Thursday, September 2, 2010

Actual knowledge(वास्तविक ज्ञान )

वास्तविक ज्ञान
कनखल के समीप गंगा किनारे महर्षि भारद्वाज और महर्षि रैभ्य के आश्रम थे। दोनों में मित्रता थी। रैभ्य और उनके दोनों पुत्र परम विद्वान् थे तथा लोक में सम्मानित भी। भारद्वाज तपस्वी थे, किन्तु अध्ययन में रूचि न थी। भारद्वाज के पुत्र यवक्रीत भी पिता की भांति अध्ययन से दूर रहे। जब उन्होनें रैभ्य और उनके पुत्रों की ख्याति देखि, तो वैदिक ज्ञान प्राप्त करने की कामना से उन्होनें उग्र तप प्रारंभ कर दिया। देवराज इन्द्र जब उपस्थित होकर कथूर तप का कारण पूछा, तो यवक्रित ने कहा - गुरु के मुख से वेदों की सम्पूर्ण शिक्षा शीघ्रता से नहीं पाई जा सकती। अतः कठोर तप से शास्त्र ज्ञान पाना चाहता हूं। इंद्र ने सलाह दी, यह उलटा मार्ग है, आप योग्य गुरु के सान्निध्य में अध्ययन कर शास्त्र ज्ञान प्राप्त करें। इंद्र चले गए, किन्तु यवक्रित ने भी तप जारी रखा। एक दिन इंद्र वृद्ध ब्राह्मण के वेश में उस स्थान पहुंचे, जहां से यवक्रित गंगा में स्नान के लिए उतरते थे। यवक्रित जब स्नान कर लौटे, तो देखा वृद्ध ब्राह्मण मुट्ठी भर-भरकर गंगा में रेत डाल रहा है।

यवक्रित ने कारण पूछा तो वृद्ध ब्राह्मण ने उत्तर दिया - लोगों को यहां गंगा के उस पार जाने में असुविधा होती है, अतः मैं इस रेत से नदी पर सेतु निर्माण कर रहा हूं। यवक्रित ने कहा - भगवन! इस महाप्रवाह को बालूरेत बांधना असंभव है। आप निष्फल प्रयत्न कर रहे है। तब वृद्ध ब्राह्मण ने यवक्रित से कहा - ठीक उसी तरह तुम उग्र तप से गुरु के बगैर वैदिक ज्ञान प्राप्त करना चाहते हो। तत्काल यवक्रित ने ब्राह्मण को पहचान लिया। यवक्रित ने इंद्र से क्षमा मांगी और स्वीकारा कि गुरु के बगैर ज्ञान असंभव है। विशेषकर यदि उसमे हठ और अंहकार है, तब तो वह सम्भव हो ही नहीं सकता। विद्या के लिए गुरु कि कृपा और निरन्तर अध्ययन अनिवार्य है। यदि कोई हठ कर स्वयं ही विद्या प्राप्त करने का प्रयास करे तो उसके प्रयास निष्फल होने का खतरा बना रहता है। अतः गुरु कृपा की अनदेखी नहीं करनी चाहिए।

केवल, और केवल गुरु का ही कार्य है कि वह शिष्य को उचित ज्ञान प्रदान करें। शास्त्रों में जप-तप-भजन-ध्यान-धारणा, सब का विवेचन आया है, लेकिन अन्ततः निष्कर्ष यही निकलता है कि गुरु के श्रीमुख से प्राप्त ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान होता है और उसी ज्ञान से भौतिक जीवन में तथा आध्यात्मिक जीवन में सिद्धि प्राप्त हो सकती है। केवल गुरु ही शिष्य के नेत्रों में ज्ञान की शलाका से अज्ञान का अन्धकार दूर कर सकते है। पुस्तकें तो लाखों है, चार वेद, छः वेदान्त, अठारह पुराण, १०८ उपनिषद् तथा हजारों मिमांसाएं हैं लेकिन सदगुरू के श्रीमुख से निकला हुआ एक वचन ही सब से भारी है।

ब्रह्मानन्दं परम सुखदम
सदगुरू को यही शब्द बोलकर नमस्कार किया जाता है। इस गुरु प्रणाम में गुरुदेव को पूर्ण आनंद और परम सुख प्रदान करने वाला कहा जाता है, क्योंकि गुरु रुपी भगवान् अथवा गुरुदेव में अधिष्ठित शिव अपनी क्रिया शक्ति द्वारा अर्थात दीक्षा द्वारा शिष्य के चक्षुओं के आगे फैले विकारों का, दोषों का नाश करते हैं, जिससे उसका पशुत्व दूर होकर शिष्यत्व आ सके - और जब वह शिष्यत्व शिष्य में समा जाता है, तभी वह अपना मार्ग समझ सकता है, उसके दिव्य ज्ञान रूपी चक्षु खुल जाते हैं।

जिस प्रकार सूर्य की रश्मियों से ही चन्द्रमा में प्रकाश है और वह प्रकाशवान दिखाई देता है , जबकि यह दृश्य प्रत्यक्षतः स्पष्ट दिखाई नहीं देता है कि सूर्य का प्रकाश चन्द्रमा पर और अन्य तारा मंडल पर पड़ रहा है और वे उसी से जगमगा रहे है ... यह सब अदृश्य रूप से होता है और यह बात ध्रुव सत्य है ... ठीक ऐसा ही शिष्य का जीवन भी होता है। गुरु के श्रीमुख से प्राप्त ज्ञान द्वारा ही वह प्रकाशवान अर्थात ज्ञानवान, शास्त्र ज्ञाता हो सकता है। इसके लिए सदगुरू रुपी प्रकाशपुंज आवश्यक है जो अपनी रश्मियों का एक छोटा सा भाग देकर उसे प्रकाशवान बनाते है। केवल शास्त्रों के पठन से ज्ञान प्राप्त नहीं होता है।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

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