउस अकाल पुरुष का अस्तित्व समय के बंधन से मुक्त है। भूतकाल, वर्तमान काल एवं भविष्य काल जैसा काल विभाजन उसके लिए कोई मायने नहीं रखता। बचपन, यौवन, बुढ़ापा और मृत्यु का उसपर कोई प्रभाव नहीं होता । उस अकाल पुरुष को विभिन्न योनियों में भटकने की आवश्यकता नहीं है अर्थात् वह अजन्मा (जन्म-मरण से परे)है। उसको किसी ने नहीं बनाया। न उसे किसी ने जन्म दिया, वह स्वयं प्रकाशित है। ऐसा प्रभु गुरु की कृपा से ही मिलता है।सिक्ख धर्म के संस्थापक: गुरु नानकदेव सिक्ख धर्म के प्रवर्तक आदि गुरुनानकदेव है। इनका समय सन् 1469 से 1538 रहा। इन्होंने अपने प्रारंभिक जीवन में खेती, दुकानदारी, व्यापार व भंडारण आदि सभी कार्य किए। जैसे-जैसे धर्म एवं भक्ति भाव में उनका मन रमने लगा। वे धार्मिक यात्राओं पर जाने लगे। उन्होंने ग्रह त्यागकर विश्वभ्रमण किया।गुरुनानक देव का जन्म 15 अप्रैल 1469 को पंजाब के शेखपुरा जिले के तलवंडी में हुआ था। इनके पिता का नाम कल्याणदास (कालू महता) था तथा माता का नाम तृप्ताजी था। नानक बचपन से ही शांत एवं तेज बुद्धि के थे। उन्होंने हिंदी के साथ संस्कृत और फारसी भी पढ़ी। उन्हें छोटी उम्र में भी भगवान के प्रति लगन लग गई। गुरुनानक ही सिक्ख धर्म के प्रणेता व आधार है। प्रमुख रचना जपुजीगुरुनानक की प्रसिद्ध रचना का नाम जपुजी है। जिस प्रकार मुस्लिम कुरान पर, हिंदू गीता और भागवत पर, पारसी गाथा पर, तथा बौद्ध धम्मपद पर श्रद्धा रखते हैं, उसी प्रकार सिख धर्म अनुयायी 'जपुजी पर श्रद्धा करते हैं। गुरुग्रंथ साहब का आरंभ जपुजी से होता है। सिक्ख धर्म के पहले गुरुनानक देवजी के सारे उपदेशों का सार इस लघु गंरथ में समाया है। सिक्ख धर्मानुयायी प्रतिदिन जपुजी का पाठ करते हैं।सिक्ख धर्म के प्रमुख ग्रंथगुरुनानक देव के वचनों को, पहले पहल, गुरु अंगद देव ने 'गुरुमुखी लिपि में लिखा। तभी से यह लिपि प्रचलन में आई है। सिक्खों के मुख्य धर्म 'ग्रंथ साहिब का संकलन और संपादन सन् 1604 ई. में पांचवें गुरु अर्जुनदेव ने किया। इस गं्रथ में आदि के पांच गुरु और नवें गुरु तेगबहादुर जी के वचन और पद संग्रहित हैं। सिक्ख धर्म के दसवें गुरु, गुरु गोविंद सिंह जी साहित्य के बहुत बड़े विद्वान, कवियों के प्रबल सहायक एवं संरक्षक तथा स्वयं भी हिंदी के अच्छे कवि थे। उनकी सभी रचनाओं को सिक्ख, 'दशम ग्रंथ के नाम से पुकारते हंै। गुरु गोविंदसिंह जी के मन में हिंदू धर्म एवं देवी देवताओं के प्रति भी गहरी श्रद्धा थी। उन्होंने 'रामायण ग्रंथ की रचना भी की जो कुछ ही समय पूर्व 'गोविंद-रामायण के नाम प्रकाशित हुई।सिक्ख धर्म का प्रभाव क्षेत्र एवं अनुयायी सिक्ख धर्म मुख्य रूप से भारतीय धर्म है। इसका जन्म एवं प्रवर्तन भारत में ही हुआ है। सिक्ख धर्म के सर्वाधिक अनुयायी भारत में ही पाए जाते हैं। विश्वभर में लगभग 3 करोड़ अनुयायी हैं। भारत के अलावा यह धर्म आस्ट्रेलिया, उत्तरी अमेरिका, दक्षिण-पूर्वी एशिया, युनाइटेड किंग्डम एवं यूरोप में सिक्ख धर्म के अनुयायी है।

भगवान सत्य स्वरूप हैं अर्थात् 'सत् श्री अकाल'

गुरुनानक देव का आध्यात्मिक जीवननानकदेव की दृष्टि में सारा संसार एक पवित्र स्थान है। वे इस पवित्र संसार में रहने वाले सभी निवासियों को एक समान दर्जा दिया करते थे। उनके अनुसार जो सत्य से प्रेम करता है। वही पवित्र है। भगवान स्वयं भी सत्य स्वरूप हैं अर्थात् 'सत् श्री अकाल'। सत्य और शुभ आचरण से अपने आप को पवित्र बनाकर कोई भी भगवान तक पहुंच सकता है। नानकदेव अनावश्यक आडंबर और भाव रहित कर्मकांड को व्यर्थ मानते थे।व्यापक लोकप्रियताहिंदू और मुसलमान दोनों ही वर्गों के लोग नानकदेव जी को समान रूप से चाहते एवं सम्मान देते थे। दोनों वर्गों के लोग उन्हें प्यार करते एवं संत मानते थे। मुस्लिमों से नानकदेव ने कहा कि दया को मस्जिद जानों उसमें सच्चाई का फर्श बिछाओ, न्याय और ईमानदारी को कुरान जानों, नम्रता को सुन्नत जानो, सौजन्य को रोजा मानों तभी तुम सच्चे मुसलमान कहलाने के लायक हो पाओगे। इतना ही नहीं नानक देव जी ने पांच वक्त की नमाज का वास्तविक अर्थ मुसलमानों को समझाते हुए कहा कि पहली नमाज सच्चाई है, दूसरी इंसाफ, तीसरी दया, चौथी नेक नियती और पांचवीं ईश्वर (अल्लाह) की पूजा (इबादत) है।धर्म का मर्महिंदूओं को भी धर्म का मर्म (सच्चाई) समझाते हुए नानक देव ने कहा कि मैंने चारों वेद पढ़े हैं, अड़सठ तीर्थों का स्नान किया है। वनों में जंगलों में रहा हूं। सातों ऊपरी व नीचे की दुनिया का ध्यान मनन किया है। तब मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि वही अपने धर्म के प्रति सच्चा है जो भगवान से डरता है, बुरे काम नहीं करता, नेक काम करता है। गुरु नानक ने भेदभाव भुलाकर ईमानदारी, नेकनियती, वफादारी एवं समर्पण भाव से काम करने की शिक्षा दी। गुरुनानक का दार्शनिक सिद्धांत वेदों पर आधारित था। वे एक ओंकार, अकालपुरुष और प्रकृति को सत्य मानते थे। उन्होंने अहंकार को पाप की जड़ माना है। गुरु नानक ने कहा है कि मन कागज है, हमारे कर्म स्याही है। पुण्य और पाप इस पर लिखे लेख है, हमें मन के कागज पर लिखे पुण्य के लेख को बढ़ाना और पाप वाले लेख को मिटाना है।

यह सिखाता है सिक्ख धर्म

सिक्ख धर्म: मान्यताएं एवं सिद्धांतसिक्ख धर्म गुरु परंपरा पर आधारित धर्म है। जिसके पहले महान् गुरु आदि गुरु नानक देव जी हुए हैं। सिक्ख धर्म में दस अवतारी गुरु माने गए हैं।दश गुरुओं की सूची-१. आदि गुरु नानकदेवजी2. गुरु अंगद देवजी3. गुरु अमरदासजी4. गुरु रामदासजी5. गुरु अर्जुन देवीजी6. गुरु हरगोविंदजी7. गुरु हरिरायजी8. गुरु हरिकृष्णजी9. गुरु तेजबहादुरजी10. गुरु गोविंदसिंहजीस्थाई गुरुसिक्ख धर्म में गुरु नानक देव से लेकर गुरु गोविंदसिंह जी तक 10 गुरु हुए हैं। प्रत्येक गुरु अन्त समय में अपने योग्य उत्तराधिकारी को अपना पद सौंप कर उसे सिक्ख पंथ का अगला गुरु घोषित कर दिया करते थे। गुरु गोविंदसिंह जब स्वर्गवासी होने लगे, तब उन्होंने 'गुरु-ग्रंथ साहिब को ही सिक्ख पंथ का स्थायी गुरु घोषित कर दिया और समस्त सिक्ख अनुयायियों को आज्ञा दे दी कि आगे से कोई व्यक्ति गुरु नहीं होगा।सिक्ख किसको कहते हैं?१. जो केवल एक अकालपुरुष को मानता हैं, वह सिक्ख है।२. जो दस गुरु साहिबान (गुरुनानक देव से गुरु गोविंद सिंह तक) और गुरु ग्रंथ साहब वाणी व शिक्षा के अनुसार जीवन व्यतीत करता है, वह सिक्ख है।३. जो दशम पिता के प्रदान किए खंडे बांटे का अमृत पान करता है, वह सिक्ख है।४. जो पांचककार केश, कंघा, कड़ा, कछिहरा और कृपाण इन पांचों को धारण करता है, वह सिक्ख है।सिक्खों के लिए वर्जित कार्यसिक्ख धर्म चार बुराइयों से सिक्खों को दूर करने का उपदेश देता है-१. केशों को अपमानित करना।२. तंबाकु सेवन करना।३. मुसलमानों द्वारा कुंठा (हलाल) मांस खाना।४. पराई स्त्री या पराए पुरुष का संग करना।

सिक्ख धर्म: उपासना पद्धतियां एवं प्रथाएं

नित्य नियम : सिक्ख धर्म में मान्यता है कि नितनेम का रोज पाठ करना चाहिए। ये पाठ हैं- जपु, जाप और दस सवैये। इन वाणियों का पाठ प्रात: काल करना चाहिए।सोदर रहिरास: सूर्यास्त के बाद पढ़े।सोहिला: ये वाणी रात को सोते समय पढ़े।ओम्: ये पारब्रह्म वाचक शब्द है। गुरुग्रंथ साहब में ओम् के पूर्व 1 अंक का प्रयोग किया गया है इससे तात्पर्य यह है कि वह अस्तित्व जो एक है जिसके समान दूसरा कोई नहीं है।जपु: ''आदि सचु जुगादि सचुहै भी सचु नानक होसी भी सचु।''ये गुरुमत का मूलमंत्र है। इसमें गुरुनानक देव ने परमात्मा के शाब्दिक संकल्प को प्रस्तुत किया है।सोहिला: सोहिला वाणी का नाम है। इस वाणी का पाठ सिक्ख मतानुसार रात को सोते समय किया जाता है। सोहिला का शाब्दिक अर्थ है- यश। अर्थात् वाणी से परमात्मा का यशोगान किया जाना।अरदास: सिक्ख धर्म में अरदास का बड़ा महत्व है। अरदास का नियम है कि गुरु सिक्ख जब भी वाणी का पाठ करें, प्रवचन करें, सबसे पहले ईश्वर के चरणों में समर्पण भाव से प्रार्थना करें कि सुख शांति का व्यवहार बना रहे, एवं परमेश्वर प्रार्थी के सिर पर अपना हाथ रखे। मनुष्यों का कर्तव्य है कि वह कोई भी व्यवधान हो, यात्रा हो या शुभ कार्य करना हो, या कोई मंगल कार्य करना हो तो पहले अरदास (प्रार्थना) करें, तब आरंभ करें। परमात्मा अरदास करने वालों की प्रार्थना पूरी करते हैं।अकाल तख्त: सिक्ख धर्म में पांच अकाल तख्त हैं। जिनको पूजा जाता है तथा जिन पर बैठकर सिक्खों को आदेश, करमान, सजा, न्यायिक आदेश दिए जाते हैं जो इस प्रकार हैं -1. श्री अकाल तख्त साहब, अमृतसर (पंजाब)2. श्री हरमंदिर साहब, पटना (बिहार)3. श्री केसगढ़ साहिब, आनंदपुर (पंजाब)4. श्री दमदमा साहिब, तलवंडी (पंजाब)5. श्री हजूर साहब, नांदेड़ (महाराष्ट्र)ये पांचों तख्त सिक्खों के ऐतिहासिक तख्त हैं, जिनकी बड़ी मान्यता है।

फतह- जब कभी दो सिक्ख व्यक्ति आपस में मिलते हैं तो फतह बुलवाते हैं। जो कि इस प्रकार है- ''वाहे गुरुजी का खालसा, वाहे गुरुजी की फतह जयकार- सिक्ख धर्म में जयकार भी होती है। जो इस प्रकार है - ''बोले सो निहाल सत् श्री अकाल । सिक्ख सैनिक युद्धों के समय भी यही जयकारा बोलते हैं।मत्था टेकना- सिक्ख जब गुरुद्वारे आता है तो गुरुग्रंथ साहब को मत्था टेकता है, सिर झुकाता है। मस्तक झुकाने का अर्थ यह है कि हम गुरुग्रंथ साहब का हुक्म मानेंगे।एक परिवार- सिक्ख धर्म कहता है कि सभी सिक्ख एक परिवार है। खालसा पंथ ही हमारा सांझा परिवार है। गुरु गोविंद सिंह पिता व साहब कौरजी माता है।वाहे गुरु: परमात्मा के भिन्न-भिन्न नामों - ईश्वर, खुदा, यीशू, भगवान आदि के समान ही सिक्ख धर्म में परमात्मा को वाहे गुरु (अकाल पुरुष) के नाम से पुकारा जाता है।केश: सिक्ख धर्म में केशों का बहुत महत्व है। सिक्खों का विश्वास है कि केश गुरु की निशानी है। केश सच्चे सिक्ख की पहचान है।गुरुद्वारा: वाहेगुरु (परमात्मा) का गुणगान करने को सिक्ख लोग गुरुद्वारे जाते हैं। हिंदूओं के मंदिर और मुस्लिमों की मस्जिद के समान ही सिक्खों का सामुहिक धर्म स्थल गुरुद्वारा कहलाता है। गुरुद्वारे में 'गुरुग्रंथ साहिब को मूर्ति के स्थान पर अत्यंत आदर एवं सम्मान के साथ रखा जाता है। सिक्ख धर्म में अनुशासन की बड़ी महत्ता है। गुरु तख्त के आदेश का पालन व सजा काटना, सिक्ख अपना धर्म समझते हैं। सिक्खों का बड़े से बड़ा आदमी भी तख्त के आदेश का पालन करके गंदे जूते एवं झूठे बर्तन साफ करता है।

सिक्ख धर्म के प्रमुख उपदेश

सिक्ख धर्म के प्रमुख उपदेशसिक्ख धर्म में जिन 10 गुरुओं को मान्यता प्राप्त है, उनके द्वारा दी गई शिक्षाएं एवं उपदेशों में से प्रमुख इस प्रकार है:1. मनुष्य स्वयं कर्म रूपी बीज बोता है तथा स्वयं ही फल खाता है।2. जो दुष्ट कर्म हैं वो पेट के कीड़े बनते हैं। शुभ कर्म शुभ गुणों के रूप में परिवर्तित होते हैं।3. जो परमात्मा को नहीं भजते वे आवागमन (जन्म-मृत्यु) के चक्र में पड़े रहते हैं।4. जो तीर्थ ईश्वर की आज्ञानुसार है, उसमें स्नान करना चाहिए।5. महात्माओं के सत्संग से जन्म -मरण की जंजीर टूटती है। सत्संग और भजन कभी भी नहीं भूलना चाहिए।6. अहंकार से सदा दूर रहना चाहिए।7. अपने को छोटा मानकर चलना चाहिए। किसी को दु:ख नहीं देना चाहिए।8. जैसे मछली जाल में फंसकर पकड़ी जाती है, उसी प्रकार मनुष्य भी लोभ के जाल में फंसता है।9. परमात्मा ही मनुष्यों को शक्ति एवं महत्व प्रदान करता है।10. जब ज्ञान नेत्रों से प्रभु के दर्शन होते हैं। तो जन्म-जन्म के मेल (पाप) कट जाते हैं।11. फिरत-फिरत में हारियों, फिरियो तब शरणाई।नानक की प्रभु विनती, अपनी भक्ति लाई।।अर्थात् हे परमात्मा मैं अनेक जन्मों में फिरता-फिरता हार गया अन्त में थककर तोरी शरण आया हूं। मेरी प्रार्थना है अब तेरी भक्ति छोड़कर कहीं न जाऊं।12. प्रभु प्राप्ति के मार्ग में सुख भोग, रोग के समान है और दु:ख प्रभु कृपा के समान। सुख में प्रभु की याद नहीं आती, दुख में ही भगवान याद आते हैं।13. सत्संग मनुष्य का अहंकार मिटा देता है।14. यदि कोई मनुष्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चाहता है तो गुरुमुखों की सेवा करें।15. यदि कोई मनुष्य जन्म-मरण के चक्कर से मुक्त होना चाहता है तो संतों के चरणों में जाएं।16. हे जीव। सुंदर राम की याद कर तुझे उसने सुंदर बनाकर दिखाया।17. जब तक मन में झूठ, निंदा, लोभ लालच, दूर नहीं होते शांति नहीं मिलेगी।18. गुरुभक्ति और सत्य बोलने से वैकुण्ठ की प्राप्ति होती है।19. जिसने व्यापक प्रभु को पहचान लिया वो ही सतगुरु है।20. सतगुरु सिक्ख की रक्षा करता है, सेवक पर कृपा करता है।21. गुरु दर्शन कल देने वाला है, गुरु चरण छूने से पवित्रता प्राप्त होती है।22. अभिमानी नकर को प्राप्त होता है।23. संत की निंदा करने वाला ऐसे तड़पता है जैसे बिना जल के मछली।24. सत्संग में प्रभु प्यार के अनमोल मोती है।25. कंगाल के लिए प्रभुनाम धन तथा निराश्रित के लिए सहारे के समान है।

