Monday, September 27, 2010

Master student stories (गुरु-शिष्य कथाएं)

Master student stories (गुरु-शिष्य कथाएं)
नैना अंतरि आव तूं
भारत की महान अध्यात्मिक परम्परा में श्री रामकृष्ण परमहंस का नाम अमर है, और अमर है नाम उन्हीं के द्वारा प्राप्त उनके शिष्य विवेकानंद का।

स्वामी विवेकानंद किस प्रकार में गुरुत्व को उतार कर, साक्षात श्री रामकृष्ण परमहंस का 'मुख' ही कहेलाने के बाद भी अंतिम क्षणों तक केवल शिष्य ही बने रहे, इसके संदर्भ में एक घटना का विवरण रोचक रहेगा।

... प्रारम्भ के दिन थे जब स्वामी विवेकानंद, स्वामी विवेकानंद नहीं वरन नरेंद्र दत्त और अपने गुरु के लिए केवल नरेन् ही थे। नरेन् अपने गुरुदेव से मिलने प्रायः दक्षिणेश्वर आया करते थे और गुरु शिष्य की यह अमर जोड़ी पता नहीं किन-किन गूढ़ विषयों के विवेचन में लीन रहकर परमानंद का अनुभव करती थी। एक बार पता नहीं श्री रामकृष्ण को क्या सूझा, कि उन्होनें नरेन् के आने पर उससे बात करना तो दूर, उसकी ओर देखा तक नहीं। स्वामी विवेकानंद थोडी देर बैठे रहे और प्रणाम करके चले गए। अगले दिन भी यही घटना दोहराई गई और अगले तीन-चार दिनों तक यही क्रम चलता रहा। अन्ततोगत्वा श्री रामकृष्ण परमहंस ने ही अपना मौन तोडा और स्वामी विवेकानंद से पूछा

"जब मैं तुझसे बात नहीं करता था तो तू यहां क्या करने आता रहा?"
Jai Guru Geeta Gopal....MMK

प्रत्युत्तर में स्वामी विवेकानंद ने श्री रामकृष्ण परमहंस को ( जिन्हें वे 'महाराज' से सम्भोधित करते थे) कुछ आश्चर्य से देखा और सहज भाव से बोल पड़े-

"आपको क्या करना है, क्या नहीं करना है, वह तो महाराज आप ही जाने। मैं कोई आपसे बात करने थोड़े ही आता हूं... मैं तो बस आपको देखने आता हूं... "

... और गुरु को केवल देख-देख कर ही स्वामी विवेकानंद कहां पहुंच गए इसको स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं है। वास्तव में जिसे स्वामी विवेकानंद ने 'देखना' कहा वह निहारना था गुरुदेव को। जिसने गुरुदेव को 'निहारने' की कला सीख ली फिर उसे और कुछ करने की आवश्यकता ही कहां? दृष्टि भी एक पथ ही होती है जिस पर जब शिष्य अपने आग्रह के पुष्प बिखेर देता है तो गुरुदेव अत्यन्त प्रसन्नता से उस पथ पर अपने पग रखते हुए स्वयंमेव आकर शिष्य के ह्रदय में समा जाते है।

मैं भक्तन को दास

एक संत थे जिनका नाम था जगन्नाथदास महाराज। वे भगवान को प्रीतिपूर्वक भजते थे। वे जब वृध्द हुए तो थोड़े बीमार पड़ने लगे। उनके मकान की उपरी मंजिल पर वे स्वयं और नीचे उनके शिष्य रहेते थे। रात को एक-दो बार बाबा को दस्त लग जाती थी, इसलिए "खट-खट" की आवाज करते तो कोई शिष्य आ जाता और उनका हाथ पकड़कर उन्हें शौचालय मै ले जाता। बाबा की सेवा करनेवाले वे शिष्य जवान लड़के थे।

एक रात बाबा ने खट-खटाया तो कोई आया नही। बाबा बोले "अरे, कोई आया नही ! बुढापा आ गया, प्रभु !"
इतने में एक युवक आया और बोला "बाबा ! मैं आपकी मदत करता हूं"

