Tuesday, August 24, 2010

Laya Yoga(लय-योग)

लय-योग
सदाशिवोक्तानि सपादलक्ष- लयावधानानि वसन्ति लोके। योग-तारावली॥

अर्थात् भगवान सदाशिवजी ने एक लाख पचीस हजार प्रकार का लय-योग बताया है। परन्तु योगी-गण साधारणतः चार प्रकार के लय योग का अभ्यास करते हैं। वे इस प्रकार हैं- शाम्भवी-मुद्रा से ध्यान लगाना, खेचरी-मुद्रा से अमृत-पान करना, भ्रामरी-मुद्रा से नाद को सुनना और योनि-मुद्रा से आनन्द भोग करना। इन चार प्रकार के उपायों द्वारा लय योग की सिद्धि करते है। इन चार प्रकार के लय-योगों का और भी सहज-कौशल सिद्ध-योगियों ने प्रकट किया है। उन्होंने लय-योग के अन्दर नादानुसन्धान, आत्म-ज्योति-दर्शन और कुण्डलिनि-जागरण- इन्हीं तीन प्रकार की प्रक्रियाओं को श्रेष्ठ और सुख-साध्य बतलाया है। इनमें कुण्डलिनि- जागरण कुछ कठिन है। क्रिया-विशेष का अवलम्बन कर मूलाधार को सिकोड़ कर जागती हुई कुण्डलिनि-शक्ति को ऊपर उठाया जाता है। यह विषय किसी योग्य गुरू से ही सीखना चाहिये। लय-योग में नादानुसन्धान और आत्म-ज्योति-दर्शन का काम बहुत सीधा तथा आराम से होने वाला है। अगर साधक का मस्तिष्क कमजोर हो तथा उसे आँखों की बीमारी हो तो उसे आत्म-ज्योति-दर्शन का अभ्यास नहीं करना चाहिये। नाद-साधन ही सबसे सरल और सुगम मार्ग है। कृष्ण्द्वैपायनादि-ॠषि नव-चक्र में लय-योग का साधन करके यम-दण्ड को तोड़कर ब्रह्म-लोक में जा पहुँचे थे। धीरे-धीरे लय-योग की साधना के द्वारा मन अति शीघ्र लय हो जाता है। लय-योग की साधना विशेष उच्चस्तर की साधना है। इसके आविष्कर्ता परम योगी जगत्-गुरू भगवान-शिव हैं। जप-योग से सौ-गुना फलदायक ध्यान-योग है और ध्यान-योग से सौ-गुना फलदायक लय-योग है। अतः जपादि की अपेक्षा सबको किसी भी प्रकार के लय-योग की साधना करनी चाहिये।

नादानुसन्धान- साधक को यम- नियम से शुद्ध होकर योग-साधना के स्थान पर उत्तर दिशा की ओर मुँह करके आसन लगाकर बैठ जाना चाहिये। जिन्हें निर्वाण-मुक्ति की इच्छा हो उन्हें उत्तर दिशा की ओर मुँह करके बैठना चाहिये; परन्तु जिन्हें सांसारिक उन्नति की इच्छा हो, उनके लिये तो पूर्व दिशा की ओर मुँह करके बैठना ही उचित है। जिसे जिस आसन का अभ्यास हो, उसे वही आसन लगाकर मस्तक, गर्दन, पीठ और उदर को बराबर सीधा रखकर, अपने शरीर को सीधा करके बैठ जाना चाहिये। तत्पश्चात् नाभि-मण्डल में दृष्टि जमाकर कुछ देर तक ध्यान लगाना चाहिये। इस भाव से नाभि के ऊपर दृष्टि और मन लगाकर बैठने से कुछ दिन बाद मन स्थिर हो जायगा। मन स्थिर करने का ऐसा सरल उपाय दूसरा ओर नहीं है।