सिक्ख मत और हिंदुत्वसिक्ख धर्म और हिंदुत्व, ये दो नहीं, एक ही धर्म है। हिंदुत्व का यह स्वभाव है कि उस पर जब जैसी विपत्ति आती है। तब वह वैसा ही रूप अपने भीतर से प्रकट करता है। इस्लामी हमलों से बचने के लिए अथवा उसका माकूल जवाब देने के लिए ही हिंदूत्व ने इस्लाम के अखाड़े में अपना जो रूप प्रकट किया, वही सिक्ख या खालसा धर्म है। सिक्ख गुरुओं ने हिंदू धर्म की रक्षा और सेवा के लिए अपनी गरदनें कटाई। अपने जीवन का बलिदान दिया तथा उन्होंने अपना जो सैनिक संगठन खड़ा किया, उसका लक्ष्य भी हिंदू धर्म को जीवित एवं जागरूक रखना था। इसी कारण सिक्ख सारे भारत वर्ष में हिंदूओं के प्रिय है।

गुरु नानक की जिंदगी का यह सच नहीं होगा आपको पता
पंजाब की भूमि वीर योद्धाओं के शौर्य गाथाओं और मानवता के लिए सर्वस्व त्याग देने वाले लोगों की कहानियों से भरी है। इसी प्रांत में सिख धर्म का उदय हुआ और यह देश- दुनिया तक फैला। इन कहानियों के स्वर्णभंडार से हम आपके लिए कुछ ऐसी कहानियां लेकर आए हैं जो सिख धर्म गुरुओं से संबंधित है। पेश है गुरु नानक के जीवन की कुछ बातें-
नानक एक असाधारण रूप से विकसित शक्तियों वाले बालक थे। बारह वर्ष की आयु में उनका विवाह बटाला के मूलचंद चोना की बेटी सुलखनी से हो गया। नानक की उम्र उन्नीस साल की थी, जब उनकी पत्नी उनके साथ रहने आ गई। कुछ समय के लिए तो वह उनका ध्यान अपनी तरफ करने में कामयाब हो गई और उसने दो पुत्रों को जन्म दिया, श्रीचंद को वर्ष 1494 में और लखमीदास को तीन साल बाद। उनकी शायद कोई बेटी या बेटियां भी हुईं, जो बचपन में ही मर गईं।

उसके बाद नानक का मन पुन: आध्यात्मिक समस्याओं की ओर मुड़ गया और फिर वे दर-दर भटकते साधुओं का साथ खोजने लगे। उनके पिता ने उन्हें अपने पशुओं की देखभाल करने में लगाने और उनके लिए व्यवसाय-धंधा खोलने की बड़ी कोशिश की, लेकिन कुछ भी काम न आया। उनकी बहन उन्हें अपने घर सुल्तानपुर ले आई और अपने पति के प्रभाव से उनकी नौकरी बतौर खजांची नवाब दौलत खान लोदी के यहां लगवा दी, जो कि दिल्ली के सुल्तान के कोई दूर के रिश्तेदार थे। यद्यपि नानक ने बेमन से ही यह नौकरी करना स्वीकार किया, लेकिन अपना फर्ज उन्होंने बाकायदा भली-भांति निभाया और अपने मालिकों का दिल जीत लिया।

सुल्तानपुर में एक मुस्लिम भांड मरदाना नानक के साथ हो लिया और दोनों मिलकर शहर में सबद गाने का आयोजन करने लगे। जन्मसाखी में सुल्तानपुर में बिताए उनके जीवन का ब्यौरा है, हर रात वे गुरुबानी गाते थे, जो भी आता, वे उसे भोजन कराते, सूर्योदय से सवा घंटे पहले उठ वे नदी में नहाने जाते और दिन निकलने तक दरबार में जाकर अपने काम में जुट जाते।नदी पर सुबह-सुबह ऐसे ही एक स्नान के दौरान, नानक को अपना प्रथम रहस्यवादी अनुभव हुआ। जन्मसाखी में इसे ईश्वर के साथ आध्यात्मिक संवाद कहा गया है। ईश्वर ने उन्हें पीने के लिए अमृत का भरा प्याला दिया और धर्मोपदेश देने का जिम्मा सौंपते हुए कहा नानक, मैं तुम्हारे साथ हूं। तुम्हारे जरिए मेरा नाम बढ़ेगा। जो भी तुम्हारा अनुसरण करेगा, मैं उसकी रक्षा करूंगा। प्रार्थना करने के लिए दुनिया में जाओ और लोगों को प्रार्थना का ढंग सिखाओ। दुनिया के ढंग देखकर घबराना नहीं। अपने जीवन को नाम की स्तुति में, दान, स्नान, सेवा और सिमरन में समर्पित कर दो। नानक, मैं तुम्हें अपना वायदा देता हूं। इसे अपने जीवन का लक्ष्य बन जाने दो।

रहस्यमय वाणी ने फिर कहा नानक, जिसे तुम आशीष दोगे, वह मेरे द्वारा आशीषा जाएगा, जिस पर तुम अनुग्रह करोगे, वह मेरा अनुग्रह प्राप्त करेगा। मैं परमात्मा हूं, परम- सर्जक। तुम गुरु हो, परमात्मा के परम गुरु। कहते हैं नानक को ईश्वर ने अपने हाथों से दिव्य सिरोपा दिया। नानक तीन दिन और तीन रातों तक गुम रहे और यह समझ लिया गया था कि वे नदी में डूब गए। वे चौथे दिन पुन: प्रकट हुए। जन्मसाखी में इस नाटकीय वापसी का वर्णन इस प्रकार है लोग बोले, मित्रों, ये नदी में खो गए थे, कहां से पुन: प्रकट हुए हैं? नानक घर लौटे और जो भी उनके पास था, सब लोगों में बांट दिया। उनके तन पर केवल उनकी लंगोटी बची थी, बाकी कुछ नहीं। उनके गिर्द भीड़ जुटनी शुरू हो गई। खान भी आया और पूछने लगा, नानक, तुमको हुआ क्या है? नानक मूक बने रहे। जवाब लोगों ने दिया, यह नदी में रहा है और इसका दिमाग खराब हो गया है। खान बोला, मित्रो, यह तो बड़ी परेशानी की बात है, और दुखी होकर वापस चला गया।

नानक फकीरों के साथ जा मिले। उनके साथ भाट मरदाना भी गया। एक दिन बीत गया। अगले दिन वे उठे और बोले, कोई हिंदू नहीं है, न ही कोई मुसलमान। इसके बाद तो जब भी बोलते, यही करते, कोई न हिंदू है, न ही कोई मुसलमान है।
यह घटना संभवत: सन् 1499 में घटी, जब नानक अपनी उम्र के तीसवें वर्ष में थे। यह उनके जीवन के प्रथम अध्याय को चिह्न्ति करता है-सच की खोज हो चुकी थी, वे दुनिया को इसकी घोषणा करने के लिए तैयार हो चुके थे।

अन्याय के खिलाफ लडऩा भी धर्म है....

मुगल शासनकाल में लोगों को कई तरह के कष्ट देकर परेशान किया जा रहा था। उस समय धर्म-परिवर्तन के लिए सनातन धर्मियों पर अत्याचार चरम सीमा पर पहुंच गए थे। ऐसे समय में साहस और एकता के प्रतीक गुरुनानक ने लोगों का मनोबल बढ़ाया। उन्होंने अन्याय का डटकर विरोध ही नहीं किया बल्कि आक्रमणकारियों और शासकों की निंदा भी की। इसी विरोध के कारण बाबर ने उन्हें बंदी बनाया लेकिन वे अपने संकल्प पर अडिग रहे। राम नाम का जप करना और लोगों को सही रास्ता दिखाना ही उनके जीवन का उद्देश्य था।
राम सुमिर, राम सुमिर .........
गुरु नानकदेव का उपदेश इसी बात पर केंद्रित है कि मानव जीवन परमात्मा की भक्ति के लिए मिला है। यह संसार, मान-सम्मान और प्रतिष्ठा सब झूठे हैं। मतलब यह कि इन सांसारिक उपलब्धियों से परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती। ये सब चीजें तो मौत छीन लेगी। इसीलिए वे गाते थे-
राम सुमिर, राम सुमिर, एही तरो काज है॥माया कौ संग त्याग, हरिजूकी सरन लाग।

और गुरु अर्जुनदेव का दुश्मन हो गया जहांगीर

मुगलकाल का सबसे अच्छा बादशाह अकबर जिसे भारतीयों ने बहुत सम्मान दिया। अकबर बहुत रहम दिल और धर्म के मार्ग पर चलने वाला बादशाह था परंतु उसी का पुत्र जहांगीर अपने पिता से पूरी तरह विपरित स्वभाव वाला था। इसी वजह से बादशाह अकबर और गुरु अर्जुनदेवजी के बहुत अच्छे संबंध होने के बाद भी जहांगीर गुरुदेव को शत्रु मानता था।
बादशाह अकबर की मृत्यु के बाद उसका उत्तराधिकारी जहांगीर बादशाह की गद्दी पर बैठा। जहांगीर कट्टर पंथी था और अपने धर्म के अतिरिक्त किसी और धर्म को बिल्कुल सम्मान नहीं देता था। इसी के चलते गुरु अर्जुनदेव को अपना शत्रु समझने वाले लोगों ने बादशाह जहांगीर को उनके खिलाफ भड़काने का कार्य शुरू कर दिया। भड़काने वाले लोगों में गुरुजी के बड़े भाई पृृथीचंद भी शामिल थे। जहांगीर अब अर्जुनदेवजी के खिलाफ पूरी तरह भड़क चुका था। जहांगीर की तुजुक जहांगीरी में इस बात की पुष्टि होती है कि गुरुदेव के खिलाफ उसमें कितना क्रोध भरा था। सिक्ख धर्म की तेजी से बढ़ती लोकप्रियता से जहांगीर का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया और उसने गुरुदेव को लाहौर बुलवा लिया।
गुरुदेव समझ गए थे कि अब जहांगीर कुछ भी कर सकता है फिर भी वे लाहौर पहुंच गए। जहांगीर लाहौर से कहीं और निकल गया था परंतु जाते-जाते चंदूशाह को हुक्म दिया कि गुरु अर्जुनदेव को मार दिया जाए। चंदूशाह भी गुरुदेव से बहुत नफरत करता था इसी वजह से उसने गुरुजी को कई यातनाएं दी। इन कष्टों के झेलने पर भी गुरुदेव ने किसी से कोई शिकायत नहीं की और फिर संवत १६६३ में ज्येष्ठ सुदी के दूसरे दिन धर्म और इंसानियत की रक्षा करते-करते देह त्याग दी।

शांत और गंभीर थे गुरु अर्जुनदेवजी

ब्रह्मज्ञानी, परम विद्वान, शहीदों के सरताज गुरु अर्जुनदेवजी का जन्म गोइंदवाल साहिब में 15 अप्रैल 1563 को हुआ। उनके पिता का नाम गुरु रामदास एवं माता का नाम बीवी भानीजी था। गुरु अर्जुनदेवजी का विवाह 1579 ईस्वी में हुआ। उनके पुत्र का नाम हरगोविंदसिंह था।
वैसे तो गुरुदेव का पूरा जीवन ही लोगों की भलाई करने में व्यतीत हुआ परंतु इसके अलावा भी उन्होंने कई ऐसे कार्य किए जो आज भी एक मिसाल है। उन्होंने ग्रंथ साहिब का संकलन किया। ग्रंथ साहिब पढ़कर बादशाह अकबर बहुत प्रसन्न हुआ था।
गुरुदेव शांत स्वभाव और गंभीर व्यक्तित्व वाले थे। मानव कल्याण उनके जीवन का ध्येय था। वे हमेशा प्राणियों की सेवा करना और धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा सभी को दिया करते थे। उनकी वजह से सिक्ख धर्म बहुत लोकप्रिय हुआ जिसे देखकर बादशाह जहांगीर उनसे ईष्र्या करने लगा। जहांगीर की ईष्र्या इतनी बढ़ गई कि उसने गुरुदेव को मारने का षडय़ंत्र रच डाला और गुरुजी को कई यातनाएं दी। गुरुदेव उन यातयाओं को झेलते रहे परंतु किसी से कोई बैर भाव मन में नहीं लाए और देह त्याग दी।
गुरु अर्जुन देव जी द्वारा रचित वाणी ने संतप्त मानवता को शांति का संदेश दिया। सुखमनी साहिब उनकी अमर-वाणी है। सिक्ख धर्म को मानने वाले लोग रोज सुखमनी साहिब का पाठ कर शांति प्राप्त करते हैं। सुखमनी साहिब चौबीस अष्टपदी हैं। सुखमनी साहिब राग गाउडी और सूत्रात्मक शैली की रचना है। इसमें साधना, नाम-सुमिरन तथा उसके प्रभावों, सेवा और त्याग, मानसिक दु:ख-सुख एवं मुक्ति की उन अवस्थाओं का उल्लेख किया गया है। सरल ब्रजभाषा एवं शैली से जुड़ी गुरु अर्जुनदेवजी यह रचना पूजनीय है।

सिक्खों के पांचवें गुरु अर्जुनदेवजी

सिक्ख धर्म के पांचवें गुरु हुए श्री अर्जुनदेवजी। जिन्होंने सिक्ख धर्म को एक नए शिखर तक पहुंचाया। सिक्ख धर्म की आस्था, श्रद्धा और भक्ति का केंद्र पवित्र श्रीगुरु ग्रंथ साहिब का संकलन किया, स्वर्ण मंदिर की नींव रखी और सभी सिक्खों से अपनी कमाई का दसवां हिस्सा निकाल कर धर्म के नाम लगाने की बात कही।
इन्हीं कार्यों की वजह से सिक्ख धर्म के इतिहास में गुरु अर्जुन देवजी का स्थान सबसे अलग और सबसे खास है। सिक्खों के प्रति समर्पण की वजह से ही इन्हें पांचवें नानक के रूप में देखा जाता है।


कौन हैं सिक्ख धर्म के पंच प्यारे...?
मुगल शासनकाल में जब बादशाह औरंगजेब का आतंक बढ़ता ही जा रहा था। उस समय गुरु गोविंद सिंह ने बैसाखी पर्व पर आनंदपुर साहिब के विशाल मैदान में सिक्ख समुदाय को आमंत्रित किया। मैदान में बड़ा सा पंडाल लगाया गया। जहां गुरुजी के लिए एक तख्त बिछाया गया और तख्त के पीछे एक तम्बू लगाया गया। जब मैदान में बड़ी संख्या में सिक्ख समाज एकत्रित हो गया तब गुरु गोविंदसिंह के दायें हाथ में नंगी तलवार चमक रही थी।
गोविंदसिंह नंगी तलवार लिए मंच पर पहुंचे और उन्होंने ऐलान किया- मुझे एक आदमी का सिर चाहिए। क्या आप में से कोई अपना सिर दे सकता है?
यह सुनते ही वहां मौजूद सभी सिक्ख हतप्रभ रह गए। परंतु उस भीड़ से लाहौर निवासी दयाराम खड़ा हुआ और बोला- आप मेरा सिर ले सकते हैं। गुरुदेव उसे पास ही बनाए गए तम्बू में ले गए। कुछ देर बाद तम्बू से खून की धारा निकलती दिखाई दी। तंबू से निकलते खून को देखकर पंडाल में सन्नाटा छा गया।
गुरु गोविंदसिंह तंबू से बाहर आए, नंगी तलवार से ताजा खून टपक रहा था। उन्होंने फिर ऐलान किया- मुझे एक और सिर चाहिए। मेरी तलवार अभी प्यासी है।
इस बार सहारनपुर के जटवाडा गांव का युवक धर्मदास खड़ा हुआ। गुरुदेव उसे भी तम्बू में ले गए। फिर थोड़ी देर खून की धारा बाहर निकलने लगी। बाहर आकर गोविंदसिंह ने अपनी तलवार की प्यास बुझाने के लिए एक और व्यक्ति के सिर की मांग की। इस बार जगन्नाथ पुरी के हिम्मत राय खड़े हो गए। गुरुजी उन्हें भी तम्बू में ले गए और फिर से तंबू से खून धारा बाहर आने लगी। गुरुदेव फिर बाहर आए और एक और सिर की मांग की तब द्वारका निवासी मोहकम चंद सामने आ गए। इसी तरह पांचवी बार फिर गुरुदेव द्वारा सिर मांगने पर बीदर निवासी साहिब चंद सिर देने के लिए आगे आये। मैदान में इतने सिक्खों के होने के बाद भी वहां सन्नाटा पसर गया, सभी एक-दूसरे का मुंह देख रहे थे। किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था। तभी तंबू से गुरु गोविंदसिंह केसरिया बाना पहने पांच सिक्ख नौजवानों के साथ बाहर आए। पांचों नौजवान वहीं थे जिनके सिर काटने के लिए गोविंदसिंह तंबू में ले गए थे। गुरुदेव और पांचों नौजवान मंच पर आए, गुरुदेव तख्त पर बैठ गए। पांचों नौजवानों ने कहां गुरुदेव हमारे सिर काटने के लिए हमें तंबू में नहीं ले गए थे बल्कि वह हमारी परीक्षा थी। तब गुरुदेव ने वहां उपस्थित सिक्खों से कहा आज से ये पांचों मेरे पंच प्यारे हैं। इनकी निष्ठा और समर्पण से खालसा पंथ का जन्म हुआ है।