बाबा का हाथ पकड़कर वह उन्हें शौचालय मै ले गया। फिर हाथ-पैर घुलाकर बिस्तर पर लेटा दिया।
जगन्नाथदासजी बोले "यह कैसा सेवक है की इतनी जल्दी आ गया ! इसके स्पर्ष से आज अच्छा लग रहा है, आनंद-आनंद आ रहा है"।

जाते-जाते वह युवक लौटकर आ गया और बोला "बाबा! जब भी तुम्ह ऐसे 'खट-खट' करोगे न, तो मैं आ जाया करूंगा। तुम केवल विचार भी करोगे की 'वह आ जाए' तो मैं आ जाया करूँगा"

बाबा: "बेटा तुम्हे कैसे पता चलेगा?"
युवक: "मुझे पता चल जाता है"
बाबा: "अच्छा ! रात को सोता नही क्या?"
युवक: "हां, कभी सोता हूं, झपकी ले लेता हूं। मैं तो सदा सेवा मै रहता हूं"

जगन्नाथ महाराज रात को 'खट-खट' करते तो वह युवक झट आ जाता और बाबा की सेवा करता। ऐसा करते करते कई दिन बीत गए। जगन्नाथदासजी सोचते की 'यह लड़का सेवा करने तुरंत कैसे आ जाता है?'

एक दिन उन्होंने उस युवक का हाथ पकड़कर पूछा की "बेटा ! तेरा घर किधर है?"
युवक: "यही पास मै ही है। वैसे तो सब जगह है"
बाबा: "अरे ! ये तू क्या बोलता है, सब जगह तेरा घर है?"

बाबा की सुंदर समाज जगी। उनको शक होने लगा की 'हो न हो, यह तो अपनेवाला ही, जो किसीका बेटा नही लेकिन सबका बेटा बनने को तैयार है, बाप बनने को तैयार है, गुरु बनने को तैयार है, सखा बनने को तैयार है...'

बाबा ने कसकर युवक का हाथ पकड़ा और पूछा "सच बताओ, तुम कौन हो?"
युवक: "बाबा ! छोडिये, अभी मुजे कई जगह जाना है"
बाबा: "अरे ! कई जगह जाना है तो भले जाना, लेकिन तुम कौन हो यह तो बताओ"
युवक: "अच्छा बताता हूं"

देखते-देखते भगवन जगन्नाथ का दिव्य विग्रह प्रकट हो गया।

"देवधि देव ! सर्वलोके एकनाथ ! सभी लोकों के एकमात्र स्वामी ! आप मेरे लिए इतना कष्ट सहते थे ! रात्रि को आना, शौचालय ले जाना, हाथ-पैर धुलाना..प्रभु ! जब मेरा इतना ख्याल रख रहे थे तो मेरा रोग क्यो नही मिटा दिया ?"

तब मंद मुस्कुराते हुए भगवन बोले "महाराज ! तीन प्रकार के प्रारब्ध होते है: मंद, तीव्र, तर-तीव्र, मंद प्रारब्ध। सत्कर्म से, दान-पुण्य से भक्ति से मिट जाता है। तीव्र प्रारब्ध अपने पुरुषार्थ और भगवन के, संत महापुरुषों के आशीर्वाद से मिट जाता है। परन्तु तर-तीव्र प्रारब्ध तो मुझे भी भोगना पड़ता है। रामावतार मै मैंने बलि को छुपकर बाण मारा था तो कृष्णावतार में उसने व्याध बनकर मेरे पैर में बाण मारा।

तर-तीव्र प्रारब्ध सभीको भोगना पड़ता है। आपका रोग मिटाकर प्रारब्ध दबा दूँ, फिर क्या पता उसे भोगने के लिए आपको दूसरा जन्म लेना पड़े और तब कैसी स्तिथि हो जाय? इससे तो अच्छा है अभी पुरा हो जाय...और मुझे आपकी सेवा करने में किसी कष्ट का अनुभव नही होता, भक्त मेरे मुकुटमणि, मैं भक्तन का दास"

"प्रभु ! प्रभु ! प्रभु ! हे देव हे देव ! ॥" कहेते हुए जगन्नाथ दास महाराज भगवान के चरणों मै गिर पड़े और भावान्मधुर्य मै भाग्वात्शंती मै खो गए। भगवान अंतर्धान हो गए।

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