उपर्युक्त विधि से मन स्थिर करते समय यदि थोड़ी-थोड़ी वायु भी धारण की जाय तो नाद-ध्वनि बहुत ही जल्द सुनाई पड़ती है। पहले झींगुर की झन्-झनाहट जैसा या भृंग़ी जैसा झिं-झिं शब्द सुनायी देगा। उसके बाद क्रमशः साधना करते-करते एक के बाद एक बंशी की तान, बादल की गर्जन, झाँझ की झंकार, भँवरें की गुंजार, घण्टा, घड़ियाल, तुरही, करताल, मृंदग़ प्रभृति नाना प्रकार के बाजों के शब्द सुनाई पड़ेंगे। ऐसे ही रोज अभ्यास करते हुए नाना प्रकार की ध्वनियॉ सुनाई देती हैं। ऐसी ध्वनि सुनते-सुनते कभी शरीर रोमांचित हो जाता है; कभी किसी प्रकार का शब्द सुनने से सिर चक्कर खाने लगता है; कभी कण्ठ कूप जल से पूर्ण हो जाता है।

लेकिन साधक को किसी ओर ध्यान न देकर अपनी साधना करते रहना चाहिये। मधु पीने वाला भौंरा जैसे पहले मधु की सुगन्ध से आकृष्ट होता है, किन्तु मधु पीते समय मधु के स्वाद में इतना डूब जाता है कि उस समय उसका सुगन्ध की ओर तनिक भी ध्यान नहीं रहता, वैसे ही साधक को भी नाद की ध्वनि से मोहित न होकर शब्द सुनते-सुनते चित्त को लय कर देना चाहिये।

आत्म-ज्योति दर्शन– नादानुसन्धान का अभ्यास करने पर हृदय के अंदर से अभूत-पूर्व शब्द और उससे द्रुत प्रति-शब्द कान में सुनाई देगा। उस समय साधक को आँखें बंद करके अनाहत-चक्र में स्थित बाणलिग़ के रूप में दीप-शिखा की भाँति ज्योति का ध्यान करना चाहिये। ऐसे ही ध्यान लगाते-लगाते अनाहत-पदमस्थ प्रतिध्वनि के भीतर ज्योतिः दर्शन होगा। उस दीप-कलिका के आकार में ज्योतिर्मय-ब्रह्म में साधक का मन संयुक्त होकर ब्रह्म-रूपी विष्णु के परम-पद में लीन हो जायेगा। उस समय शब्द बन्द हो जायेगा तथा मन आत्म-तत्त्व में डूब जायेगा। साधक सर्व-व्याधि से मुक्त होकर तेजो-युक्त हो अतुल-आनन्द का उपभोग करेगा। उस समय का वह भाव अनिर्वचनीय है, अवर्णनीय है, अलेखनीय है। नित्य-नियमित रूप से इसी तरह नाभि-स्थान में वायु धारण करने से प्राण-वायु अग्नि-स्थान में गमन करती है उस समय अपान- वायु द्वारा शरीरस्थ अग्नि क्रमशः उद्दीप्त हो उठती है। इस क्रिया से और एक विशेष लाभ होता है। जिसकी पाचन-शक्ति कम हो गयी है, कोई चीज बिलकुल ही हज़म नहीं होती, वह अगर इस क्रिया को ठीक विधि से करे तो थोड़े दिन बाद उसके शरीर का समुचित शोधन होकर पाचन-शक्ति बढ़ जायेंगी और कोष्ठ भी स्वच्छ होता जायेगा।

इस नाद- ध्वनि की साधना करते-करते अन्त में जो ॐकार ध्वनि सुनने में आती है। वह ध्वनि जब तक साधक जीवन धारण करता है, तब तक कभी बन्द नहीं होती। सदा-सर्वदा सर्वावस्था में अर्थात् जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति में नादध्वनि चलती ही रहती है, और इस प्रकार चित्-वृतियों का हमेशा-हमेशा के लिऐ पर-ब्रह्म में लय हो जाता है। सभी वासनायें समाप्त हो जाती हैं और साधक स्वयं ब्रह्म स्वरूप बन जाता है। यही लय-योग है।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

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