मानवता के पक्षधर थे गुरु गोविंद सिंह
गुरु गोविंद सिंह सिक्खों के दसवें व अंतिम गुरु थे। गुरु गोविंद सिंह जी का मूल नाम गोविंद राय था। गुरु गोविंद सिंह के जन्म के समय देश पर मुग़लों का शासन था। इसी दौरान गुरु तेगबहादुर की धर्मपत्नी गुजरी देवी ने एक सुंदर बालक को जन्म दिया, जो गुरु गोविंद सिंह के नाम से विख्यात हुआ। पूरे नगर में बालक के जन्म पर उत्सव मनाया गया। बचपन में सभी लोग गोविंद जी को बाला प्रीतम कहकर बुलाते थे। उनके मामा उन्हें भगवान की कृपा मानकर गोविंद कहते थे। बार-बार गोविंद कहने से बाला प्रीतम का नाम गोविंद राय पड़ गया।
गुरु गोविंद सिंह को सैन्य जीवन के प्रति लगाव अपने दादा गुरु हरगोविंद सिंह से मिला था और उन्हें बौद्धिक संपदा भी उत्तराधिकार में मिली थी। वह अनेक भाषाओं जैसे फारसी, अरबी, संस्कृत और अपनी मातृभाषा पंजाबी का ज्ञान था। उन्होंने सिक्ख क़ानून को मजबूत किया, काव्य रचना की और सिक्ख ग्रंथ दसम ग्रंथ (दसवां खंड) लिखा। उन्होंने देश, धर्म और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सिक्खों को संगठित कर सैनिक परिवेश में ढाला। खिलौनों से खेलने की उम्र में गुरु गोविंद सिंह कटार और धनुष-बाण से खेलना पसंद करते थे।

9 वर्ष की उम्र में गुरु बने गोविंद सिंह
जब औरंगजेब ने गुरु तेगबहादुर का कत्ल करवा दिया तो उनकी शहादत के बाद उनकी गद्दी पर गुरु गोविंद सिंह को बैठाया गया। उस समय उनकी उम्र मात्र 9 वर्ष थी। गुरु की गरिमा बनाये रखने के लिए उन्होंने अपना ज्ञान बढ़ाया और संस्कृत, फारसी, पंजाबी और अरबी भाषाएँ सीखीं। गुरु गोविंद सिंह ने धनुष- बाण, तलवार, भाला आदि चलाने की कला भी सीखी। उन्होंने सिक्खों को अपने धर्म, जन्मभूमि और स्वयं अपनी रक्षा करने के लिए संकल्पबद्ध किया और उन्हें मानवता का पाठ पढ़ाया।
पंच प्यारे भी गुरु गोविंद सिंह की ही देन है। केशगढ़साहिब में आयोजित सभा में गुरु गोविंद सिंह ने ही पहली बार पंच प्यारों को अमृत छकाया था।इस घटना को देश के इतिहास में बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है, क्योंकि उस समय देश में धर्म, जाति जैसी चीजों का बहुत ज्यादा बोलबाला था। इस सभा में मौजूद सभी लोगों ने न सिर्फ सिख धर्म को अपनाया, बल्कि सभी ने अपने नाम के आगे सिंह भी लगाया। गुरु गोविंद सिंह भी पहले गोविंद राय थे। इस सभा के बाद ही वे गुरु गोविंद सिंह कहलाए। तभी से यह दिन खालसा पंथ की स्थापना के उपलक्ष्य में बैसाखी के तौर पर मनाया जाता है।

गुरु गोविंद सिंह की देन है पंच प्यारे
गुरु तेग बहादुर सिंह जी की हत्या के बाद उनके बेटे गुरु गोविंद सिंह दसवें गुरु कहलाए। इन्होंने लोगों में बलिदान देने और संघर्ष की भावना बढ़ाने के लिए 3 मार्च, 1699 को वैशाख के दिन केशगढ़ साहिब के पास आनंदपुर में एक सभा बुलाई। इस सभा में हजारों लोग इकट्ठा हुए। गुरु गोविंद सिंह ने यहां पर लोगों के मन में साहस पैदा करने के लिए लोगों से जोश और हिम्मत की बातें कीं। उन्होंने लोगों से कहा कि जो लोग इस कार्य के लिए अपना जीवन बलिदान करने के लिए तैयार हैं, वे ही आगे आएं।
इस सभा में गुरु गोविंद जी अपने हाथ में एक तलवार लेकर आए थे। उनके बार-बार आह्वान करने पर भीड़ में से एक जवान लड़का बाहर आया। गुरु जी उसे अपने साथ तंबू के अंदर ले गए और खून से सनी तलवार लेकर बाहर आए। उन्होंने लोगों से कहा कि जो बलिदान के लिए तैयार है, वह आगे आए। एक लड़का फिर आगे बढ़ा। गुरु उसे भी अंदर ले गए और खून से सनी तलवार के साथ बाहर आए। उन्होंने ऐसा पांच बार किया।
आखिर में वे उन पांचों को लेकर बाहर आए। उन्होंने सफेद पगड़ी और केसरिया रंग के कपड़े पहने हुए थे। यही पांच युवक उस दिन से पंच प्यारे कहलाए। इन पंच प्यारों को गुरु जी ने अमृत (अमृत यानि पवित्र जल जो सिख धर्म धारण करने के लिए लिया जाता है) चखाया। इसके बाद इसे बाकी सभी लोगों को भी पिलाया गया। इस सभा में मौजूद हर धर्म के अनुयायी ने अमृत चखा और खालसा पंथ का सदस्य बन गया।

सिख धर्म का चमत्कारिक सबद

इस भागदोड़ भरी जिंदगी में इंसान एक धर्म को ही ठीक प्रकार से नहीं जान पाता है। जबकि हर धर्म में ऐसी कई बातें हैं जो हमारे लिये बडी़ मददगार शाबित हो सकती हैं। कोई पूजा-अनुष्ठान, मंत्र-तंत्र या टोने-टोटके ऐसे होते हैं जो कठिन से कठिन समस्या को आश्चर्यजनक रूप से बहुत सीघ्र ही दूर कर देते हैं। सिक्ख धर्म में सबद के रूप में कुछ ऐसे मंत्र हैं जिनका नियम पूर्वक जप करने से वर्षों पुरानी बीमारी भी हमैशा के लिये दूर हो जाती है। किसी भी प्रकार के रोग को दूर करने के लिए निम्नलिखित सबद का 41 दिन तक नित्य 108 बार जप करना चाहिए:-

सेवी सतिगुरु आपणा हरि सिमरी दिन सभी रैणि।
आपु तिआगि सरणि पवां मुखि बोली मिठड़े वैण।
जनम जनम का विछुडि़आ हरि मेलहु सजणु सैण।
जो जीअ हरि ते विछुड़े से सुखि न वसनि भैण।
हरि पिर बिनु चैन न पाईए खोजि डिठे सभि गैण।
आप कामणै विछुडी दोसु न काहू देण।
करि किरपा प्रभ राखि लेहु होरू नाही करण करेण।
हरि तुध विणु खाकू रूलणा कहीए किथै वैण।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,

और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....MMK

Jainism( जैन धर्म)

ऐसे जन्मा जैन धर्म

जैन शब्द का अर्थजैन शब्द 'जिन' से बना है। जिसका अर्थ है वह पुरुष जिसने समस्त मानवीय वासनाओं (भोग प्रवृत्तियों) पर विजय प्राप्त कर ली है। अर्थात् जिसने अपने मन को जीत लिया हो तथा सांसारिक इच्छाओं पर नियंत्रण कर लिया हो। तीर्थंकर इन्हीं गुणों से पूर्ण थे, अत: इनके द्वारा चलाया गया धर्म जैन धर्म कहलाया।

जैन धर्म का प्रारंभ एवं इतिहासजैन धर्म के अनुयायियों (मानने वाले) की मान्यता है कि उनका धर्म अनादि (अनंत समय पहले का) और सनातन है। सामान्यत: लोगों में यह मान्यता है कि जैन पंथ का मूल उन प्राचीन पंरपराओं में रहा होगा, जो आर्यों के आगमन से पूर्व इस देश में प्रचलित थीं। किंतु यदि आर्यों के आगमन के बाद से भी देखें तो ऋषभदेव और अरिष्टनेमि को लेकर जैन धर्म की परंपरा वेदों तक पहुंचती है। महाभारत के युद्ध के समय, इस संप्रदाय के प्रमुख नेमिनाथ थे, जो जैन धर्म में एक तीर्थंकर हैं। ई.पू. आठवीं सदी में 23वें तीर्थंकर पाश्र्वनाथ हुए, जिनका जन्म काशी में हुआ था। काशी के पास ही 11वें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ का जन्म हुआ था। इन्हीं के नाम पर सारनाथ का नाम प्रचलित है। जैन धर्म में श्रमण- संप्रदाय का पहला संगठन पाश्र्वनाथ ने किया था। ये श्रमण वैदिक परंपरा के विरुद्ध थे। महावीर तथा बुद्ध के काल में ये श्रमण कुछ बौद्ध तथा कुछ जैन हो गए। इन दोनों ने अलग-अलग अपनी शाखाएं बना ली। भगवान महावीरजैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर वर्धमान हुए, जिनका जन्म ई.पू. 599 में हुआ था। 72 वर्ष की आयु में देहत्याग किया। महावीर स्वामी ने शरीर छोडऩे से पूर्व जैन धर्म की नींव काफी मजबूत कर दी थी। अहिंसा को उन्होंने जैन धर्म में अच्छी तरह स्थापित कर दिया था। सांसारिकता पर विजयी होने के कारण वे जिन (जयी) कहलाये। उन्हीं के समय से इस संप्रदाय का नाम जैन हो गया। अशोक के अभिलेखों से यह पता चलता है कि उसके समय में मगध में जैन धर्म का प्रचार था। लगभग इसी समय, मठों में बसने वाले जैन मुनियों में यह मतभेद शुरू हुआ कि तीर्थंकरों की मूर्तियां कपड़े पहनाकर रखी जाए या नग्न अवस्था में। इस बात पर भी मतभेद था कि जैन मुनियों को वस्त्र पहनना चाहिए या नहीं। आगे चलकर यह मतभेद और भी बढ़ गया। ईसा की पहली सदी में आकर जैन-मतावलंबी (जैन धर्म को मानने वाले) मुनि दो दलों में बंट गए। एक दल श्वेतांबर कहलाया जिसके साधू सफेद वस्त्र (कपड़े) पहनते थे, और दूसरा दल दिगंबर कहलाया जिसके साधु नग्न (बिना कपड़े के) ही रहते थे।जैन धर्म का प्रचार-प्रसारईसा की पहली शताब्दीं में क लिंग के राजा खारावेल ने जैन धर्म स्वीकार किया। ईसा की आरंभिक सदियों में उत्तर में मथुरा और दक्षिण में मैसूर जैन धर्म के बहुत बड़े केंद्र थे। पांचवीं से बारहवीं शताब्दीं तक दक्षिण के गंग, कदम्बु, चालुक्य और राष्ट्रकूट राजवंशों ने जैन धर्म के प्रचार -प्रसार में बहुत सहयोग एवं सहायता प्रदान की। इन राजाओं के यहां अनेक जैन कवियों को आश्रय एवं सहायता प्राप्त होती थी। ग्याहरवीं सदी के आसपास चालुक्य वंश के राजा सिद्धराज और उनके पुत्र कुमारपाल ने जैन धर्म को राजधर्म बना दिया तथा गुजरात में उसका व्यापक प्रचार-प्रसार किया। हिंदी के प्रचलन से पूर्व अपभ्रंश भाषा का प्रयोग होता था। अपभ्रंश भाषा के कवि, लेखक एवं विद्वान हेमचंद्र इसी समय के थे। हेमचंद्र कुमार पाल के दरबार में ही थे। सामान्यत: जैन मतावलंबी शांतिप्रिय स्वभाव के होते थे। इसी कारण मुगल शासन काल में इन पर अधिक अत्याचार नहीं होते थे। उस समय के साहित्य एवं अन्य विवरणों से प्राप्त जानकारियों के अनुसार अकबर ने जैन अनुयाइयों की थोड़ी बहुत मदद भी की थी। मगर धीरे-धीरे जैनियों के मठ टूटने एवं बिखरने लगे। जैन धर्म मूलत: भारतीय धर्म है। भारत के अतिरिक्त पूर्वी अफ्रीका में भी जैन धर्म के अनुयायी रहते हैं।


यह सिखाता है जैन धर्म

जैन धर्म का सारमनुष्य को सदैव सत्कर्म करना चाहिए। जीवन का हर क्षण आत्मज्ञान (कैवल्य) की प्राप्ति में लगाना चाहिए। सत्य, प्रेम, अहिंसा, दया, करुणा, परोपकार, एवं सेवा जैसे उच्च सात्विक गुणों को अवश्य ही जीवन में अपनाना चाहिए। भोग-विलास से दूर रहकर प्रत्येक कर्म पवित्र एवं सात्विक ही करना चाहिए। नैतिक जीवन अपनाकर ही मनुष्य इस माया (जन्म-मरण का चक्र) के बंधन से मुक्त हो सकता है।जैन धर्म की प्रमुख मान्यताएं एवं सिद्धांतजैन धर्म के धार्मिक उपदेश मूलत: नैतिक मूल्यों पर आधारित है। इन उपदेशों में अधिकतर पाश्र्वनाथ और महावीर की शिक्षाएं हैं। पाश्र्वनाथजी के अनुसार चार महाव्रत है- 1. अङ्क्षहसा, 2. सत्य, 3. अस्तेय और 4. अपरिग्रह। चौबीसवें तीर्थंकर वर्धमान महावीर इन महाव्रतों में ब्रह्मचर्य को भी जोड़ा। इस प्रकार जैन धर्म के पांच महाव्रत हो गए हैं। जैन धर्म में भिक्षुओं के लिए इन पांच महाव्रतों का पालन करना अत्यंत आवश्यक है। अहिंसावास्तव में जैन धर्म का मूल आधार अहिंसा ही है। मन वचन और कर्म से किसी को दु:ख या कष्ट न पहुंचाना ही अहिंसा है। जीवधारियों को इंद्रियों की संख्या के आधार पर वर्गीकृत किया गया है। जिनकी इंद्रियां जितनी कम विकसित हैं, उनको शरीर त्याग में उतना ही कम कष्ट होता है। इसलिए एक इंद्रिय जीवों जैसे: वनस्पति, कंद, फूल-फल आदि को ही जैनधर्मी ग्रहण करते हैं। जैन धर्म में आचार-विचार का बड़ा ध्यान रखा जाता है।छोटे से छोटे व्यवहार के लिए भी धार्मिक एवं नैतिक नियमों का विधान किया गया है।जैन धर्म की मान्यताएंजैन धर्म की मान्यताओं के अनुसार विश्व सदैव से है, सदैव रहा है और सदैव बना रहेगा। जैन धर्म के अनुसार यह विश्व दो अंतिम, सनातन और स्वतंत्र पदार्थों में विभक्त है, वे हैं- 1. जीव और 2. अजीव। इन पदार्थों में एक जड़ है और दूसरा चेतन। जैन धर्म में अजीव के पांच प्रकार बताए गए हैं।1. पुद्गल (प्रकृति)2. धर्म (गति)3. अधर्म (अगति अथवा लय)4. आकाश (देश)5. काल (समय)जैन धर्म की मान्यताओं के अनुसार संपूर्ण जीवधारी आत्मा तथा प्रकृति के सूक्ष्म मिश्रण से बने हंै। उनमें संबंध जोडऩे वाली कड़ी कर्म है। कर्म सिद्धांतकर्म के आठ प्रकार और अगणित उप प्रकार हंै। कर्म के फल से जुड़े होने के कारण ही आत्मा को अनेक शरीर धारण करने पड़ते हैं, और इसी कारण आत्मा जन्म-मरण के बंधन में फंस जाता है। जैन धर्म में पाश्र्वनाथ के उपदेश को चातुर्याम सम्वर-संवाद कहते थे। ये चातुर्याम संवाद थे। 1. हिंसा का त्याग 2. असत्य का त्याग 3. स्तेय का त्याग 4. परिग्रह का त्याग। महत्वपूर्ण बात यह है कि पाश्र्वनाथ के पूर्व, अहिंसा केवल तपस्वियों के आचरण में सम्मिलित थी, किंतु पाश्र्वनाथ मुनि ने अहिंसा को सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह के साथ जोड़कर सभी के लिए व्यवहारिक बना दिया।

जैन धर्म का दर्शन एवं स्वरूप

जैन धर्म और दर्शन का उद्देश्य है आत्मा को प्रकृति के मिश्रण से मुक्त कर उसको कै वल्य (पूर्णत: मुक्त एवं पवित्र) की स्थिति में पहुंचाना। इस कैवल्य की अवस्था में कर्म के बंधन टूट जाते हैं और आत्मा अपने को प्रकृति के बंधनों से मुक्त करने में समर्थ हो जाता है। इसी अवस्था को मोक्ष भी कहा जाता है। मोक्ष की इस अवस्था में समस्त दु:ख, भय, अभाव एवं कष्ट समाप्त हो जाते हैं और आत्मा स्थायी और अटूट परमानंद की अवस्था में पहुंच जाता है। मोक्ष के संबंध में जैन धर्म की यह मान्यता वैदिक मान्यता से भिन्न है। वेदांत के अनुसार मोक्ष की अवस्था में आत्मा का ब्रह्म के साथ पूर्णत: मिलन हो जाता है और आत्मा का पृथक कोई अस्तित्व नहीं बचता।जबकि जैन धर्म एवं दर्शन के अनुसार कै वल्य या मोक्ष की अवस्था में भी आत्मा का अपना निजी अस्तित्व एवं स्वरूप बना रहता है। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा स्वभावत: निर्मल और प्रज्ञ है। प्रकृति के संपर्क के कारण ही आत्मा अज्ञानता, माया और कर्म के बंधन में पड़ जाता है। कैवल्य ज्ञानकैवल्य की प्राप्ति के लिए 'केवल ज्ञानÓ प्राप्त करना आवश्यक है। इसके उपाय हंै- 1. सम्यक् दर्शन (तीर्थंकरों में पूर्ण श्रद्धा), 2. सम्यक् चारित्र्य (पूर्ण नैतिक आचरण और सम्यक् ज्ञान(शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान): जैन धर्म बिना किसी बाहरी सहायता के स्वयं अपने पुरुषार्थ द्वारा ही आत्म कल्याण प्राप्त करने का मार्ग बतलाता है। जैन धर्म एवं दर्शन ने भारतीय धर्म एवं दर्शन को भी कई प्रकार से प्रभावित किया। आचार-शास्त्र में नैतिक आचरण, विशेषकर अहिंसा को इससे नया बल मिला। जैन-दर्शन 'आस्रव के सिद्धांत में विश्वास करता है, जिसका अर्थ यह है कि कर्म के संस्कार, क्षण-क्षण प्रवाहित हो रहा है। कर्म के इन संस्कारों का प्रभाव जीव पर क्षण-क्षण पड़ता जा रहा है। संस्कारों के इस प्रभाव से बचने का यही उपाय है कि मनुष्य चित्त-तृत्तियों का निरोध (रोकथाम) करें, मन को विवेक के द्वारा काबू में लाए। योन की समाधि का अवलंबन और तपश्चर्या में लीन रहना भी जैन दर्शन की मान्यता है।आत्म ज्ञान प्राप्ति का मार्गकैवल्य प्राप्ति की साधना के लिए जैन धर्म एवं दर्शन में, सात सोपानों (सीढिय़ों) का उल्लेख किया गया है। ये सात सोपान ही जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष नामक सात तत्व है। जीव आत्मा है। अजीव वह ठोस द्रव्य (शरीर) है, जिसमें आत्मा निवास करती है। जीवन और अजीव का मिलन ही संसार है। अतएव मोक्ष साधना का मार्ग यह है कि जीव (आत्मा) को अजीव (पदार्थ) से पृथक कर दिया जाए। आत्मा और परमात्मा के बीच की माया की दीवार को गिराकर की कै वल्य या मोक्ष की स्थिति प्राप्त की जा सकती है। किंतु जीव-अजीव से बंधा कैसे है? इसका उत्तर 'आस्रव है। विभिन्न कर्मों के करने से जो संस्कार प्रकट होते हैं, उसी के कारण जीव अजीव से बंध जाता है। अतएव इस बंधन को नष्ट करने का उपाय यह है कि जीव कर्मों से क्षरित (उत्पन्न) होने वाले संस्कारों से अलिप्त (पृथक) रहने का प्रयत्न करें। यह प्रक्रिया 'संवर कहलाती है। पर इनता प्रयास ही पर्याप्त नहीं है। आत्मा को तो पूर्व जन्मों के संस्कार भी घेरे रहते हैं, एवं प्रभावित करते हैं। इन पूर्व जन्मों के संस्कारों से मुक्त हाने या छूटने की साधना का नाम 'निर्जरा' है। जीवन रूपी नोका में छेद है। जिनसे उसमें पानी भरता जा रहा है। छेदों को बंद करना ही 'संवर' साधना है और जीवन रूपी नाव में पहले से ही जो पानी (पूर्व जन्मों के संस्कार) भरा हुआ है, उसे उलीचने का नाम निर्जरा है। संवर और निर्जरा के द्वारा जिसने अपने को 'आस्रवो' (संस्कारों) से मुक्त कर लिया वही मोक्ष का अधिकारी है।मोक्ष की साधनाजैन दर्शनों में मोक्ष (कैवल्य) की साधना केवल सन्यासी ही कर सकते हैं। इन सन्यासियों को जैन धर्म में पांच कोटियों (श्रेणियों) में बांटा गया है। जिनका समन्वित नाम पंच परमेष्ठी है। ये पंच परमेष्ठी हैं: अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु। साधुओं को उपदेश देने वाले उपाध्याय और आचार्य कहलाते हैं। सिद्ध वह है जिसने शरीर छोड़कर मोक्ष प्राप्त कर लिया है और अर्हत् तीर्थंकरों को कहते हंै। अर्हत् तो चौबीस ही हुए हैं, किंतु सिद्ध कोई भी जीव हो सकता है, जिसकी सांसारिक विषय वासनाएं, भोग-विलास की लिप्साएं छूट गई हैं। जो सुख-दुख से ऊपर उठ गया, जिसकी इंद्रियां वशीभूत है वह सिद्ध है। सिद्ध की कोटि परमात्मा की कोटि है। वैदिक दर्शन एवं जैन दर्शन में यह भेद है कि वैदिक धर्म में परमात्मा का मात्र एक ही माना गया है, जबकि जैन धर्म के अनुसार जो भी व्यक्ति सिद्ध हो गया, वह स्वयं परमात्मा है।

जैन धर्म की प्रमुख शाखाएं


जैन धर्म की प्रमुख शाखाएंजैन धर्म की दो प्रमुख शाखाएं हैं। पहली शाखा है दिगंबर और दूसरी शाखा श्वेतांबर कहलाती है। दिगंबर:'दिगंबर' का अर्थ है दिक् (दिशा) है अंबर (वस्त्र) जिसका अर्थ है नग्न। अपरिग्रह और त्याग का यह चरम उदाहरण है। दिगंबर स्वरूप के पीछे का दर्शन संपूर्ण त्याग है। संपूर्ण त्याग अर्थात् किसी भी प्रकार का संग्रह, यहां तक कि शरीर के वस्त्रों का भी त्याग। जैनियों की दिगंबर शाखा की मान्यता है कि स्त्रियों को मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता क्योंकि वे वस्त्र का पूर्णत: त्याग नहीं कर सकती। दिगंबरों के तीर्थंकरों की मूर्तियां पूर्णत: नग्न होती है। दिगंबर शाखा के अनुयायी श्वेतांबरों द्वारा मानित अंग साहित्य को भी प्रमाणिक नहीं मानते। श्वेतांबरश्वेतांबर का अर्थ है 'श्वेत (वस्त्र) है आवरण जिसकाÓ। श्वेतांबर शाखा के अनुयायी वस्त्रों के पूर्ण त्याग अर्थात् नग्नता को अधिक महत्वपूर्ण नहीं मानते। श्वेतांबरों द्वारा स्थापित मूर्तियां नग्न नहीं होती बल्कि वे कच्छ धारण करती है। जैन धर्म में एक तीसरी उपशाखा सुधारवादी स्थानकवासियों की है, जो मूर्ति पूजा की विरोधी है। यह शाखा आदिम सरल स्वच्छ व्यवहार तथा सादगी की समर्थक है। इन्हीं की एक शाखा तेरह पंथियों की है जो इनसे उग्र सुधारक है।

जैन धर्म में तीर्थंकर


जैन धर्म में उन 'जिनों' एवं महात्माओं को तीर्थंकर कहा गया है, जिन्होंने असंख्य जीवों को इस संसार से तार (उद्धार करना) दिया है। तीर्थ कहते हैं घाट को, किनारे को। धर्म तीर्थ को प्रवर्तन करने वाले 'तीर्थंकर' कहे जाते हैं। जो इस प्रकार है:

1. श्री ऋषभ देव
2. श्री अजितनाथ
3. श्री संभवनाथ
4. श्री अभिनंदन
5. श्री सुमतिनाथ
6. श्री पदमप्रभु
7. श्री सुपाश्र्वनाथ
8. श्री चंद्रप्रभ
9. श्री पुष्पदंत
10. श्री शीतलनाथ
11. श्री श्रेयांसनाथ
12. श्री वासुपूज्य
13. श्री विमलनाथ
14. श्री अनंतनाथ
15. श्री धर्मनाथ
16. श्री शांतिनाथ
17. श्री कुन्थुनाथ
18. श्री अरहनाथ
19. श्री मल्लीनाथ
20. श्री मुनि सुव्रत
21. श्री निमिनाथ
22. श्री अरिष्टनेमि
23. श्री पाश्र्वनाथ
24. श्री महावीर स्वामी

हमारे कर्मों का फल: सुख-दुख


मानवता की रक्षा के लिए भारतीय इतिहास में कई बार दिव्य शक्तियों का अवतरण हुआ है। समाज में जब-जब अधर्म, पाप, अनाचार, बुराइयां, कुरुतियों ने पैर पसारे हैं तब-तब इन दिव्य शक्तियों ने मानवता को इनसे बचाया है। करीब 600 ईसा पूर्व ऐसे ही एक समय आया जब चारो ओर पाप, अधर्म और बुराइयां व्याप्त हो गई। लोगों के मन से दया, करुणा की भावनाएं क्षीण होने लगी तभी जन्म हुआ भगवान महावीर का।

महावीर स्वामी का संक्षिप्त परिचय
त्याग एवं तपस्या की मूर्ति महावीर का जन्म चैत्र मास में शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को वैशाली नगर (बिहार) के एक राज परिवार में हुआ। इनके पिता सिद्धार्थ एवं माता त्रिशाला थी। बालक का नाम रखा गया वद्र्धमान। ऐसा कहा जाता हैं कि जब वर्धमान के जन्म के समय उनकी माता त्रिशाला को 14 अद्भूत स्वप्न आए, जिससे माता को आभास हो गया था कि यह संतान कोई दिव्य शक्ति है।
वद्र्धमान का प्रारंभिक जीवन पूर्णतया राजसी था। फिर भी उनकी रूचि इन सुख-सुविधाओं में नहीं थी। उनका मन तो जीवन-मृत्यु क्यों, सुख-दुख क्यों जैसे रहस्यों की खोज में लगा रहता था। इसी अरूचि और जीवन के रहस्यों को खोजने के लिए वे 30 वर्ष की आयु में वन को प्रस्थान कर गए। वन में उन्होंने 12 वर्षों तक कठोर तपस्या की। तब उन्हें केवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई और इसके बाद ही वद्र्धमान भगवान महावीर कहलाए। भगवान महावीर सत्य, अङ्क्षहसा, अपरिहर्य, क्षमा, दया, करुणा, ब्रह्मचर्य जैसे गुणों की साक्षात मूर्ति ही थे। महावीर स्वामी को जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर माना गया है। उन्होंने हिंसा, पशुबलि पर रोक लगवाई, जाति-पांति के भेदभाव को दूर किया। पावापुरी में कार्तिक मास की कृष्ण अमावस्या पर भगवान महावीर ने 72 वर्ष की आयु निर्वाण प्राप्त किया।

महावीर स्वामी के लाइफ मैनेजमेंट के सूत्र:

मानव जीवन को सरल और महान बनाने के लिए महावीर स्वामी ने कई अमूल्य शिक्षाएं दी हैं। जिनमें सत्य को अपनाना, अहिंसा, अपरिहर्य, क्षमा, दया, करुणा, ब्रह्मचर्य, अधर्म को त्यागना शामिल है। उन्होंने त्याग, संयम, प्रेम, करुणा, शील, सदाचार का पवित्र संदेश फैलाया। भगवान महावीर ने चतुर्विध संघ की स्थापना की। महावीर स्वामी की शिक्षाएं:

सत्य: सत्य ही सच्चा तत्व है। वह बुद्धिमान प्राणी है जो सत्य को अपनाता है। सत्य का साथ देने से ही मनुष्य मृत्यु को तैरकर पार कर जाता है।

अहिंसा: संसार में जो भी जीव निवास करते हैं उनकी हिंसा नहीं और ऐसा होने से रोकना ही अहिंसा है। सभी प्राणियों पर दया का भाव रखना और उनकी रक्षा करना।

अपरिग्रह: जो मनुष्य सांसारिक भौतिक वस्तुओं का संग्रह करता है और दूसरों को भी संग्रह की प्रेरणा देता है वह सदैव दुखों में फंसा रहता है। उसे कभी दुखों से छुटकारा नहीं मिल सकता।

ब्रह्मचर्य: ब्रह्मचर्य ही तपस्या का सर्वोत्तम मार्ग है। जो मनुष्य ब्रह्मचर्य का पालन कठोरता से करते हैं, स्त्रियों के वश में नहीं हैं उन्हें मोक्ष अवश्य प्राप्त होता है। ब्रह्मचर्य ही नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र,
संयम और विनय की जड़ है।

क्षमा: क्षमा के संबंध में महावीर कहते हैं 'संसार के सभी प्राणियों से मेरी मैत्री है वैर किसी से नहीं है। मैं हृदय से धर्म का आचरण करता हूं। मैं सभी प्राणियों से जाने-अनजाने में किए अपराधों के लिए क्षमा मांगता हूं और उसी तरह सभी जीवों से मेरे प्रति जो अपराध हो गए हैं उनके लिए मैं उन्हें क्षमा प्रदान करता हूं।

अस्तेय: जो पराई वस्तुओं पर बुरी नजर रखता हैं वह कभी सुख प्राप्त नहीं कर सकता। अत: दूसरों की वस्तुओं पर नजर नहीं रखनी चाहिए।

दया: जिसके हृदय में दया नहीं उसे मनुष्य का जीवन व्यर्थ हैं। हमें सभी प्राणियों के दयाभाव रखना चाहिए। आप अहिंसा का पालन करना चाहते हैं तो आपके मन में दया होनी चाहिए।

छुआछूत: सभी मनुष्य एक समान है। कोई बड़ा-छोटा और छूत-अछूत नहीं हैं। सभी के अंदर एक ही परमात्मा निवास करता है। सभी आत्मा एक सी ही है।

हिताहार और मिताहार: खाना स्वाद के लिए नहीं, अपितु स्वास्थ्य के लिए होना चाहिए। खाना उतना ही खाए जितना जीवित रहने के लिए पर्याप्त हो। खान-पान में अनियमितता हमारे स्वास्थ्य के खिलवाड़ है जिससे हम रोगी हो सकते हैं।
कर्म की महिमा और सुख-दुख
पुरानी सर्वविदित कहावत है जैसी करनी, वैसी भरनी। वही बात भगवान महावीर ने कही है। कोई बहुत कम मेहनत पर भी अत्यधिक सफलता प्राप्त करता है तो कोई काफी मेहनत करने के बाद भी असफलता ही पाता है। भारतीय संस्कृति में यह सभी पूर्व में किए गए कर्मों पर ही आधारित हैं। भगवान महावीर ने मनुष्य के जीवन में सुख-दुख क्यों? इस रहस्य की खोज की और तप के बल पर उन्हें यह ज्ञान हुआ कि हम खुद ही सुख और दुख का कारण है। अन्य कोई हमें सुखी या दुखी कर ही नहीं सकता। फिर भी कोई हमारा बुरा कर रहा है, वे उस व्यक्ति के बुरे कर्म हैं। परंतु उसकी सफलता हमारे बुरे कर्मों का फल ही है।

कौन हैं भगवान ऋषभदेव ?
जैन धर्म का जन्म भारत में और विस्तार पूरी दुनिया में हुआ। वृषभनाथ को ही जैन ऋ षभदेव कहते हैं। इन्हीं से जैन धर्म या श्रमण परम्परा का प्रारम्भ माना जाता है। यह जैनियों के प्रथम तीर्थंकर हैं। इनसे पूर्व जो मनु हुए हैं वही जैनियों के कुलकर हैं। कुलकरों की क्रमश: 'कुल' परम्परा के सातवें कुलकर नाभिराज और उनकी पत्नी मरुदेवी से ऋ षभ देव का जन्म चैत्र कृष्ण-9 को अयोध्या में हुआ। ऋ षभदेव स्वयंभू मनु से पाँचवीं पीढ़ी में इस क्रम में हुए- स्वयंभू मनु, प्रियव्रत, अग्नीघ्र, नाभि और फि र ऋषभ। कुलकर नाभिराज से ही इक्क्षवाकू कुल की शुरुआत मानी जाती है।
जब ऋषभदेव मां के गर्भ में थे तब उनकी मां ने चौदह (या सौलह) शुभ चीजों का सपना देखा था। उन्होंने देखा कि
एक सुंदर सफेद बैल उनके मुँह में प्रवेश कर गया है।
एक विशालकाय हाथी जिसके चार दाँत हैं,
एक शेर,
कमल पर बैठीं देवी लक्ष्मी,
फूलों की माला,
पूर्णिमा का चाँद,
सुनहरा कलश,
कमल के फूलों से भरा तालाब,
दूध का समुद्र,
देवताओं का अंतरिक्ष यान,
जवाहरात का ढेर,
धुआं रहित आग,
लहराता झंडा और सूर्य।
इस स्वप्र के बारे में जब विद्वान ज्योतिषियों और तत्वज्ञानियों को पता चला तो उन्होंने इनके विश्वविख्यात होने की घोषणा की।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,

और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....MMK

Tuesday, October 26, 2010

Not the right experience to be an experience (कोई अनुभव न होना ही सही अनुभव)

कोई अनुभव न होना ही सही अनुभव

ध्यान मन को विशुद्ध करने एवं इसे एक लक्ष्य, अंतर्गामी एवं प्रशांत बनाने की प्रक्त्रिया है। ध्यान की विधि के द्वारा मन आपको आपके अस्तित्व केगहनतम स्तरों को भलीभांति समझने में सहायता करेगा एवं आपको अनुभूति की सर्वोच्च स्थिति तक ले जाएगा।

एक जिज्ञासा होते हुए ध्यान का अभ्यास करते समय सावधान एवं दृढ रहना चाहिए। प्रारंभ से ही बहुत अधिक अपेक्षा मत कीजिए। ध्यान की कोई त्वरित विधि नहीं होती। आधुनिक शिष्य ध्यान से तात्कालिक परिणामों की अपेक्षा करते हैं। अपेक्षा उनके लिए अविलक्षण कल्पना, कल्पनातीत विचार एवं मतिभ्रम का कारण बनती है, जिसे वे आध्यात्मिक अनुभव समझते हैं। ये अनुभव वास्तव में अ‌र्द्धचेतन मन के उत्पाद हैं। परिणामत: वे कुंठित एवं असंतुलित हो जाते हैं। या तो वे ध्यान करना बंद कर देते हैं या अनजान विधियों का अनुकरण करना आरंभ करते हैं, जो उनकी प्रगति के लिए हानिकारक होते हैं।

ध्यान एक तकनीक है जिसका कि मात्र एक ही तरीका है एवं वह एक वैज्ञानिक तरीका है जो कि बहुत ही यथार्थ एवं स्पष्ट है। यदि आप यह सीखते हैं कि सही तरीके से ध्यान का अभ्यास कैसे किया जाए तो यह आपको शिखर तक पहुंचाने में अधिक समय नहीं लेगा, बशर्ते आप पूर्ण तकनीक से परिचित हों। सबसे पहले अंदर से एक दृढ व ज्वलंत इच्छा का होना जरूरी है। जब आपके पास ध्यान करने की ज्वलंत इच्छा होगी तो यही आपका नेतृत्व करेगी। संकल्पशक्ति की आवश्यकता होती है। च्आज मैं ध्यान में बैठूंगा। किसी के पास मुझे रोकने की शक्ति नहीं है। विचार मन का उत्पाद है। मैं विचारों से संबंधित नहीं हूं।

यदि आप मन की अस्पष्ट बातों से परे जाना सीख लेते हैं एवं चेतना के गहनतम कक्ष तक जा सकते हैं तब शरीर, श्वांस व मन आपके रास्ते में नहीं आते हैं। ये मार्ग में आते हैं क्योंकि आपने इन्हें प्रशिक्षित नहीं किया है, आपने ध्यान करने का निर्णय नहीं लिया है। एक बार व हमेशा के लिए आपको निर्णय लेना सीखना चाहिए और आपको ध्यान के लिए प्रात:काल एवं सोने से पूर्व एक समय निश्चित करना चाहिए।

आपको बाह्य संसार में वस्तुओं को देखने एवं परीक्षण करने के लिए सिखाया गया है। किसी ने आपको अंतर्मन में देखना एवं खोजना नहीं सिखाया है। कोई अन्य मार्ग नहीं है, ध्यान ही है। संसार की कोई वस्तु आपको वह शक्ति प्रदान नहीं कर सकती जो आपको ध्यान प्रदान कर सकता है। यदि आप ध्यान के लिए प्रवृत्त नहीं हैं तो मत कीजिए। यदि ध्यान करना चाहते हैं तो आपको आदत का निर्माण करना होगा, क्योंकि आदतें आपके चरित्र एवं व्यक्तित्व को बुनती हैं। यदि आप वास्तव में जानना चाहते हैं कि आप कौन हैं तो आपको अपने समस्त मुखौटों को उतारना पडेगा। पूर्णरूप से नग्न होना पडेगा। अग्नि में जाना पडेगा। आप इसके लिए तैयार हैं तो ध्यान के मार्ग पर चलना सीख सकते हैं।

बाह्य संसार में कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जो आपको प्रसन्न कर सके, क्योंकि सभी वस्तुएं परिवर्तन, मृत्यु, क्षय एवं विघटन का विषय हैं। वह जो परिवर्तन का विषय है एवं शाश्वत नहीं है, कभी भी प्रसन्नता नहीं दे सकता है। केवल क्षणिक आनंद दे सकता है। क्षणिक आनंद उदाहरण है कि कहीं कुछ ऐसा है जिसे आनंद कहते हैं। आप गलत स्थान में इसे ढूंढ रहे हैं। यदि आपने शाश्वत आनंद को प्राप्त कर लिया है तो आप स्वतंत्र होंगे। आप उस स्वतंत्रता व उस महान आनंद के लिए जीवित हैं।

मैं आपको सलाह देता हूं कि जब आप ध्यान में बैठते हैं तो विभिन्न प्रकार के प्रकाश को देखने की चिंता न करें। आपको अपने स्थान को पूर्ण अंधकार में बनाना सीखना होगा ताकि आप उस मधुर प्रकाश को देख सकें। यदि आप कोई प्रकाश नहीं देखते या कोई अनुभव नहीं करते अथवा कुछ नहीं देखते तो चिंता मत कीजिए।

यदि आपके पास धैर्य है एवं आप स्थिर होकर बैठना सीख जाते हैं, तो जीवन एवं प्रकाश का केंद्र आपके समक्ष स्वयं को प्रकट करना आरंभ कर देगा। तब तक व्यर्थ के प्रकाशों की कल्पना हानिप्रद है। प्रकाश की प्रतीक्षा करते हुए अंधकार में रहना सीखें। ध्यान में किसी प्रकार का अनुभव न होना ही सही अनुभव है। यदि आप ध्यान की विधि का क्त्रमिक रूप से अनुसरण कर रहे हैं तो आपको चिंता करने की जरूरत नहीं पडेगी कि आप उन्नति नहीं कर रहे हैं। जब कभी आप ध्यान कर रहे हैं या ध्यान का प्रयास कर रहे हैं तो आप कुछ न कुछ कर रहे हैं। यह मत सोचिए कि आप अपने कमरें का फल प्राप्त नहीं कर रहे हैं। यह संभव नहीं है।

यदि आप क्त्रमिक रूप से ध्यान करना सीखते हैं तो पाएंगे कि विवेक की शक्ति, बुद्धि आपको जीवन के बाहर एवं भीतर दोनों यात्रा में सहायता करेगी। आपको चार मुख्य बिंदुओं पर ध्यान देना पडेगा दृढ निश्चय का निर्माण करना, प्रार्थना करना सीखना, निर्देशों के अनुसार ध्यान करना सीखना एवं अपने मन को स्वचरित अपराध का धब्बा लगाने की आज्ञा न देना जो कि आंतरिक आध्यात्मिक शक्तियों को नष्ट करती है।

नि:स्वार्थ कर्म को करते हुए दैनिक जीवन में आध्यात्मिक बनना सीखें। प्रतिदिन कुछ मिनटों तक ध्यान करना सीखें। लंबे समय तक बैठकर एवं विभ्रम करते हुए पाखंडी न बनें। कुछ मिनटों तक ध्यान कीजिए एवं जीवन का आनंद लीजिए। ध्यान करना सीखिए एवं यहां और अभी में रहना सीखिए। ध्यान की चिकित्सा सर्वोच्च है। ध्यान स्वयं का प्रयास है, आंतरिक जीवन का एक निरीक्षण है और यह समय आने पर समस्त रहस्यों को आपके समक्ष प्रकट कर देगा।

आवश्यक है प्रार्थना

अनेक शिक्षार्थी जो ध्यान करते हैं, सोचते हैं कि प्रार्थना आवश्यक नहीं है। क्योंकि वे यह नहीं समझते हैं कि प्रार्थना क्या होती है। आप प्रार्थना क्यों करना चाहते हैं? सुबह से शाम तक प्रार्थना करते रहते हैं, ईश्वर मुझे यह दो, वह दो। आप वास्तव में क्या कर रहे हैं? अपने अहं का पोषण कर रहे होते हैं, जो बुरी आदत है। यह अहं केंद्रित प्रार्थना है। इच्छाओं एवं चाहतों द्वारा डांवाडोल किए जाने से मनुष्य अहं केंद्रित प्रार्थना के शिकार बन चुके हैं जो कि उन्हें वास्तव में भिखारी बनाती है। फिर भी यह प्रार्थना है और इसीलिए कुछ भी न करने से बेहतर है।

अपनी भाषा में जीवन के ईश्वर से प्रार्थना कीजिए जो कि आपके अस्तित्व के आंतरिक प्रकोष्ठ में बैठा हुआ है। वह आपको किसी भी अन्य की अपेक्षा बेहतर ढंग से जानता है। वह आपका मार्गदर्शन करता है, आपकी रक्षा करता है एवं आपकी सहायता करता है। शक्ति व बुद्धिमत्ता प्रदान करने के लिए हृदय से जीवन के ईश्वर से प्रार्थना कीजिए, ताकि आप समस्त दृष्टिकोणों से जीवन को समझ सकें।

प्रात: एवं सायंकाल दिन में दो बार प्रार्थना अति आवश्यक है। हमारी सफलता के लिए अतिरिक्त ऊर्जा हेतु प्रार्थना एक निवेदन है। प्रार्थना किसे करनी चाहिए? ईश्वर समस्त शक्तियों का स्त्रोत, केंद्र, प्रकाश का शक्तिशाली घर, जीवन एवं प्रेम है। प्रार्थना द्वारा हम इस शक्तिशाली घर तक पहुंच सकते हैं एवं अपने मन के क्षेत्र एवं चेतना के क्षितिज को विस्तृत करने के लिए ऊर्जा ले सकते हैं।

आप उससे प्रार्थना कर रहे हैं जो कि शरीर, श्वांस एवं मन नहीं है किंतु जो इस नश्वर ढांचे के पीछे एवं इससे परे बैठा है, जिसका केंद्र आपके भीतर एवं विस्तार विश्व है। एक ही असीम सत्ता अस्तित्व में है और यही सत्ता आपके भीतर है। कुछ उच्चतर शक्ति जिसे आप ईश्वर कहते हैं, उस तक पहुंचना एवं उसे स्पर्श करना चाहते हैं। अपने मन को एक इच्छा के तहत एक लक्ष्य पर बना लेते हैं जो आपको प्रार्थना के लिए प्रेरित करता है, प्रार्थना के लिए आपकी इच्छा में विलीन मन शांत बन जाता है। जब मन शांत होता है तो वह महान रहस्य स्वयं को प्रकट करता है और तब प्रार्थना का उद्देश्य पूर्ण हो जाता है।

प्रार्थना के कई चरण होते हैं, प्रथम कुछ मंत्रों का उच्चारण करना, फिर मानसिक रूप से इन मंत्रों को स्मरण करना, फिर उत्तर पाने की प्रतीक्षा करना। प्रत्येक प्रार्थना का उत्तर मिलता है। जब आप शरीर को दृढ एवं स्थिर रखते हुए, श्वांस को शांत बनाते हुए तथा मन को उपद्रवों से मुक्त करते हुए ध्यान करते हैं तो यह आपको आंतरिक अनुभव की एक स्थिति तक ले जाएगा। आप किसी उच्चतर को स्पर्श करते हैं एवं ज्ञान को प्राप्त करते हैं जो कि मन से नहीं, बल्कि भीतर की गहराई से आता है।

आपको इस भाव से ध्यान करना चाहिए कि शरीर एक पवित्र मंदिर है एवं अंतर्वासी जीवन का स्वामी ईश्वर है। मन एक साधक है। यह अपने आचरणों, मनोदशाओं एवं हथियारों का समर्पण करना यह कहते हुए सीखता है कि मेरे पास कोई क्षमता नहीं है, मेरी क्षमताएं सीमित हैं। ईश्वर मेरी सहायता करो, मुझे शक्ति दो, ताकि मैं समस्त समस्याओं का साहस के साथ समाधान कर सकूं। मात्र मैं की तरफ झुकाव बनाए बिना मन इस प्रकार से जीवन के स्वामी पर निर्भर हो जाने के लिए एक आदत का निर्माण कर लेता है। मात्र मैं अहं है एवं सत्य मैं अंतर्तम् ईश्वर है। यह अंतर्मुखी प्रक्त्रिया ध्यान एवं प्रार्थना है। अन्य समस्त प्रार्थनाएं तुच्छ इच्छाओं एवं चाहतों से परिपूर्ण, स्वार्थ से पूर्णतया रंगी हुई एवं अहं को खुश करने के लिए होती हैं।

किसी भी स्वार्थ के लिए कभी प्रार्थना मत कीजिए। ईश्वर से प्रार्थना कीजिए ताकि आपका मन ऊर्जा ग्रहण करे एवं आपके लिए तथा दूसरों के लिए जो सही है ईश्वर आपको उसे करने के लिए प्रेरित करे। वह जिसे किसी भी अन्य साधन के द्वारा पूर्ण नहीं किया जा सकता है उसे प्रार्थना के द्वारा पूर्ण किया जा सकता है। बाइबिल में एक ख़ूबसूरत पंक्ति है-खटखटाओ और यह आपके लिए खोल दिया जाएगा। यह नहीं लिखा है कि व्यक्ति को कितनी बार खटखटाना है।

प्रार्थना एवं प्रायश्चित महान शुद्धिकर्ता हैं, जो जीवन के मार्ग को विशुद्ध बनाते हैं एवं हमें आत्म-अनुभूति की तरफ ले जाते हैं। बिना प्रायश्चित के प्रार्थना अधिक सहायता नहीं करती है। प्रार्थनाएं सदैव सुनी जाती हैं (इनका उत्तर मिलता है), इसलिए अपने पूरे मन एवं हृदय के साथ प्रार्थना कीजिए |

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

Monday, October 25, 2010

Role(भूमिका)

भूमिका

आग अर्थात् अग्नि के बार में सभी जानते हैं, इसका महत्त्व भी सभी समझते हैं। शास्त्रों के अनुसार अग्नि सात प्रकार की है, तो कुछ जगह अग्नि की सात जिह्वा मानी गई है। वेदों में अग्नि के अनेकों नाम हैं, किन्तु योग-शास्त्र के अनुसार अग्नि के नाम- क्रोधाग्नि, कामाग्नि, ज्ठराग्नि आदि। योग-शास्त्र के अनुसार सभी अग्नियों में कामाग्नि की भूमिका महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि जब यह कामाग्नि ऊर्ध्वगामी हो जाती है, तो यह ज्ञानाग्नि में बदल जाती है। जब यह हमारे नाभि-स्थल में स्थित मणिपुर-चक्र में पूर्ण रूप से जाग्रत हो जाती है और आज्ञा-चक्र की तरफ अग्रसर होती है, तो यही कुण्डलिनी-शक्ति होती है। इसी को कुण्डलिनी जागरण भी कहते है।

(ज्ठराग्नि > क्रोधाग्नि > कामाग्नि > ज्ञानाग्नि > कुण्डलिनी शक्ति > पराशक्ति > परब्रह्म)
या
(ज्ठराग्नि > क्रोधाग्नि > कामाग्नि > ज्ञानाग्नि > कुण्डलिनी शक्ति > नादब्रह्म > ज्योति ब्रह्म)


कामाग्नि का ही पवित्र रूप प्रेमाग्नि है। यह प्रेम, प्यार या इश्क जब किसी विपरीत लिंगी के प्रति होता है, तो प्रारम्भ में वह प्रेमाग्नि के रूप में होता है और बाद में यह पवित्र-प्रेम कामाग्नि में बदल जाता है। जब यह इश्क या प्रेम परमात्मा के प्रति होता है, तो यह प्रेमाग्नि बाद में ज्ञानाग्नि में बदल जाती है। इसलिये कहा गया है कि –
ये इश्क नहीं आसाँ, इक आग का दरिया है।
डूब के नहीं, तैर के उस पार निकलना है।।
आगे कहा गया है कि –
इश्क ने गालिब हमको निकम्मा कर दिया।
वरना हम भी थे आदमी काम के॥


हम परमात्मा के प्रेम में कितने पागल है या परमात्मा के प्रति हमारे हृदय में कितनी प्रेमाग्नि प्रज्वलित है। इसी आधार पर हमें परमात्मा की प्राप्ति होती है। शास्त्रों में भक्ति मार्ग को श्रेष्ठ बताया गया है, इसी भक्ति के दो पुत्र कहे गये है– ज्ञान और वैराग्य। जहाँ कलयुग में भक्ति के हजारों उपासक हुऐ हैं, वहाँ ज्ञान और वैराग्य के बहुत कम उपासक हुये हैं। भक्ति की पूर्णता ज्ञान और वैराग्य के बिना असम्भव है। सही मायने में भक्ति, ज्ञान और वैराग्य एक दूसरे के पूरक है। भक्ति उपासकों में जहाँ भक्ति कि प्रधानता दिखाई देती है, वहीं इनके अन्दर ज्ञान और वैराग्य अप्रत्यक्ष रूप से विद्यमान रहते है। इसी प्रकार ज्ञान और वैराग्य के उपासकों में जहाँ ज्ञान और वैराग्य की प्रधानता दिखाई देती है, वहीं इनके अन्दर भक्ति अप्रत्यक्ष रूप से विद्यमान रहती है।

भक्ति, ज्ञान और वैराग्य कि परिभाषायें यों तो अनेकों ही उपासकों ने की हैं। किन्तु इन परिभाषाओं में से जो श्रेष्ठ हैं, वह परिभाषा हम सभी साधकों को समझाने की कोशिश करेंगे-
भक्ति(नवधा-भक्ति)
श्रवणं कीर्तनं विष्णों स्मरणं पाद सेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यम् आत्म निवेदनम्॥

प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।
गुर पद पंकज सेवा तिसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करई कपट तजि गान॥
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा॥
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा॥
आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखई परदोषा॥
नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना॥

ज्ञान
शुभेच्छा अर्थात् विवेक वैराग्यकी स्थिति।
विचारणा अर्थात् श्रवण मनन की अवस्था।
मनुमानसा अर्थात् पंचभूतात्मक देह अनित्य और आत्मा नित्य-शुद्ध-बुद्ध है।
सत्त्वापत्ति अर्थात् ‘अहं स्मि’ मैं ब्रह्म हूँ, इस धारणा को दृढ़ करना।
असंसक्ति अर्थात् नाना विधि सिद्धियों की ओर से अनासक्ति।
पदार्थाभाविनी- ‘अहं ब्रह्मास्मि’ भी तो एक अहंवृत्ति ही है, अतः इसका भी लय होना।
तिर्यगा अर्थात् आत्मस्वरूप से न उठना।

वैराग्य
मन लोभी, मन लालची, मन चंचल, मन चौर।
मन के मत चलिये नहीं, पलक पलक मन और॥

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥

संत चरन पंकज अति प्रेमा। मन क्रम बचन भजन दृढ़ नेमा॥
गुरू पितु मातु बंधु पति देवा। सब मोहि कहँ जानै दृढ़ सेवा॥
मम गुन गावत पुलक सरीरा। गदग द गिरा नयन बह नीरा॥
काम आदि मद दंभ न जाकें। तात निरंतर बस मैं ताकें॥
बचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहिं निःकाम।
तिन्ह के हृदय कमल महुँ कर-उँ सदा बिश्राम॥


कलयुग के अन्दर भक्ति तो सभी करते हैं, किन्तु ज्ञान और वैराग्य ना के बराबर है। कोई भी साधक कितनी ही भक्ति कर ले, लेकिन जब तक उस के अन्दर वैराग्य नहीं होगा तब तक उसे ज्ञान की प्राप्ति असम्भव है, और बिना ज्ञान की प्राप्ति के परमात्मा की प्राप्ति असम्भव है। इसलिये हमें भक्ति और वैराग्य का सहारा ले कर ज्ञान को पाना होगा। तभी परमात्मा की प्राप्ति है। किसी भी चीज के पाने हेतु हमारे मन में लगन की जरूरत है। किसी भी काम को हम जितनी लगन से करेंगे, उसका प्रभाव वैसा ही होगा और जिस काम को हम बे-मन से करेंगे उसका प्रभाव वैसा ही होगा। इसलिये हमें अपने अन्दर ज्ञान की आग पैदा करनी होगी।

जब तक हमारे अन्दर ज्ञान की ज्योति प्रकट नहीं होगी, तब तक हमें सही-गलत और अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं होगा। आज का साधक दिन रात भक्ति में, पूजा-पाठ में लगा हुआ है, किन्तु उसके मन में, उसके विचारों में और उसकी अपनी खुद की सोच में रत्ती भर भी बदलाव नहीं आया है। जैसे की हम अपने बच्चों को कहते हैं, कि तुम ज्यादा से ज्यादा शिक्षा को प्राप्त करो, जिससे कि तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल हो। लेकिन बच्चों के मन में शिक्षा के प्रति लगन होनी आवश्यक है। जब तक बच्चे का मन पढ़ाई में नहीं लगेगा, वह अपनी शिक्षा पूरी नहीं कर सकता। उसी प्रकार ज्ञान रूपी शिक्षा पाने के लिये साधक के हृदय में परमात्मा के प्रति लगन अर्थात् आग पैदा होनी चाहिये। जब ये लगन रूपी आग लगती है, तो सब कुछ जला कर स्वाहा कर देती है। साधक के अन्दर परमात्मा को पाने के लिये जितनी तेजी से प्रेमाग्नि प्रज्वलित होगी, उतनी ही जल्दी साधक को परमात्मा की प्राप्ति होगी। जब यह अग्नि हमारे अन्दर पूरी तरह से धधक उठेगी, तो हमारे पूर्व जन्म और इस जन्म के सभी पाप-ताप जल कर खाक हों जायेंगे। मृत्यु उपरान्त शरीर के खाक होने पर राख बनती है, किन्तु जीते जी तमाम पाप और ताप के खाक होने पर परमात्मा रूपी ज्ञान की ज्योति प्रकट होती है।

सनातन धर्म के अनुसार पुरूष, प्रकृति और जीव कि उत्पत्ति एक साथ मानी गई है। सनातन धर्म के अनुसार ये तीनों एक दूसरे के पूरक हैं। पुरूष को परमात्मा, प्रकृति को शक्ति और जीव को 84 लाख योनियों में बाँटा गया है। अनादि काल से ही समय के प्रवाह के अनुसार अनेकों ही सन्तों एवं महापुरूषों का जन्म हुआ। जिन्होनें पुरूष, प्रकृति और जीव कि अलग-अलग परिभाषायें अपने-अपने समय के अनुसार अपने भक्तों या आम व्यक्तियों को समझाई। इसी प्रकार धीरे-धीरे अध्यात्मिक क्षेत्र दो भागों में बट कर रह गया। एक द्वैत-वाद और दूसरा अद्वैत-वाद्। इन दोनों में भी अनेकों ही शाखाओं ने जन्म लिया, जैसे की साँख्य-योग, ज्ञान-योग, राज-योग, हठ-योग, भक्ति-योग एवं लय-योग आदि। धीरे-धीरे समय का चक्र चलता गया और विभिन्न शाखाओं को मानने वालों ने धीरे-धीरे अपना अलग मत, पंथ या धर्म बना लिया।

हमारी कोशिश एक बार फिर से सभी धर्मों को इकट्ठा करने की है। पहली बार यह कोशिश सिख गुरूओं ने की थी, “गुरू ग्रंथ साहब” की रचना करके। “गुरू ग्रंथ साहब” में सभी मतो एवं सभी धर्मों के महापुरूषों के पवित्र शब्दों को इकट्ठा करके लिखा गया। किन्तु बाद में कारण जो भी रहा हो, लेकिन आज के समय में “गुरू ग्रंथ साहब” पर सिखों का एकाधिकार है। शायद इसका एक मूल कारण “गुरू ग्रंथ साहब” का गुरमुखी भाषा में लिखा होना हो सकता है।

परमात्मा और धर्म तो एक दूसरे से बंधे हुऐ हैं और यह दोनों नित-नये हैं। चाहे हम नानक की बात करें या कबीर की, महावीर की या महात्मा-बुद्ध की, कहने का तात्पर्य यह है कि जितने भी पूर्ण-सन्त हुऐ उनकी अपनी भाषा और अपने शब्द थे। चाहे वो सन्त किसी भी जाति या धर्म से सम्बन्ध रखता हो, किन्तु फिर भी उसने उस परमात्मा कि व्याख्या या बड़ाई करते वक्त अपनी भाषा और अपने शब्दों का हमेशा इस्तेमाल किया। चाहे समाज के ठेकेदारों नें इन संतो को पत्थर मारे या सत्-गुरू अर्जुन देव जी जैसे पूर्ण ब्रह्म-ज्ञानी महा-पुरूष को गरम तवे पर क्यों न बिठा दिया, किन्तु ये महा-पुरूष हमेशा ही कठिन से कठिन सजा को हंसते हुऐ सह गये और हमेशा ही नित-नये परमात्मा को अपनी भाषा और अपने शब्दों में परिभाषित करते गये। पूर्ण-सन्त का काम आँखों देखी कहने का है। सच्चा सन्त जो भी परमात्मा की लीला अपने ह्रदय में देखता है, और उसी को अपने शब्दों में बोलता है, न कि पढ़कर या इधर-उधर से सुने हुऐ शब्दों को। सन्त के अपने शब्द अपने लिऐ होते है, किन्तु कभी-कभी कुछ खास भक्तों के उद्धार के लिऐ परमात्मा की आज्ञा अनुसार वे सन्त उन शब्दों को आम व्यक्ति पर प्रकट करता है। जिन भक्तों के लिऐ या यों कहें कि जिन खास शिष्यों के लिऐ वे शब्द होते हैं, वे शिष्य तो उन शब्दों को समझ कर अपनी मंजिल अर्थात् परमात्मा को पा लेते है, किन्तु जिन व्यक्तियों के लिऐ वे शब्द नहीं होते, वे उन्हें नहीं समझ पाते और उस पूर्ण-सन्त में हजारों कमियाँ निकालते हैं।

अनादि-काल से आज तक जितने भी महापुरुष हुऐ हैं, उनकी तो दृष्टि मात्र से पापी से पापी व्यक्ति भी मुक्ति को प्राप्त कर लेता था, किन्तु आज के समय में ऐसे सन्त ना के बराबर हैं, और जो थोड़े-बहुत हैं, वे शिष्य की योग्यता के अनुसार उसके ऊपर दृष्टि-पात करते हैं। किन्तु जो अयोग्य शिष्य होते हैं, वे या तो अपने भाग्य को कोसते है या भाग्य के भरोसे बैठे रहते हैं। कोई भी शिष्य गुरू के अयोग्य कहने पर एकलव्य बनने की कोशिश नहीं करता। यदि कोई भी साधक एकलव्य की तरह दृढ़-निश्चय कर ले तो वह अर्जुन से भी अधिक सर्व-श्रेष्ठ धनुर्धर बन सकता है। किन्तु आज का साधक अपने अन्दर इतना उलझ गया है, या यों कहें कि अपने आपको हीन भावना से इतना अधिक ग्रस्त पाता है कि वह स्वयं में कुछ भी करने को तैयार नहीं है। आज का साधक हमेशा ही ऐसे गुरू-रूपी कंधे की खोज में लगा रहता है, जिसके ऊपर बन्दूक रख कर निशाना साध सके, और जब किसी पूर्ण-गुरू की प्राप्ति नहीं होती तो साधक गुरूओं के ऊपर या अपने भाग्य के ऊपर आरोप-प्रत्यारोप करता है। किन्तु स्वयं हिम्मत करके आगे बढ़ने कि कोशिश कोई नहीं करता। कहा गया है कि- जिन खोजा तिन पाईयाँ ॥ लेकिन आज का साधक बिना खोजे ही उस परमात्मा को पाना चाहता है।

हमारी कोशिश ऐसे ही साधकों को उस परमात्मा को खोजने पर मजबूर करने की है। जो साधक कहते है, कि हमें कोई बताने वाला या समझाने वाला नहीं है, हमें कोई सत्य का मार्ग दिखाने वाला नहीं है। हमारी कोशिश ऐसे ही अंधेरे में भटकने वाले साधकों को रास्ता अर्थात् प्रकाश दिखाने की है। हम सभी धर्मों एवं जाति के साधकों के लिये अति सहज आध्यात्मिक मार्ग दिखाने की कोशिश करेंगे, जिसके द्वारा सभी साधक परमात्मा के दिव्य-स्वरूप और उसके अनहद-नाम को देख व सुन सकें।

हम सभी धर्मों एवं जातियों व उनके महापुरुषों को कोटी-कोटी नमन् करके उनसे अपने और आप सभी के लिये यही प्रार्थना करते हैं कि वह हम सब को सत-धर्म का मार्ग दिखलाऐं और हमारे हृदय में प्रकाश करे एवं हम सभी के मानसिक, वाचिक तथा समस्त पापों का नाश करे। हम सब उन पूर्ण-महापुरुषों कि तरह उस परमपिता-परमात्मा का साक्षात्कार कर सके तथा पूर्ण ब्रह्म-ज्ञान को प्राप्त करें।

हमारा उद्देश्य है कि एक ऐसे धर्म-स्तंभ की स्थापना की जाऐं, जहाँ पर किसी भी मत, पंथ, धर्म या जाति का व्यक्ति अपने-अपने धर्मानुसार पूजा-पाठ आदि कर सके। जहाँ पर किसी भी जाति या धर्म का एकाधिकार ना हो।

हमारा उद्देश्य है कि एक ही छत के नीचे और पवित्र सर्व-धर्म-स्तंभ के सम्मुख वेद-शास्त्रों के मन्त्र, कुराण की आयतें, गुरू ग्रंथ साहब की बाणी, बाईबल की प्रार्थना, कबीर के शब्द, बौद्ध-मन्त्र और जिन-वाणी आदि का एक साथ उच्चारण हो और सभी धर्मों की पवित्र-ज्योति को इस सर्व-धर्म-स्तंभ में स्थापित किया जाये। जिससे कि किसी भी धर्म या जाति का व्यक्ति किसी भी प्रकार से अपने साधारण से साधारण यम-नियमों का पालन करके उस परमात्मा की स्तुति करके आसानी से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त कर सके।

हमारी सत-धर्म पर चलने की इस कोशिश मे आप सभी भक्त-जन हमारी मदद करेंगे ऐसा हमारा विश्वास है।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

Ahor Power (अघोर शक्ति)

अघोर शक्ति

अघोर का ही अपभ्रंश शब्द है—औघड़। औघड़ और अघोर शब्द समानार्थी हैं। इसका अर्थ है जो घोर न हो अर्थात् जो भयानक, क्रूर, कठोर, दुरुह, कठिन पीड़ादायक न हो यानि सरल, सुहावना, मंगलकारी हो।
आप मेरे द्वारा की जा रही अघोर शब्द की व्याख्या पर चौंके रहे होंगे, परन्तु यह सत्य अर्थ है कि जो भयानक न हो, यानी जो घोर न हो, वही अघोर होता है।

किन्तु लोग अधोर या औघड़ का अर्थ लेते हैं, कठोर, अति घोर अति, भयानक, अत्यन्त विचित्र, महाक्रूर अर्थात् जो रंचमात्र भी सरल या सामान्य न हो, वही अघोर या औघड़ होता है। औघड़ या अघोर के ये दोनों प्रकार के अर्थ एक-दूसरे से विपरीत हो गये हैं। अतः पाठकों का चौंकना स्वाभाविक है। एक ही शब्द को विभिन्न विपरीत अर्थों में प्रयोग कैसे किया जा सकता है, यह सोचना भी स्वाभाविक है। वैसे अब तक आपने औघड़ या अघोर शब्द की पूर्ण व्याख्या की हो या न की हो, परन्तु इतना तो अवश्य समझते रहे होंगे कि औघड़ का, अघोर का अर्थ एक गन्दे, भयानक और क्रूर दिखने वाला व्यक्ति या साधु से है, क्योंकि समाज में प्राप्त होने वाले अघोरी या औघड़ दिखते ही ऐसे विचित्र एवं भयानक हैं जिनकी वेशभूषा, खान-पान, रहन-सहन, चाल-चलन, बोल-चाल, कार्य-व्यापार, सभी कुछ अन्य संन्यासियों, संतों, साधुओं, उपासकों, एवं साधकों से भिन्न तथा विचित्र दिखाई पड़ता रहा है।

यह भी सत्य है कि औघड़ व अवधूत का सब कुछ विचित्र असामान्य एवं अन्य साधु-सन्तों से भिन्न होता है। भले ही वे स्वयं में सच्चे अघोर साधक हैं भी या नहीं। परन्तु उनका स्वरूप और व्यक्तित्व में औघडों की तरह होता और वह सब कुछ अन्य साधु-सन्तों से भिन्न होता है। यही भिन्नता तो उन्हें असामान्य बनाकर अघोर या औघड़ बनाती है। अन्य साधु-संतों से यहाँ तक कि अन्य शैव-साधकों एवं उपासकों से भी भिन्न तथा विचित्र होते हैं—अघोर साधक ! औघड़ तथा अवधूतों का अपना अलग संसार ही होता है।

अब यह जान लें कि अघोर शब्द को सरल और कठिन, भय रहित और भयानक, कोमल और कठोर, भावुक और शुष्क, दयालु और क्रूर जैसे विपरीत अर्थों में बाँधते हैं जो कि सर्वथा असंभव है नहीं, क्योंकि मनुष्य के दो व्यक्तित्व होते हैं। एक बाह्य व्यक्तित्व और दूसरा आन्तरिक व्यक्तित्व। आन्तरिक व्यक्तित्व में दोनों प्रकार की विरोधी विचारधाराओं एवं भावनायें भी होती हैं। सुख-दुख, हर्ष-विषाद, कोमल, -कठोर, दया-क्रोध सत्-असत, सरल, कठिन, आतंक, कृपा, वरदान, शाप जैसी विरोधी भावनायें समय-समय पर अपना सर उठाती ही रहती हैं। अघोर या औघड़ भी इसी प्रकार की भावनाओं एवं अर्थों से परिपूर्ण होते हैं। शिव के अघोर एवं अवधूत अवतार से अघोर एवं औघड़, साधना एवं शक्ति का जन्म हुआ था। अघोर साधना तथा शक्ति घोर योग को सिद्ध करने पर प्राप्त होती हैं। घोर योग का अर्थ है—कठिन योग साधना। यानी साधारण योग नहीं। असाधारण योग की साधना करके ही कोई शैव अघोर बन सकता है।

अघोर शक्ति प्राप्त करने के लिए साधक को योगसाधना के प्रत्येक अंग का परिमार्जन कर प्रथम सोपान से, चढ़ता हुआ चरम सीमा के अंतिम सोपान तक पहुंचना होता है। साधारण योग साधना से ही साधक को तन-मन और समस्त इन्द्रियों पर नियन्त्रण प्राप्त हो जाता है। ऐसा योग साधक अपनी समस्त इन्द्रियों को अपने मर्जी के अनुसार ही अनुशासित बना लेता है। किन्तु घोर योग की साधना में सफल हुआ घोर साधक यानी अवधूत या औघड़ उससे भी उच्चकोटि का हो जाता है। उसकी इन्द्रियाँ उसके वश में ही नहीं होती, वरन् वह अपनी कुछ या सभी इन्द्रियों को निष्क्रिय कर देता है। इन्द्रियाँ जब पूर्णतया निष्क्रिय हो जाती हैं तो उनमें किसी प्रकार की संवेदनशीलता नहीं रह जाती। इसे हम और सरल ढंग से समझें तो यह कि त्वचा रूपी इन्द्रिय जब पूरी तरह संवेदनशील हो गयीं तब उस त्वचा पर चाहे कोमल स्पर्श हो या कठोर दोंनो ही पूरी तरह बराबर हैं।

ऐसी त्वचा को मच्छर डसें या साँप समान हैं। ऐसी त्वचा पर चाहे चंदन का लेप हो या मल का, फूल चुभें या काँटे। इत्र लगे या मूत्र सब अर्थहीन है या उनका प्रभाव एक-सा ही होगा। इसी प्रकार नासिका रूपी इन्द्रिय के लिए भी होता है। चाहे सुगन्ध मिले या दुर्गन्ध समान है। जिह्वा और कंठ के लिए संवेदनशीलता एक समान हो जायेगी। जिह्वा ने जब अपनी, संवेदनशीलता त्याग दी तब साधक नमक, मिठाई, खट्टा, तीखा, गर्म, ठण्डा, कसैला, सुगन्धित, दुर्गन्धित कुछ भी आये, समान स्वाद देगा। इसी प्रकार पाँचों कर्मेन्द्रियां और ज्ञानेन्द्रियों के विषय में जान सकते हैं। जब घोर योग द्वारा समस्त इन्द्रियों को निष्क्रिय कर लिया जाता है, तब आध्यात्मिक शक्ति का विकास हो जाता है और प्राण वायु मूलाधार में स्थित कुंडलिनी को जाग्रत कर सहस्त्रासार तक पहुँचा देती है। फिर तो शून्य शिखर में कुंडलिनी विराजमान हो परमानंद की अनुभूति कराती रहती है।

घोर योग की उपरोक्त विधि से साधना करके साधक अघोर बन जाता है। ऐसे अघोर, औघड़ एवं अवधूत को संसार में रहते हुए भी संसार और सांसारिकता की कोई चिन्ता नहीं रहती है। उसके लिए सारा विश्व, समस्त सृष्टि एक-सी ही लगती है। वह जीव में, निर्जीव में, चैतन्य में शिव की सत्ता अघोरेश्वर का दर्शन ही करता है। उसके कंठ में सुगन्धित पुष्पों की माला हो या विषधर, रुद्राक्ष हो, हीरे-मोती हों या कि कंकाल की अस्थियाँ सब समान होंगी। वह वस्त्र या मृगचर्म या व्याग्रचर्म धारण किये हो अथवा दिगम्बर हों क्या फर्क पड़ता है ? वह नग्न हो या दिव्य राजसी वस्त्र पहने हो, एक समान रहेगा। व सुस्वादु व्यंजन ग्रहण कर रहा हो या सड़ा हुआ पशु मानव का माँस दोनों एक जैसे ही लगेंगे। उसे गंगाजल और मदिरा में कोई भेद नहीं दिखता, वह फूलों की सेज में सोये या शिला पर अथवा काँटों पर कुछ फर्क नहीं पड़ता। कहने का तात्पर्य यह है कि अघोर शक्ति प्राप्त हो जाने पर औघड़ को सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, गर्मी-सर्दी का अनुभव ही नहीं होता। इतना ही नहीं, उसका मन निर्विकार भाव से परिपूर्ण हो जाता है। सामान्य से असामान्य और मानव से शिव समान बना देने वाली इस महान अघोर साधना से जो शक्ति प्राप्त होती है, वही अघोर शक्ति है।

अघोर शक्ति की पूर्णता प्राप्त करने वाले सच्चे सिद्ध अवधूतों में अग्नि तत्त्व कभी बढ़ने या हावी नहीं होने देते। ये सिद्ध औघड़ संतों की तरह शान्त, सरल और भय रहित होते हैं। ऐसे लोग समाज से सम्बन्ध ही नहीं रखते। ये अवधूतेश्वर शिव की उपासना में अधिकांश समय ध्यान एवं समाधि में व्यतीत करते है और हिमालय, मानसरोवर या जंगलों में निर्जन स्थानों पर निवास करते हैं। यह बात अवश्य होती है कि यदि कोई व्यक्ति ऐसे सिद्ध अवधूतों के सम्पर्क में आ जाता है। और वे उसकी सेवा से प्रसन्न हो जाते हैं या कोमल भावना का जागरण हो जाता है, तो वे मात्र अपने चिंतन (सोच-विचार) या वाणी से ही व्यक्ति का हित, साधन एवं कल्याण कर देते हैं। स्वतंत्र एवं सांसारिकता से निर्लिप्त होने के कारण इन लोगों की वाणी में स्वच्छन्दता बनी रहती है। इसके साथ ही इनके अपशब्द या गालियाँ भी प्रेम एवं स्नेह से भरे रहते हैं। ये लोग किसी की परवाह नहीं करते, क्योंकि यह स्वयं शिव हो जाते हैं।

ऐसे लोगों की वाणी से निकला वरदान या शाप कभी निष्फल नहीं जाता है। वे जो कुछ कहते हैं, सोचते हैं वह सत्य एवं सुलभ हो जाता है। अघोर शक्ति प्राप्त सिद्ध औघड़ स्वयं में परम ब्रह्म स्वरूप हो जाता है। तब वह शिवोऽहम की श्रेणी में आकर ही अवधूतेश्वर समान हो जाता है। इसीलिए बड़ी प्रबल होती है—औघड़ शक्ति
अघोर योग की चरम स्थिति है आध्यात्मिक क्षेत्र हो या सांसारिक योग साधना का अपना विशिष्ट महत्त्व होता है, वही सफल व्यक्ति होगा, जिसके अन्दर योग शक्ति होगी। यह बात अलग है कि किसके अन्दर कितनी योग शक्ति है अथवा कितनी योग शक्ति संचित कर सकता है। जो जितनी योग शक्ति जुटा सकता है, वह उतने ही ऊँचे उठकर कार्य कर सकता है। प्राणों में ऊर्जा योग शक्ति और योग शक्ति की चरम स्थिति ही ब्रह्मत्व है।

यह ब्रह्मत्व क्या है ? आप यह भी जान लें क्योंकि यह जानना उसी तरह आवश्यक है जैसे कि अपने जनक को जानना। यह कटु सत्य है कि जननी ही बता सकती है कि उसने जिसे जना है, उसका जनक कौन है ? यह व्यक्ति का सांसारिक जनक होगा। परन्तु आध्यात्मिक जनक को जानने, पहचानने और पाने के लिए योग का ही एक मात्र सहारा लेना होगा। ‘ईश्वर है’ उसे सृष्टि का एक-एक कण स्वीकार करता है।

विश्व के सारे धर्म एवं सम्प्रदाय स्वीकार करते हैं, कोई गौड़ कहता है, कोई अल्लाह तो कोई ब्रह्म। उसके हजारों लाखों नाम हो सकते हैं परन्तु कोई यह नहीं कह सकता कि ईश्वर या एक सुपर पावर नहीं है। प्रकृति कहो या शक्ति कहो, परमात्मा कहो या ब्रह्म कहो सब एक ही पिता के एक ही जनक के पर्यायवाची शब्द हैं। वह पिता है—हमारा, तुम्हारा, समस्त प्राणियों का, सृष्टि के समस्त कण-कण का, उसे पहचानना, जानना और पाना यही शेष है। उसे पाने के लिए उसी को पहचान कर उसकी शक्ति अपने में संजोने के लिए योग एक मार्ग साधना है।

योग क्या है ? योग का अभ्यास या साधना प्राणायाम से प्रारम्भ होता है। प्राणों में ऊर्जा का संचार वायु से होता है। वायु तत्त्व अग्नि अवं जल तत्व से भिन्न-भिन्न रूपों, अंशों में मिलकर प्राणियों के तन-मन पर एक नया रासायनिक यौगिक का निर्माण करते हैं जिसके प्राप्त कर-व्यक्ति दूसरे से भिन्न हो जाता है। वह दूसरे से श्रेष्ठ भी हो सकता है और हीन भी हो सकता है। यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि स्वयं उस व्यक्ति ने अपने तन-मन पर यानि आन्दर-बाहर कैसे-कैसे यौगिकों का निर्माण कर लिया है और उसमें से कौन-कौन से यौगिक उच्च दिशा को ले जाते हैं या निम्न दिशा को ले जाते हैं। यह रहस्य जान लेने के बाद व्यक्ति अपने अन्दर श्रेष्ठ यौगिकों को ही बढ़ावा देगा। यदि वह ऐसा करता है, ऐसे अभ्यास करता है तो अभ्यास करते-करते वह एक उच्चतम स्थिति को प्राप्त कर सकता है !

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

Ashtaokr Gita (अष्टावक्र गीता)

Ashtaokr Gita (अष्टावक्र गीता)

प्रस्तुत हैं अष्टावक्र गीता के कुछ अंशअष्टावक्र आठ अंगों से टेढ़े-मेढ़े पैदा होने वाले ऋषि थे। शरीर से जितने विचित्र थे, ज्ञान से उतने ही विलक्षण। उनके पिता कहोड़ ऋषि थे जो उछालक के शिष्य थे और उनके दामाद भी। कहोड़ अपनी पत्नी सुजाता के साथ उछालक के आश्रम में ही रहते थे। ऋषि कहोड़ वेदपाठी पंडित थे। वे रोज रात भर बैठ कर वेद पाठ किया करते थे। उनकी पत्नी सुजाता गर्भवती हुई। गर्भ में बालक जब कुछ बड़ा हुआ तो एक रात को गर्भ के भीतर से ही बोला, "हे पिता ! आप रात भर वेद पढ़ते हैं लेकिन आपका उच्चारण कभी शुद्ध नहीं होता। मैंने गर्भ में ही आपके प्रसाद से वेदों के सभी अंगों का ज्ञान प्राप्त कर लिया है।" गर्भस्थ बालक ने यह भी कहा कि रोज-रोज के पाठ मात्र से क्या लाभ। वे तो शब्द मात्र हैं। शब्दों में ज्ञान कहाँ? ज्ञान स्वयं में है। शब्दों में सत्य कहाँ? सत्य स्वयं में है।
अष्टावक्र गीताअष्टावक्र गीता अध्यात्म विज्ञान का बेजोड़ ग्रंथ है। ज्ञान कैसे प्राप्त होता है ? मुक्ति कैसे होगी ? और वैराग्य कैसे प्राप्त होगा ? ये तीन शाश्वत प्रश्न हैं जो हर काल में आत्मानुसंधानियों द्वारा पूछे जाते रहे हैं। राजा जनक ने भी ऋषि अष्टावक्र से ये ही प्रश्न किये थे। ऋषि अष्टावक्र ने इन्हीं तीन प्रश्नों का संधान राजा जनक के साथ संवाद के रूप में किया है जो अष्टावक्र गीता के रूप में प्रचलित है। ये सूत्र आत्मज्ञान के सबसे सीधे और सरल वक्तव्य हैं। इनमें एक ही पथ प्रदर्शित किया गया है जो है ज्ञान का मार्ग। ये सूत्र ज्ञानोपलब्धि के, ज्ञानी के अनुभव के सूत्र हैं। स्वयं को केवल जानना है—ज्ञानदर्शी होना, बस। कोई आडम्बर नहीं, आयोजन नहीं, यातना नहीं, यत्न नहीं, बस हो जाना वही जो हो। इसलिए इन सूत्रों की केवल एक ही व्याख्या हो सकती है, मत मतान्तर का कोई झमेला नहीं है; पाण्डित्य और पोंगापंथी की कोई गुंजाइश नहीं है। में अष्टावक्र गीताअ में इतनी सीधी-सादी और सरल व्याख्या की गई है जो सर्वसाधारण को बोधगम्य हो।
और अन्त में, उस अलक्ष्य लक्ष को जिसे जनक ने कहा ‘‘मुझको मेरा नमस्कार‘‘।
अष्टावक्र—एक परिचयअष्टावक्र आठ अंगों से टेढ़े-मेढ़े पैदा होने वाले ऋषि थे। शरीर से जितने विचित्र थे, ज्ञान से उतने ही विलक्षण। उनके पिता कहोड़ ऋषि थे जो उछालक के शिष्य थे और उनके दामाद भी। कहोड़ अपनी पत्नी सुजाता के साथ उछालक के ही आश्रम में रहते थे। ऋषि कहोड़ वेदपाठी पण्डित थे। वे रोज रातभर बैठ कर वेद पाठ किया करते थे। उनकी पत्नी सुजाता गर्भवती हुई। गर्भ से बालक जब कुछ बड़ा हुआ तो एक रात को गर्भ के भीतर से ही बोला, हे पिता ! आप रात भर वेद पढ़ते रहते हैं। लेकिन आपका उच्चारण कभी शुद्ध नहीं होता। मैंने गर्भ में ही आपके प्रसाद से वेदों के सभी अंगों का ज्ञान प्राप्त कर लिया।’’ गर्भस्थ बालक ने यह भी कहा कि रोज-रोज के पाठ मात्र से क्या लाभ। वे तो शब्द मात्र हैं। शब्दों में ज्ञान कहाँ ? ज्ञान स्वयं में है। शब्दों में सत्य कहाँ ? सत्य स्वयं में है।

ऋषि कहोड़ के पास अन्य ऋषि भी बैठे थे। अजन्में गर्भस्थ बालक की इस तरह की बात सुनकर उन्होंने अत्यन्त अपमानित महसूस किया। बेटा अभी पैदा भी नहीं हुआ और इस तरह की बात कहे। वेद पण्डित पिता का अहंकार चोट खा गया था। वे क्रोध से आग बबूला हो गये। क्रोध में पिता ने बेटे को अभिशाप दे दिया। ‘‘हे बालक ! तुम गर्भ में रहकर ही मुझसे इस तरह का का वक्र वार्तालाप कर रहे हो। मैं तुम्हें शाप देता हूँ कि कि तुम आठ स्थानों से वक्र होकर अपनी माता के गर्भ से उत्पन्न होगे।’’ कुछ दिनों पश्चात् बालक का जन्म हुआ। शाप के अनुसार वह आठ स्थानों पर से ही वक्र था। आठ जगह से कुबड़े, ऊँट की भाँति इरछे-तिरछे। इसलिए उसका नाम अष्टावक्र पड़ा।

अष्टावक्र के जन्म के पूर्व ही पिता ऋषि कहोड़ धन अर्जन की आवश्यकतावश राजा जनक के वहाँ गये जहाँ शास्त्रार्थ का आयोजन था। एक हजार गाएँ राजमहल के द्वार पर खड़ी की गई थीं। उन गायों के सींगों पर सोना मढ़ दिया गया था। उनके गलों में हीरे-जवाहरात लटका दिये गये थे। शास्त्रार्थ की शर्त यह थी कि जो विजेता होगा वह इन गायों को हाँक ले जाएगा। तथा विजेता हारने वाले का किसी भी तरह से वध कर सकेगा। शास्त्रार्थ राज्य के महापण्डित वंदिन से करना होता था। कहते हैं शास्त्रार्थ में ऋषि कहोड़ हार गये। इसलिए विजेता पण्डित वंदिन ने उन्हें पानी में डुबाकर मरवा डाला।
जब काफी दिनों कर ऋषि कहोड़ आश्रम में लौटकर नहीं आये तो उछालक ने उनकी खोज कराई। उनके शिष्य द्वारा ज्ञात हुआ कि कहोड़ को शास्त्रार्थ में पराजित होने के फलस्वरूप वंदिन ने मरवा डाला है। इस तथ्य को बालक अष्टावक्र से छुपा कर रखा गया था। बालक अष्टावक्र अपने नाना उछालक को ही अपना पिता जानता था। बारह वर्ष बीत गये। अष्टावक्र तो गर्भ में ही महान पण्डित और ज्ञानी हो चुका था। इसके साथ ही उसने अपने नाना उछालक के आश्रम में बारह वर्ष तक और अध्ययन किया। तब तो वह ब्रह्मा के समान मेधावी हो चुका था। तभी एक दिन अचानक उसे अपने पिता के बारे में वास्तविक तथ्य की जानकारी हुई। उसने अपनी माता से इस सम्बन्ध में पूछा। तब उसकी माँ ने सारा वृत्तान्त कह सुनाया। बालक अष्टावक्र को बड़ा आघात लगा। उसने उसी समय माँ से कहा ‘‘माँ मुझे आज्ञा दो, मैं अभी जाकर उस दुष्ट को परास्त करता हूँ तब मैं अपने पिता का बदला अच्छी तरह से लूँगा।’’

माँ ने बालक को बहुत मनाया कि यह इसके लिए घातक होगा। वह अभी बालक है। लेकिन अष्टावक्र नहीं माने। वह अपने मामा श्वेतकेतु को साथ लेकर राजा जनक के नगर की ओर चल पड़ा। उस समय जनक के वहाँ महायज्ञ हो रहा था। उसमें भाग लेने के लिए देश भर से अनेक पण्डित बुलाए गए थे। अष्टावक्र सीधे राजप्रसाद की ओर पहुँच गए। लेकिन द्वारपाल ने अन्दर जाने से रोक दिया। उसने कहा कि वृद्ध और चतुर ब्राह्मण ही यज्ञ में जाने के अधिकारी हैं। बालकों को इसके अन्दर जाने का अधिकार नहीं है। अष्टावक्र ने अनेक प्रकार से द्वारपाल से वाद-विवाद किया। अन्त में उन्होंने कहा ‘‘द्वारपाल ! सिर के बाल सफेद होने से कोई मनुष्य वृद्ध नहीं हो जाता। जो व्यक्ति बालक होकर भी ज्ञानी है उसे ही देवताओं ने स्थविर कहा है। अगर ऋषियों के द्वारा स्थापित धर्म के अनुसार विचार करो तो अवस्था से, बाल पकने से, धन से या बन्धुओं के अधिक होने से मनुष्य को कोई महत्त्व नहीं मिलता है। सांगोपांग वेद को जानने वाले विद्वान् ही महत् और वृद्ध हैं। हम तुम्हारे महापण्डित वंदिन को देखने आए हैं। हम उस वंदिन को शास्त्रार्थ में परास्त करके विद्वानों को चकित कर देंगे। तब तुम्हें हमारी मेधा के बारे में मालूम होगा’’ तब कहीं द्वारपाल ने अष्टावक्र को अन्दर जाने दिया।

अष्टावक्र दरबार में भीतर चले गये। महापण्डित भीतर इकट्ठे थे। पण्डितों ने उसे देखा। उसका आठ भागों से टेढ़ा-मेढ़ा शरीर। वह चलता तो भी लोगों को देखकर हँसी आ जाती। उनका चलना भी बड़ा हास्यपद था। सारी सभा अष्टावक्र को देखकर हँसने लगी। अष्टावक्र भी खिलखिलाकर हँसा। जनक को विचित्र लगा। उन्होंने पूछा, और सब हँसते हैं, वह तो मैं समझ गया कि क्यों हँसते हैं। परंतु बालक तुम क्यों हँसे ?
बारह वर्ष के बालक अष्टावक्र ने कहा ‘‘मैं इसलिए हँस रहा हूँ कि चमड़े के पारखियों (मूर्खों) की सभा में सत्य का निर्णय हो रहा है। यह सभी सुनकर सन्न रह गये। सभा में सन्नाटा छा गया। महापण्डितों की जमात तिलमिला उठी। सम्राट् जनक ने धैर्य पूर्वक पूछा ‘‘धृष्ट बालक ! तुम्हारा मतलब क्या है ?’’ अष्टावक्र जरा भी विचलित नहीं हुआ। उसने जवाब दिया ‘‘बड़ी सीधी-सी बात है। इनको चमड़ी ही दिखाई पड़ती है। मैं नहीं दिखाई पड़ता। इनको आड़ा-टेढ़ा शरीर दिखाई पड़ता है। ये चमड़ी के पारखी हैं। इसलिए ये चमार हैं। राजन् ! मन्दिर के टेढ़े होने से कहीं आकाश टेढ़ा होता है ? घड़े के फूटे होने से कहीं आकाश फूटता है ? आकाश तो निर्विकार है। मेरा शरीर टेढ़ा-मेढ़ा है, लेकिन मैं तो नहीं। यह जो भीतर बसा है इसकी तरफ देखो।’’ बालक के मुख से ज्ञानपूर्ण उपहास सुनकर सभी पण्डित हतप्रभ और लज्जित रह गये। उन्हें अपने अहंकार और मूर्खता पर अत्यन्त पश्चाताप हुआ।

अष्टावक्र ने राजा जनक से कहा—हे राजन् ! अब मैं आपके उस मेघावी राजपण्डित से मिलना चाहता हूँ, जो पण्डितों के बीच में भय बना हुआ है। उसी से शास्त्रार्थ करने की इच्छा से मैं यहाँ आया हूँ। मैं अद्वैत ब्रह्मवाद के विषय में उससे वार्ता करूँगा। राजा जनक ने कई तरह से उसे विचलित करने के लिए डराया और समझाया। शास्त्रार्थ के विचार को त्याग देने के लिए कहा लेकिन अष्टावक्र अडिग रहा और स्वर कठोर करके कहा—‘‘हे राजन् ! बालक कहकर आप मुझे हीन क्यों कहते हैं ? मेरा आग्रह है कि आप वंदिन को शास्त्रार्थ के लिए बुलाइए फिर आप देखेंगे कि मैं उसको किस प्रकार परास्त करता हूँ।’’ राजा को विश्वास होने लगा कि यह बालक असाधारण है। उन्होंने परीक्षा के लिए कुछ प्रश्न किये।

जनक ने पूछा—हे ब्राह्मणपुत्र ! जो मनुष्य तीस अंग वाले, बारह अंश वाले, चौबीस पर्व वाले, तीन सौ साठ आरे वाले पदार्थ के अर्थ को जानता है वही सबसे बड़ा पण्डित है।’’
अष्टावक्र ने तुरन्त उत्तर दिया, ‘‘हे राजन् ! चौबीस पर्व छः नाभि, बारह प्रधि और तीन सौ साठ आरे वाला वही शीघ्रगामी कालचक्र आपकी रक्षा करे।’’
राजा जनक ने फिर कहा, ‘‘जो दो वस्तुएँ अश्विनी के समान से संयुक्त और बाज पक्षी के समान टूट पड़ने वाली हैं उनका देवताओं में से कौन देवता गर्भाधान कराता है ? वे वस्तुएँ क्या उत्पन्न करती हैं ?’’
अष्टावक्र ने कहा ‘‘ हे राजन् ! ऐसी अशुभ वस्तुओं की आप कल्पना भी न करें। वायु उनका सारथी है, मेघ उनका जन्मदाता है। फिर वे भी मेघ को उत्पन्न करती हैं।’’
राजा जनक ने पूछा, ‘‘सोते समय आँख कौन नहीं मूँदता ? जन्म लेकर कौन नहीं हिलता ? हृदय किसके नहीं है ? और कौन सी वस्तु वेग के साथ बढ़ती है ?’’
अष्टावक्र ने कहा, ‘‘मछली सोते समय अपनी आँख नहीं मूँदती। अण्डा उत्पन्न होकर नहीं हिलता। पत्थर के हृदय नहीं होता। नदी वेग से बढ़ती है।’’
अष्टावक्र के वचनों को सुनकर राजा जनक प्रसन्न हो गये। उन्होंने उस ब्राह्मण बालक के हाथ जोड़कर कहा—‘‘हे ब्राह्मणपुत्र ! आपकी जैसी अवस्था है वैसे आप बालक नहीं हैं। ज्ञान में आप निश्चित ही वृद्ध हैं। मुझे आपकी मेधा पर निश्चित ही विश्वास हो गया है। आप जाइए, इस मण्डप के भीतर महापण्डित वंदिन बैठे हैं। उनके सामने बैठकर शास्त्रार्थ प्रारम्भ कीजिये।’’
अष्टावक्र ने अन्दर पहुँचकर वंदिन को शास्त्रार्थ के लिये ललकारा। वंदिन देखकर चौंक पड़ा। बिना उत्तर दिये उसकी नादानी पर हँसा। अष्टावक्र ने कहा—हे महाभिमानी पण्डित वंदिन। कायरों की भाँति चुप क्यों बैठा है। आ मेरे सामने शास्त्रार्थ कर।’’
वंदिन ने अपमानपूर्ण वाणी सुनकर आवेश में प्रश्न प्रारम्भ किये। उसने कहा, ‘‘एक अग्नि कई प्रकार से प्रज्वलित की जाती है। सूर्य एक होकर भी सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करता है। एक वीर इन्द्र सब शत्रुओं का नाश करता है और यमराज सब पितरों के स्वामी हैं।’’
अष्टावक्र ने कहा—‘‘इन्द्र और अग्नि दोनों सखा के रूप में साथ-साथ विचरते हैं। नारद और पर्वत दोनों देवर्षि हैं। अश्विनीकुमार दो हैं। रथ के पहिये दो होते हैं ! और विधाता के विधान के अनुसार स्त्री और पति दो व्यक्ति होते हैं। फिर वंदिन बोला—‘‘कर्म से तीन प्रकार के जन्म होते हैं। तीन वेद मिलकर वाजपेय यज्ञ को सम्पन्न करते हैं। अव्वर्यु गण तीन प्रकार के स्नानों की विधि बताते हैं। लोक तीन प्रकार के हैं और लोक तीन प्रकार के हैं और ज्योंति के भी तीन भेद कहे गये हैं।’’

अष्टावक्र ने उत्तर दिया—‘‘ब्राह्मणों के आश्रम चार प्रकार के हैं। चार वर्ण यज्ञ को सम्पन्न करते हैं। दिशाएँ चार हैं। वर्ण चार प्रकार के हैं। और गाय के चार पैर होते हैं।’’
वंदिन ने कहा, ‘‘अग्नि पाँच हैं। पंक्ति द्वंद्व में पाँच चरण होते हैं। यज्ञ पाँच प्रकार के हैं। वेद में चैत्नय प्रमाण विकल्प, विपर्यय, निद्र और स्मृति ये पाँच प्रकार की वृत्तियाँ कही गई हैं। और पंचनद देश सर्वत्र पवित्र कहा गया है।’’
फिर अष्टावक्र ने कहा—‘‘अग्न्याधान की दक्षिणा में छः गोदान की विधि है। ऋतुएँ छः हैं। इन्द्रियाँ छः हैं और सारे वेद में छः साद्यस्क यज्ञ की विधि का वर्णन है।’’
वंदिन बोला,‘‘ ग्राम्य पशु सात प्रकार के होते हैं। वन के पशु भी सात प्रकार के होते हैं। सात छन्दों से एक यज्ञ सम्पन्न होता है। ऋषि सात हैं। पूजनीय सात हैं और वीणा का नाम सप्ततंत्री है।’’
अष्टावक्र ने कहा—‘‘ आठ गोपों का एक शतमान होता है। सिंह को मारने वाले शरभ के आठ पैर होते हैं। देवताओं में आठ वसु हैं। और सभी यज्ञों में आठ पहर का यूप होता है।’’
वंदिन ने उत्तर दिया, ‘‘पितृ यज्ञ में नौ समधेनी होती है। नौ भागों से सृष्टि क्रिया होती है। बृहती छंद के चरण में नौ अक्षर होते हैं। और गणित के अंक नौ हैं।’’
अष्टावक्र ने कहा, ‘‘दिशाएँ दस हैं। दस सैकड़ों का एक हजार होता है। स्त्रियों का गर्भ दस महीने में पूर्णावस्था को पहुँचता है। तत्व के उपदेसक दस हैं। अधिकारी दस हैं। और द्वेष करने वाले भी दस हैं।
वंदिन बोला—‘‘इंद्रियों के विषय ग्यारह प्रकार के होते हैं। ग्यारह विषय ही जीव रूपी पशु के बन्धन स्तम्भ हैं। प्राणियों के विकार ग्यारह प्रकार के हैं। और रुद्र ग्यारह प्रसिद्ध हैं।’’
अष्टावक्र ने उत्तर दिया—‘‘वर्ष बारह महीने में पूर्ण होता है। जगती द्वंद्व के बारह अक्षर होते हैं। बारह दिनों में प्राकृत यज्ञ पूरा होता है। और आदित्य सर्वत्र विख्यात है।’’
फिर वंदिन बोला—‘‘त्रयोदशी तिथि पुण्यतिथि कहीं गयी है। पृथ्वी के तेरह द्वीप हैं।’’ बस इतना कहकर वंदिन चुप पड़ गया

उसको आगे बोलते न देख अष्टावक्र ने विषय की पूर्ति करते हुए कहा—आत्मा के भोग तेरह प्रकार के हैं। और बुद्धि आदि तेरह उसकी रुकावटें हैं।
बस इतना सुनते ही वंदिन ने अपना सिर झुका लिया। दूसरे ही क्षण सभा में कोलाहल मच गया। सभी अष्टावक्र की जय-जयकार करने लगे। आज महात्मा कहोड़ की आत्मा किसी अज्ञात लोक से अपने पुत्र अष्टावक्र को कितना आशीर्वाद दे रही होगी। सभी उपस्थित ब्राह्मण हाथ जोड़कर अष्टावक्र की वंदना करने लगे। तब अष्टावक्र ने कहा ‘‘हे ब्राह्मणों ! मैंने इस अहंकारी वंदिन को आज परास्त कर दिया है। इस अत्याचारी ने कितने ही पुण्यात्मा ब्राह्मणों को पराजित करके पानी में डुबवा दिया है। इसलिए मैं भी आज्ञा देता हूँ कि इस पराजित वंदिन को उसी तरह पानी में डुबा दिया जाय।’’
अष्टावक्र राजा जनक की आज्ञा की प्रतीक्षा करने लगा। राजा स्तब्ध बैठे थे। अष्टावक्र क्रुद्ध होने लगा और कहा कि आप डुबाए जाने की आज्ञा क्यों नहीं देते। इस तरह चुप बैठे रहना मेरा अपमान है। राजा जनक ने अत्यन्त विनीत स्वर में कहा ‘‘हे ब्राह्मण ! आप साक्षात् ब्रह्मा हैं। इसलिए मैं आपके इस कठोर स्वर को भी सुन रहा हूँ। आपने वंदिन को जिस प्रकार की आज्ञा दी है उसका मैं समर्थन करता हूँ।’’

वंदिन ने आज्ञा स्वीकार करते हुए कहा इससे मेरा उपकार होगा। मुझे अपने पिता वरुण का दर्शन होगा। अष्टावक्र की ओर मुड़कर वंदिन ने कहा, ‘‘हे ऋषि अष्टावक्र ! आप महान हैं। सूर्य के समान दीप्यमान आपकी मेधा है। और अग्नि के समान आपका तेज है। मैं चलते समय आपको वरदान देता हूँ कि आप इसी क्षण अपने स्वर्गीय पिता कहोड़ को फिर से जीवित अवस्था में पाएँगे। उनके साथ अन्य ब्राह्मण भी जल से निकल आयेंगे।’’
उसी क्षण अन्य ब्राह्मणों के साथ कहोड़ जल से बाहर निकल आये। उन्होंने राजा जनक की वंदना की। राजा ने प्रसन्न होकर अनेकों बहुमूल्य उपहार देकर उन्हें विदा किया। कहोड़, अष्टावक्र और श्वेतकेतु के साथ उद्यालक आश्रम में वापस आये। कहोड़ ने पत्नी सुजाता और अष्टावक्र को समंगा नदी में स्नान करने के लिए कहा। अष्टावक्र ने जाकर उस नदी में स्नान किया। उसी क्षण उसका कुबड़ापन दूर हो गया। वह सुन्दर शरीर वाले युवक की तरह जल से बाहर निकला।

राजा जनक अष्टावक्र के ज्ञान से अत्यन्त प्रभावित हुए थे। उन्हें अपनी पूर्व धारणा पर पश्चाताप था। अष्टावक्र की बातों ने उन्हें झकझोर दिया था। दूसरे दिन जब सम्राट् घूमने निकले तो उन्हें अष्टावक्र राह में दिख गये। उतर पड़े घोड़े से और अष्टावक्र को साष्टांग प्रणाम् किया। उन्होंने निवेदन किया, महापुरुष ! राजमहल में पधारें। कृपया मेरी जिज्ञासाओंका समाधान करें। राजमहल विशेष अतिथि के सत्कार के लिये सजाया गया। बारह वर्ष के अष्टावक्र को उच्च सिंहासन पर बैठाया गया। उससे जनक ने अपनी जिज्ञासाएँ बतायीं। जनक की जिज्ञासा पर ज्ञान का संवाद प्रवाहित हो चला। जनक अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत करते। अष्टावक्र उनको समझाते। जनक की जिज्ञासाओं के समाधान में अष्टावक्र अपना ज्ञान उड़ेलते गये। ज्ञान की गंगा बह चली। जनक अष्टावक्र का संवाद 298 सूत्र-श्लोकों में निबद्ध हुआ है।

इस प्रकार अष्टावक्र गीता की रचना हुई। अध्यात्म ज्ञान का अनुपम शास्त्र ग्रंथ रचा गया। इसमें 82 सूत्र जनक द्वरा कहे गये हैं और शेष 216 अष्टावक्र के मुख से प्रस्फुटित हुए हैं। यह ग्रंथ अष्टावक्र संहिता के नाम से भी जाना जाता है।
संवाद का प्रारम्भ जनक की जिज्ञासा से हुआ है। सचेतन पुरुष की अपने को जानने की शाश्वत जिज्ञासा। वही तीन मूल प्रश्न की-
पुरुष को ज्ञान कैसे प्राप्त होता है ?
मुक्ति कैसे होगी ?
वैराग्य कैसे प्राप्त होगा ?
तीन बीज प्रश्न हैं ये। इन्हीं में से और प्रश्न निकलते हैं। इन प्रश्नों के उत्तर आकार फिर इन्हीं प्रश्नों में विलीन हो जाते हैं। इन प्रश्नों के संधान में खोजियों के खोज के अनुभव का ज्ञान अपार भण्डार सृजित हुआ है। अनेकानेक पथ और पंथ बन गये। भारत में अध्यात्म आत्मन्वेषण की परम्परा प्राचीनकाल से सतत सजीव है। इन प्रश्नों के जो समाधान-उपाय ढूँढ़े गये, उन्हें सामान्यतया तीन मुख्य धाराओं में वर्गीकृत किया जाता है। अर्थात् भक्ति मार्ग, कर्ममार्ग और ज्ञानयोग मार्ग। भागवत् गीता जो युद्धक्षेत्र-कर्मक्षेत्र में कृष्ण-अर्जुन का संवाद है, जो हिन्दुओं का शीर्ष ग्रन्थ है, में तीनों मार्गों को समन्वित किया गया है। समन्वयवादी दृष्टिकोण है कृष्ण की गीता का। भक्ति भी, ज्ञान भी, कर्म भी। जिसे जो रुचे चुन ले। इसलिए गीता की सहस्त्रों टीकाएँ हैं, अनेकानेक भाष्य हैं। सबने अपने-अपने दृष्टिकोण का प्रतिपादन गीता के भाष्य में किया है। अपने दृष्टिकोण की पुष्टि गीता से प्रमाणित की है। इसलिए गीता हिन्दुओं का गौरव ग्रंथ है, सर्वमान्य है।
परन्तु अष्टावक्र गीता एक निराला, अनूठा ग्रंथ है। सत्य का सपाट, सीधा व्यक्तव्य। सत्य जैसा है वैसा ही बताया गया है। शब्दों में कोई लाग-लपेट नहीं है। इतना सीधा और शुद्धतम व्यक्तव्य कि इसका कोई दूसरा अर्थ हो ही नहीं सकता। इसमें अपने-अपने अर्थ खोजने की गुंजाइश ही नहीं है। जो है, वही है। अन्यथा नहीं कहा जा सकता। इसलिए अष्टावक्र गीता के भाष्य नहीं है, विभिन्न व्याख्याएँ नहीं है।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK